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निश्चय नय पर पहुँचे और ऐसी आन्तरिक अप्रमत्तावस्था में सातवें गुणस्थान पर आवश्यकादि की क्रिया - विधियों की आवश्यकता नहीं रहती । तब निरालम्बन ध्यान किया जा सकता है ।
निश्चय और व्यवहार
जैन शासन अनेकान्तवाद के सिद्धान्त पर आधारित है । अतः निश्चय और व्यवहार उभय मार्ग को बरोबर न्याय दिया गया है। आचरण के क्षेत्र में मात्र एकान्तवाद की दृष्टि ही अपनाकर यदि कोई व्यवहार मार्ग का लोप करके अकेले निश्चय की ही बात करता है। या फिर उसीका ही प्रतिपादन करता है तो वह अशुद्ध मार्ग है। यदि मात्र आत्मा की ऊंची-ऊंची बातें ही करता रहता है और आचार धर्म का सर्वथा निषेध करके सामायिक–प्रतिक्रमणादि को ही छुडा देता है, स्वयं भी छोड देता है तो वह उत्सूत्रभाषी अपना और दूसरों का पतन करता - कराता है। अरे ! आत्मा की इतनी ऊँची बातें करनेवाला आचार में संवर - निर्जरा जैसे उपादेय तत्त्वों को हेय बताकर छुडा देना, या अनाचरणीय बताना यह कहाँ तक उचित है ? या कोई साधक निश्चय मार्ग का ऐकान्तिक लोप कर दे और सर्वथा व्यवहार मार्ग ही अपनाए तो यह भी उचित नहीं है । आत्मा - मोक्षादि तत्त्वों की सर्वथा उपेक्षा करके उनके बारे में ज्ञानादि -- श्रद्धा कुछ भी प्राप्त करने की चिन्ता - इच्छा न रखते हुए एकान्त क्रिया - विधि विधान के आचरण का मात्र व्यवहार मार्ग ही अपनाता है वह एकान्तवादी है । वह स्वयं भी अपना नाश करता है और दूसरों का भी विनाशक बनता है । इसलिए निश्चय के साथ व्यवहार और व्यवहार के साथ निश्चय का उभय साथ ही आचरण करे । शास्त्र सिद्धान्त भी यही कहता है
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जह जिणमयं पवज्जइ तामा ववहार विच्छएमुअह । ववहार न उच्छेए तित्युच्छेओ जओ भणिओ ॥ १ ॥
जो भी कोई आराधक - साधक जैन सिद्धान्त को स्वीकारे उसे चाहिए कि ... व्यवहार मार्ग को न छोडे । क्योंकि व्यवहार मात्र का लोप करने के तीर्थ का अर्थात् धर्म का ही लोप हो जाएगा । ठीक इससे विपरीत यदि निश्चय मार्ग का कोई लोप कर देता है तो भी समूचे धर्म का लोप हो जाएगा। इसलिए उभय मार्ग साथ ही आचरणीय है । पू. उपाध्यायजी म. फरमाते हैं कि...
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निश्चय दृष्टि हृदय धरी जी, पाले जे व्यवहार । पुण्यवंत ते पामशेजी भवसमुद्रनो पार ॥
आध्यात्मिक विकास यात्रा