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किस आगमशास्त्र या अन्य धर्मशास्त्र में विधेयात्मक ऐसा विधान है किआलु-प्याज-लहसूनादि अनन्त जीवों के पिण्डरूप होने पर भी खाने ही चाहिए। खा सकते हैं। खाए जा सकते हैं। अरे ! यह मिथ्या बाते हैं। किसी भी आगमशास्त्र या धर्मशास्त्र में यह मिलना संभव ही नहीं है। या फिर इसके लिए वे स्वतंत्र मनघडंत आगम शास्त्र की रचना करे तो है । हाँ, सम्प्रदाय ममत्व यह भी करा सकता है । रागान्ध कुछ भी कर सकता है । मनघडंत अर्थघटन करना और फिर उसे ही सही बताना शायद यह कितना बडा धर्म लगता होगा? अरे भगवान ! इतनी भी समझ नहीं है क्या? कि एक तरफ अनन्त जीवों का स्वरूप-अस्तित्व-जन्म-मरणादि-बताया है। दूसरी तरफ हिंसा से बचनेरूप अहिंसा धर्म का शुद्ध सूक्ष्मतम पालन करने के लिए आज्ञा दी है । “दशवैकालिक आगम" के वचन तो स्पष्ट ही है कि- “पढमं नाणं तओ दया" अर्थात् प्रथम ज्ञान और . फिर दया । जब आगमशास्त्र वनस्पतिकायके भेद-प्रभेद समझाकर साधारण और प्रत्येक जीवों का स्वरूप स्पष्ट कर ही देते हैं उनमें साधारण की जाति में भी सूक्ष्म-बादर के प्रकार बताकर एक शरीर में अनन्त जीवों का निवास स्पष्ट ही बता दिया है, और फिर सूक्ष्मतम अहिंसा कैसे पालनी यह भी साफ साफ बता दिया है। इतना ज्यादा ढोल पीटकर कह दिया है इससे और ज्यादा क्या कहना? समझदार को तो इशारा ही पर्याप्त होता है । फिर ऐसी हिंसा के आचरण का सवाल ही कहाँ खडा होता है? और फिर बचाव के लिए तर्क देना कि हम थोडी ही बनाते हैं ? गृहस्थ ही बनाते हैं। हमारे तो पात्रों में पड़ा फिर बस. .खाना ही पड़ता है । मैं यह जानना चाहता हूँ कि “पातरे पडीयो पच्चक्खाण" यह किस आगम में आज्ञारूप है? क्या बता पाएंगे? और इसी आज्ञा को शिरोधार्य करके चलेंगे तो क्या पात्रों में कोई भी अण्डे आदि अभक्ष्य वस्तु वहेरा देंगे और भिक्षा में आ जाएगी तो फिर क्या करेंगे? क्या उसका भी भक्षण करेंगे? वहाँ तो जवाब देंगे कि ऐसे कैसे कोई डाल देंगे? पूछेगे नहीं? क्या हम आँख मूंद कर ऐसे ही थोडी भिक्षा ले लेते हैं ? तो क्या यही नियम अनन्तकाय के लिए लागू नहीं हो सकता है ? दूसरी तरफ करेमि भंते ! सूत्र में न करना-न कराना और करते हुए को भला भी नहीं जानने की त्रिविध प्रतिज्ञा मन-वचन-काया के तीनों योग से पालनी है।
इस तरह तीनों योग से त्रिविध प्रतिज्ञा के नौं कोटि भेद होते हैं। अब आप ही सोचिए ! नौं कोटि के पच्चक्खाणवाला महाव्रती कैसे-किस बहाने के नीचे ऐसे अनन्तकाय का भक्षण कर सकता है ? ऊपर से ऐसे संत-सतियों ने धर्म छोडने की सौगंद देने के बजाय पाप छोडने के पच्चक्खाण कराए होते तो सही अर्थ में पापों से बचते और
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आध्यात्मिक विकास यात्रा