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सर्व कर्मों का समूल उन्मूलन करनेवाली है। जिन पूर्व करोड वर्ष के संचित कर्मों को अज्ञानी करोडों वर्षों तक भी नहीं खपा सकता है उनको ज्ञानी जिनाज्ञानुसार आज्ञाविचय धर्मध्यान से तथा आज्ञानुसारी वचन के पालन से अल्पकाल में क्षय कर सकता है । जिनाज्ञा अर्थ गंभीर है। अर्थ की अपेक्षा से अनन्तार्थक है । ऐसे सर्वज्ञप्रभु का प्रत्येक वचन भी अनन्त अर्थ युक्त है । तत्त्वार्थसंबंधकारिका में— “एकमपि जिनवचनं निर्वाहको भवति” । ऐसा कहकर शास्त्रकार भगवन्तों ने जिनेश्वर के परमतारक सामर्थ्य को यथार्थरूप से सन्मानित किया है । जिनाज्ञा को हृदय में धारण करके महापुरुष भी कृतकृत्यता का अनुभव करते हैं। इसीसे वे सामर्थ्यधारक, लब्धिसंपन्न, विश्वोपकारी बनते हैं। जिनाज्ञा सर्वदोषरहित-निर्दोष, सर्वगुणसम्पन्न है । गूढातिगूढ गहन है । नय-गम-भंग-प्रमाण
आदि से सुशोभित है। अत्यन्त गंभीर–व्यापक-गहन-सर्व विश्वोपकारी है। ऐसी जिनाज्ञा को ही “जिनाज्ञा परमो धर्मः" "आणाए धम्मो” आदि कहकर धर्मरूप में स्वीकार करके कल्याणकारी इस जिनाज्ञा का एकाग्र चित्त से ध्यान-चिंतन करना ही आज्ञाविचय रूप धर्मध्यान है। .
२ अपाय विचय धर्मध्यान
. ध्येय के भेदों की अपेक्षा से ध्यान के भेद होते हैं । आज्ञाविचय में जिनाज्ञा ही ध्येय रूप थी। अपायविचय नामक इस दूसरे धर्मध्यान का ध्येयरूप पदार्थ-उपाधि तथा कष्टमय-दुःखमय यह संसार ही ध्येयरूप है । विपाक का अर्थ-फल-परिणाम है । इसमें कर्म का फल ही ध्येय रूप है । एक बात तो निश्चित ही है कि किसी भी प्रकार का ध्यान ध्येय के बिना तो हो ही नहीं सकता है। फिर भी यहाँ पर विशिष्ट ध्येय की अपेक्षा से ध्यान के भेद कहे हैं। जैसे पिण्डस्थादि ध्यानभेद सिर्फ एक ही ध्येय के हैं और यहाँ आज्ञाविचयादि भेदों के ध्यान का ध्येय भिन्न-भिन्न है । अतः ध्येयानुरूप ये ४ ध्येय भेद
वैसे देखा जाय तो ध्यान आभ्यन्तर तप है। ६ बाह्यतप में उपवास-आयंबिल आदि की गणना होती है। लेकिन शरीर की दृष्टि से शारीरिक रूप से सभी एक जैसे समान नहीं हो सकते हैं । बाह्य तप का मुख्य आधार शरीर है। शरीरावलंबी बाह्य तप की प्रधानता है । लेकिन प्रायश्चित विनय-वैयावच्चादि सभी आभ्यंतर प्रकार के तप मन
और आत्मा से होने की प्रधानतावाले है। इसलिए आभ्यंतर तप में उपवासादि की गणना नहीं होती है । इसमें १ प्रायश्चित, २ विनय, ३ वैयावच्च (सेवा),४ स्वाध्याय, ५ ध्यान और ध्यान साधना से “आध्यात्मिक विकास"
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