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भगवान् महावीरके २५०० निर्वाण महोत्सव के अवसरपर प्रकाशित ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी प्रन्थमाला अपभ्रंश प्रत्थांक १३
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
वीरजिनिंदचरिउ
सम्पादन-अनुवाद
डॉ. होरालाल जैन, एम. ए., एल-एल. बी. डी. लिट्..
भूतपूर्व संस्कृत प्राध्यापक मध्यप्रान्त शिक्षा विभाग, संस्थापक निदेशक प्राकृत, जैनधर्म
और अहिंसा शोध संस्थान, वैशाली ( बिहार ), प्राध्यापक व विभागाध्यक्ष : संस्कृत - पालि-प्राकृत विभाग, इंस्टीटघुट ऑफ लॅग्वेजेज एंड रिसर्च, जबलपुर विश्वविद्यालय ( मप्र )
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भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
वीर निर्वाण संवत् २५००, विक्रम संवत् २०२१, सन् १९७४ ईस्वी प्रथम संस्करण - मूल्य दस रुपये
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प्रस्तावना
१. महावोरके तौर्थक रत्वको पृष्ठभूमि
भगवान् महावीर जैनधर्मके तीर्थकर | किन्तु जैन ऐतिहासिक परम्परासुसार न तो वे जैनधर्मके आदि प्रवर्तक थे और न सदैबके लिए अन्तिम तीर्थंकर । अनादि काल से धर्मके तीर्थंकर होते रहे हैं और आगे भी होते रहेंगे। उनके द्वारा उपदिष्ट धर्ममें अपने-अपने युगानुसार विशेषताएं भी रहती हैं, और उनके मौलिक स्वरूपमें तालमेल भी बना रहता है। वर्तमान युगके आदि तीर्थंकर
मनाथ माने गये है जिनका उल्लेख न केवल समस्त जैन पुराणोंमें अनिवार्य रूपसे आता है, किन्तु भारतके प्राचीनतम धर्म-ग्रन्थों, जैसे ऋग्वेद आदिमें भी नाना प्रसंगों में आया है ।' उनसे लेकर महावोर तक हुए चौबीस तीर्थंकरों के चरित्र जैन पुराणोंमें विधिवत् वणित पाये जाते हैं । धार्मिक, सैद्धान्तिक व दार्शनिक आदि दृष्टियों से मानो उनमें एकरूपता तथा एक ही आत्माकी व्यासि प्रकट करने के लिए महावीर के पूर्व जन्मकी परम्परा ऋषभदेव से जोड़ी गयी है । ऋषभदेव के पुत्र हुए प्रथम चक्रवर्ती भरत जिनके नामसे इस देशका नाम भी भारतवर्षं पड़ा । यह बात समस्त वैदिक पुराणों में भी प्रायः एकमत से स्वीकार की गयो है । इन्हीं भरतके एक पुत्र थे मरीचि । यह मरीचि भी पूर्व जन्म से आये
१.१० १०२ ६६ १०, १३६, १०, १६६ २, ३३ । भाग. पुराण ५, ६ । विष्णुपुराण ३, १८ आदि। इनमें वृषभ केशी व वातरशन दिगम्बर मुनियों के उल्लेख ध्यान देने योग्य हैं।
२. वमनायोग सूत्र २४६ आदि। कल्पसूत्र । हेमचन्द्रकृत त्रिषष्टि-शलाका-पुरुष-चरित । तिलोय-पति- महाधिकार ४। जिनसेन कृत आदिपुराण गुणभद्र-कृत उत्तरपुराण । पदन्य-कृत महापुराण (अपभ्रंश) ।
इ. भागवत पुराण ५,४,९६ ११, २ । विष्णु पुराण २१, ३१ वायु पुराण ३३, ५२ । अग्नि पुराण १०७, ११-१२ ब्रह्म-पु. १४, ४, ६२ । लिङ्ग-पुराण १, ४७, २३ स्कन्द-पुराण कौंगार-खण्ड ३७ ५७ ॥ मार्कण्डेय पुराण ५०, ४१ । इनमें स्पष्टत: उल्लेख है कि ऋषभ भरत के नामखे दी इस देशका नाम भारतवर्षं पड़ा ।
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बोरजिणिवचरिउ हुए एक शबर का जीव था जिसने अपने सामान्य जीवनकी प्रवृत्ति प्राणि-हिंसाको त्यागकर मदिराक मत यहफा भिगा थः नदिने वा पोरके चरणकमलों में दीक्षा ली थी। किन्तु उससे उन आदि तीर्थंकर द्वारा निर्दिष्ट कठोर मुनिन्नतोंका पालन न हो सका और यह मुनिपदसे भ्रष्ट हो गया । तथापि उसमें धार्मिक बीज पड़ चुका था और संस्कार भी उत्पन्न हो गये थे। अतएव देव और मनुष्य लोकमें भ्रमण करते हुए अन्ततः उसने महाबीर तीर्थकर का जन्म धारण किया। इस प्रकार यह सहज ही देखा जा सकता है कि इन अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीरकी अध्यात्म-परम्परा आदि-तीर्थकर ऋषभदेवसे जुड़ी हुई प्रतिष्ठित पायी जाती है।
किन्तु महावीर के साथ मी तीर्थकर-परम्परा टूटती नहीं। उनके एक शिष्य थे उस समयके भारत-नरेश श्रेणिक-बिम्बसार । उनमें भगवान महावीर द्वारा धर्मका बीज आरोपित किया गया । यद्यपि वे अपने पूर्व दुष्कृत्यों के कारण नरकगामी हुए, तथापि उनमें भी मरीचिके समान धार्मिक संस्कार प्रबलतासे स्थापित हो चुका है, जिसके फलस्वरूप वे अपने अगले जन्ममें एक नयी तीर्थफर-परम्पराके आदि-प्रवर्तक होंगे। अर्थात् वे भाबी चौबीस तीर्थकरोंमें महापद्म नामक प्रथम तीर्थकर होंगे। इस प्रकार समग्न दृष्टिसे विचार किया जाये तो जैन परम्परामें यह बात दृढ़तासे स्थापित की गयी है कि जिस प्रकार महावीर पूर्व-पौराणिक परम्परामें ऐतिहासिक रूपसे अन्तिम तीर्थकर है, उसी प्रकार वे एक नयी तीर्थकरपरम्पराके जन्मदाता भी हैं।
२. महावीर-जीवन, जन्म व कुमारकाल महावीर तीर्थकरका जो चरित्र जैन साहित्यमें पाया जाता है वह संक्षेपमें इस प्रकार है। महाबीरका जन्म एक क्षत्रिय राज-परिवारमें हुआ । उनके पिताका नाम सिद्धार्थ और माताका प्रियकारिणी अथवा त्रिशलादेवी था। सिद्धार्थका गोत्र कादयप और त्रिशलाका पैत्रिक गोत्र वशिष्ठका भी उल्लेख पाया जाता है । त्रिशलादेवी उस समयके वैशालीनरेश चेटककी ज्येष्ठ पुत्री, अथवा मतान्तरसे चेटककी बहन थी। महावीरका शैवाघ व कुमारकाल उसी प्रकार लालन-पालन एवं शिक्षण में व्यतीत हुआ जैसा उस कालके राजभवनों में प्रचलित था। उनकी चालक्रीडाका एक यह आस्यान भी पाया जाता है कि उन्होंने एक भीषण सर्पका
१. महापुराग (संस्कृत) पर्व ७४ 1 महापुराण (अपभ्रंश) सन्धि २५ । २, महापुराण (संस्थात) ७६, ४७१-७७ ।
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प्रस्तावना
इमान किया था, और इसी बीरताके कारण देवने उन्हें महावीर व बोरनाथको उपाधि प्रदान की । यह आख्यान हमें कृष्ण द्वारा कालियनागके दमनका स्मरण कराता है।
३. तन अपनी तीस वर्षको अवस्थामै महावीरने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। उनकी अज्याका स्वरूप यह था कि वे गृह त्यागकर कुण्डपुरके समीपवती ज्ञातृषण्डकनमें बछे गये और उन्होंने अपने समस्त भूषण-वस्त्र त्याग दिये। अपने हायसे उन्होंने अपने केशोंको उखाड़ फेंका और वे तीन दिनका उपन्नास लेकर ध्यानस्थ हो गये। तत्पश्चात् वे बाहर देश-देशान्तरका भ्रमण करने लगे। वे निवास तो
करते थे बनोपननमें हो, किन्तु अपने व्रतों और उपनासके नियमानुसार दिनमें ... एक बार नगर या ग्राममें प्रवेश कर भिक्षा ग्रहण करते थे। वे ध्यान और आत्म
चिन्तन तथा समता-भावकी साधना था तो पद्मासन लगाकर करते थे अथवा खगासनसे खड़े हुए ही नासान दृष्टि रखकर । लेशमात्र हिंसा नहीं करना, तुणमात्र परायी वस्तुका अपहरण नहीं करना, लेशमात्र भी असत्य वचन नहीं : बोमना, मैथुनकी कामनाको मनमें भी स्थान नहीं देना तथा किसी प्रकारकी धनसम्पत्ति रूप परिग्रह नहीं रखना–वे ही पांच उनके महाव्रत थे। इन निषेधात्मक यमों या प्रतोंके साथ-साथ वे उन शारीरिक और मानसिक पीड़ाओंको भी शान्ति
और धैर्यपूर्वक सहन करनेका अभ्यास करते थे जो गृहहीन, निराश्रय, वस्त्रहीन व धनधान्य-हीन त्यागी के लिए प्रकृतितः उत्पन्न होती है, जैसे भूख-प्यास, शीतअरुण, हौस-मच्छर आदिको बाधाएं जो परोपह कहलाती है।
४. केवलज्ञान इन तपस्याओंका अभ्यास करते हुए उन्होंने अपनी प्रव्रज्याफे बारह वर्ष व्यतीत कर दिये । फिर एक दिन जब वे ऋजुकूला नदीके तीरपर जम्भक ग्रामके समीप ध्यानमग्न थे तभी उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। इस केवलज्ञानका स्वरूप यदि हम सरलबासे समझाने का प्रयत्न करें तो यह था कि जीवन और सृष्टिके सम्बन्ध में जो समस्याएँ व प्रश्न सामान्य जिज्ञासु चिन्तक के हृदयमें उठा करते हैं
१. महापुराण (सं.) ७५, २८८.९५। महापुराण ( अपभ्रंश ) ९५, १०, १००१५ ।
भागवत-पुराण, दशम स्कन्ध ।
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'उनका उन्हें सन्तोषजनक रीलिसे समाधान मिल गया । यह समाधान या वे छह द्रव्य तथा सात तत्त्व जिनके द्वारा त्रैलोक्य को समस्त वस्तुओं व घटनाओंका स्वरूप समझ में आ जाता है । वे छह द्रव्य इस प्रकार हैं- जीव, पुद्गल, धर्म, अर्म, आकाश और काल । और वे सात तत्त्व इस प्रकार हैं- जीन, अजीव, आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । जीवनका मूलाधार वह जीव या आत्मतत्त्व है जो जड़ पदार्थों से भिन्न है, आत्म-संवेदन तथा पर-पदार्थ-बोध रूप लक्षणोंसे युक्त है एवं अभूर्त और शाश्वत है । तथापि वह जड़ तत्त्वोंसे संगठित शरीरमें व्याप्त होकर नाना रूप-रूपान्तरों व जन्म-जन्मान्तरोंमें गमन करता है । जितने मूर्तिमान् इन्द्रियग्राह्य पदार्थ परमाणुसे लेकर महास्कन्ध तक हमें दिखाई पड़ते हैं वे सब अजीव पुद्गल द्रव्यके रूप-रूपान्तर हैं । धर्म और अधर्म ऐसे सूक्ष्म अदृश्य अमूर्त तत्त्व है जो लोकाकाशमें व्याप्त है और जो जीव व पुद्गल पदार्थोको गणत करने अ होने हेतु भूत माध्यम हैं। आकाश वह तत्व है जो अन्य सब द्रव्योंको स्थान व अवकाश देता है, और काल द्रव्य वस्तुओंके बने रहने, परिवर्तित होने तथा पूर्व और पश्चात्की बुद्धि उत्पन्न करनेमें सहायक होता है । यह तो सृष्टिके वस्त्रों व तथ्यों की व्याख्या हुई। किन्तु जीवकी सुखदुःखात्मक सांसारिक अवस्थाको समझने और उसकी ग्रन्थिको सुलझाकर आत्मतत्त्वके शुद्ध-बुद्ध प्रमुक्त स्वरूपके विकास हेतु अन्य सात तत्त्वोंको समझने की आवश्यकता है। जीव और अजीब तो सुष्टिकै मूल तत्त्व हैं ही। इनका परस्पर सम्पर्क होना यही आसव है । इस सम्पर्क या आखवसे ऐसे बन्धका उत्पन्न होना जिससे आत्माका शुद्ध स्वरूप ढक जाये और उसके ज्ञान दर्शनात्मक गुण कुण्ठित हो जायें, उसे बन्ध या कर्मबन्ध कहते हैं। जिन संयमरूप क्रियाओं व साधनाओं द्वारा इस जीव व अजीवके सम्पर्कको रोका जाता है उसे संदर कहते हैं। तथा जिन व्रत और तपरूप क्रियाओं द्वारा संचित कर्मबन्धको जर्जरित और विनष्ट किया जाता है उन्हें निर्जरा कहते हैं । जब यह कर्म-निर्जराकी प्रक्रिया पूर्ण रूप से सम्पन्न हो जाती है तब जीव अपने शुद्ध स्वरूपको प्राप्त कर लेता है, वह मुक्त हो जाता है, उसे निर्वाण मिल जाता है । इस प्रकार हम देख सकते हैं कि उक्त जीव और अजीवकी पूर्ण व्याख्यामें सृष्टिका पदार्थ विज्ञान या भौतिकशास्त्र का जाता है। भाव व बन्धमें मनोविज्ञानका विश्लेषण आ जाता है । संबर और निर्जरा तत्वोंके व्याख्यान में समस्त नीति व आचार शास्त्रका समावेश हो जाता है, और मोक्षके स्त्ररूप में जीवनके उच्चतम आदर्श ध्येय व विकासका प्रतिपादन हो जाता हैं । केवलज्ञानमें इसी समस्त बोध-प्रबोधका पूर्णतः व्यापक सूक्ष्मतम स्वरूप समाविष्ट है ।
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प्रस्तावना
५. धर्मोपदेश इस केवलज्ञानको प्राप्त कर भगवान् महावीर मगधकी राजधानी राजगृहमें साकर विपुलायल पर्वतपर विराजमान हुए। उनके समवसरण व सभामण्डपकी रचना हुई, धर्म व्याख्यान सुनने के इच्छुक राजा ध प्रजागण वहाँ एकत्र हुए और भगवानुने उन्हें अपने पूर्वोक्त तत्त्वोंका स्वरूप समझाया, तथा जीवनके सुखमय आदर्श प्राप्त करने हेतु गृहस्थोंको अणुव्रतोंका एवं त्यागियों को महावतोंका उपदेश दिया ।
६. महावीर-वाणोपर आश्रित साहित्य भगवान महावीरके इन्द्रभूति, गोतम, सुबम, जम्मू आदि प्रघा ग्यारह शिष्य जिन्हें गणधर कहा जाता है। उन्होंने महावीरके समस्त उपदेशोंको बारह अंगोंमें प्रिन्धारूक किया जो इस प्रकार थे
१. भाचारांग-इसमें मुनियोंके नियमोपनियमोंका वर्णन किया गया। इसका स्थान वैसा ही समझना चाहिर जैसा बौद्ध धर्ममें विनय पिटकका है ।
२. सन्नतांग-इसमें जैन दर्शन के सिद्धान्तों तथा क्रियावाद, अक्रियावाद, नियतिवाद आदि उस समय प्रचलित मतमतान्तरोंका निरूपण व विवेचन किया ।
६. स्थानांग-इसमें संरूपानुसार नमशः वस्तुओं के भेदोपभेदोंका विवरण था। जैसे दर्शन एक, चरित्र एक, समय एक, प्रदेश एक, परमाणु एक, आदि। क्रिया दो प्रकार की जैसे-तीव-क्रिया और अजोव-क्रिया । जीव-क्रिया पुनः दो प्रकार को-सम्परत्र-क्रिया और मिथ्यात्व-क्रिया । इसी प्रकार अजीव-क्रिया भी दो प्रकार की ईपियक और साम्पराधिक इत्यादि ।
४. समयायांग-इसमें पदार्थों का निरूपण उनके भेदोपभेदोंकी संख्याके अनुसार किया गया है जैसा कि स्थानांग में। किन्तु यहाँ वस्तु ओंकी संख्या स्थानांग के समान दश तक ही सीमित नहीं रही, किन्तु शत तथा शत-राहन पर भी पहुँच गया है। इस प्रकार इन ये अंगों का स्वरूप त्रिपिटकके अंगोत्तरनिकायके समान है।
५. व्यासपा प्रज्ञा-इसमें प्रश्नोतर रूपसे जैन दर्शन व आचारविषयक बातोंका विवेचन था।
६. नासाधम्मकहा-इसका संस्थान रूप सामान्यतः ज्ञात-धमकया किया जाता है और उसका यह अभिप्राय बतलाया जाता है कि उसमें ज्ञातृ-पुत्र महावीर के द्वारा उपदिष्ट धार्मिक कथाओंका समावेश था। किन्तु सम्भवतया ग्रन्थके उक्त
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धीरजिणिवरित
प्राकृत नाम का संस्कृत रूपान्तर न्यायधर्म-कथा रहा हो और उसमें पायों अर्थात् ज्ञान व नीतिसम्बन्धी संक्षिप्त कहावतोंको दृष्टान्त स्वरूप कथाओं द्वारा समझानेका प्रयल किया गया हो तो आश्चर्य नहीं ।
७. उपासकाध्ययन-इसमें उपासकों अर्थात् धर्मानुयायी गृहस्थों व श्रावकों के व्रतोंको उनके पालनेवाले पुरुषों के चारित्रकी कथाओं द्वारा समझाने का प्रयत्न किया गया ए| HEER यह अंग मुनि आचारको प्रकट करनेवाले प्रथम अन्य आचारांग का परिपूरक कहा जा सकता है ।
८. अन्तकृतदश-जैन परम्परामें उन मुनियोंको अन्तकृत कहा गया है जिन्होंने उग्र तपस्या करके घोर उपसर्ग सहते हुए अपने जन्म-मरण रूपी संसारका अन्त करके निर्वाण प्राप्त किया । इरा प्रकारके दश मुनियोंका इस अंगमें वर्णन किया गया प्रतीत होता है।
५. अनुत्तरोपपातिकदश--अनुत्तर उन उच्च स्वगोको कहा जाता है जिनमें बहुत पुण्यशाली जीव उत्पन्न होते है और वहां से चयुत होकर केवल एक बार पुनः मनुष्य योनिमें पाले और अपनी धार्मिक वृत्ति द्वारा उसी भवसे मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं । इरा अंगमें ऐसे ही दश महामुनियों व अनुत्तर-स्वर्गवासियोंके चारित्रका विवरण उपस्थित किया गया था।
