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लोकाकृति का चिन्तन संस्थानविचय नामक चौथा धर्मध्यान है । यहाँ संस्थान का अर्थ आकृति-आकार विशेष है । भिन्न भिन्न प्रकार के संस्थान है । जीवों के शरीरों का आकार समचतुरस्रादि६ प्रकार के संस्थान है। पुद्गल द्रव्यों का परिमण्डलादि संस्थान है । तथा धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय का संस्थान चतुर्दशरज्जु परिमित है। जबकि आकाशास्तिकाय का लोक क्षेत्रगत संस्थान चतुर्दशरज्ज्वात्मक लोकाकाश रूप है । और अलोकाकाश अनन्त, असीम, अपरिमित होने से कोई संस्थान आकार बन ही नहीं सकता है, अतः निरंजन-निराकर है। यह लोक स्वरूप विराट ब्रह्माण्ड षड्द्रव्यात्मक पंचास्तिकायात्मक है । अनन्त द्रव्यात्मक है । जिनका विभाजन मुख्य २ ही द्रव्यों में हो जाता है । एक जीव द्रव्य चेतनात्मक । और दूसरा अजीव द्रव्य जडात्मक है । प्रत्येक द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त है । अर्थात् उत्पत्तिशील, नाशस्वभाव युक्त एवं नित्यस्थायीध्रुवस्वभावी है। स्वयं पदार्थ गुण-पर्यायवाला है। अनेक गुणों से युक्त तथा अनन्त पर्यायोंवाला यह द्रव्य अनादि-अनन्त रूप है । उत्पाद-व्यय स्वभावी द्रव्य उत्पन्न भी होता है और नष्ट भी होता है । यह पर्यायें बदलती रहती है फिर भी द्रव्य अपने स्वरूप में ध्रुव-नित्य भी रहता है। अनुत्पन्न होने से अविनाशी भी है। और उत्पनशील-विनाशस्वभावी द्रव्य है। ऊर्ध्व-अधो और तिर्यग के ३ विभाग में बटा हुआ समस्त लोक त्रिलोक कहलाता है । ऊर्ध्व लोक में स्वर्गीय देव, अधोलोक की ७ नरक पृथ्वियों में नारकी जीव, तथा बीच के मध्य–तिर्छालोक के असंख्य द्वीप-समुद्रों में प्रथम मनुष्य तथा आगे तिर्यंच पशु-पक्षी के जीव निवास करते हैं। .
इस तरह समस्त लोक स्वरूप को अपने ध्यान का विषय बनाता है । आगे समग्र लोक संस्थान में जीव एक विशिष्ट ज्ञानादि चेतनावान् द्रव्य है । जो उपयोग लक्षणवाला है, नित्य है। फिर भी कर्माधीन स्थिति में संसार में जन्म-मरणाधीन होने से अनित्य भी है । अतः नित्यानित्यस्वरूपी आत्मा स्वयं अपने कर्म का कर्ता तथा फल का भोक्ता है। अन्त में अपने शुद्ध-सिद्ध स्वरूप को प्राप्त करनेवाला सिद्ध-बुद्ध-मुक्त भी यही है। इस तरह गुण-पर्याय युक्त अनन्त द्रव्यों को अपने ध्यान का विषय बनाता हुआ ध्याता संस्थानविचय ध्यान को करता है । (पुस्तक के शुभारंभ में समस्त ब्रह्माण्ड का भौगोलिक आदि स्वरूप वर्णन विस्तार से किया गया है । उसे पुनः पढकर संस्थानविचय ध्यान का विषय बनाना चाहिए।) - इस तरह समस्त लोक संस्थान का ध्यान करते हुए संसार समुद्र को भी देख ले। ४ गति के ८४ लक्ष जीवयोनियों में रहे हुए तथा परिभ्रमण करते हुए कर्माधीन जीवों को १०४२
आध्यात्मिक विकास यात्रा