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पापरूपकहते हैं । अतः जिस जीव ने अशुभ-खराब पाप कर्म किये हैं, वह उसके कालान्तर में उदय में आने के समय दुःख की अनुभूति करेगा ही। इसमें कोई सन्देह ही नहीं है। इसी प्रकार शुभ पुण्य कर्म जो अच्छा है वह उदय में आकर शुभरूप सुख देगा। इस तरह फल भी निश्चित ही हैं, इसमें कभी भी विपरीतीकरण संभव ही नहीं है।
संसार में कर्म की शाश्वत व्यवस्था में उल्टा हो ही नहीं सकता है । अर्थात् पाप कर्म करके कोई सुखरूप फल नहीं पा सकता है । और ठीक उसी तरह कोई शुभ पुण्य कर्म करके दुःखरूप फल पा ही नहीं सकता है । कर्म के साम्राज्य में अन्धेर संभव ही नहीं है। यह शाश्वत व्यवस्था है। इसमें कोई दाता–देनेवाला नहीं है । अतः किये हुए कर्म का ही उदय में आना है और वैसा फल प्रदान करना है । इसलिए अव्यवस्था का प्रश्न खडा ही नहीं होता है । फिर भी संसार के जीव कैसी विचित्र वृत्तिवाले हैं। उनकी मनोभावना का मानसचित्र खडा करते हुए हरिभद्रसूरि म. लिखते हैं कि
पुण्यस्य फलमिच्छन्ति, पुण्यं नेच्छन्ति मानवाः ।
फलं पापस्य नेच्छन्ति, पापं कुर्वति सादराः ।। ___ आश्चर्य तो इस बात का है कि... पुण्य का फल जो सुख है उसकी इच्छा तो सभी करते हैं । लेकिन पुण्यकार्य करना नहीं चाहते हैं। पुण्यरूप शुभ धर्मकार्य करना कष्टदायी लगता है । और चाहना शुभ सुख की है। कैसे फलीभूत होगी? ठीक उसी तरह पाप - कर्म की प्रवृत्तियाँ काफी आनन्द-मजे से रसपूर्वक करते ही जा रहे हैं। लेकिन किये हुए पाप से सुखरूप फल पाने की इच्छा रखते हैं । परन्तु पाप के फल के रूप में मुझे दुःख मिले ऐसी चाहना नहीं रखते हैं। क्यों? क्या मनुष्य मात्र अपनी इच्छा से विचारणा करके जैसी इच्छा करेगा वैसा पा लेगा? क्या मनुष्य की मिथ्यात्ववश तथा अज्ञानवश उत्पन्न हई गलत भ्रान्त धारणाओं को सही बनाने या सही सिद्ध करने के लिए कर्म की शाश्वत व्यवस्था बदलेगी? जी नहीं। कभी भी नहीं । कदापि नहीं। अतः यह निश्चित ही है और निर्विवाद सत्य है कि.. पाप कर्म से दुःख की प्राप्ति और शुभ पुण्यकर्म से सुख की प्राप्ति होगी। .
अपाय दुःखवाचक शब्द है । समस्त जगत के जीव कैसे....किन-किन पाप कर्मों की प्रवृत्तियों में रचे हुए हैं यह आप देखते ही हैं । अतः उससे स्पष्टरूप से अनुमान लगाया
ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास"
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