10. प्रश्नध्याकरण-इसमें उसके नामानुसार मत-मतान्तरों व सिद्धान्तों सम्बन्धी प्रश्नोत्तरोंका समावेश था और इस प्रकार यह अंग व्यायाप्रज्ञसिका परिपूरक रहा प्रतीत होता है।
. विपाकसूत्र--विपाकका अर्थ है कर्मफल | कर्मसिद्धान्तके अनुसार सत्कोका फल सुख-भोग और दुष्कृत्योंका फल दुःस्त्र होता है। इसी बातको इस अंगमें दृष्टान्तों द्वारा समक्षाया गया।
११. दृष्टिवाद-इसके पांव भेद थे--परिकर्म, मूत्र, पूर्वगत, अनुयोग और चलिका । परिकर्ममें गणितशास्त्रका तथा सूत्र में मतों और सिद्धान्तोंका समावेश था । पूर्वगत्त के बौदह प्रभेद गिनाये गये हैं जिनके नाम हैं : १. उत्पादपूर्व, २. अग्रायणीय, ३. वीर्यानुवाद, ४. अस्तिनास्ति प्रवाद, ५, ज्ञानप्रबाद, ६. सत्यप्रसाद, ७. आत्म-प्रवाद, ८. कर्म-प्रवाद, ९. प्रत्याख्यान, १०. विद्यानुवाद, ११. कल्याणवाद, १२. प्राणवाद, १३. क्रियाविशाल, और १४. लोकबिन्दुसार। इनमें अपनेअपने नामानुसार सिद्धान्तों व तत्त्वोंका विवेचन किया गया था। इनमें आठवें पूर्व कर्मप्रवादका विशेष महत्त्व है क्योंकि वही जैनधर्म के प्राणभूत कर्म-सिद्धान्तका मूल स्रोत रहा पाया जाता है और उत्तरकालीन कर्म-सम्बन्धी समस्त रचनाएँ उसके ही आधार की गयी प्रतीत होती हैं। इन समस्त रचनाओंको पूर्वगत
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हार
प्रस्तावना कड्नका यही अर्थ सिद्ध होता है कि उनके विपयोंकी परम्परा महावीरसे भी पूर्वकालीन है। हां, उनमें महावीर द्वारा अपने सिद्धान्तानुसार संशोधन किया गया होगा।
दृष्टिवादके चौथे भेद अनुयोगका भी जैन साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान है । इसे प्रथमानुयोग भी कहा जाता है और समस्त पौराणिक वृतान्तों, धार्मिक चरित्रों एवं आख्यानात्मक कथाओं आदिको प्रयमानुयोगके अन्तर्गत ही माना जाता है। षट्स्वण्डागम सूत्र १,१,२ की अबला टोकाके अनुसार प्रथगानुयोगके अन्तर्गत पुराण के बारह भेद थे जिनमें क्रमशः अरहत्तों, चक्रवलियों, विशाधणे, वासुदेवों, धारणों, प्रज्ञाश्रमणों तथा कुरु, हरि, इश्वाकु, काश्यपों, वादियों एवं नाथ वंशोंका वर्णन था।
दृष्टिवादके पांचवें भेद चूलिकाके पांच प्रभेद गिनाये गये है--जलगत, स्थलगत, मायागत, रूपगत और आकाशगत ! इन नामों परसे प्रतीत होता है कि निर्म जल-पल आदि विपर्योका भौगोलिक व तात्विक विचन किया गया होगा और सम्भवतः उनपर अधिकार प्राप्त करने की मान्त्रिक-तान्त्रिक ऋद्धि-सिद्धि साधनात्मक क्रियाओं का विधान रहा हो ।
दिगम्बर परम्परानुनार उक्त समस्त अंगसाहित्य क्रमशः अपने मूल रूपमें विलुप्त हो गया 1 महावीर-निर्माण के पश्चात् १६२ वर्षों में हुए आठ मुनियोंको ही इन अंगोंका सम्पूर्ण ज्ञान था। इनमें अन्तिम श्रसकेपली भद्भयाहू कहे गये हैं। वत्पश्चात् क्रमशः सभी अंगों और पूर्वोके ज्ञानमें उत्तरोतर हारा होता गया और निर्वाणसे सातवीं शती में ऐसी अवस्था उत्पन्न हो गयी कि केवल कुछ महामुनियोंको ही इन अंगों व पूर्वोका आंशिक ज्ञानमात्र शेष रहा जिसके आधारमे समस्त जैन शास्त्रों व पुराणों की स्वतन्त्र रूपसे नयी शैली में विभिन्न देश-कालानुसार प्रचलित प्राकृतादि भाषाओंमें रचना की गयी। ___श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार वोर-निर्माणकी दसवीं शती में मनियोंकी एक महासभा गुजरात प्रान्तीय वल्लभी ( आधुनिक माला ) नामक नगरमें की गयी और वहाँ क्षमाश्रमण देवद्धि गणि की अध्यक्षतामें उक्त अंगोंमें से ग्यारह अंगोंका संकलन किया गया जो अब भी उपलब्ध है। यद्यगि ये संकलन पूर्णतः अपने मौलिक रूपको सुरक्षित रखते हुए नहीं पाये जाते । विषयको दृष्टिसे इनमें हीनाधिकता स्पष्ट दिखाई देती है। भाषा भी उनकी बह अर्द्धमागधी गहीं है जो महावीर भगवान्के समय में प्रचलित थी। उसमें उनके कालसे एक सहस्र वर्ष परचात्' उत्पन्न हुई भाषात्मक विशेषताओंका समावेश भी पाया जाता है। तथापि सामान्यतया ये प्राचीनतम विषयों व प्रतिपादन-शैलोका बोध कराने के लिए पर्याप्त
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वीरजिणिवचरित
हैं। उनका प्राचीनतम बौद्ध साहित्यसे भी मेल खाता है। जिस प्रकार बौद्ध साहित्य त्रिपिटक कहलाता है उसी प्रकार यह जैन साहित्य गर्मिपिटकके नाम से उल्लिखित पाया जाता है ।
यह समस्त साहित्य अंगप्रविष्ट कहा गया है। इसके अतिरिक्त मुनियोंके आचार व क्रियाकलापका विस्तारसे वर्णन अंगवाह्य नामक चौदह प्रकारकी रचनाओं में पाया जाता है जो इस प्रकार हैं
१. सामायिक, २. चतुत्रिशतिस्तव, ३. बन्दना, ४. प्रतिक्रमण, ५. वैनयिक, ६. कृतिकर्म, ७. दशकालिक ८. उत्तराध्ययन, ९. कल्पव्यवहार, १०. कल्पकल्प, ११. महाकल्प, १२. पुण्डरीक, १३. महापुण्डरीक, १४. निभिद्धिका
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इन नामों ही स्पष्ट है कि इन रचनाओंका विषय धार्मिक साधनाओं और विशेषतः मुनियोंकी क्रियाओंसे सम्बन्ध रखता है । यद्यपि वे चौदह रचनाएँ अपने प्राचीन रूपमें अलग-अलग नहीं पायी जातीं, तथापि इनका नाना ग्रन्थों में समावेश हैं और वे मुनियों द्वारा अब भी उपयोग में लायी जाती है ।
वल्लभीपुर में मुनि संघ द्वारा जो साहित्य-संकलन किया गया उसमें उक्त प्रथम औपारिक, राम्नोषि वर्ष १२ उपांग; निशीथ, महानिशीथ आदि ६ छेदसूत्र; उत्तराध्ययन, आवश्यक आदि ४ मूलसूत्र; चतुःशरण, आतुर प्रत्याख्यान आदि दश प्रकीर्णक, तथा अनुयोगद्वार और नन्वी ये वो चूलिका सूत्र भी सम्मिलित हो गये जिससे रामस्त अर्द्धमागधी आगम-प्रन्थों की संख्या ४५ हो गयी जिसे श्वेताम्बर सम्प्रदाय द्वारा धार्मिक मान्यता प्राप्त है। यह समस्त साहित्य अपनी भाषा व शैी तथा दार्शनिक व ऐतिहासिक सामग्री के लिए पालि साहित्य के समान ही महत्त्वपूर्ण हैं ।
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७. महावीर पिर्वाण काल
भगवान् महावीरका निर्वाण कब हुआ इसके सम्बन्ध में यह तो स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होता है कि यह घटना कार्तिक कृष्णपक्ष चतुर्दशीकी शत्रिके अन्तिम चरण में अर्थात् अमावस्या के प्रातः कालसे पूर्व घटित हुई और उनके निर्वाणोत्सवको देवों तथा मनुष्योंने दीपावलीके रूपमें मनाया । तदनुसार माजतक कार्तिककी दीपावली
१. समवायांग सू २११-१२७ । षट्खण्डागम १, १, २ विंटर निज : इंडियन लिटरेचर भाग २ जैन लिटरेचर ना निकल लिटरेचर | जगदीशचन्द्र प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृष्ठ ३३ आदि हीरालाल जैन : भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृष्ठ ४५ आदि। नेमिचन्द्र शाश्री : प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृष्ठ १५७ आदि ।
टीका भाग १, पृष्ठ २६ आदि । कापड़िया : हिस्ट्री ऑफ दि जैन
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प्रस्तावना
से उनका निर्वाण संवत् माना जाता है जिसका इस समय सन् १९७१-७२ में पौषीस सौ अन्ठान्नछे ( २४९८ ) दो वर्ष प्रचलित है तथा दो वर्ष पश्चात् पूरे पच्चीस सौ वर्ष होनेपर एक महामहोत्सव मनानेकी पोजना चल रही है। किन्तु इस संवत्सरका प्रचलन अपेक्षाकृत बहुत प्राचीन नहीं और महावीरके समयमें तथा उसके दीकाल पश्चात् तक किसी सन्-संवत्के उल्लेखका प्रचार नहीं था । पश्चात्कालीन ग्रन्थों में जो कालसम्बन्धी उल्लेख पाये जाते हैं उनमें कहीं-कहीं परस्पर कुछ विरोध पाया जाता है और कहीं अन्य साहित्यिक उल्लेखों तथा ऐतिहासिक घटनाओं से मेल नहीं खाता । इससे निर्वाण कालके सम्बन्धमें आधुनिक विद्वानोंके बीच बहुत-सा मतभेद उत्पन्न हो गया है। एक ओर जर्मन विद्वान डॉ. याकोबीने महावीर निर्वाण का समय ई.पू. चार सौ सतहत्तर ( ४७७) माना है। इसका आधार यह है कि मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्तका राज्याभिषेक ई. पू. ३२२ (वीन सौ बाईरा ) में हुआ और हेमचन्द्र-कृत परिशिष्ट पर्व (८-३३१ ) के अनुसार यह अभिषेक महावीरके निर्माणसे १५५ ( एक सौ पचान ) वर्ष पश्चात् हुआ था। इस प्रकार महावीर निर्वाण ३२२ + १५५ = ४४७ वर्ष पूर्व सिद्ध हुआ । किन्तु दूसरी ओर डॉ. काशीप्रसाद जायसवालका मत है कि बौखोंको सिंहल-देशीय परम्परामें बुद्धका निर्वाण ई.पू. ५४४ माना गया है। तथा मजिझमनिकायके सामगाम सूक्तम व त्रिपिटको अन्यत्र भी इस बातका उल्लेख है कि भगवान् बुद्धको अपने एक अनुयायी द्वारा यह समाचार मिला था कि पायामें महावीर का निर्माण हो गया। ऐसी भी धारणा रही है कि इसके दो वर्ष पश्चात् बुद्धका निर्माण हुआ। अतएव यह सिद्ध हुआ कि महावीर-निर्वाणका काल ई. पू. ५४६ है 1 किन्तु विवार करनेसे में दोनों अभिमत प्रमाणित नहीं होते। जैन साहित्यिक तथा ऐतिहासिक एक शुद्ध और प्राचीन परम्परा है जो वीर-निर्माण को विक्रम संवत् से ४७० ( चार सौ सत्तर) वर्ष पूर्व तथा शक संवत् से ६०५ ( छह सौ पाँच ) वर्ष पूर्व हुआ मानती है। इस परम्परा का ऐतिहासिक क्रम इस प्रकार है : जिस रात्रिको वीर भगवान्का निर्वाण हुआ उसी रात्रिको उज्जैनके पालक राजाका अभिषेक हुआ। पालकने ६. वर्ष राज्य किया । तत्पश्चात् नन्दवंशीय राजाओंने १५५ वर्ष, मौर्यवंशने १०८ वर्ष, पुष्यमित्रने ३० वर्ष, बलमित्र और भानुमित्रने ६० वर्ष, नहपान ( नहृवान नरवाहन या नहसेन ) ने ४० वर्ष, गर्दभिल्लने १३ वर्ष और एक राजाने ४ वर्ष राष्प किया, और तत्पश्चात् विक्रम-काल प्रारम्भ हुआ । इस प्रकार वीरनिर्वाणसे ६० + १५५ + १०८+ ३० +६०+ ४०+१३+ ४ = ४७० वर्ष विक्रम संवत्के प्रारम्भ तक सिद्ध हुए । डॉ. याकोबीने हेमचन्द्र आचार्यके जिस मतके आधारपर वीर-निर्वाण
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वीरजिणिवपरित और चन्द्रगुप्त मौर्य के बीच १५५ वर्षका अन्तर माना है वह वस्तुतः ठीक नहीं है। डॉ. याकोबीने हेमचन्द्र के परिशिष्ट पर्वका सम्पादन किया है और उन्होंने अपना यह मत भी प्रकट किया है कि उक्त कृति की रचनामें शीघ्रताके कारण अनेक भूलें रह गयी है। इन भूलों में एक है कि पति और पन्त का काल अंकित करते समय वे पालक रामाका ६० वर्षका काल भूल गये जिसे जोड़नेसे वह अन्सर १५५ वर्ष नहीं किन्तु २१५ वर्षका हो जाता है। इस भूलका प्रमाण स्वयं हेमचन्द्र द्वारा उल्लिखित राजा कुमारपालके कालमें पाया जाता है । उनके द्वारा रचित त्रिषष्टि-शलाका-पुरुषचरित ( पर्व १०, सर्ग १२, श्लोक ४५४६ ) में कहा गया है कि वीर निर्वाणसे १६६९ वर्ष पश्चात् कुमारपाल राजा हुए। अन्य प्रमाणोंसे सिद्ध है कि कुमारपालका राज्याभिषेक ११४२ ई. में इबा था । अतएव इसके अनुसार बीर-निर्वाणका काल १६६९ – ११४२ = ५२७ ई. पू. सिद्ध हुआ।
डॉ. जायसवालने जो बुद्ध निर्माणका काल सिंहलीय परम्पराके आधारसे ई. पू. ५४४ मान लिया है बह भी अन्य प्रमाणोंसे सिद्ध नहीं होता । उससे अधिक प्राचीन सिंहलीम परम्पराके अनुसार मौर्य सम्राट अशोकका राज्याभिषेक बुद्धनिर्वाणसे २१८ वर्ष पश्चात् हुआ था । अनेक ऐतिहासिक प्रमाणोंसे सिद्ध हो चुका है कि अशोकका अभिषेक ई. पू. २६९ वर्ष में अथवा उसके लगभग हुआ था । अतएन बुद्ध-निर्वाणका काल २१८+ २६९ = ४८७ ई. पू. सिद्ध हुआ। इसकी पुष्टि एक चीनी परम्परासे भी होती है। बोनके कैन्टन नामक नगरमें बुद्ध-निर्वाणके वर्षका स्मरण बिन्दुओं द्वारा सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया गया है। प्रति वर्ष एक बिन्दु जोड़ दिया जाता था। इन बिन्दुओंको संख्या निरन्तर ई. सन् ४८९ तक चलती रही और तब तक बिन्दुओं की संख्या ९७५ पायी जाती है। इसके अनुसार बृद्ध-निर्वाणका काल ९७५ - ४८१ = ४८६ ई. पू. सिद्ध हुआ । इस प्रकार मिहल और चीनी परम्परामें पूरा सामञ्जस्य पाया जाता है । अतएव बुद्ध-निर्वाण का यही काल स्वीकार करने योग्य है।। ___स्वयं पालि त्रिपिटकमें इस बातके प्रचुर प्रमाण पाये जाते हैं कि महावीर आमुमें और तपस्या बुद्धसे ज्येष्ठ थे, और उनका निर्वाण भी बुद्धके जीवन-काल में ही हो गया था 1 दोघनिकायके थामण्य-फल-सुत्त, संयुत्त-निझामके दहर-सुत्त तथा सुत्त-निपातके सभिय-सुत्तमें बुद्धसे पूर्ववर्ती छह तीर्थकोंका उल्लेख आया है। उनके माम है पूरण कश्यप, मश्खलिगोशाल, निगंठ नातपुस ( महावीर), संजय बेलठिपुत, प्रबुद्ध कच्चायन और अजितकेश-कंवलि। इन सभीको बहुत लोगों धारा सम्मानित, अनुभवी, चिरप्रमजित यमोवृद्ध कहा गया है, किन्तु बुद्धको ये
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प्रस्तावना
विशेषण नहीं लगाये गये। इसके विपरीत उन्हें उक्त छहकी अपेक्षा जन्म अल्प
अयस्क व प्रव्रज्या नया कहा गया है। इससे सिद्ध है कि महावीर बुद्धसे ज्येष्ठ - थे और उनसे पहले ही प्रवृजित हो चुके थे ।
मज्झिमनिकामके साम-गाम सुत्तमे वर्णन पाया है कि जब भगवान् बुद्ध प्राम-गाममें विहार कर रहे थे तब उनके पास चुन्द नामक श्रमणोद्देश आया और उन्हें यह सन्देश दिया कि अभी-अभी पावामें निगंठ नासपुत्त ( महावीर) की मृत्यु हुई है, और उनके अनुयायियोंमें कलह उत्पन्न हो गया है । बुद्ध के पट्ट शिष्य मानन्दको इस समाचारसे सन्देह उत्पन्न हुआ कि कहीं बुद्ध भगवान्के पश्चात् उनके संघमें भी ऐसा ही विवाद उत्पन्न न हो जाये ।। अपने इस संदेहको चर्चा उन्होंने बुद्ध भगवान्से भी की। यही वृत्तान्त वीप-निकायके पासादिकसुक्तमें भी पाया जाता है। इसी निकामहे संगोलिक्विार-त में भी बनने में महावीर-निर्वाणका वही समाचार पहुंचता है और उसपर बुद्धके शिष्य सारिपुत्तने भिक्षुओंको आमन्त्रित कर वह समाचार सुनाया तया भगवान बुद्धके निर्वाण होनेपर बिवावफी स्थिति उत्पन्न न होने देनेके लिए उन्हें सतर्क किया । इसपर स्वयं बुद्धने कहा-साधु, साधु, सारिपुत्र, तुमने भिक्षुओंको अच्छा उपदेश दिया। ये प्रकरण निस्सन्देह रूपसे प्रमाणित करते हैं कि महावीरका निर्वाण' बुद्ध के जीवन-काल में ही हो गया था। यही नहीं, किन्तु इससे उनके अनुयायियोंमें कुछ विवाद भी उत्पन्न हुआ था जिसके समाचारसे बुद्ध के संघमें कुछ चिन्ता भी उत्पन्न हुई यो, और उसके समाधान का भी प्रयत्न किया गया था। इस प्रकार बुद्धसे महावीरकी वरिष्ठता और पूर्व-निर्वाण निस्सन्देह रूपसे सिद्ध हो जाता है और उनका दोनोंकी उक्त परम्परागत निर्वाण-तिथियोंसे भी मेल बंट जाता है।
