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जा सकता है कि... संसार के ये पाप करनेवाले जीव भविष्य में कितने ज्यादा दुःखी होंगे? इसकी क्या कल्पना करें । संसार में रोज कितने ही जीव दुःख भोग रहे हैं ? निरंतर भुगत ही रहे हैं....और दूसरी तरफ असंख्य जीव निरंतर पापकर्म भी करते ही जा रहे हैं । १८ पापों की प्रवृत्तियाँ संसार में अखण्ड रूप से सर्वत्र चलती ही रहती है। और समष्टिगत दृष्टि से देखने पर... संसार में कर्मसंयोगवश अखण्डरूप से दुःख भी संसार में देखे ही जा रहे हैं । अतः मात्र दुःख और वेदना का ही स्वरूप नहीं देखना है। लेकिन साथ ही साथ.... उसके कारणरूप में पाप कर्मों को भी देखते ही जाना है । जिससे मात्र दुःखों के प्रति ही दुर्गंछा अप्रीति या अभाव न जागे, लेकिन साथ ही साथ दुःखों के कारणरूप १८ पापकर्मों पर भी संपूर्ण अभाव... पैदा हो जाय यही जरूरी है।
माया-मोहान्धतमसविवशीकृत चेतसा। किं किं नाकारि कलुषं कस्कोऽपायोऽप्यवापि॥ यद् यद् दुःखं नारकेषु तिर्यक्षु मनुजेषु च।
मया प्रापि प्रमादोऽयं ममैव हि विचेतसः ।। योगशास्त्रकार लिखते हैं कि... माया-मोहरूप अन्धकार के वश होकर मन से मैंने क्या-क्या नहीं किया ? ओहो । कैसे कैसे पापकर्म मैंने नहीं किये? और कैसे कैसे दुःख पाए? सचमुच नरकगति में, पशु-पक्षी के जन्मरूप तिर्यंच की गति में, तथा मनुष्य की गति में जो जो दुःख जीव ने पाए हैं, मैनें पाए हैं तो इसमें मेरा ही एकमात्र प्रमाद है। मेरा ही मन उल्टा चला, विपरीत चला जिसका यह परिणाम है।
ध्यान शतक, ज्ञानार्णवकार आदि ने काफी ज्यादा संसार के अपायों, दुःखों का कारणरूप कर्म सहित वर्णन किया है । अवश्य ही पढना चाहिए। राग-द्वेष जनित अनर्थ, मोहममत्व जन्य दुःख, कषायों के घर में रहकर जीव ने जो क्रोध-मान-माया-लोभादि किये हैं। उनके कारण उत्पन्न जो जो दुःखदायि अवस्था, मिथ्यात्वादि के कारण उपार्जित 'संसार की वृद्धिरूप भव परंपरा देखते नहीं बनती है। ८४ लाख जीवयोनियों में जन्म
लेना तथा आयुष्यकर्म निर्धारित नियत जीवन जी कर पुनः मृत्यु पाकर विदाय लेना, और दूसरी गती में चले जाना, उसके पीछे जीवों का करूण विलाप करना, दुःखदायी अवस्था का विचार करते हुए कारणों को स्पष्टरूप से देखते रहना । तथा कार्यकारण भाव का संबंध बैठाकर संसार में जीवों की ऐसी स्थिति देखकर संसार स्वरूप का चिन्तन करना अपायविचय नामक धर्मध्यान है । १८ पापों का स्वरूप उनका आचरण तथा क्रिया प्रवृत्ति से जन्य कर्मों का ख्याल तथा संसार के दुःखों का स्वरूप स्पष्टरूप से ख्याल में आ जाता
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आध्यात्मिक विकास यात्रा