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और मान लो कि आप विकल्पों पर दौड नहीं भी लगाते हो। लेकिन कहीं एक विकल्प पर स्थिर भी होंगे तो उसे ही ध्यान मानकर भ्रान्ति में मत रह जाना ।
ध्यान कब होता है और कब नहीं? विकल्प में ही स्थिर रह जाना उसको ही ध्यान मान लेना यह ध्यानाभास कहलाएगा। आभास मात्र में ही राजी होकर “ध्यान कर लिया" की तृप्ति मान लेगें तो यह बहुत दुःखदायी स्थिति बन जाएगी। इसलिए विकल्पों से ऊपर उठना और स्वात्मा में प्रवेश करके अपने गुणों में चंचुपात करना ही ध्यान प्रकिया का प्रारंभ है । अन्दर का गुण वैभव विपुल है। इसलिए चिन्ता के समस्त विषयों से ऊपर उठकर चिन्तनात्मक तत्त्वभूत विषय पर स्थिरता प्राप्त करना ध्यान कहलाएगा। धर्मध्यान के ४ भेद
धम्मे झाणे चउबिहे चउपडोयारे पण्णत्तं, तंजहा-आणा-विजए, अवाय विजए, विवाग विजए, संठाण विजए । स्थानांगसूत्र-४/१/१२
आज्ञापायविपाकानां संस्थानस्य च चिन्तनात्।
इत्थं वा ध्येयभेदेन धन॑ ध्यानं चतुर्विधम् ॥ १०/८ योगशास्त्र स्थानांग आगम शास्त्र, योगशास्त्रादि में धर्मध्यान ४ प्रकार का बताया है
धर्म ध्यान के ४ भेद
आज्ञाविचय अपायविचय विपाकविचय संस्थानविचय
विचय शब्द विचार का वाचक है । विचार और चिंतन करने के अर्थ में प्रयुक्त है। “विचयनं विचयो-विवेकों-विचारणेत्यर्थ:" सर्वार्थसिद्धि कोषकार ने भी विचय शब्द विचारादि अर्थ में प्रयुक्त किया है। विचिंतिविवेको विचारणा विचयः । विचिंतिर्विचयो-विवेको-विचारणेत्यनन्तरम्" तत्त्वार्थवार्तिककार ने भी ९/३६ की टीका में विचय शब्द विचार, विवेक और विचारणा, विचिन्ति आदि अर्थ में प्रयुक्त किया
“वत्थु सहावो धम्मो वस्तु का स्वभाव ही धर्म है । स्वभाव अर्थात् आत्मस्वरूप स्वगुणात्मक स्वरूप ही धर्म है । आत्मा भी एक वस्तु है । सत्, तत्त्व, पदार्थ, द्रव्य आदि शब्द वस्तु के समानार्थक शब्द है । जड-चेतनात्मक मुख्य २ ही द्रव्य जगत् में है । दोनों
ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास"
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