८. महावीर-जन्मस्थान प्रस्तुत ग्रन्थ संधि १ कडवक ६-७ में कहा गया है कि जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें स्थित कुण्डपुरके राजा सिद्धार्थ और रानी प्रियकारिणीके चौबीसवें जिनेन्द्र महावीरका जन्म होगा । इस परते इतना तो स्पष्ट हो गया कि भगवान्का जन्मस्थान कुण्ठपुर था । किन्तु वहीं उसके भारत में स्थित होने के अतिरिक्त और अन्य
१. महावीर और युद्ध के निर्माण कालसम्बन्धी उरलेला । हारोहके लिए देखिए
बिटरनिटन ! हिरी ऑफ इंडियन लिटरेचर भाग २ अपेण्डिक्स १ बुद्ध-निर्धाण व अपेगि ६ महाकार-निवाग] गुनि मगराज कृत आगम और त्रिपिटक : एक अनुशौकन, पृष्ठ ४६-१२८॥
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वीरजिणिवरित कोई प्रदेश आदिकी सूचना नहीं दी गयो । तथापि अन्य ऐसे उल्लेख प्राप्त हैं जिनसे स्पष्ट हो जाता है कि यह कुण्डपुर विदेह प्रदेश में स्थित था । उदाहरणार्थ पूज्यपाद स्वामी कृत निर्वाण-भक्तिमें कहा गया है कि :
"सिद्धार्थ-नपति-जनमो भारतवास्ये .विदेह-कुण्ठपुरे ।" अर्थात् राजा सिद्धार्थ के पुत्र महावीरका जन्म भारतवर्ष के विदेह प्रदेशमें स्थित कुण्डपुरमें हुआ। इसी प्रकार जिनसेन कृत हरिवंश पुराण (सर्ग २ श्लोक १ से ५) में कहा गया है कि ;
अथ देशोऽस्ति विस्तारो जम्बूदीपस्य भारते । निदेन की विस्तारपटसमः श्रिया ॥ वत्राखण्डलनेवालीपधिनीखण्डमण्डनम् 1 -
सुखाम्भःकुण्डमाभाति नाम्ना कुण्डपुरं पुरम् ॥ अर्थात् जम्बूद्वोपके भरतक्षेत्र में विशाल, विख्यात व समृद्धिमें स्वर्गके समान जो विदेह देश है उसमें कुण्डपुर नामका नगर ऐसा शोभावमान दिखाई देता है जैसे मानो वह सुखरूमी जलका कुण्ड ही हो, तथा जो इन्द्र के सहस्र नेत्रोंकी पंक्तिको कमलनी-अण्डसे मण्डित हो। गुणभद्रका उत्तरपुराण (पर्व ७४ श्लोक २५१-२५२) में मो पाया जाता है कि:
भरतेऽस्मिन्विदेहास्ये विषये भवनागणे ।
रामः कुण्सपुरेशस्य वसुधारापतत्पृथुः ।। अर्यात्' इसो भरत क्षेत्रके विदेह नामक देश में कुण्डपुर-नरेशके प्रासादके प्रांगण में विशाल धनको धारा धरसी ।
अमागयो आगमो आधाराङ्ग सूत्र ( २, १५ ) तथा कल्पसूत्र ( ११० ) में भी कहा गया है कि:
समणे भगवं महाबोरे गाए णायपुत्ते णायकुलणिवत्ते विदेहे विदेहृदित्ते विदेहजच्चे विदेहसूसाले तीस वासाई विदेहंसि कट्टु अगारमज्से वसित्ता.... ।
अर्थात् ज्ञात, ज्ञान-पुत्र, ज्ञातृकुलोत्पन्न, वैदेह, विदेहदत्त, विदेहजात्य, विदेहन सुकुमार, भ्रमण भगवान महावीर ३० वर्ष विदेदेशके ही गृहमें निवास करके प्रजित हुए।
और भी अनेक अवतरण दिये जा सकते है, किन्तु इतने ही उल्लेखोसे यह भली प्रकार सिद्ध हो जाता है कि भगवान् महावीरको जन्मनगरीका नाम कुण्डपुर था, और वह कुण्डपुर विदेह प्रदेशमें स्थित था। सौभाम्यसे विदेहकी सीमाके सम्बन्धमें कहीं कोई विवाद नहीं है । प्राचीनतम काल से बिहार राज्यका गंगासे उत्तरका भाग विदेह और दक्षिणका भाग मगध नामसे प्रसिद्ध रहा है । इसी विदेह प्रदेशको तौरभुक्ति नामसे भी उल्लिखित किया गया है जिसका वर्तमान
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प्रस्तावना रूप तिरहुत अब भी प्रचलित है। पुराणोंमें इसकी सीमाएँ इस प्रकार निर्दिष्ट की गयी है :
गङ्गा-हिमवतोर्मध्ये नदीपञ्चदशान्तरे । तीरभुक्तिरिति ख्यातो देशः परम पावनः ॥ कौशिकी तु समारम्प गण्डकी मधिगम्य वै । योजनानि पतु विशद् व्यायामः परिकीर्तितः॥ गङ्गा-प्रवाहमारम्य यावद् हैमवतं परम् ।
विस्तार: षोडशं प्रोक्तो देशस्य कुलनन्दन ।। इस प्रकार विदेह अर्थात् तीरभुक्ति ( तिरहुत ) प्रदेश की सीमाएं सुनिश्चित है। उत्तरमें हिमालय पर्वत और दक्षिणमें गंगा नदी, पूर्व में कौशिकी और पश्चिम में गण्डकी नामक नदियो। किन्तु विदेहको मे सीमाएँ भी एक विशाल क्षेत्रको सूचित करती हैं और अब हमारे लिए यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि इस प्रदेश में कुण्डपुरको कहाँ रखा जाये । इसके निर्णयके लिए हमारा ध्यान महावीरके ज्ञातकुलोत्पन्न, ज्ञालपुत्र आदि विशेषणोंकी ओर आकृष्ट होता है। ये ज्ञात क्षषियवंशी कहाँ रहते थे इसका संकेत हमें बौद्ध साहित्यके एक अतिप्राचीन ग्रन्थ महावस्तुमें प्राप्त होता है। यहाँ प्रसंग यह है कि बुद्ध भगवान् गंगाको पार कर वैशालीको ओर जा रहे हैं और उनके स्वागतके लिए वैशाली संघके लिच्छवी आदि अनेक क्षत्रियगण शोभायात्रा बनाकर उनके स्वागतार्थ भाते हैं। इसका वर्णन करते हुए कहा गया है कि :
सवानि राज्यानि प्रशायमाना।
तथा इमे लेचछवि-मध्ये सन्तो।
देवेहि शास्ता जपमामकासि ।। अर्थात् ये जो क्षत्रियगण भगवान्के स्वागतके लिए आ रहे है उनमें जो ज्ञात नामक क्षश्रियगण है ये अपने विशाल राज्यका शासन भले प्रकारसे करते हैं और वे लिच्छवि गणके क्षत्रियों के बीच ऐसे प्रतिष्ठित और शोभायमान दिखाई देते है कि स्वयं शास्ता अर्थात् स्वयं भगवान् बुद्धने उनकी उपमा देवोंसे की है। इस उल्लेखसे एक तो यह बात सिद्ध हो जाता है कि ज्ञातुकुलके क्षत्रियोंका निवासस्थान वैशाली हो था, और दूसरे वे लिच्छविंगण में विशेष सम्मानका स्थान रखते थे। इसका कारण भी स्पष्ट है। ज्ञातृकोंके कुलको प्रतिष्ठा इस कारण और भी बढ़ गयी प्रतीत होती है क्योंकि उनके गणनायक सिद्धार्थ वैशाली गणके नायक राजा चेटकके जामाता ये। चेटककी कन्या ( भगिनी ) प्रियकारिणी त्रिशलाका
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वीरजिणिवपरिउ विवाह ज्ञातृकुल-श्रेष्ठ राजा सिद्धार्थसे हुआ था। भगवान महावीरको बैशालीसे सम्बद्ध करनेवाला एक और पुष्ट प्रमाण उपलब्ध है। अर्द्धमागधी भाग में ( सूत्रकृतांग १, २; उत्तराध्ययन ६ आदि ) अनेक स्थानोंपर भगवान महावीरको देसालीय-वैशालिक कहा गया है। यद्यपि कुछ टीकाकारोंने वैशालिकका विशाल-व्यक्तित्वशील, विशालामाताके पुत्र आदि रूपसे विविध प्रकार अर्थ किये हैं तथापि वे संतोषजनक नहीं हैं । वैशालिकका यही स्पष्ट अर्थ समझमें आता है कि वैशाली नगरके नागरिक थे । आगम में अनेक स्थानोंपर वंशाली श्राबकोंका भी उल्लेख आता है। भगवान् ऋषमदेव कौशल देशके थे, अतएव उन्हें 'मरहा कोसलीमे' अहि कोरड के सरल ऋहार भी सम्मोनिट किया गया है ( समवायांग सूत्र १४१, १६२)। इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि महावीर वैशाली नगरमें ही उत्पन्न हुए थे और कुण्डपुर उसी विशाल नगरका एक भाग रहा होगा।
अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि वैशालीकी स्थिति कहाँ थी? इसका स्पष्ट उत्तर वाल्मीकि कृत रामायण ( १,४५ ) में पाया जाता है। राम और लक्ष्मण विश्वामिन मुनिके साथ मिथिलामें राजा जनक द्वारा आयोजित धनुर्यज्ञमें जा रहे हैं। जब गंगा-तटपर पहुंचे तब मुनिने उन्हें गंगा-अवतरण का आख्यान सुनाया। तत्पश्चात् उन्होंने गंगा पार की और वे उसके उत्तरीय तटपर जा पहुँचे । बहाँसे उन्होंने विशालापुरीको देखा:
उत्तरं तीरमासाद्य सम्पूज्यषिगण ततः ।।
गङ्गाकूले निविष्टास्ते विशालां ददृशुः पुरीम् ॥९॥ ( रामा. ४५,९) और वे शीघ्र ही उस रम्य, दिव्य वथा स्वोपम नगरी में जा पहुँचे ।
ततो मुनिवरस्तूर्ण मगाम सहाधवः । विशाला नगरौं रम्पां दिव्यां स्वोपमा तदा ।।
(रामा. १,४५, ९-१०) यहां उन्होंने एक रात्रि निवास किया और दूसरे दिन वहाँ से चलकर वे जनकपुरी मिथिलामें पहुंचे।
'उष्य तत्र निशामेको जम्मतुमिथिलां ततः।'
बौद्ध ग्रन्थों में भी वैशाली के अनेक उल्लेल' आये है और वहां भी स्पष्टतः कहा गया पाया जाता है कि बुद्ध भगवान् गंगाको पारकर उत्तरकी ओर वैशाली में पहुँचे । वैशालो में उस समय लिच्छवि संघका राज्य था तथा गंगाके दक्षिणमें मगधनरेश श्वेणिक बिम्बसार और उनके पश्चात् कुणिक अजातशत्रुका एकछत्र राज्य था। इन दोनों राज्यतन्त्रों में मौलिक भेद था और उनमें पता भी बढ़
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प्रस्तावमा नयी थी। बौद्ध सन्थोंमें उल्लेख है ( दीघनिकाय-महापरिणिवाण सुत्त ) कि मजा मन्त्री वर्षकार बुद्ध पूल था या वं वैशालीयो लिच्छवि संवपर विजय प्राप्त कर सकते है ? इसके उत्तरमें बुद्धने उन्हें यह मूचित किया था कि जबतक लिच्छवि गण के लोग आनी गणतन्त्रीय व्यवस्थाको सुसंगठित हो एफमतसे समर्थन दे रहे है, न्यायनीतिका पालन करते है और सदाचारके नियमों का उल्लंघन नहीं करते, तबतक उन्हें कोई पर।जित नहीं कर सकता। यह बात जानकर बर्षकार मन्त्रीने कुटनीतिसे लिच्छवियोंके बीच फट डाली और उन्हें ग्यायनीतिसे भ्रष्ट क्रिया । इसका जो परिणाम हुआ उसका विशद वर्णन अर्द्धमागधी आगमके भगवती सूत्र, सप्तम शतक में पाया जाता है। इसके अनुसार अजातशत्रुकी सेनाने वैशालीपर आक्रमण किया। युद्ध में महाशिलकंटक और रथमुसल नामक युद्ध-यन्त्रों का उपयोग किया गया । अन्ततः वैशाली के प्राकारका भंग होकर अजातशत्रुकी विजय हो गयो । तात्पर्य यह है कि महावीरके कालमें वैशालीकी' बड़ी प्रतिष्ठा थी और उस नगरीका नागरिक होना एक गौरयकी बात मानी जाती थी । इसीलिए महावीरको वैशालीय कहकर भी सम्बोधित किया गया है । अनेक प्राचीन नगरोंके साथ इस वैशालीयका भी दीर्घकाल तक इतिहासज्ञोंको अता-पता नहीं था। किन्तु विगत एक शताब्दी में जो पुरातत्त्व सम्बन्धी खोज-शोत्र हुई है उसमें प्राचीन भग्नावशेषों, मद्राओं व शिलालेखों मादिके आधारसे प्राचीन वैशालीकी ठोक स्थिति अवगत हो गयी है और निस्सन्देह रूपये प्रमाणित हो गया है कि बिहार राज्यसे गंगा के उत्तरमें मुजफ्फरपुर जिलेके अन्तर्गत बसाई नामक ग्राम ही प्राचीन वैशाली है । स्थानीय खोज-शोषसे यह भी माना गया है कि वर्तमान बसाढ़के समीप ही जो बासुकुण्ड नामक ग्राम है वही प्राचीन कुण्डपुर होना चाहिए । वहां एक प्राचीन कुण्डके भी चिह्न पाये जाते हैं जो क्षत्रियकुण्ड कहलाता रहा होगा । उसोके समीप एक ऐसा भी भूमिखण्ड पाया गया जो 'अहल्य' माना आता रहा है। उसपर कभी हल नहीं पलाया गया, तथा स्थानीय जनताकी धारणा रही है कि वह एक अतिप्राचीन महापुरुषका जन्मस्थान था । इसलिए उसे पवित्र मानकर लोग वहां दीपावली को अर्थात महावीरके निर्वाणके दिन दीपक जलाया करते हैं । इन सब बातोंपर समुचित विचार करके विद्वानोंने उसी स्पलको महावीरको जन्मभूमि स्वीकार किया और बिहार सरकारने भो इसी आधारपर उस स्थलको अपने अधिकारमें लेकर उसका घेरा बना दिया है और वहाँ एक कमलाकार खेदिका बनाकर वहाँ एक संगमरमरका शिलापट्ट स्थापित कर दिया है। उसपर अर्धमागधी भाषामें आ3 गाथाओंका लेख हिन्दी अनुवाद सहित भी अंकित कर दिया गया है जिसमें वर्णन है कि यह बह स्थल है
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बोरजिणिवपरित जहां भगवान महावीरका जन्म हुआ था और जहाँसे थे अपने ३० वर्षके कुमारकालको पूरा कर प्रवजित हुए थे । शिलालेखमें यह भी उस्लेख है कि भगवान के जन्मसे २५५५ वर्ष व्यतीत होनेपर विक्रम संवत् २०१२ वर्षमें भारत के राष्ट्रपति श्री राजेन्द्रप्रसादने वहाँ आकर उस स्मारकका उद्घाटन किया।
महावीर स्मारकके समीप ही तथा पूर्वोक्त प्राचीन क्षत्रिय कुण्डको तटवर्ती, भूमिपर साह शान्तिप्रसादके दानसे एक भव्य भवन का निर्माण भी करा दिया गया। है और वहाँ बिहार राज्य शासन द्वारा प्राकृत जैन शोध-संस्थान भी चलाया जा । रहा है। यह संस्थान सन् १९५६ में मेरे ( डा. हीरालाल जैन ) निर्देशकस्वमें मुजफ्फरपुरमें प्रारम्भ किया गया था। उन्हीं के द्वारा वैशाली में महावीर स्मारक स्थापित कराया गया तथा शोष-संस्थानके भवनका निर्माण कार्य प्रारम्भ कराया गया 1
वैशालीकी स्थितिका यह जो निर्णय किया गया उसमें एक शंका रह जाती है। कुछ धर्म-इन्धुओंको यह बात खटकतो है कि कहीं-काह: शालोको स्थिति विदेहमें नहीं, किन्तु सिन्धु देशमैं कही गयी है । प्रस्तुत ग्रन्थ ( ५,५ ) में भी कहा पाया जाता है कि सिंधविसइ वइसालोपुरवरि' तथा संस्कृत उत्तर पुराण ( ७५,३ ) में भी कहा गया है :
सिन्ध्वास्यविषये भूभृद्रशालोनगरेऽभवत् ।
चेटकाख्योऽतिविख्यातो विनीत: परमाहत: ।। इन दोनों स्थानोंपर सिन्धु विषय व सिग्ध्वाख्यविषयेका सात्पर्य सिन्ध देशसे लगाया जाना स्वाभाविक ही है। किन्तु साथ ही यह भी स्पष्ट है कि वर्तमान सिन्धदेशमें न तो किसी वैशाली नामक नगरीका कहीं कोई उल्लेख पाया गया
और न उसको पूर्वोक्त समस्त ऐतिहासिक उल्लेखों और घटनाओंसे सुसंगति बैठ सकती है। वैशालीकी स्थिति में अब कहीं किसी विद्वानको संशय नहीं रहा है । इस विषयपर मैंने जो विचार किया है उससे मैं इस निर्णयपर पहुंचा है कि उत्तर पुराण में जो 'सिन्ध्वास्यविषये पाठ है वह किसी लिपिकारके प्रमादका परिणाम है। यथार्थतः वह पाठ होना चाहिये 'सिन्ध्याय-विषये' जिसका अर्थ होगा बह प्रदेश जहाँ नदियोंका बाहुल्य है। तिरहुत प्रदेशका यह विशेषण पूर्णतः सायंक है। इस प्रदेशका उल्लेख शंकरदिग्विजय नामक ग्रन्थमें भी आया है, और वहाँ उसे उदकदेश कहा गया है। तीरभुक्ति नामकी भी यही सार्थकता है कि समस्त प्रदेश प्रायः नदियों और उसके तटवर्ती क्षेत्रोंमें घटा हुआ है। ऊपर जो तीरभुक्ति सम्बन्धी एक उल्लेख 'उद्धृत किया गया है उसमें इस प्रदेशको 'नदी-पञ्चदशान्तरै' कहा गया है, अर्थात् पन्द्रह नदियों में बटा हुआ प्रदेश ! वहीं नदियों की बहुलता
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प्रस्तावना
