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बस, यही आदत या संस्कार हम अपने मोह के विषयों पर भी यदि ले लेते हैं और उन्हें भी बिना किसी राग- - द्वेष, मोह - ममत्व भाव के मात्र साक्षी भाव से दर्शन मात्र काही विषय बनाकर छोड़ दिया जाय, या फिर स्वयं उससे हट जाय तो निश्चित समझिए कि ऊँचा ध्यान हो जाय । लेकिन मनोजन्य रागभाव - द्वेषभाव - मोहभाव का नाता तोडना
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होगा । नहीं तो शायद हम ही टूट जाएँगे ? अनित्यादि १२ भावनाओं में हमें यही प्रक्रिया करनी है । पदार्थ एवं वस्तुस्थिति का स्पष्ट सही निरीक्षण करके दृष्टा भाव या साक्षी भाव से देखना मात्र है । जिससे संसार के पदार्थों का यथार्थ बोध हो सके । वास्तविकता का ख्याल आ जाय तो निरर्थक राग- - द्वेष होता ही न रहे । फिर यथार्थज्ञान होने के बाद रागजन्य तथा द्वेषजन्य भ्रान्तियाँ - भ्रमणा कैसी थी, और इन भ्रान्त धारणाओं में मैं कैसा फसा हुआ रहा ? मृगजल जैसी राग और द्वेष की भ्रान्त धारणाओं में मैं निरर्थक सबको मेरा-मेरा कहकर मेरे मोह-ममत्व से जोडता ही रहता था । और बस, उनमें ही सुख और दुःख को भी मानकर बैठा रहता था । और व्यर्थ में ही दुःखी भी होना, व्यर्थ में ही सुखी भी होना ... अरे ... रे ! यह निरर्थक झमेला मैंने क्या बना रखा है ?
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आत्मा को अशुभ से शुभ की तरफ ले जाय वही शुभ ध्यान है । भले ही उसे धर्म ध्यान नाम दिया जाय । जो जो शुभ है वही धर्म है और जो जो धर्मरूप है वही शुभ है । अतः शुभ और धर्म एक ही सिक्के के दोनों बाजू की तरह पर्यायवाची पूरक हैं । इसलिए शुभध्यान को धर्म ध्यान कहा है। धर्मध्यान शब्द की एक ध्वनि यह भी निकलती है कि आत्मा का ध्यान करने का ही धर्म है, स्वभाव है । कर्मजन्य स्वभाव अशुभ - अशुद्ध था । जबकि धर्मजन्य स्वगुणजन्य स्वभाव शुभ-शुद्ध है । बस, जब हम कर्मजन्य स्वभाव को अच्छी तरह पहचान लेंगे... उसका सही स्वरूप ख्याल आ जाएगा फिर वास्तविकता समझकर उसे हेय जानकर छोडना ही श्रेयस्कर होगा। लेकिन यह कब होगा ? जब आत्मस्वरूप आत्मगुणों का भी ध्यान करके तज्जन्य आनन्द का रसास्वाद एक बार कर लेंगे तब वास्तविकता का ख्याल आएगा । फिर कर्मजन्य ध्यान और कर्मरहित ध्यान दोनों में तुलना होगी । तब भेद का रहस्य खुलेगा । जिन्दगी में प्रथम बार सत्यतत्त्व के आनन्द की अनुभूति होगी । मनमयूर नाच उठेगा । झूम उठेगा । कभी नहीं पाया ऐसा आनन्द और वह भी सच्चे ज्ञान का आनन्द आएगा । तत्त्वानन्द होगा ।
विकल्पविषयोत्तीर्णः स्वभावालम्बनः सदा ।
ज्ञानस्य परिपाको यः स शमः परिकीर्तितः
ध्यान साधना से " आध्यात्मिक विकास"
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