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संस्थानविचय ध्यान करने का कारण
नानाद्रव्यगतानतं पर्यायपरिवर्तने । तदासक्तं मनोनैव रागाद्याकुलतां व्रजेत् ॥
- संस्थान विचय धर्मध्यान कितना लम्बा-चौडा है ? विषय का विस्तार कितना ज्यादा है । समग्र ब्रह्माण्ड का कोई विषय अछूता नहीं रहता है । विषय बदलते हुए भी ध्येय एक ही लोक स्वरूप को देखने का रहता है । प्रश्न यह उठता है कि ऐसा संस्थानविचय धर्मध्यान करने का क्या फायदा? आखिर क्यों करना चाहिए ? इसके उत्तर में कहते हैं कि यह मन जो सतत - निरंतर राग-द्वेषाभिभूत होकर उसी में लिपटा रहकर कर्म उपार्जन करता ही रहता है, इसको राग-द्वेष से हटाना चाहिए और ऐसे विषयों पर लगाना चाहिए जिससे राग-द्वेष न हो और कर्मबंध भी न हो ।
राग
चेतन द्रव्य के तथा पुद्गल द्रव्य के पर्यायादि का जागृतिपूर्वक विचार करता हुआ मन विश्रांति प्राप्त करता है । यहाँ विश्रांति अर्थात् जो सतत राग-द्वेष करता था उससे विराम पाता है । हमारा मुख्य उद्देश्य राग-द्वेष से बचना है। आज दिन तक सतत - द्वेष करता हुआ मन ने प्रत्येक विचारों को रागद्वेष से अधिवासित कर दिया था । जैसे कि रूई के प्रत्येक धागे को लाल-पीले रंग से रंग दिया हो वैसे। अब वह रंग पुनः न लग जाय इसका ध्यान रखना है। ठीक उसी तरह विचारों में से राग-द्वेष की मात्रा निकालनी है । हर्ष - खेद, रति- अरति की विचारधारा निकालनी है । जैसे किसी भी व्यक्ति या वस्तु के प्रति रागभाव हो, आसक्ति हो और उसके वियोग होते ही द्वेष-खेद होता है । यद्यपि यह आर्तध्यान का विषय है। ऐसे समय में आर्तध्यान के इस संयोग-वियोगात्मक हर्ष-शोक को परिवर्तित करके संस्थानविचय में डाल दें और उस वस्तु के
द्रव्य-गुण-पर्यायों का विचार करने लग जाय ... तो हर्ष - शोक छूट जाता है । ध्याता की दृष्टि जो उसके राग-द्वेष में ही लिपटी रही थी वह अब विस्तृतरूप से फैल गई है । सर्व पदार्थों, सर्व काल में, सर्व क्षेत्र में विस्तृत हो जाती है । इस तरह देखने पर बदलती हुई पर्यायों के बावजूद भी उस पदार्थ का द्रव्य रूप से नित्य रहने का स्वभाव ख्याल में आ जाता है। साफ दिखाई देता है कि अरे ! इस पदार्थ की तो मात्र पर्याय बदली है । समूल तो उसका नाश होता ही नहीं है । काल - क्षेत्र भी बदलता रहता है । यह पदार्थ इस वर्तमान काल - क्षेत्र और पर्याय को बदलकर अन्यकाल - क्षेत्र में अन्य पर्याय में परिवर्तित या स्थानान्तरित हुई है । परन्तु अन्य रूप में भी स्थायीस्वरूप से है । इसलिए हर्ष - शोक करने की आवश्यकता ही नहीं रहती है । जिस काल में वह वस्तु उपलब्ध - प्राप्त होती है
ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास"
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