खया समय-समयपर पूरे प्रदेशका जलप्लावन आज भी देखा-सुना जाता है । अतः पूर्वोक्त दोनों उल्लेखोंसे किसी अन्य सिन्धु देशका नहीं, किन्तु इसी सिन्धुबहुल, उदकदेश या तीरभुकिसे ही अभिप्राय है । ____ अब इस विषय में एक प्रश्न फिर भी शेष रह जाता है। इधर दीर्घकालसे महावीर स्वामीका जन्म-स्थान बिहार के पटना जिले में नालन्दाके समीप कुण्डलपुर माना जाता है। वहीं एक विशाल मन्दिर भी है और वह भगवान्के जम्मकल्याणक स्थान के रूपमें एक तीर्थ माना जाता है। इसी श्रद्धासे , वहां सहस्रों पात्री तीर्थयात्रा करते हैं | उसी प्रकार श्वेताम्बर सम्प्रदाय द्वारा भगवान् का जन्मस्थान मुंगेर जिलेके लच्छूआड़ नामक ग्रामके समीप क्षत्रिय-कुण्डको माना गया है। किन्तु ये दोनों स्थान गंगाके उत्तर विदेह देशमें न होकर गंगाके दक्षिण में मगध देशके अन्तर्गत हैं और इन कारण दोनों ही सम्प्रदायोंके प्राचीनतम स्पष्ट अन्योल्लेखोंके विरुद्ध पड़ते हैं । यथार्थतः इस विषयमें सन्देह याकोबी आदि उन विदेशी विद्वानोंने प्रकट किया जिन्होंने इस विषयपर निष्पक्षतापूर्वक शुद्ध ऐतिहासिक दृष्टिसे विचार किया था, और उन्हीं की खोज-शोत्री द्वारा वैशाली तथा कुष्ठपुरकी वास्तविक स्थितिका पता चला। ये जो दो स्थान वर्तमानमें जन्मस्थल माने जा रहे हैं उनकी परम्परा वस्तुतः बहुत प्राचीन नहीं है। विकार करनेसे ज्ञात होता है कि विदेह और मगध प्रदेशोंमें जैनधर्मके अनुयायियोंकी संख्या महावीरके कालसे लगभग बारह सौ वर्पतक तो बहुल रहा । सातवीं शताब्दीमें हर्षवर्धनके कालमें जो चीनी यात्री हुयेनत्यांग भारतमें आया था उसने समस्त बौद्ध तीर्थोकी यात्रा करने का प्रयत्न किया था। वह वैशाली भी गया था जिसके विषयमें उसने अपनी यात्राके वर्णनमें स्पष्ट लिखा है कि वहा बौद्ध धर्मानुयायियोंकी अपेक्षा निर्मन्थों अर्थात जैनियों की संख्या अधिक है। किन्तु इसके पश्चात् स्थितिमें बड़ा अन्तर पहा प्रतीत होता है, और अनेक कारणों से यहाँ प्रायः जैनियों का अभाव हो गया। इसके अनेक शताब्दी पश्चात् सम्भवतः मुगलकालमें व्यापारकी दृष्टि से पुनः जनी यहां आकर बसे और उन्होंने पुरातत्त्व व ऐतिहासिक प्रमाणोंके आधारपर नहीं, किन्नु केवल नाम-साम्य तथा भ्रान्त जनश्रुतियों के आचारसे कुण्डलपुर व लच्छुआड़में भगवान के जन्मस्थानकी कल्पना कर ली। अब उफ दोनों स्थान वहाँके मन्दिरों के निर्माण, गतियोंकी प्रतिष्ठा तथा सैकड़ों वर्षोंस जनताको श्रद्धा एवं तीर्थयात्राके द्वारा तीर्थस्थल बन गये हैं और बने रहेंगे। किन्तु जब हमने यह जान लिया कि भगवान का वास्तविक जन्म स्थान वैशाली व कुण्ठपुर है उसे समस्त भारतीय व विदेशी विद्वानोंने एकमतसे स्वोकार किया है तथा बिहार शासन द्वारा भी उसे मान्यता प्रदान कर वहाँ महावीर स्मारक और
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वीरजिणिवचरिउ शोध-संस्थान की स्थापना भी कोई समस्त जनाको रा . अपे: है नहीं करना चाहिए और अपना पूरा योगदान देकर उसे उसके ऐतिहासिक महस्वके । अनुरूप गौरवशाली बनाना चाहिए।'
२. महावीर-तप-कल्याणक क्षेत्र भगवान्ने तगश्वरण कहाँ प्रारम्भ किया था इसका उल्लेख प्रस्तुत ग्रन्थ । (१, ११ ) में इस प्रकार पाया जाता है :
चंदप्पह-सिवियहि पहु चडिपणु । ताहिँ णाह-संडवणि णवर दिण्णु 11 मग्गसिर-कमण-दसमी-दिति । संजायइ तियसुच्छवि महति ।। वोलीणइ चरियावरण पंकि। हत्थुत्तरमज्सासिइ ससंकि ॥ . छट्ठीयवासु किउ मलहरेण ।
तवचरणु लइउ परमेसरेण ॥ इसी प्रकार संस्कृत उत्तरपुराण (७५, ३०२-३०४) में भगवान्के तपग्रहणका उल्लेख इस प्रकार पाया जाता है :
नाथः (नाथ-) पण्डवनं प्राप्य स्वयानादवरुह्य सः । श्रेष्ठ: पाठोपवासेन स्वप्रभापटलावृते ॥३०२॥ निविश्योदङ्मुखो वीरो रून्द्ररत्नशिलातले । दशम्यां मार्गशीर्षस्य कृष्णायां शशिनि श्रिते ।। हस्तोत्तरक्षयोर्मध्य भागं चापास्तलक्ष्मणि । दिवसात्रसितौ धीरः संपमाभिमुखोऽभवत् ॥
सौधर्माद्यः सुरैरेत्य कृताभिषवपूजनः ।। हरिवंशपुराण ( २,५०-५३ ) के अनुसार :
आरुह्य दिविका दिव्यामुद्यमाना सुरेश्वरैः ॥ उत्तराफाल्गुनीवेव वर्तमाने निशाफर।। कृष्णस्य मार्गशीर्षस्म दशम्यामगमद् वनम् ॥
१. हानले उपालक-दशा, परतावना व टिप्पण , केम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इपिड्या, पृष्ठ १४०१
भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ० २२ आदि ।
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प्रस्तावना
अपनीय तनोः सर्वं वस्त्रमाल्यविभूषणम् । पञ्चमुष्टिभिरुद्धृत्य मूर्धजानभवन्मुनिः ॥
इन तीनों उल्लेखॉका अभिप्राय यह है कि नाथ, नाथ, नाय अथवा ज्ञात बंशीय भगवान् महावीर ने मार्गशीर्ष कृष्णा १०वीं के दिन षण्डवनमें जाकर तपश्चरण प्रारम्भ किया और वे मुनि हो गये । यथार्थतः अर्द्धमागधी ग्रन्थों, जैसे कल्पसूत्रादिमें इसे 'णाय- संडवन' अर्थात् ज्ञातृ क्षत्रियोंके हिरसेका वन कहा गया है और मेरे मतानुसार उत्तरपुराण में भी मूलतः पाठ नाथ- षण्डवन व अपभ्रंशमें
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हसंडण रहा हूँ जिसे अज्ञानवश लिपिकारोंने अपनी दृष्टिसे सुधार दिया है । अतः भगवान्की तपोभूमि ज्ञातृवंशी क्षत्रियोंके निवास वैशाली व कुण्डपुरका समीपवर्ती उपवन ही सिद्ध होता है ।
१०. भगवान् का केवलज्ञान क्षेत्र
बारह- संयच्छर तव चरणु fee सम्मणा दुक्कियन्हरणु ॥ पोसंतु अहिंसति ससहि । भवंतु तु विहरंतु महि ॥
गत जिम्हि - गामहु अइ-णियहि । सुविउलि रिजुकूला इहि तडि ||
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भगवान्को केवलज्ञान कहाँ उत्पन्न हुआ इसका उल्लेख प्रस्तुत ग्रन्थ (२, ५) मैं निम्नप्रकार पाया जाता है !
पत्ता -- मोर की र-सारस-सरि उज्जायम्मि मणोहरि ॥
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साल- मूलि रिसि-राणउ रयण - सिलहि आसीत || ५॥
हमदुरिएँ । परिपालिय-तेरह विचरिएँ || बसाह - मासि सिय सभि दिणि 1 अवरह जायइ हिम - किरणि ॥1 हत्युत्तर - मज्झ समासियइ । पण केवल सियइ |
अर्थात् भगवान् महावीरने बारह वर्ष तक तपस्या की, तथा अपनी स्वसा चन्दना अहिंसा और क्षमा भावका पोषण किया एवं विहार करते हुए में
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वीरजिणिदचरित ऋम्भिक प्रामके अतिनिकट ऋजुकूला नदीके तटवर्ती वनमें पहुँचे । वहां उन्होंने एक साल वृक्षके नीचे शिलापर ध्यानारूढ़ हो दो दिन उपवासकर वैशाख शुक्ल दशमी के दिन अपराहु कालमें जब चन्द्र उत्तरापान और हस्त नक्षत्रों के मध्यमें, था तब केवलज्ञान प्राप्त किया। यही बात उत्तरपुराण (७४, ३, ४९ आदि ) में इस प्रकार कही गयी है :
भगवान्वर्धमानोऽपि नीत्वा द्वादशवत्सरान् । । छाधस्थ्य जगद्वन्धुभिक-नाम-सनिधौ ।। ऋजुकूलानदीतीरे मनोहरवनान्तरे ।। महारत्नशिलापट्टे प्रतिमायोगमावसन् ।। स्थित्वा षष्ठोपवासेन सोधस्त्रात्सालभूरहः । वैशाख मासि सज्योत्स्नददाम्यामपराहके ॥ हस्तोत्तरान्तरं याने शशिन्यारूढ़-शुद्धिकः । क्षापकश्रेणिमारुह्य शुक्लध्यानेन सुस्थितः ॥ चातिकर्माणि निर्मूल्य प्राप्यानन्तचतुष्टयम् ।
परमात्मपदं प्रापत्परमेष्ठी स सन्मतिः ।। यही बात हरिवंशपुराण (२,५६-५९) में इस प्रकार कही गयी हैं :
मनःपर्ययपर्यन्त-चतुर्ज्ञानमहेक्षणः ।। तपो द्वादशवर्षाणि चकार द्वादशात्मकम् ।। बिहरन थ नायोऽसो गुणग्राम-परिग्रहः !
जुकूलापगाकूले जम्भिक-ग्राममोयिवान् ।। तत्रातापनयोगस्थः सालान्यासशिलातले । वैशास्त्र-शुक्लपक्षस्य ददाम्यां षष्ठमाथितः ॥ उत्तराफाल्गुनीप्राप्त शुक्लध्यानी निशाकरे ।
निहत्य घातिसंघातं फेवलज्ञानमाप्तवान् 11 इस प्रकार भगवान् महावीरका केवलज्ञान-प्रामि रूप कल्याणक जम्भिक ग्रामके समीप प्रजुकूला नदी के तटपर सम्पन्न हुआ। इस ग्रामका नाम भाचारांग सूत्र व कल्पसूत्रमें जंभिय तथा नदीका नाम जुवालुका पाया जाता है।
यद्यपि अभी तक इस ग्राम और नदीकी स्थितिका निर्णय नहीं हुआ, तथापि इसमें कोई सन्देह नहीं दिखाई देता कि उक्त नदी वही है जो अब भी विहारमें कुयेल या कुएल-कूला नामसे प्रसिद्ध है और उसके तट पर इसी नामका एक बड़ा रेलवे जंक्शन भी है । उसीके समीप जम्हुई नामक नगर भी है । अतः यही
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प्रस्तावना
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स्थान भगवान्का ज्ञान प्राप्ति क्षेत्र स्वीकार करके वह समुचित स्मारक बनाया खाना चाहिए ।
११. महावीर देशना स्थल
और उस नगर के समीप
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केवलज्ञान प्राप्त करके भगवान् राजगृह पहुँचे विपूलाचल पर्वतपर उनका समवसरण बनाया गया। वहीं उनकी दिव्यध्वनि हुई जिसका समय श्रावण कृष्ण प्रतिपदा कहा गया है। इसके अनुसार भगवान्का प्रथम उपदेश केवलज्ञान प्रामिसे ६६ दिन पश्चात् हुआ। यह बात हरिवंशपुराण ( २,६१ आदि ) में निम्न प्रकार पायी जाती है :
पट्षष्टिदिवसान् भूयो मोनेन विहरन् विभुः । आजगाम जगत् ख्यातं जिनो राजगृहं पुरम् ॥ आरुरोह गिरि तत्र विपुलं विपुलश्रियम् । प्रबोधार्थ स लोकानां भानुमानुदयं यथा ॥ श्रासने पति प्रभुः 1 प्रतिपद्य हि पूर्वाह्णे शासनार्थमुदाहरत् ॥
इस प्रकार बिहार राज्य के अन्तर्गत राजगृह नगर के समीप विपुलाचलगिरि ही वह पवित्र और महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है जहाँ भगवान् महावीरका दिव्य शासन प्रारम्भ हुआ । इस पर्वतपर पहले से ही अनेक जैन मन्दिर हैं, और कोई २५-३० * वर्ष पूर्व यहाँ चीर शासन स्मारक भी स्थापित किया गया था । तबसे वीरशासन - जयन्ती भी श्रावण कृष्णा प्रतिपदाको मनायी जाती है । सभापि उक्त स्मारक और पवित्र दिनको अभीतक वह देशव्यापी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हुई जो उनके ऐतिहासिक महत्व के अनुरूप हो । इस हेतु प्रयास किये जाने की आवश्यकता है, क्योंकि यही वह स्थल है जहाँ न केवल भगवान्का धर्म-शासन प्रारम्भ हुआ था, किन्तु उस समयके सुप्रसिद्ध वेद विज्ञाता इन्द्रभूति गौतमने आकर भगवान्का नायकत्व स्वीकार किया और वे भगवान् के प्रथम गणधर बने । यहीं उन्होंने भगवान् की दिव्यध्वनिको अंगों और पूर्वोके रूपमें विभाजित कर उन्हें ग्रन्थारूढ़ किया । यहीं मगधनरेश श्रेणिक बिम्बसारने भगवान्का उपदेश सुना और गौतम गणधर से धर्म-चर्चा करके जैन- पुराणों और कथानकों को रचनाकी नींव डाली । यहीं श्रेणिकने ऐसा पुण्यबन्ध किया जिससे उनका अगले मानव जन्ममें महापद्म नामक तीर्थंकर बनना निश्चित हो गया ।
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वीरजिणिवचरित
१२. महावीरनिर्वाण-क्षेत्र ऋजुकूला नदीके तटपर केवलज्ञान प्राप्त कर तथा बिपुलाचलपर अपनी .. दिव्यध्यनि द्वारा जैन-धर्मका उपदेश देकर भगवान् महावीरने ३० वर्ष तक देशके विविध भागोम विहार करते हुए धर्मप्रचार किया 1 तत्पश्चात् वे पावापुरमें आये और वहाँ अनेक सरोवरोंसे युक्त वनमें एक विशुद्ध शिलापर विराजमान हए । दो दिन तक उन्होंने विहार नहीं किया, और शुक्लध्यानमें तल्लीन रहकर कार्तिक कृष्णा पसुर्दशीकी रात्रिके अन्तिम भागमें जब चन्द्र स्वाति नक्षत्र था तब उन्होंने शरीर परित्याग कर सिद्ध-पद प्राप्त किया। प्रस्तुत अन्य ( ३,१ ) में यह बात इस प्रकार कही गयी है:
अंत-तित्थणाहु वि महि विहरिवि । जण-दुरिपाई दुसंघई परिबि ।। पावापुरवा पत्तउ मणहरि । णव-तरु-पल्लवि यणि बहु-सरवरि ।। संठित पविमल-रयण-सिलायलि । रायर्हसु णावह पंकप-दलि। दोणि दियह पविहास मुएप्पिणु । गित्तिइ कत्तिइ तम-कसणि पक्ख चउद्दसि-वासरि । सुक्क-झाणु तिज्यउ झारप्पिण ।। थिइ ससहरि दुहहरि साइवह पच्छिमरणिहि अत्रसरि ।
रिसिसहसेण समर रमछिदणु ।।
सिद्धार जिणु सिद्धत्यह गंदणु । ठीक यही वृत्तान्त उत्तरपुराण ( ६७,५०८ से ५१२ ) में इस प्रकार पाया जाता है :
इहान्त्य-तीर्थनाथोऽपि विहृत्य विषयान् बहून् ।। क्रमात्पावापुरं प्राप्य मनोहर-वनाम्तरे । बहुना सरसा मध्ये महामणि-शिलातले ।। स्थित्या दिनद्वयं बीतविहारो वृद्धनिर्जरः । कृष्ण-कातिक-पक्षस्य चतुर्दश्यां निशात्यये ।। स्वातियोगे तृतीयेद्ध-शुक्लध्यानपरायणः । कृतत्रियोग-संरोधः समुच्छिन्ननिय श्रितः ।।
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प्रस्तावना
हताघातिचतुष्कः सन्नशरीरो गुणात्मकः ।
गन्ता मुनिसहरण निर्वाणं सर्ववाञ्छितम् ।। इन उल्लेखोंपर-से स्पष्ट है कि भगवान् महायीरका निर्वाण पावापुरके समीप ऐसे वनमें हुआ था जिसमें आस-पास अनेक सरोवर थे। वर्तमान में भगवानका निर्वाण-क्षेत्र पटना जिलेके अन्तर्गत विहार-शरीफके समीप वह स्थल माना जाता है जहाँ अब एक विशाल सरोवरके बीच भव्य' जिनमन्दिर बना हुआ है, और इस तीर्थक्षेत्रकी व्यापक मान्यता है । दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदाय एकमतसे इसी स्थलको भगवान्की निर्वाण-भूमि स्वीकार करते हैं।
किन्तु इतिहास विद्वान् इस स्थानको वास्तविक निर्वाण-भूमि स्वीकार करने में अनेक आपत्तियां देखते हैं। कल्पसूत्र तथा परिशिष्ट पर्वके अनुसार जिस पावामें भगवानका निर्वाण हुआ था वह मल्ल नामक क्षत्रियों की राजधानी थी। ये मल्ल वैशाली के धज्जि व लिच्छवि संघमें प्रविष्ठ थे, और मगध एक सत्तात्मक राज्यसे उनका वैर था । अतएव गंगाके दक्षिणवर्ती प्रदेश जहां वर्तमान पावापुरी क्षेत्र है वहाँ उनके राज्य होने की कोई सम्भावना नहीं है। इसके अतिरिक्त बौद्ध मम्यों जैसे-दीघ-निकाय, मज्झिम-निकाम आदिसे सिद्ध होता है कि पावाकी स्थिति शाक्य प्रदेशमें थी और वह वैशालीसे पश्चिमकी ओर कुशीनगरसे केवल दा-बारह मीलकी दूरी पर था । शाक्यप्रदेश के साम-माम में जब भगवान् बुद्धका निवास था तभी उनके पास सन्देश पहुंचा था कि अभी अर्थात् एक ही दिन के भीतर पावामें भगवान महावीरका निर्वाण हुआ है।
इस सम्बन्धके जो अनेक उल्लेख बौद्ध ग्रन्थों में आये हैं उनका ऊपर उल्लेख किया जा चुका है। इन सब बातोंपर विचार कर इतिहासज्ञ इस निर्णयपर पहुंचे है कि जिस पावापुरीके समीप भगवानका निर्वाण हुआ था वह यथार्थतः उत्तरप्रवेश के देवरिया जिलेमें व कुशीनगर के समीप वह पावा नामक ग्राम है जो आजकल सठियाँच ( फाजिलनगर ) कहलाता है और जहाँ बहुत-से प्राचीन स्वगडहर व भग्नावशेष पाये जाते हैं। अतएव ऐतिहासिक दृष्टिसे इस स्थानको स्वीकार कर उसे भगवान् महावीरकी निर्वाण भूमिके योग्य तीर्थक्षेत्र बनाना चाहिए ।
१, निर्वाण भूमि-सम्बन्धी विस्तार पूर्वक विवेचन के लिए देखिए श्री कन्हैयालाल वृत
'पापा समीक्षा (प्रकाशक-अशोक प्रकाशन, कटरा बाजार, छपरा, बिहार १९७२ )। हिस्ट्री एण्ड वाल्चर ऑफ दो पिउयन प्यापिल, खण्ड २ । दि एन ऑफ इपीरियल यूनिटी, पृ. ७ मान्ल।
