________________
असंख्य प्रदेशी होने पर भी आत्मा नाम कर्म के उदय से शरीर धारण करके सशरीरी प्राणी कहलाती है। शुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से आत्मा राग-द्वेष के विकल्पों से रहित है, फिर भी अशुद्ध नय से शुभाशुभ कर्मों को भुगतती है। शुद्ध निश्चय नय से आत्मा अनन्त - ज्ञान - दर्शनादि गुणों को धारण करनेवाली होने के कारण सिद्ध स्वरूपी ही है, परन्तु व्यवहार नय से कर्मोंपाधि की सत्ता के कारण निजात्मस्वरूप को न प्राप्त करने से जीवात्मक कहलाती है । आत्मा का मूल स्वभाव ऊर्ध्व गति करने का है, फिर भी कर्मों के वशीभूत होकर ऊँची-नीची - तिरछी गति भी ( गमन) करती है । पिण्डस्थ ध्यान में इस प्रकार नयों की दृष्टि से चिन्तन करना चाहिए ।
स्याद्वाद की सप्तभंगी से आत्मचिन्तन
नय अपने आप में एकांगी है। वे संपूर्ण रूप से सर्वांशग्राही नहीं है । एकांश ग्रहण करके कथन करते हैं तथा एक नय अपनी दृष्टि से जो कहना है वह कहकर दूसरे नय की अपेक्षा भी नहीं करता है । अतः अपने आंशिक सत्य को ही वह पूर्ण सत्य मान लेता है । ये निरपेक्ष है, अतः परिणामस्वरूप में संपूर्ण सत्यस्वरूप नहीं बना पाते हैं । इसलिए प्रमाणरूप नहीं कहलाते हैं ।
ठीक नयवाद से विपरीत प्रक्रिया स्याद्वाद में है । 'स्यात्' शब्द के साथ कथंचित् अर्थ में आंशिक सत्य कहकर भी प्रत्येक भंग दूसरे भंग की अपेक्षा करता है । इस तरह सातों भंग मिलकर मिलाकर जो पूर्ण स्वरूप प्रकट करते हैं वह सर्वांशिक सत्य बनता है । इसीलिए सप्तभंगी को प्रमाण सप्तभंगी कहा है । स्याद्वाद के इन ७ भंगों की दृष्टि से आत्मस्वरूप का ध्यान करना चाहिए ।
संसार के प्रत्येक पदार्थ स्व- द्रव्य - क्षेत्र - काल - भाव की अपेक्षा अस्तिस्वरूप है । इसी तरह उसी समय वह पर - द्रव्य-क्षेत्र - काल भाव की अपेक्षा नास्तिस्वरूप भी है । आत्म द्रव्य स्व-गुण- ज्ञान - दर्शन - चारित्रादि गुण से सदाकाल वर्तमानतया स्थित रहते हैं । इसलिए स्याद् अस्ति प्रथमभंग कहा जाता है। पर - द्रव्य-क्षेत्र - काल - भावादि की अपेक्षा नास्तिरूप है । आत्मा से पर जो जड-3 - अचेतन - अजीव द्रव्य है, उनके कारण उसी समय अचेतनत्वादि नास्ति धर्म भी रहता है । संस्कृत भाषा में स्यात् शब्द अव्यय है । वह अनेकान्त वाचक है । इसका " कथंचित्” अर्थ लिया गया है। आत्मा में चैतन्य
अस्तित्व है और जड़ का नास्तित्व है । बस, इसीलिए अस्ति - नास्ति स्वरूप एक साथ कहे जाते हैं । एक ही पदार्थ में परस्पर विरोधि कहलानेवाले उभय धर्म एकसाथ रहते हैं । आध्यात्मिक विकास यात्रा
१०६०