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* “चउसरण गमन", दुष्कृत गर्दा, तथा सुकृत अनुमोदनापूर्वक सालंबन ध्यान । * नवपद-सिद्धचक्र को दृष्टिपथ में रखकर सिद्धादि का ध्यान सालंबन ध्यान है ।
जिनेषु कुशलं चित्तं तन्नमस्कार एव च ।
प्रमाणादि च संशुद्धं योगबीजमुत्तमम् ।। योगदृष्टि समुच्चय ग्रन्थ में पू. हरिभद्रभूरि म. जिनेश्वर परमात्मा में कुशल चित्त को जोडने का कहते हैं, उन्हें नमस्कार करनेपूर्वक प्रमाणादि को उत्तम योग का बीज कहा है।
प्रमत्त छट्टे गणस्थान तक के साधक को सालंबन ध्यान का आश्रय लेना आवश्यक बताया है । परन्तु७ वे अप्रमत्त गुणस्थान के अधिकारी तथा आगे के गुणस्थानवर्ती साधकों के लिए निरालम्बन ध्यान का मार्ग खुला किया है गुणस्थान क्रमारोह ग्रन्थकार ने । बिल्कुल बात सत्य ही है कि.. निरालंबन ध्यान का आधार अप्रमत्तभाव की कक्षा है । अप्रमत्त साधक जागृत-सचेत है । तथा पहले बहुतबार सालंबन साधना कर चुका है अतः अच्छा अभ्यासु है । अब अप्रमत्त बनकर निरालम्बन ध्यानी बन सकता है । लेकिन वर्तमान काल में प्रमाद-अप्रमाद का तो रत्तीभर भी विचार ही नहीं किया जाता है । और सीधे ही छलांग लगाकर निरालंबन ध्यान की आकांक्षा या चेष्टा की जाती है, यह कहाँ तक उचित है? छोटे बच्चे को बचपन में अंगुली के आलंबनपूर्वक उठाया जाता है, काष्ठ गाडी के सहारे चलाया जाता है, फिर बाद में अभ्यासु हो जाने पर जैसे अंगुली पकडने की या काष्ठ गाडी की भी आवश्यकता नहीं रहती है। परन्तु यह अभ्यास कुशलता की अवस्था किसकी कब आएगी? किसकी कितने समय में आती है ? इसका कोई निश्चित मापदंड नहीं रहता
ठीक उसी तरह सालंबन ध्यान के सुदीर्घ अभ्यास के पश्चात् तथा एक गुणस्थान ऊपर चढकर साधक अप्रमत्तावस्था प्राप्त करने के बाद वैसी पात्रता प्राप्त होने पर निरालंबन ध्यान करने का अधिकारी बन सकता है । अन्यथा परम संवेगरूप पर्वत के शिखरों पर आरूढ होकर भी बडे-बडे आचार्यों ने भी निरालंबन ध्यान की प्राप्ति का मनोरथ मात्र ही किया है । किन्तु प्राप्त नहीं किया। क्योंकि निरालम्बन ध्यान ७ वे अप्रमत्त गुणस्थान से ही प्राप्त होता है, अन्यथा नहीं। कहते हैं कि
चेतोवृत्तिनिरोधनेन करणग्रामं विधायोद्धसं तत्संहत्य गतागतं च मरुतो धैर्य समाश्रित्य च।
ध्यान साधना से “आध्यात्मिक विकास"
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