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वीरजिनियरि
१३. महावीर समकालीन ऐतिहासिक पुरुष
( क ) वैशाली - नरेश चेटक
प्रस्तुत ग्रन्यकी सन्धि पाँच तथा संस्कृत उत्तरपुराण ( प ७५ ) में वैशाली के राजा बेटकका वृत्तान्त आया है । चेटकके विषय में कहा गया है कि वे अति विख्यात, विनीत और परम आर्हत अर्थात् जिनधर्मावलम्बी थे । उनको रानीका नाम सुभद्रादेवी था । उनके दश पत्र ए – धनवत्त, घनभद्र, उपेन्द्र, सुदत्त, सिंहभद्र, कुम्भोज, अकम्पन, पतंगत, प्रभंजन और प्रभास | इसके सिवाय इनके सात पुत्रियाँ भी थीं। सबसे बड़ी पुत्रीका नाम प्रियकारिणी या जिसका विवाह कुण्डपुर नरेश सिद्धार्थ से हुआ था और उन्हें ही भगवान् महावीर के माता-पिता बननेका सौभाग्य प्राप्त हुआ। दूसरी पुत्री थी मृगावती जिसका विवाह वत्सदेशको राजधानी कौशाम्बीके के साथ हुआ। तीसरी पुत्री सुप्रभा दशार्ण देश ( विदिशा जिला ) की राजधानी हेमकक्ष के राजा दशरथको ब्याही गयी । चौथी पुत्री प्रभावती कुच्छ देशकी रोरुका नामक नगरीके राजा उदयनकी रानी हुई। यह अत्यन्त शीलवता होने के कारण शीलवतीके नामसे भी प्रसिद्ध हुईं। पेटककी पाँचवीं पुत्रीका नाम ज्येष्ठा था । उसकी याचना गन्धर्व देशके महीपुर नगरवर्ती राजा सात्यकिने की। किन्तु चेटक राजाने किसी कारण यह विवाह सम्बन्ध उचित नहीं समझा। इसपर क्रुद्ध होकर राजा सात्यकिने चेटक राज्यपर आक्रमण किया। किन्तु वह युद्ध में हार गया और लज्जित होकर उसने दमवर नामक मुनि मुनिदीक्षा धारण कर ली । ज्येष्ठा और छठी पुत्री चेलनाका चित्रपट देखकर मगधराज श्रेणिक उनपर मोहित हो गये, और उनकी याचना उन्होंने चेटक नरेशसे की। किन्तु श्रेणिक इस समय आयुमें अधिक हो चुके थे, इस कारण चेटकने उनसे अपनी पुत्रियोंका विवाह स्वीकार नहीं किया । इससे राजा श्रेणिकको बहुत दुःख हुआ । इसकी चर्चा उनके मन्त्रियोंने ज्येष्ठ राजकुमार अभयकुमारसे की | अभयकुमारने एक व्यापारीका वेष धारण कर वैशाली के राजभवन में प्रवेश किया, और उक्त दोनों कुमारियों को राजा श्रेणिकका चित्रपट दिखाकर उनपर मोहित कर लिया। उसने सुरंग मार्गसे दीनोंका अपहरण करने का प्रयत्न किया । चेलनाने आभूषण लाने के बहाने ज्येष्ठा को तो अपने निवास स्थानकी ओर भेज दिया और स्वयं अभयकुमारके साथ निकलकर राजगृह आ गयी, तथा उसका श्रेणिक राजा से विवाह हो गया। उधर जब ज्येष्ठाने देखा कि उसकी बहन उसे धोखा देकर छोड़ गयी तो उसे बड़ी विरक्ति हुई और उसने एक आर्थिक के पास जिनदीक्षा ग्रहण कर ली । चेटककी सातवीं पुत्रीका नाम चन्दना
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प्रस्तावमा
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था। एक बार जब वह अपने परिजनोंके साथ उपवनमें कीड़ा कर रही थी तब मनोबैग नामक एक विद्याधरने उसे देखा और वह उसके सौन्दर्य पर मोहित हो गया। उसने छिपकर चन्दनाका अपहरण कर लिया । किन्तु अपनी पत्नी मनोवेगाके कोसे भयभीत होकर उसने चन्दनाको इरावती नदोके दक्षिण तटवर्ती भूत रमण मान छोड़ दिया। वहीं उसकी भेंट एक श्यामांक नामक भीलसे हुई। वह सम्मानपूर्वक अपने सिंह नामक भीलराजके पास ले गया। भीलराजने उसे कौशाम्बी के एक धनी व्यापारी सेठ ऋषभसेन के कर्मचारी मित्रत्रीरको सौंप दी, और वह उसे अपने सेठके पास ले आया । सेठकी पत्नी भद्राने ईर्ष्याविश अपनी अन्दिनी दासी बनाकर रखा। इसी अवस्थामें एक दिन जब उस नगर में भगवान् महावीरका आगमन हुआ, तब चन्दनाने बड़ी भक्ति से उन्हें आहार कराया । इस प्रसंग से कौशाम्बी नगर में चन्दन की ख्याति हुई और उसके विषयमें उसकी बड़ी म रानी मृगावती को भी खबर लगी । वह अपने पुत्र राजकुमार उदयनके साथ सेठके घर आयी, और नन्दनाको अपने साथ ले गयी। फिर चन्दनाने वैराग्य भावसे महावीर भगवान्को शरणमें जाकर दीक्षा ग्रहण कर ली, और अन्ततः वही भगवान्के आर्यिका संघकी अग्रणी हुई ।
वैगालीनरेश चेटक तथा उनके गृह परिवार व सम्पत्तिका इतना वर्णन जैनपुराणों में पाया जाता है । इरासे स्पष्ट हो जाता है कि वैशालीके नरेश चेटक महादीर के नाना थे, मगधनरेश श्रेणिक तथा कौशाम्बीके राजा शतानीक उनके मातृ स्वसा-यति ( मौसिया ) थे एवं कौशाम्बीनरेश शतानीकके पुत्र उनके मातृस्वसापुत्र [ मौसयाते भाई ) थे ।
( ख ) मगध नरेश श्रेणिक-बिम्बिसार
मगध देश के राजा श्रेणिकका भगवान् महावीरसे दीर्घकालीन और घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है । बहुत-सी जैन पौराणिक परम्परा तो श्रेणिक के प्रश्न और महावीर अथवा उनके प्रमुख गणधर इन्द्रभूतिके उत्तरसे ही प्रारम्भ होती है । उनका बहुत-सा वृत्तान्त प्रस्तुत ग्रन्थ की सन्धि उसे ग्यारह तक पाया जायेगा । इस नरेशकी ऐतिहासिकता में कहीं कोई सन्देह नहीं है। जैन ग्रन्थों के अतिरिक्त बौद्ध साहित्य एवं वैदिक परम्पराके पुराणोंमें भी इनका वृतान्त व उल्लेख पाया जाता है । दिगम्बर जैन परम्परामें तो उनका उल्लेख केवल श्रेणिक नामसे पाया जाता है, किन्तु उन्हें भिम्भा अर्थात् भेरी बजाने की भी अभिरुचि थी ( देखिए सम् ७ २ ) और इस कारण उनका नाम भिम्भसार अथवा भम्भसार भी प्रसिद्ध हुआ पाया जाता है । श्वेताम्बर अन्थोंमें अधिकतर इसी नाम से इनका उल्लेख
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वीरजिणिदरिउ किया गया है। इसी शब्दका अपभ्रंश रूप बिम्बिसार या बिम्बसार प्रतीत होता । है, और बौद्ध परम्परामें श्रेणिकके साथ-साथ अथवा पृथक रूपसे यही नाम उल्लि.. खित हुभा है। बौद्ध ग्रन्थ उदान अटुकथा १०४ के अनुसार बिम्बि सुवर्णका ।
नाम है, गौा जारी किसके कारण उनका बिम्बिसार नाम पड़ा। एक तिब्बतीय परम्परा ऐसी भी है कि इस राजाकी माताका नाम धिम्बि था और इसी कारण उसका नाम बिम्बिसार पड़ा। किन्तु जान पड़ता। है कि ये व्युत्पत्तियाँ उक्त नामपर-से कल्पित की गयी है। श्रेणिक नामकी भी अनेक प्रकारसे शुत्पत्ति की गयी है। हेमचन्द्र कृत मभिधान-चिन्तामणिमें 'श्रेणोः कारयति श्रेणिको मगधेश्वरः' इस प्रकार जो श्रेग्गियोंवी स्थापना करे वह श्रेणिक, यह ग्युत्पत्ति बतलायी गयी है। बौद्ध परम्परा के एक विनय पिटककी प्रतिमें यह भी कहा पाया जाता है कि चूंकि बिम्बिसारको उसके पिताने अठारह धेणियों में अवतरित किया था, अर्थात् इनका स्वामी बनाया था, इस कारणसे उसकी श्रेणिक नामसे प्रसिद्धि हुई। अर्द्धमागधी जम्बूद्वीप पण्णत्तिमें ९ नारू और ९ कारू ऐसी अठारह वेणियों के नाम भी गिनाये गये हैं । नौ नाह है-कुम्हार, पटवा, स्वर्ण- । कार, सुतकार, गन्धर्व ( संगीतकार ), कासत्रम्ग, मालाकार, कच्छकार और तम्बूलि । तथा नौ कारू है--चर्मकार, यन्त्रपीडक, गंछियां, छिम्पी, कंसार, सेवक, ग्वाल, भिल्ल और धीवर । वह भी सम्भव है कि प्राकृत ग्रन्थों में इनका नाम जो 'सेनीय' पाया जाता है उसका अभिप्राय सैनिक या सेनापतिसे रहा हो और उसका संस्कृत रूपान्तर भ्रमवश श्रेणिक हो गया हो।
प्रस्तुत प्रत्यके अनुसार मगध देश सजगृह नगरके राजा प्रवेगिक या उपवेणिककी एक रानी चिलातदेवो (किरातदेवी ) से चिलातपुत्र या किरातपुत्र नामक कुमार उत्पन्न हुआ। उसने उज्जैनी के राजा प्रद्योतको छलसे बन्दी बनाकर अपने पिताके सम्मुख उपस्थित कर दिया। इससे पूर्व उद्योतके विरुद्ध राजाने जो औदायनको भेजा था उसे उद्योतने परास्त कर अपना बन्दी बना लिया था। चिलातपुत्रको सफलतासे उसके पिताको बहुत प्रसन्नता हुई और उन्होंने उसे ही अपना उत्तराधिकारी बनाकर उसका राज्याभिषेक कर दिया। किन्तु वह राज्यकार्यमें सफल नहीं हुआ और अनीतिपर चलने लगा । अतः मन्त्रियों और सामन्तोंने निर्वासित राजकुमार श्रेणिकको कांचीपुरसे बुलवाया । श्रेणिकने आकर किरातपुत्रको पराजित कर राज्यले निकाल दिया। चिलातपुत्र बनमें चला गया और वहाँ ठगों और लुटेरोंका नायक बन गया । तब पुनः एक बार श्रेणिकने उसे
१. मुनि नगराज : आगन और त्रिपिटक, पृष्ठ ३२४ ।
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प्रस्तावना
परास्त किया। अन्ततः बिलासपुत्रने विरक्त होफर मुनि-दीक्षा धारण कर ली। इसी अवस्था में बह एक शृगालोका भक्ष्य बनकर स्वर्गवासी हुआ।
श्रेणिकका जन्म उपश्रेणिककी दूसरी पत्नी सुप्रभादेवीसे हुआ था । वह बहुत विलक्षण-बुद्धि था। पिता द्वारा जो राज्यको योग्यता जानने हेतु राजकुमारोंकी परीक्षा की गयी उसमें थेणिक ही सफल हुआ। तथापि राजकुमारोंमें वर उत्पन्न होनेके भयसे उसने श्रमिकको राज्यसे निर्वासित कर दिया। पहले तो अंणिक भम्वग्राममें पहुँचा, और फिर वहाँसे भी परिभ्रमण करता हुआ तथा अपनी बुद्धि
और साहसका चमत्कार दिखाता हुआ कांचीपुरमें पहुंच गया। मगधर्मे राजा चिलातपुत्रके अन्यायसे त्रस्त होकर मन्त्रियोंने श्रेणिकको आमन्त्रित किया और उसे मगधका राजा बनाया।
एक दिन राजा अपनी राजधानीके निकट वनम आखेट के लिए गया। वहाँ उसने एक मुनिको ध्यानारून देखकर उसे एक अपशकुन समझा और क्रुद्ध होकर उनपर अपने शिकारी कुत्तोंको छोड़ दिया। किन्तु वे कुत्ते भी मुनिके प्रभावचे शान्त हो गये और राजाके बाण भी उन्हें पुष्पके समान कोमल होकर लगे। तय राजाने अपना क्रोष निकाल लिए एक भूत रुप नुनके गले में साल दिया। इस घोर पापसे चणिकको सप्लम नरकका भायु-बन्ध हो गया। किन्तु जब उन्होंने देखा कि उनके द्वारा इतने उपसर्ग किये जानेपर भी उन मुनिराजो लेशामात्र भी रागद्वेष सत्पन्न नहीं हुआ, तब उनके मनोगत भावों में परिवर्तन हो गया । जब मुनिने देखा कि राजाका मन शान्त हो गया है, तब उन्होंने अपनी मधुर वाणीसे उन्हें आशीर्वाद दिया और धर्मोपदेश भी प्रदान किया। बस, यहीं राजा श्रेणिकका मिथ्यात्व भाव दूर हो गया और उन्हें क्षायिक सम्बत्वकी प्रासि हो गयी। वह मुनिराजके चरणों में नमस्कार कर प्रसन्नलामे घर लौटे।
एक दिन राजा श्रेणिकको समाचार मिला कि विपुलाचल पर्वतपर भगवान् महावीरका आगमन हुआ है । इसपर राजा भक्तिपूर्वक वहाँ गया और उसने भगवान्की वन्दना-स्तुति की। इस धर्म भावनाके प्रभावसे उनके सम्यक्त्वकी परिपुष्टि होकर सप्तम नरककी आयु घटकर प्रथम मरककी शेष रही, और उसे तीर्थकर नामकर्मका बम्ध भी हो गया। इस अवसरपर राजा श्रेणिकने गौतम गणवरसे पूछा कि हे भगवन्, यद्यपि मेरे मन में जैन मतके प्रति इतनी महान श्रद्धा हो गयी है, तथापि व्रत-ग्रहण करनेकी मेरी प्रवृत्ति क्यों नहीं होती? इसका गणधरने उत्तर दिया कि पहले तुम्हारी भोंगोंम अत्यन्त आसक्ति रही है व गाड़ मिथ्यात्वका उदय रहा है । तुमने दुरुचरित्र भी किया है और महान आरम्भ भी । इससे जो तीन पाप उत्पन्न हुआ उससे तुम्हारी नरककी आयु बंध चुकी है ।
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धौरजिणिवचरित देवायुको छोड़कर अन्य किसी भी गतिको आयु जिसने बाध ली है उसमें अतग्रहण करनेकी योग्यता नहीं रहती । किन्तु ऐसा जीव सम्यग्दर्शन धारण कर सकता है। मही कारण है कि तुम सम्यक्त्वी तो हो गये, किन्तु व्रत-पक्षण नहीं कर पा रहे।
सर्व निधाय तच्चित्ते श्रद्धाभून्महतो मते । जैने कुतस्तथापि स्याम्न मे प्रव-परिग्रहः ॥ इत्यनुणिकप्रश्नादबादीद् गणनायकः । भोग-संजननाद्वाड-मिथ्यात्वानुभवोदयात् ॥ दुश्चरित्रान्महारम्भारसंचित्यना निकाचितम् । नारकं बद्धवानामुस्त्वं प्रागेबात्र जन्मनि ॥ बद्धदेवायुषोऽन्यायुर्नाङ्गी स्वीकुरुते प्रतम् । श्रद्धानं तु समापत्ते तस्मात्वं नामहीनतम् ।।
( उत्तरपुराण ७४, ४३३-३३) इसी समय गौतम गणधर ने राजा श्रेणिक को यह भी बतला दिया कि भगवान महावीर के निर्वाण होने पर जब चतुर्थकाल की अवधि केवल तीन वर्ष आठ माह और पन्द्रह दिन शेष रह जायेगी तभी उसकी मृत्यु होगी। श्रेणिक इतना दृढ़ सम्यक्त्वी हो गया था कि सुरेन्द्रने भी उसकी प्रयांसा की। किन्तु इसपर एक देवको विश्वास नहीं हुआ और · वह राजाकी परीक्षा करने आया । जब राजा एक मार्गसे कहीं जा रहा था तब उस देवने मुनिका भेष बनाया और वह जाल हायमें लेकर मछलियां पकड़ने लगा। राजाने आफर मुनिकी बन्दना की, और प्रार्थना की कि मैं आपका दास उपस्थित हूँ तब आप क्यों यह अधर्मकार्य कर रहे हैं। यदि मछलियोंकी आवश्यकता ही है तो मैं मछलियां पकड़ देता हूँ 1 देवने कहा, नहीं-नहीं, अब मुझे इससे अधिक मछलियोंकी आवश्यकता नहीं । यह वृत्तान्त नगरमें फैल गया, और लोग जैन-धर्मकी निन्दा करने लगे। तब राजा श्वेणिकने एक दृष्टान्त उपस्थित किया। उन्होंने अपनी सभाके राजपुत्रोंको जीवनवृत्ति सम्बन्धी लेख अपनी मुद्रासे मुद्रित कर और उसे मलावलित कर प्रदान किया। उन्होंने बड़ी प्रसन्नता से इस लेखको अपने मस्तकपर चढ़ाकर स्वीकार किया। तब राजाने उनसे पूछा कि इन मलिन लेखों को तुमने अपने मस्तकपर क्यों चढ़ाया ? उन्होंने उत्तर दिया कि जिस प्रकार सचेतन जीव मलिन शरीरसे लिप्त होते हुए भी वन्दनीय है, उसी प्रकार आपका यह लेख मलिन होते हुए भी हमारे लिए पूज्य है । तब राजाने हंसकर उन्हें बतलाया कि
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पुस्नामा
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इसी प्रकार धर्म - मुद्रा धारक सुनियों में यदि कोई दोष भी हो, तो उनसे घृणा नहीं, किन्तु उनकी विनय ही करना चाहिए और विनम्रता से उन्हें दोषों से मुक्त कराना चाहिए । राजा की ऐसी धर्म - श्रद्धाको प्रत्यक्ष देखकर वह देव बहुत प्रसन्न हुआ और राजाको एक उत्तम हार देकर स्वर्गलोकको चला गया । यह कथानक इस बातका प्रमाण है कि जबसे श्रेणिकने जैन-धर्म स्वीकार किया तबसे उनकी धार्मिक श्रद्धा उत्तरोत्तर दृढ़ होती गयी और वे उससे कभी विचलित नहीं हुए 1 (ग) श्रेणिक-सुत अभयकुमार
श्रेणिक जब राजकुमार ही थे और राज्यसे निर्वासित होकर चिलातपुत्र के राज्यकाल में कांचीपुरमें निवास कर रहे थे तब उनका विवाह वहाँके एक द्विजकी कन्या अभममतीसे हो गया था। उससे उनके अभयकुमार नामका पुत्र उत्पन्न हुआ जो अत्यन्त विलक्षण- वृद्धि था। उसने ही उपाय करके अपने पिताका विवाह उनकी इच्छानुसार चेलनादेवी से कराया । वह भी श्रेणिक के साथ-साथ भगवान् महावीरके समवसरण में गया था, और न केवल दृढ़- सम्यक्त्वी, किन्तु धर्मका अच्छा ज्ञाता बन गया था । यहाँतक कि स्वयं राजा श्रेणिकने उससे भी धर्मका स्वरूप समझने का प्रयत्न किया था । अन्ततः अभवकुमारने भी मुनि दीक्षा ग्रहण कर ली, और वे मोक्षगामी हुए। ( उत्तरपुराण ७४, ५२६–२७ आदि )
