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है । तप में बाह्य - आभ्यंतर दोनों ही प्रकार के तप हैं। बाह्य के साथ आभ्यंतर तप भी जोडे और निर्जरा का प्रमाण द्विगुणित चतुर्गुणित करें। जिससे मोक्ष और ज्यादा समीप आ सके ।
इसलिए एकान्तवाद का त्याग करें । एकान्तरूप से निश्चय का लोप करके व्यवहार न चलाए, और एकान्त व्यवहार ही चलाते हुए निश्चय को भी उडा न दे । अनेकान्तवाद को अच्छी तरह समझते हुए उभय धर्म को साथ रखे, गाडी के पहिए की तरह साथ चलाए । नंदिसूत्र आगमशास्त्र के वचन को याद करिए — “ नाण किरियाहिं मोक्खो” ज्ञान और क्रिया उभय मार्ग की समानान्तर साधना से ही मोक्ष की प्राप्ति संभव है। दोनों से एक का भी लोप करें तो भी नहीं चलता । ज्ञान - निश्चयात्मक मार्ग है । और क्रिया यह व्यवहार मार्ग है। अतः दोनों साथ ही चलने चाहिए। संवर - निर्जरा क्रियात्मक है । आभ्यन्तर तप ज्ञान भी साथ ही शामिल है। जैन दर्शन की यह विशेषता है कि कभी भी .. एकान्त ज्ञानात्मक मुक्ति भी नहीं मानी है, और एकान्त क्रियात्मक मुक्ति भी नहीं मानी है | अतः ज्ञान और क्रिया, निश्चय और व्यवहारत्मक उभयमार्ग की संयुक्त साधना से मुक्ति संभव मानी है । नैयायिक वैशेषिकों ने एकान्त ज्ञानमार्ग से मुक्ति ज्ञानात्मक मानी है । सांख्य दर्शन भी एकान्त रूप से पंचविंशति तत्त्वज्ञान से ही मुक्ति मानकर चलता है । जबकि जैन धर्म में एकान्तवाद सर्वथा वर्ज्य - त्याज्य ही माना गया है। ग्राह्य एक मात्र अनेकान्तवाद ही है । अतः ज्ञान–क्रिया, निश्चय - व्यवहार उभय संयुक्त रूप ही मोक्षप्रदायक सिद्ध होते हैं । इसलिए साधक को दोनों मार्गों की साधना संयुक्त रूप से साथ ही करनी चाहिए । एक का भी अपलाप नहीं करना चाहिए ।
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निरालंबन ध्यान
निर्गतं आलंबनमिति निरालम्बनम् । अर्थात् किसी भी प्रकार के आलंबन के निकल जाने, न रहने की अवस्था को निरालंबन ध्यान कहते हैं। सालंबन से ठीक विपरीत कक्षा का यह ध्यान है । सालंबन में परमात्मा का आलंबन लेकर, रखकर ही ध्यान में आगे बढा जाता है परन्तु यह निरालंबन ध्यान न तो अरिहंत का, न सिद्ध का किसी भी प्रकार का आलंबन लिये बिना सीधा ही चरम कक्षा का ध्यान करने की कोशिश करता है । अतः वह निष्फल जाता है
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* जिस ध्यान के केन्द्र में परमात्मा है वह सालंबन ध्यान है ।
* नमस्कार महामंत्र की अर्थभावना पूर्वक की सक्रिय आराधना सालंबन ध्यान है ।
आध्यात्मिक विकास यात्रा
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