(घ) श्रेणिक-सुत वारिषेण
जैसा कि पहले कहा जा चुका है, राजा श्रेणिकका चेलनादेवीसे विवाह उनको ढलती हुई अवस्था में उनके ज्येष्ठ पुत्र अभयकुमार के प्रयत्नसे ही हुआ था। चेलनाने वारिषेण नामक पुत्रको जन्म दिया। वह बाल्यावस्था मे हृीं धार्मिक प्रवृत्तिका था, और उत्तम वात्रकों के नियमानुसार श्मशान में जाकर प्रतिमा योग क्रिया करता था। एक बार विद्युञ्चर नामक अंजनसिद्ध चोरने अपनी प्रेयसो गणिकामुन्दरीको प्रसन्न करने के लिए राजभवन में प्रविष्ट होकर चलन देवी हारका अपहरण किया। किन्तु उसे वह अपनी प्रिया के पास तक नहीं ले जा सका । राजपुरुष उस चन्द्रहास हारकी चमकको देखते हुए उसका पोछा करने लगे । यह बात उस चोरने जान ली, और वह श्मशान में ध्यानारूढ़ वारिषेण कुमार के चरणोंमें उस द्वारको फेंककर भाग गया। राज-सेवकोंने इसकी सूचना राजाको दी। राजाने वारिषेणको हो घोर जानकर क्रोधवच उसे मार डालने की आज्ञा दे दी। किन्तु वारिषेणके धर्म-प्रभाव से उसपर राजपुरुपोंके अस्त्रशस्त्र नहीं चले। उसका वह दिव्य प्रभाव देखकर राजाने उन्हें मनाकर राज
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बोरमणिवपरित महलमें लानेका प्रयत्न किया, किन्तु वे नहीं भाये और महावती मुनि हो गये। उन्होंने पलासखेड नामक ग्राममें भिक्षा-निमित्त जाकर अपने एक बालसखाका भी सम्बोधन किया और उसे भी मुनि बना लिया। एक बार उसका मन पुनः अपनी पत्नी की ओर चलायमान हुआ। किन्तु बारिषेणने उसे अपनी माता पेलनाके महलमें ले जाकर अपनो निरासक्ति भावनाके द्वारा पुन: मुनिव्रतमें दृढ कर दिया।
(ङ) श्रेणिक-सुत गजकुमार __राजा श्रेणिककी एक अन्य पत्नी धनश्री नामक थी। उसे जब पांच मासका गर्भ या तब उसे यह दोहला उत्पन्न हुआ कि आकाश मेघाच्छादित हो, मन्द-मन्द दृष्टि हो रही है, वह अपने पति के साथ हाथीपर बैठकर परिजनोंके सहित महोत्सबके साथ वनमें जाकर क्रीडा करे। उस समय वर्षाकाल न होते हुए भी अभयकुमारने अपने एक विद्याधर मित्रकी सहायतासे अपनी विमाताका यह दोहला सम्पन्न कराया । यथासमय रानी धनश्रीने गजकुमार नामक पुत्रको जन्म दिया। जब वह युवक हुआ तब एक दिन उसने भगवान् महावीर को शरणमें जाकर धर्मोपदेश सुना और दीक्षा ग्रहण कर लो। एक बार गजकुमार मुनि कलिंग देशमें जा पहुंचे और वहाँकी राजधानी दन्तीपुरकी पश्चिम दिशामें एक शिलापर विराजमान होकर याज्ञापन योग करने लगे । वहाँके राजाको ऐसे योगका कोई ज्ञान नहीं था। अत: उसने अपने मन्त्री से पूछा कि यह पुरुष ऐसा आताफ • क्यों सह रहा है ? उनका मन्त्री बुद्धदास जैन-धर्म-विरोधी था। अतः उसने राजाको सुझाया कि इस पुरुषको वात रोग हो गया है और वह अपने शरीरमें गरमी लाने के लिए ऐसा कर रहा है। राजाने करुणाभावसे पूछा, इसको इस व्याधिको कैसे दूर किया जाये ? मन्त्रीने उपाय बताया कि जब यह अनाथ पुरुष नगरमें भिना मांगने जाये, तब उसके बैठनको शिलाको अग्निसे खूब तपा दिया आये जिससे उसके ताप द्वारा उसपर बैठनेवालेकी प्रमंजन वायु उपशान्त हो जायेगी। राजाकी आज्ञासे वैसा ही किया गया। परिणाम यह हुआ कि जब गजकुमार मुनि भिक्षासे लौटकर उस शिशलापर विराजमान हए तब वे उसकी वीव्र तापके उपसर्गको सहकर भोक्षगामी हो गये। पाचात वहाँ देवोंका आगमन - हआ और वह मन्त्री, राजा तथा अन्य सहनों जन धर्ममें दीक्षित हुए। (च) कौशाम्बीनरेश शतानीक व उदयन तथा
उज्जैनीनृप चण्डप्रद्योत चन्दनाके वृत्तान्तोंमें आया है कि वैशालोनरेश चेटककी सात पुत्रियोंम से एक मुगावती कौशाम्बी के सौमवंशी नरेश शतानीकसे न्याही गयी थी। यह
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७३ राजधानी इलाहाबादसे कोई ३५ मील दक्षिण-पश्चिम की ओर वहीं थी जहाँ अब कोसम नामका ग्राम है। जब महावीर कौशाम्बी आये और चन्दनाने उन्हें आहार दिया, तब रानी मृगावतीने भी आकर अपनी उस कनिष्ठ भगिनीका अभिनन्दन किया । शतानीक के पुत्र के उदयन थे जिनका विवाह उज्जैनीनरेश खण्डप्रद्योतकी पुत्री वासवदत्तासे हुआ था। बौद्ध साहित्यिक परम्परानुसार उदयनका और बुद्धका जन्म एक ही दिन हुआ था । तथा एक सुदृढ़ जैन परम्परा यह है कि जिस रात्रि प्रद्योत के मरणके पश्चात् उनके पुत्र पालकका राज्याभिषेक हुआ उसी रात्रि मावोरका निर्माण हुआ था। इस प्रकार ये उल्लेख उक्त दोनों महापुरुषों के समसामयिकत्व तथा तात्कालिक राजनैतिक स्थितियोंवर उपयोगी प्रकाश डालते है ।
प्रस्तावना
१४. महाबीर - जीवनचरित्र विषयक साहित्य का विकास (छ) प्राकृत में महावीर - साहित्य
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भगवान् महावीरका निर्वाण ई. सन् ५२७ वर्ष पूर्व हुआ और उसी समयसे उनके जीवन चरित्र सम्बन्धी जानकारी संगृहीत करना आरम्भ हो गया । भगवान् के प्रमुख शिष्य इन्द्रभूति गौतम थे जो धवलाके रचयिता वीरसेन के अनुसार दारों वेदों और छहों अंगोंके ज्ञाता शीलवान् उत्तम ब्राह्मण थे। ऐसे विद्वान् शिष्यके लिए स्वाभाविक था कि वे अपने गुरुके जीवन और उपदेशोंको सुव्यवस्थित रूपसे संगृहीत करें। उन्होंने यह सब सामग्री बारह अंगोंमें संकलित की जिसे द्वादश गणि-पिटक भी कहा गया है। इनके बारहवें अंग दृष्टिवादमें एक अधिकार प्रथमानुयोग भी था जिसमें समस्त तीर्थकरों व चक्रवदियों आदि महापुरुषोंकी वंशावलियोंका पौराणिक विवरण संग्रह किया गया जिसमें तीर्थंकर महावीर और उनके नाथ या ज्ञातृवंशका इतिहास भी सम्मिलित था ।
दुर्भाग्यतः इन्द्रभूति गौतम द्वारा संगृहीत वह साहित्य अब अप्राप्य है । किन्तु उसका संक्षिप्त विवरण समस्त उपलभ्य अर्द्धमागधी साहित्यमें बिखरा हुआ पाया जरता है | समवायांग नामक चतुर्थ अंग में चौबीसों तीर्थंकरोंके माता-पिता, जन्मस्थान, प्रव्रज्या -स्थान, शिष्य वर्ग, आहार दाताओं आदिका परिचय कराया गया हुँ । प्रथम श्रुतांग आचारांग महाबोरको तपस्याका बहुत मार्मिक वर्णन पाया जाता है । पाँच श्रुतांग व्यारूपा प्रतिमें जो सहस्रों प्रश्नोत्तर महावीर और गौतम बीच हुए ग्रथित हैं उनमें उनके जीवन व तात्कालिक अन्य घटनाओंकी अनेक झलकें मिलती हैं । उनके समयमें पापत्यों अर्थात् पार्श्वनाथके अनुमाया बाहुल्य था तथा आजीवक सम्प्रदाय के संस्थापक मंखलि गोशाल उनके
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वीरजिणिवचरिउ सम-सामयिक थे। उसी कालमें मगध और वैशाली के राज्यों में बड़ा भारी संग्राम हुआ था जिसमें महाशिला-कंटक वे रथ-मुसल मामक यात्र-बालित शस्त्रोंका उपयोग किया गया इत्याद । सातव अंग उपासकाध्ययन में महावीर के जीवनस सम्बद्ध वैशाली मातृ षण्ठबन कोल्लाग सनिवेश, कर्मारग्राम, वाणिज्यग्राम आदि स्थानोंके ऐसे उल्लेख प्राप्त है जिनसे उनके स्थान-निर्णयमें सहायता मिलती है । नरें श्रुतांग अनुत्तरोपपातिकमें तीर्थकरके सम-सामयिक मगध-नरेश श्रेणिककी खेलना, धारिणी य नन्दा नामक रानियों तथा उनके तेवीस राजकुमारोंके दीक्षित होनेके उल्लेख है । मूलसूत्र उत्तराध्ययन व दशवकालिकमें महावीरके मूल दार्शनिक, नैतिक व आचारसम्बन्धी विचारोंका विस्तारसे परिचय प्राप्त होता है। कल्पसूत्रमें महावीरका व्यवस्थित रीतिसे जीवन-चरित्र मिलता है। यह समस्त साहित्य उत्तरकालीन अर्द्धमागधी भाषामें है।
शौरसेनी प्राकृतमें पतिवृषभ कृत तिलोय-पण्णत्ति ( त्रिलोक-प्रज्ञप्ति ) ग्रन्य बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि उसमें प्राकृत गाथाओंमें हमें तीर्थंकरों व अन्य शलाकापुरुषोंके चरित्र नामावली-निबद्ध प्राप्त होते हैं। इनमें महावीरके जीवन-विषयक प्रायः समस्त बावोंकी जानकारी संक्षेपमें स्मरण रखने योग्य रीतिसे मिल जाती है । ( सोलापुर, १९५२) __ इसी नामावली-निबद्ध सामग्रीके आधारपर महाराष्ट्री प्राकृतिके आदि महाकाव्य परम परियमें महाबीरका संक्षिप्त जीवन-चरित्र, रामचरित्रको प्रस्तावनाके रूपमें प्रस्तुत किया गया है ( भावनगर, १९९४) । संघदास और धर्मदास गणी कृत वसुदेव-हिण्डी (४-५वीं शती) प्राकृत कथा साहित्यका बहुत ही महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें भी अनेक तीर्थकरोंके जीवन-चरित्र प्रसंगवश आये हैं जिनमें धर्धमान स्वामी का भी है ( भावनगर, १९३०-३१)। शीलकि कुत्त चउपन्न-महापुरिरा-चरियं । वि. सं. १२५ ) में भी महावीरका जीवन चरित्र प्राकृत 'गद्य में वणित है ( वाराणसी १९६१ )। ___ भद्रेश्वर कृत कहावलि ( १२वीं शती ) में सभी वेसठ शलाकापुरुषों के चरित्र सरल प्राकृत गद्यमें वर्णित है ( मा. ओ. सी.)। पूर्णतः स्वतन्त्र प्रबन्ध रूपसे महायीरका चरित्र मुणचन्द्र सूरि द्वारा महावीर-चरियमें वर्णित है ( वि. सं. ११३९)। इसमें आठ प्रस्ताव है जिनमें प्रथम चारमें महावीरके मरीचि आदि पूर्व भत्रोंका विस्तारसे वर्णन है ( बम्बई १९२९ ) । गुणचन्द्रके ही सम-सामयिक देवेन्द्र अपरनाम नेमिचन्द्र सूरिने भी पूर्णतः प्राकृत पद्यबद्ध महावीर-चरियकी रचना की ( वि. सं. ११४१ ) 1 इसमें मरीचिसे लेकर महावीर तक छब्बीस भोका वर्णन है जिसकी कुल पद्य-संख्या लगभग २४०० है ( भावनगर, वि. सं.
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प्रस्तावना
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१९७३ ) इनसे कुछ ही समय पश्चात् (वि. सं. ११६८ के लगभग ) देवभद्र मणीने भी महावीरचरियंकी रचना की ( अहमदाबाद, १९४५ ) ।
(ज) संस्कृत में महावीर - साहित्य
सस्वार्थसूत्र जैसी सैद्धान्तिक रचनाओं को छोड़ जैन साहित्य सृजनमें संस्कृत भाषाका उपयोग अपेक्षाकृत बहुत पीछे किया गया। हम जानते हैं कि सिद्धसेन दिवाकरने अपनी पाँच स्तुतिमा भगवान् महावीरको ही उद्देशित करके लिखी हैं । आरम्भकालीन काव्यशैली में लिखित जटिल या जटाचार्यके 'बरांगचरित' तथा रविषेणके 'पद्मपुराण' (इ. स. ६७६ ) की ओर संस्कृत जैन साहित्यमें हम निर्देश कर सकते हैं । ये दोनों 'कुवलयमाला' ( ईसाके ७:३९ ) से भी पूर्वकालीन हैं ।) तीर्थकरों के जीवन चरित्र पर महापुराण नामक सर्वाग सम्पूर्ण रचना जिनसेन और उनके शिष्य गुणभद्र द्वारा शक सं. ८२० के लगभग समाप्त की गयी पी। इसके प्रथम ४७ पर्व आदिपुराण के नाम से प्रसिद्ध हैं जिनमें प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव और उनके पुत्र प्रथम चक्रवर्ती भरतका जीवन चरित्र वर्णित है । ४८ से ७६ टक्के पर्व उत्तरपुराण कहलाता है जिसकी पूरी रचना गुणभद्र कृत है । और उसमें शेष तेवीस सीर्थकरों व अन्य कालाकापुरुषोंके जीवनवृत्त हैं। इनमें तीर्थंकर महावीरका चरित्र अन्तिम तीन सगमें ( ७४ से ७६ तक ) सुन्दर पद्योंमें हैं front कुल संख्या ५४९ + ६९१ + ५७८ = १८१८ है (वाराणसी, १९५४ ) । लगभग पौने तीन सौ वर्ष पश्चात् ऐसे ही एक विशाल त्रिषष्टि- शलाका-पुरुषaftant रचना हेमचन्द्राचार्यने १० पर्वो को जिसका अन्तिम पर्व महावीरचरिश्रमिक है ( भावनगर, १९१३) एक महापुरुष चरित स्वोपज्ञ टीका सहित मेरुतुंग द्वारा रचा गया जिसके पाँच सगोंमें क्रमश: ऋषभ, शान्ति, नेमि, rai और महावीरके चरित्र वर्णित है । यह रचना लगभग १३०० ई. की है 1 काव्य की दृष्टिसे शक सं. ९१० में असग द्वारा १८ सर्गों में रचा गया वर्धमान
है ( सोलापूर १९३१ ) । किन्तु यहाँ भी प्रथम सोलह सर्गों में महाबीर के पूर्व भोका वर्णन है और उनका जीवन-वृत्त अन्तिम दो सर्गों में । सकलकीर्तिकृत वर्धमान पुराण में १९ सर्ग हैं और उसकी रचना वि. सं. १५१८ में हुई । पद्मनन्दि, केशव और वाणीवल्लभ द्वारा भी संस्कृतमें महावीर चरित्र लिखे जानेके उल्लेख पाये जाते हैं ।
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( झ ) महावीर - जीवनपर अपभ्रंश साहित्य
समस्व तीर्थकरों व अन्य दालाकापुरुषोंके चरित्र पर अपभ्रंशमें विशाल और श्रेष्ठ तथा सर्व काव्य-गुणोंसे सम्पन्न रचना पुष्पदन्त कृत महापुराण है ( शक सं
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हैं। उनका प्राचीनतम बौद्ध साहित्य से भी मेल खाता है। जिस प्रकार बौद्ध साहित्य त्रिपिटक कहलाता है उसी प्रकार यह जैन साहित्य गणिपिटकके नामसे उल्लिखित पाया जाता है ।
यह समस्त साहित्य अंगप्रविष्ट कहा गया है। इसके अतिरिक्त मुनियोंके आचार व क्रियाकलापका विस्तार से वर्णन अंगबाह्य नामक चौदह प्रकारको रचनाओं में पाया जाता है जो इस प्रकार हैं
१. सामायिक, २. चतुति ३४ प्रतिक्रमण, ५. वैनविक, ६. कृतिकर्म, ७. दशकालिक ८. उत्तराध्ययन, ९. कल्पव्यवहार, १०. कल्पा कल्प, ११. महाकल्प, १२. पुण्डरीक, १३. महापुण्डरीक, १४. निषिद्धिका ।
इन नामोंसे ही स्पष्ट है कि इन रचनाओंका विपय धार्मिक साधनाओं और विशेषतः मुनियोंकी क्रियाओंसे सम्बन्ध रखता है । यद्यपि ये चौदह रचनाएँ अपने प्राचीन रूपमें अलग-अलग नहीं पायी जातीं, तथापि इनका नाना अन्योंमें समावेश है और वे मुनियों द्वारा अब भी उपयोग में लायी जाती हैं ।
वल्लभीपुरमें मुनि संघ द्वारा जो साहित्य संकलन किया गया उत्तमें उक्त प्रथम ग्यारह अंगों के अतिरिक्त औपपातिक, राय-पसेणिय आदि १२ उपांग निशीय, महानिशीय आदि ६ छेदसून; उत्तराध्ययन, आवश्यक आदि ४ मूलसूत्र; वतु:दारण, आसुर-प्रत्यास्थान आदि दश प्रकीर्णक, तथा अनुयोगद्वार और नन्दी मे दो चूलिका सूत्र भी सम्मिलित हो गये जिससे समस्त अर्द्धमागधी बागम-ग्रन्थों की संख्या ४५ हो गयी जिसे वेताम्बर सम्प्रदाय द्वारा धार्मिक मान्यता प्राप्त है। यह समस्त साहित्य अपनी भाषा व शैली तथा दार्शनिक व ऐतिहासिक सामग्री के लिए पालि साहित्य के समान ही महत्त्वपूर्ण है ।
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७. महावीर पिर्वाण काल
भगवान् महावीरका निर्वाण कब हुआ इसके सम्बन्ध में यह तो स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होता है कि यह घटना कार्तिक कृष्णपक्ष चतुर्दशी को रात्रि के अन्तिम चरण में अर्थात् अमावस्या के प्रातःकालसे पूर्व घटित हुई और उनके निर्वाणोत्सवको देवों तथा मनुष्योंने दीपावलीके रूपमें मनाया । तदनुसार आजतक कार्तिककी दीपावली
१. सनवायांग सूत्र २११-२२७ घट्खण्डागम, १, २ विंटर निज: इंडियन लिटरेचर भाग २ जैन लिटरेचर
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टोका भाग १, पृष्ठ २६. आदि । कापडिया : हिस्ट्री ऑफ दि जैन
केनानिकल लिटरेचर | जगदीशचन्द्र प्राकृत साहित्य का इतिहास १४ २३ आदि । हीरालाल जैन : भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृष्ठ ५५ आदि। नेमिचन्द्र शास्त्री : माकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृष्ठ १५७ आदि
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प्रस्तावना से उनका निर्वाण संवत माना जाता है जिसका इस समय सन् १९७१-७२ में चौबीस सौ अन्ठान्नबे ( २४९८ ) वा वर्ष प्रचलित है तथा दो वर्ष पश्चात् पूरे पच्चीस सौ वर्ष होनेपर एक महामहोत्सव मनानेकी योजना चल रही है। किन्तु इस संवत्सरका प्रचलन अपेक्षाकृत बहुत प्राचीन नहीं और महावीरके समयमें तथा घय दीका पवार तक शरा, संवत्यः रेखका प्रचार नहीं था। पश्चात्कालीन ग्रन्थों में जो कालसम्बन्धी उल्लेख पाये जाते हैं उनमें कहीं-कहीं परस्सर कुछ विरोध पाया जाता है और कहीं अन्य साहित्पिक उल्लेखों तथा ऐतिहासिक घटनाओंसे मेल नहीं खाता । इससे निर्वाण कालके सम्बन्धमें आधुनिक विद्वानोंके बीच बहुत-सा' मतभेद उत्पन्न हो गया है। एक ओर जर्मन विद्वान डॉ. याफोद्रीने महावीर निर्वाण का समय ई. पू. चार सौ सतहत्तर ( ४७७ ) माना है। इसका आधार यह है कि मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्तका राज्याभिषेक ई. १. ३२२ ( तीन सौ बाईस ) में हुआ और हेमचन्द्र-कृत परिशिष्ट पर्व (८-३३९ ) के अनुसार यह अभिषेक महावीरके निर्वाणसे १५५ ( एक सौ पचपन ) वर्ष पश्चात् हुआ था। इस प्रकार महावीर निर्वाण ३२२ + १५५ - ४४७ वर्ष पूर्व सिद्ध हुआ। किन्तु दूसरी ओर डॉ. काशीप्रसाद जायसवालका मत है कि बौद्धोंको सिंहल-देशीय परम्परामें बुद्धका निर्वाण ई. पू. ५४४ माना गया है । तथा मज्झिमनिकायके सामगाम सूरतमें व त्रिपिटकम अन्यत्र भी इस बातका उल्लेख है कि भगवान बुद्धको अपने एक अनुयायो द्वारा यह समाचार मिला था कि पात्रामें महावीरका निर्वाण हो गया। ऐसी भी धारणा रही है कि इसके दो वर्ष पश्चात् बुद्धका निर्वाण हुआ। अतएव यह सिद्ध हुआ कि महावीर-निर्वाणका काल ई, प. ५४६ है। किन्तु विचार करने से ये दोनों अभिमत प्रमाणित नहीं होते। जैन साहिस्पिक तथा ऐतिहासिक एक शुद्ध और प्राचीन परम्परा है जो वीर-निर्वाण को विक्रम मंवत् से ४५० (चार सौ सत्तर) वर्ष पूर्व तया शक संवत् से ६०५ ( छह सौ पाँच ) वर्ष पूर्व हुआ मानती है। इस परम्परा का ऐतिहासिक क्रम इस प्रकार है : जिस रात्रिको वीर भगवान्का निर्वाण हुआ उसी रात्रिको उज्जैनके पालक राजाका अभिषेक हुजा । पालकने ६० वर्ष राज्य किया । तत्पश्चात् नन्दवंशीय राजाओंने १५५ वर्ष, मौर्यवंशने १०८ वर्ष, पुष्यमित्रने ३० वर्ष, बलमित्र और भानुमियने ६० वर्ष, नहपान ( नहबान नरवाहन या नहसेन) ने ४० वर्ष, गर्दभिल्लने १३ वर्ष और एक राजाने ४ वर्ष राज्य किया, और तत्पश्चात् विक्रम-काल प्रारम्भ हुआ। इस प्रकार वीरनिर्वाणसे ६० + १५५ + १०८ -- ३० + ६० + ४० +१३+४ = ४७० वर्ष विक्रम संवत्के प्रारम्भ तक सिद्ध हए । डॉ. याकोबीने हेमचन्द्र आचार्यके जिस मतके आधारपर वीर-निर्वाण
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धीरजिणिवचरिउ
और चन्द्रगुप्त मौर्य बीच १५५ वर्षका अन्तर माना है वह वस्तुतः ठीक नहीं है ! डॉ. याकोबीने हेमचन्द्र परिशिष्ट पर्वका सम्पादन किया है और उन्होंने अपना यह मत भी प्रकट किया है कि उक्त कृति की रचना में शीघ्रता के कारण अनेक भूलें रह गयी हैं । इन भूलोंमें एक यह भी है कि वीर निर्वाण और चन्द्रगुप्तका काल अंकित करते समय के पालक राजाका ६० वर्षका काल भूल गये जिसे जोड़ने से वह अन्तर १५५ वर्ष नहीं किन्तु २१५ वर्षका हो जाता है। इस भूलका प्रमाण स्वयं हेमचन्द्र द्वारा उल्लिखित राजा कुमारपाल के कालमें पाया जाता है । उनके द्वारा रचित त्रिषष्टि-शलाका-पुरुष चरित्र ( पर्व १०, सर्ग १२, श्लोक ४५४६ ) में कहा गया है कि वीर निर्वाणसे १६६९ वर्ष पश्चात् कुमारपाल राजा हुए । अन्य प्रमाणोंसे सिद्ध है कि कुमारपालका राज्याभिषेक ११४२ ई. में हुआ था । अतएव इसके अनुसार वीर-निर्वाणका काल १६६९ - ११४२ = ५२७ ई. पू. सिद्ध हुआ ।
डॉ. जायसवाल ने जो बुद्ध नित्रणिका काल सिंहलीय परम्परा के आधारसे ई. पू. ५४४ मान लिया है वह भी अन्य प्रमाणोंसे सिद्ध नहीं होता । उससे अधिक प्राचीन सिहलीय परम्पराके अनुसार मौर्य सम्राट अशोकका राज्याभिषेक बुद्धनिर्वाण २१८ वर्ष पश्चात् हुआ था । अनेक ऐतिहासिक प्रमाणोंसे सिद्ध हो चुका है कि अशोकका अभिषेक ई. पू. २६९ वर्ष में अथवा उसके लगभग हुआ था । अतएव बुद्ध-निर्वाणका काल २१८ + २६९ - ४८७ ई. पू. सिद्ध हुआ । इसकी पुष्टि एक चीनी परम्परासे भी होती है। चोनके केन्टन नामक नगर में बुद्ध-निर्वाणके वर्षका स्मरण बिन्दुओं द्वारा सुरक्षित रखनेका प्रयत्न किया गया है। प्रति वर्ष एक बिन्दु जोड़ दिया जाता था। इस बिन्दुओं की संख्या निरन्तर ई. सन् ४८९ तक चलती रही और तब तक विन्दुओं की संख्या ९७५ पायी जाती है। इसके अनुसार बुद्ध-निर्माणका काल ९७५ - ४८९ - ४८६ ई. पू. सिद्ध हुआ । इस प्रकार सिंहल और चीनी परम्परा में पूरा सामजस्य पाया जाता है। अतएव बुद्ध-निर्वाण का यही काल स्वीकार करने योग्य है ।
स्वयं पालि त्रिपिटकमें इस बातके प्रचुर प्रमाण पाये जाते हैं कि महावीर आयु में और तपस्या में बुद्ध ज्येष्ई थे, और उनका निर्वाण भी शुद्ध के जीवन काल में ही हो गया था । दोघनिकाय के श्रामण्य-फल-सुत्त, संयुक्त्त निकायके दहुर-सुत तथा सुत्तनिपातके सभय-सुतमें बुद्ध से पूर्ववर्ती छह तीर्थकों का उल्लेख भाया है । उनके नाम हैं पूरण कश्यप, मक्ख लिगोशाल, निगंठ नातपुत ( महावीर ), संजय बेलट्ठपुत्त प्रबुद्ध बच्चायन और अजितकेश कंबलि । इन सभी को बहुत लोगों
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द्वारा सम्मानित, अनुभवी, चिरप्रव्रजित व वयोवृद्ध कहा गया है, किन्तु बुद्धको ये
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प्रस्तावना विशेषण नहीं लगाये गये। इसके विपरीत उन्हें उन छहकी अपेक्षा जन्मसे अल्प
वयस्क व प्रवज्यामें नया कहा गया है। इससे सिद्ध है कि महावीर बुद्धसे ज्येष्ठ . थे और उनसे पहले ही प्रत्रजित हो :
मज्झिमनिकायके साम-गाम सुतमें वर्णन आया है कि जब भगवान् बुद्ध साम-गाममें विहार कर रहे थे तब उनके पास शुन्द नामक श्रमणोद्देश आया और उन्हें यह सन्देश दिया कि अभी-अभी पावामें निगंठ नातपुत ( मनावीर) की मृत्यु हुई है, और उनके अनुयायियोंमें फलह उत्पन्न हो गया है । बुद्धके पट्ट शिष्य आनन्दको इस समाचारसे सन्देह उत्पन्न हुआ कि कहीं बुद्ध भगवान्के पश्चात् उनके संघमें भी ऐसा ही विवाद उत्पन्न न हो जाये। अपने इस संदेहको चर्चा उन्होंने बुद्ध भगवान् से भी की। यही वृत्तान्त दीघ-निकायके पासादिकसुत्त में भी पाया जाता है । इसी निकायके संगीति परियाय-सुत्तमें भी बुद्ध के संघमें महावीर-निर्वाणका वही समाचार पहुँचता है और उसपर बुद्ध के शिष्प सारिपुत्तने भिक्षुओंको आमन्त्रित कर वह समाचार सुनाया तमा भगवान् बुद्धके निर्वाण होनेपर विवादकी स्थिति उत्पन्न न होने देने के लिए उन्हें सतर्क किया। इसपर स्वयं बुद्धने कहा-साधु, सासु, सारिपुष, सुमने भिक्षुओं को अच्छा उपदेश दिया। मे प्रकरण निस्सन्देह रूपसे प्रमाणित करते है कि महावीरका निर्वाण' बुद्धके जीवन-कालमें ही हो गया था। यही नहीं, किन्तु इससे उनके अनुयायियोंमें कुछ विवाद भी उत्पन्न हुआ था जिसके समाचारसे युद्ध के संघमें कुछ चिन्ता भी उत्पन्न हुई थी, और उसके समाधान का भी प्रयत्न किया गया था। इस प्रकार बुद्धसे महावीरकी वरिष्ठता और पूर्व-निर्वाण निस्सन्देह रूपसे सिद्ध हो जाता है और उनका दोनोंकी उक्त परम्परागत निर्वाण-तिथियों से भी मेल बैठ जाता है।
८. महाबोर-जन्मस्थान
प्रस्तुत ग्रन्थ संधि १ कडवक ६-७ में कहा गया है कि जम्मूढीयके भरतक्षेत्रमें स्थित कुण्डपुरके राजा सिद्धार्थ और .रानो प्रियकारिणीके चौबीसवें जिनेन्द्र महावीरका जन्म होगा । इस परसे इतना तो स्पष्ट हो गया कि भगवानका जन्मस्थान कुण्डपुर था । किन्तु वहाँ उसके भारत में स्थित होने के अतिरिक्त और अन्य
१. महावार और चुके निर्माण काल सम्बन्धी बल्लेखा व कहारोहके लिए देखिए
विटानिष्ट न : हिस्ट्री ऑफ इंडियन लिटरेचर भाग २ अपेटिक्स ! बुद्ध-निबाण न अपेण्डिक्स ६ महावीर-निवौंग । मुनि नगरराज वृत्त आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन, पृष्ठ ४७-१२८ ।
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पोरजिणिवचरित कोई प्रदेश आदिकी सूचना नहीं दी गयी । तथापि अन्य ऐसे उल्लेख प्राप्त हैं जिनसे स्पष्ट हो जाता है कि यह कुण्डपुर विदेह प्रदेशमें स्थित था । उदाहरणार्थ पूज्यपाद स्वामी कृत निर्वाण-भक्तिमें कहा गया है कि :__ "सिद्धार्थनपति-जनयो भारतवास्ये, विदेह-कुण्डपुरे ।" अर्थात् राजा सिद्धार्थ के पुत्र महावीरका जन्म भारतवर्ष के विदेह प्रदेशमें स्थित कुण्डपुर में हुआ। इसी प्रकार जिनसेन कृत हरिवंश पुराण (सर्ग २ श्लोक १ से ५) में कहा गया है कि :
अथ देशोऽस्ति विस्तारो जम्बूद्वीपस्य भारते । विदेह इति विख्यासः स्वर्गखण्डसमः श्रिया ।। तत्राखण्डलनेवालीपद्मिनीखण्ठमण्डनम् ।
सुखाम्भःकुण्डमाभादि नाम्ना कुण्डपुरं पुरम् ।। अर्थात् जम्बूद्रोपके भरतक्षेत्र में विशाल, विख्यात व समृद्धिमें स्वर्गके समान जो विदेह देश हैं उसमें कुण्डपुर नामका नगर ऐसा शोभायमान दिखाई देता है जैसे मानो वह सुखरूपी जलका कुण्ड ही हो, तथा जो इन्द्र के सहस्र नेत्रोंकी पनिहामी कमली-ससे गणित हो । गुगत सरपुराण ( पर्व ७४ श्लोक २५१-२५२) में भी पाया जाता है कि :
भरतेऽस्मिन्विदेहास्ये विषये भवनाङ्गणे ।
राज्ञः कुण्डपुरेशस्य पसुधारापतत्पृथुः ॥ अर्थात् इसी भरत क्षेत्रके विदेह नामक देशमै कुण्डपुर-नरेशके प्रासादके प्रांगण में विशाल धनको धारा बरसी ।
अर्द्धमागपो आगमके आचाराङ्ग मूत्र ( २, १५) तथा कल्पसूत्र ( ११० ) में भी कहा गया है कि:
समणे भगवं महाबोरे जाए गायपुत्ते णायकुलणिमत्ते विदेहे विदेहदित्ते विदेह जच्चे विदेहसूमाले तोसं वासाई विदेहसि कटु अगारमझे वसित्ता.... । ___ अर्थात् ज्ञात, ज्ञात-पुत्र, ज्ञातृकुलोत्पन, वैदेह, विदेहदत्त, विदेहमात्य, विदेहन सुकुमार, श्रमण भगवान् महावीर ३० वर्ष विदेह देशके ही गहमें निवास करके प्रबजित हुए।
और भी अनेक अवतरण दिये जा सकते है, किन्तु इतने ही उल्लेखोंसे यह भली प्रकार सिद्ध हो जाता है कि भगवान् महावीरकी जन्मनगरीका नाम कुण्डपुर था, और वह कुण्डपुर विदेह प्रदेशमें स्थित था। सौभाग्यसे विदेहको सीमाके सम्बन्ध में कहीं कोई विवाद नहीं है। प्राचीनतम काल से बिहार राज्यका गंगासे उत्तरका भाग विदेह और दक्षिणका भाग मगध नामसे प्रसिद्ध रहा है । इसी विदेह प्रदेशको तोरभुक्ति नामसे भी उल्लिखित किया गया है जिसका वर्तमान
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प्रस्तावना
रूप तिरहुत अब भी प्रचलित है। पुराणों में इसकी सीमाएं इस प्रकार निर्दिष्ट की गयी है :
गङ्गा-हिमवतोमध्ये नदीपञ्चदशान्तरे । तीरभुक्तिरिति ख्यातो देशः परम-पावनः ॥ कौशिकी तु समारभ्य गण्डकीमधिगम्य । योजनानि चतुविशद् ध्यायामः परिकीर्तितः।। गङ्गा-प्रवाहमारम्य यावद् हमवर्त घरम् ।
विस्तार गोयनोको स्म 'तुलादा। इस प्रकार विदेह अर्थात् तोरभुक्ति ( तिरहुत ) प्रदेश की सीमाएँ सुनिश्चित है। उत्तरमें हिमालय पर्वत और दक्षिण में गंगा नदी, पूर्वमें कौशिकी और पश्चिममें गण्डको नामक नदियाँ । किन्तु विदेहकी ये सीमाएं भी एक विशाल क्षेत्रको सूचित करती है और अब हमारे लिए यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि इस प्रदेशामें कुण्डपुरको कहाँ रखा जाये। इसके निर्णयके लिए हमारा ध्यान महावीरके ज्ञातकुलोलन, ज्ञातपुत्र आदि विशेषणों की ओर आकृष्ट होता है । ये ज्ञात क्षत्रियवंशी कहाँ रहते थे इसका संकेत हमें बौद्ध साहित्य के एक अतिप्राचीन ग्रन्थ महावस्तुमें प्राप्त होता है। वहाँ प्रसंग यह है कि बुद्ध भगवान् गंगाको पार कर वैशालीको
ओर जा रहे हैं और उनके स्वागत के लिए वैशाली संघके लिच्छवी आदि अनेक श्वत्रियगण शोभायात्रा बनाकर उनके स्वागतार्थ आते हैं। इसका वर्णन करते हुए कहा गया है कि:
स्फीतानि राज्यानि प्रशास्यमाना । सम्पग् राज्यानि करोन्ति ज्ञातयः ।। तथा इमे लेच्छवि-मध्ये सन्तो।
देवेहि शास्ता उपमामकासि ।। अर्थात् ये जो क्षत्रियगण भगवान्के स्वागतफे लिए आ रहे हैं उनमें जो ज्ञात नामक क्षत्रिगण है ये अपने विशाल राज्यका शासन भले प्रकारसे करते है और में लिच्छवि गणके क्षत्रियों के बीच ऐसे प्रतिष्ठित और शोभायमान दिखाई देते हैं कि स्वयं शास्ता अर्थात् स्त्रयं भगवान् बुद्धने उनको उपमा देयोंसे की है । इस उल्लेखसे एक तो यह बात सिद्ध हो जाती है कि ज्ञातृकुलके क्षत्रियोंका निवासस्थान बैशाली हो था, और दूसरे के लिच्छविगण में विशेष सम्मानका स्थान रखते थे। इसका कारण भी स्पष्ट है। ज्ञातुकोंके कुलकी प्रतिष्ठा इस कारण और भी बढ़ गयी प्रतीत होती है क्योंकि उनके गणनायक सिद्धार्थ वैशाली गणके नायक राजा चेटकके जामाता ये 1 चेटकको कन्या ( भगिनी ) प्रियकारिणी त्रिशलाका
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धौरणिणिवचरित
विवाह ज्ञातकुल-श्रेष्ठ राजा सिद्धार्थसे हुआ था। भगवान् महावीरको बैशालीसे सम्बद्ध करनेवाला एक और पुष्ट प्रमाण उपलब्ध है। अर्द्धमागधी आगमोंमें ( सूत्रकूतांग १, २, उत्तराध्ययन ६ आदि ) अनेक स्थानोंपर भगवान महावीरको बेसालीय--वैशालिक कहा गया है । यद्यपि कुछ टीकाकारोंने वैशालिकका विशाल-व्यक्तित्वशील, विशालामाताके पुत्र आदि रूपसे विविध प्रकार अर्थ किये हैं तथापि वे संतोषजनक नहीं हैं। वैशालिकका यही स्पष्ट अर्थ समझमें आता है कि वैशाली नगरके नागरिक थे। आगम में अनेक स्थानोंपर वैशाली धावकोंका भी उल्लेख भाता है। भगवान ऋषभदेव कौशल देशके थे, अतएन उन्हें 'अहा कोसलीये' अर्थात् कौशल देशके अरहन्त कहकर भी सम्बोधित किया गया है ( समवायांग सूत्र १४१, १६२ )। इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि महावीर वैशाली नगरम ही उत्पन्न हुए थे और कुण्डपुर उसी विशाल नगरका एक भाग रहा होगा।
अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि वैशाली की स्थिति कहाँ थी ? इसका स्पष्ट उत्तर वाल्मीकि कृत रामायण (१,४५ ) में पाया जाता है। राम और लक्ष्मण विश्वामित्र मुनिके साथ मिथिलामें राजा जनक द्वारा आयोजित धनुर्यज्ञमें जा रहे. हैं। जब वें गंगा-तटपर पहुंचे तब मुनिने उन्हें गंगा-अवतरणका आख्यान सुनाया। तत्पश्चात् उन्होंने गंगा पार की और वे उसके उत्तरीय तटपर जा पहुँचे । वहाँसे उन्होंने विशालापुरीको देखा :
उत्तरं तीरमासाद्य सम्पूज्यर्षिगणं ततः ।
गङ्गाकूले निविष्टास्ते विशालां ददृशुः पुरीम् ।।९।। ( रामा. ४५,९) और वे शीघ्र ही उस रम्य, दिव्य तथा स्वर्गापम नगरी में जा पहुंचे।
ततो मुनिवरस्तुणं जमाम सहराघवः । विशालां नारी रयां दिनां स्वोपमा तदा ।।
( रामा. १,४५, ९-१०) यहाँ उन्होंने एक रात्रि निवाम किया और दूसरे दिन वहाँस चलकर वे जनकपुरी मिथिलामें पहुंचे।
'उध्य तक निभामेका जग्मतुमिथिलां ततः।'
बौद्ध ग्रन्थों में भी वैशालो के अनेक उल्लेख आये हैं और वहाँ भी स्पष्टतः कहा गया पाया जाता है कि बुद्ध भगवान् गंगाकी पारकर उत्तरकी ओर वैशालोमें पहुँचे। वैशाला में उस समय लिच्छवि संवका राज्य था तथा गंगाके दक्षिण में मगधनरेश श्रेणिक बिम्बसार और उनके पश्चात् कुणिक अजातशत्रुका एकछत्र राज्य था। इन दोनों राज्यतन्त्रोंम मौलिक भेद था और उनमें शत्रुता भी बढ़
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प्रस्तावना
गयी थी। बौद्ध ग्रन्योंमें उल्लेख है ( दीघनिकाय-महापरिणिबाण सुत्त ) कि अजातशत्रुके मन्त्रो वर्षकारने बुद्धसे पूछा था कि क्या वे शालोके लिच्छवि संघपर विजय प्राप्त कर सकते है ? इसके उत्तरमें बुद्धने उन्हें यह सूचित किया था कि जबलक लिच्छवि गणके लोग अपनी गणतन्त्रीम व्यवस्थाको सुसंगठित हो एकमत से समर्थन दे रहे है, न्यायनीतिका पालन करते हैं और सदाचारफे नियमों का उल्लंपन नहीं करते, तबतक उन्हें कोई पराजित नहीं कर सकता। यह बात जानकर वर्षकार मन्त्री ने कूटनीतिसे लिच्छवियों के बीच फूट डाली और उन्हें भ्यायनीतिसे भ्रष्ट किया । इसका जो परिणाम हुआ उसका विशद वर्णन भर्द्धमागधी आगमके भगवती सूत्र, सप्तम शतक में पाया जाता है। इसके अनुसार अात. शत्रुकी सेनाने वैशालीपर आक्रमण किया। युद्धमें महाशिलकंटक और रषमुसल नामक युद्ध-यन्त्रों का उपयोग किया गया । अन्ततः वैशाली के प्राकारका भंग होकर अजातशत्रुकी विजय हो गयो । तात्पर्य यह है कि महावीरके काल में वैशाली की बड़ी प्रतिष्ठा थी और उस नगरीका नागरिक होना एक गौरबकी बात मानी जाती थी । इसीलिए महावीरको वैशालीय कहकर भी सम्बोधित किया गया है । अनेक प्राचीन नगरोंके साथ इस वैशालीयका भी दीर्घकाल तक इतिहासज्ञोंको अता-पता नहीं था। किन्तु विगत एक शताब्दी में जो पुरातत्त्व सम्बन्धी खोज-शोध हुई है उससे प्राचीन भग्नावशेषों, मुद्राओं व शिलालेखों आदिके आधारसे प्राचीन वैशालीको ठीक स्थिति अवगत हो गयी है और निस्सन्देह रूपसे प्रमाणित हो गया है कि बिहार राज्यसे गंगाके उत्तरमें मुजफ्फरपुर जिलेके अन्तर्गत बसाइ नामक ग्राम ही प्राचीन वैशाली है। स्थानीय खोज-शोधसे यह भी माना गया है कि वर्तमान बसाढ़के समीप ही जो वासुकुण्ड नामक ग्राम है वही प्राचीन कुण्डपुर होना चाहिए ! वहाँ एक प्राचीन कुण्डके भी चिह्न पाये जाते हैं जो क्षत्रियकुष्ठ कहलाता रहा होगा। उसी के समीप एक ऐसा भी भूमिखण्ड पाया गया जो 'अहल्य' माना जाता रहा है। उसपर कभी हल नहीं चलाया गया, तथा स्थानीय जनताको धारणा रही है कि वह एक अतिप्राचीन महापुरुषका जन्मस्थान था। इसलिए उसे पवित्र मानकर लोग वहाँ दीपावलीको अर्थात् महावीरके निर्वाणके दिन दीपक जलाया करते हैं। इन सब बातोंपर समुचित विचार करके विद्वानों ने उसी स्थलको महावीरकी जन्मभूमि स्वीकार किया और बिहार सरकारने भी इसी आधारपर उस स्थलको अपने अधिकारमें लेकर उसका घेरा बना दिया है और वहाँ एक कमलाकार वेदिका बनाकर वाहाँ एक संगमरमरका शिलापट स्थापित कर दिया है। उसपर अर्द्धमागधी भाषामें आठ गाथाओंका लेख हिन्दी अनुवाद सहित भी' अंकित कर दिया गया है जिसमें वर्णन है कि यह बह स्थल है
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बोरजिणिवपरित जहाँ भगवान् महावीरका जन्म हुआ था और जहाँसे वे अपने ३० वर्षके कुमारकालको पूरा कर प्रवजित हुए थे 1 शिलालेख में यह मो उल्लेख है कि भगवान के जन्मसे २५५५ वर्ष व्यतीत होनेपर विक्रम संवत् २०१२ वर्षमें भारत के राष्ट्रपति श्री राजेन्द्रप्रसादने वहाँ आकर उस स्मारकका उद्घाटन किया।
महावीर स्मारकके समीप ही तथा पूर्वोक्त प्राचीन क्षत्रिय कुण्डकी तटवर्ती भूमिपर साहू शान्तिप्रसादके दानसे एक भव्य भवनका निर्माण भी करा दिया गया है और वहाँ बिहार राज्य शासन द्वारा प्राकृत जैन शोध संस्थान भी चलाया जा रहा है। यह संस्थान सन् १९५६ में मेरे ( डा. हीरालाल जैन ) निर्देशकत्वमें मुजफ्फरपुरमें प्रारम्भ किया गया था। उन्हीं के द्वारा बंशाली में महावीर स्मारक स्थापित कराया गया तथा शोध-संस्थानके भवनका निर्माण कार्य प्रारम्भ कराया गया ।
वैशालीको स्थितिका यह जो निर्णय किया गया उसमें एक शंका रह जाती है। कुछ धर्म-अन्धुओंको यह बात खटकती है कि कहीं-कहीं शालीकी स्थिति विदेहमें नहीं, किन्तु सिन्धु देशमें कही गयी है। प्रस्तुत ग्रन्थ ( ५,५) में भी कहा पाया जाता है कि सिधुनिसइ वइसालीपुरवरि' तथा संस्कृत उत्तर पुराण (७५,३ ) में भी कहा गया है :
सिन्ध्वास्यविषये भूभवशालीनगरेऽभवत् ।
चेटकाख्योऽतिविख्यातो बिनीतः परमाहवः ॥ इन दोनों स्थानोंपर सिन्धु विषय व सिन्ध्वाख्यविषयेका तात्पर्य सिन्ध देशसे लगाया जाना स्वाभाविक ही है। किन्तु साथ ही यह भी स्पष्ट है कि वर्तमान सिन्धदेशमें न तो किसी वैशाली नामक नगरीका कहीं कोई उल्लेख पाया गया
और न उसको पूर्वोक्न समस्त ऐतिहासिक उल्लेखों और घटनाओंसे सुसंगति बैठ सकती है। वैशालीकी स्थितिमें अब कहीं किसी विधानको संशय नहीं रहा है। इस विषयपर मैंने जो विचार किया है उससे मैं इस निर्णयपर पहुंचा है कि उत्तर पुराणमें जो 'सिम्स्यास्यविषये पाठ है वह किसी लिपिकार के प्रमावका परिणाम है। यथार्थतः वह पाठ होना चाहिये 'सिन्ध्याय-विषये' जिसका अर्थ होगा वह प्रदेश जहाँ नदियोंका बाहुल्य है। तिरहुत प्रदेशका यह विशेषण पूर्णतः मार्थक है। इस प्रदेशका उल्लेख शंकरदिग्विजय नामक ग्रन्धर्म भी आया है, और वहाँ उसे उदकदेश कहा गया है। तीरभुक्ति नामकी भी यही सार्थकता है कि समस्त प्रवेश प्रायः नदियों और उसके तटवर्ती क्षेत्रोंमें बटा हुआ है। ऊपर जो तीरभुक्ति सम्बन्धी एक उल्लेख उद्धृत किया गया है उसमें इस प्रवेशको 'नदी-पञ्चदशान्तरे' कहा गया है, अर्थात् पन्द्रह नदियों में बटा हुआ प्रदेश । बहाँ नदियोंकी बहुलता
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तथा समय-समय पर पूरे प्रदेशका जलप्लावन आज भी देखा-सुना जाता है। अतः पूर्वोक्त दोनों उल्लेखोंसे किसी अन्य सिन्धु देशका नहीं, किन्तु इसी सिन्धुबहुल, उदकदेश या तीरभुक्तिसे ही अभिप्राय है ।
अब इस विषय में एक प्रदन फिर भी शेष रह जाता है। इषर दीर्घकाल से महावीर स्वामी का जन्म स्थान बिहार के पटना जिलेमें नालन्दा के समीप कुण्डलपुर माना जाता है। वहाँ एक विशाल मन्दिर भी है और वह भगवान्के जन्मकल्याणक स्थानके रूपमें एक तीर्थ माना जाता है। इसी श्रद्धासे वहाँ सहस्रों यात्री तीर्थयात्रा करते हैं । उसी प्रकार श्वेताम्बर सम्प्रदाय द्वारा भगवान्का जन्मस्थान मुंगेर जिलेके लच्हुआ नामक ग्रामके समीप क्षत्रिय कुण्डको माना गया है । किन्तु ये दोनों स्थान गंगा के उत्तर विदेह देश में न होकर गंगा के दक्षिण में मगध देश के अन्तर्गत हैं और इन कारण दोनों हो राम्प्रदायोंके प्राचीनतम स्पष्ट ग्रन्थोल्लेोके विरुद्ध पड़ते हैं | यथार्थतः इस विषय में सन्देह याकोबी आदि उन विदेशी विद्वानोंने प्रकट किया जिन्होंने इस विषयपर निष्पक्षतापूर्वक शुद्ध ऐतिहासिक दृष्टि से विचार किया था, और उन्हींकी खोज-शोधों द्वारा वैशाली तथा कुण्डपुरकी वास्तविक स्थितिका पता चला। ये जो दो स्थान वर्तमान में जन्मस्थल माने जा रहे हैं उनको परम्परा वस्तुतः बहुत प्राचीन नहीं हूँ । विचार करनेसे ज्ञात होता है कि विदेह और मगध प्रदेशों में जैनधर्म के अनुयायियोंकी संख्या महावीरके कालसे लगभग बारह सौ वर्षतक तो बहुत रहीं। सातवीं शताब्दी में कालमें जो चीनी यात्री हुयेनत्सांग भारत में आया था उसने समस्त बौद्ध तीर्थो की यात्रा करने का प्रयत्न किया था । वह वैशाली भी गया था जिसके विषयमें उसने अपनी यात्रा वर्णन में स्पष्ट लिखा है कि वहाँ बौद्ध धर्मानुयायियों की अपेक्षा निर्ग्रन्थों अर्थात् जैनियोंकी संख्या अधिक है । किन्तु इसके पश्चात् स्थिति में बड़ा अन्तर पड़ा प्रतीत होता है, और अनेक कारणोंसे यहाँ प्रायः जैनियों का अभाव हो गया। इसके अनेक शताब्दी पश्चात् सम्भवतः मुगलकाल में व्यापारकी दृष्टिसे पुन: जैनी यहाँ आकर बसे और उन्होंने पुरातत्व व ऐतिहासिक प्रमाणोंके आधारपर नहीं, किन्तु केवल नाम साम्य तथा भ्रान्त जनश्रुतियोंके आवारसे कुण्डलपुर व लच्छुआड़ में भगवान् के जन्मस्थान की कल्पना कर ली । अ उक्त दोनों स्थान वहाँ के मन्दिरोंके निर्माण, मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा तथा सैकड़ों वर्षोंसे जनताकी श्रद्धा एवं तीर्थयात्रा के द्वारा तीर्थस्थल बन गये हैं और बने रहेंगे | किन्तु जब हमने यह जान लिया कि भगवान्का वास्तविक जन्म-स्थान वैशाली न कुण्डपुर है उसे समस्त भारतीय व विदेशी विद्वानोंने एकमत से स्वीकार किया है तथा बिहार शासन द्वारा भी उसे मान्यता प्रदान कर वहां महावीर स्मारक और
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वीरजिणिवचरिउ शोध-संस्थान की स्थापना भी की है तब समस्त जैन समाजको इस स्थानकी उपेक्षा नहीं करना चाहिए और अपना पूरा योगदान देकर उसे उसके ऐतिहासिक महत्वके अनुरूप गौरवशाली बनाना चाहिए।
९, महावीर-तप-कल्याणक क्षेत्र भगवान्ने तपश्चरण' कहाँ प्रारम्भ किया था इसका उल्लेख प्रस्तुत ग्रन्थ (१,११ ) में इस प्रकार पाया जाता है।
चंदप्पह-सिविहिं पहु चडिण्णु । तहिं णाह-संडवाणि गवर दिण्णु || मरगसिर-कसण-समी-दिति । संजायइ तियसुच्छवि महति ।। धोलीणइ चरियावरण पंकि । हत्युत्तरमअझासिद ससंकि ।। . छट्टोववामु किउ मलहरेण ।
तत्रचरणुलइन परमेसरेण ।। इसी प्रकार संस्कृत उत्तरपुराण (७५, ३०२-३०४) में भगवान् के तपग्रहणका उल्लेख इस प्रकार पाया जाता है :
नाथः (नाथ-) पण्डवनं प्राप्य स्वयानादवरुद्ध सः । श्रेष्ठः षष्ठोपवासेन स्वप्रभापटलावृते ॥३०२॥ निविश्योदमुखो वोरो रून्द्ररत्नशिलातले । दशम्यां मार्गशीर्षस्य कृष्णायां शशिनि चिते ॥ हस्तोत्तरक्षयोमध्यं मागं चापास्तलक्ष्मणि । दिवसावसितो धीरः संयमाभिमुखोऽभवत् ॥
सौधर्माद्यैः सुरैरेत्म कृताभिषवपूजनः ।। हरिवंशपुराण ( २,५०५२ ) के अनुसार :
आरुह्य शिविका दिव्यामुह्यमानां सुरेश्वरैः ॥ उत्तराफाल्गुनीष्वेव वर्तमाने निशाफरे । कृष्णस्य मार्गशीर्षस्य देशम्यामगमद् वनम् ॥
१. हानले : उपासक-दशा, मस्तावना व टिप्पण । फेम्बिज हिस्ट्री ऑफ इण्डिया, प3 t४।
भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ० २२ आदि ।
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प्रस्तावना
अपनीय तनोः सर्च वस्त्रमाल्यविभूषणम् ।
पञ्चमुष्टिभिरुद्धृत्य मूर्घजानभवन्मुनिः ।। इन तीनों उल्लेखोंका अभिप्राय यह है कि नाय, नाध, नाय अथवा ज्ञात वंशीय भगवान् महावीर ने मार्गशीर्ष कृष्णा १०वीं के दिन पण्डवनमें जाकर तपश्चरण प्रारम्भ किया और पुल हो गये । गायत अगामी सों, जैसे कल्पसूत्रादिमें इसे 'णाय-संडवन' अर्थात् ज्ञातु क्षत्रियों के हिस्सेका बन कहा गया है
और मेरे मतानुसार उत्तरपुराणमें भी मूलतः पाठ नाथ-पण्डवन व अपभ्रंशमें गाहसंउवण रहा है जिसे अज्ञानवश लिपिकारोंने अपनी दृष्टिसे सुधार दिया है । अतः भगवान्झी तपोभूमि ज्ञातृवंशी क्षत्रियों के निवास वशाली व कुण्डपुरका समीपवर्ती उपवन ही सिद्ध होता है।
१०. भगवान का केवलज्ञान-क्षेत्र
भगवान्को केवलज्ञान कहाँ उत्पन्न हुआ इसका उल्लेख प्रस्तुत ग्रन्थ' (२, ५) में निम्नप्रकार पाया जाता है ।
बारह-रांवच्छर-तब-चरणु । किउ सम्मइणा दुक्किय-हरणु 11 पोसंतु अहिंस संति शसहि । भयवंतु संतु विहरंतु महि ॥ गत जिम्हिह्य-गामहु अइ-णियछि ।
सुविउलि रिज़कूला-णइहि तडि ।। घत्ता-मोर-कीर-सारस-सरि उज्जाणम्म मणोहरि ।।
साल-मूलि रिसि-राणउ रयण-शिलहि आशीण ||५11 छष्टेणुववासे यदुरिएं। परिपालिय-तेरह-विह-चरिएँ ॥ वइसाह-मासि सिय-दसमि दिणि । अधरण्हइ जायइ हिम-किरणि ।। हत्युत्तर-मज्म-समासियाइ ।
पहु बडिवण्णउ केवल-सियइ ।। अर्थात् भगवान् महावीरने बारह वर्ष तक तपस्या की, तथा अपनी स्वसा चन्दनाके अहिंसा और क्षमा भावका पोषण किया, एवं विहार करते हुए वे
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बीरर्जािणवचरित जम्भिक ग्रामके अतिनिकट ऋजकला नदी के तटवर्ती वनमें पहुँचे। वहां उन्होंने एक साल वृक्षके नीचे शिलापर ध्यानारूद हो दो दिन उपवासकर वैशाख शुक्ल दशमीके दिन अपराल कालम जब चन्द्र उत्तराषाढ़ और हस्त नक्षत्रों के मध्यमें था तब केवलज्ञान प्राप्त किया । यही बात उत्तरपुराण ( ७४, ३, ४९ आदि ) में इस प्रकार कही गयी है :
भगवान्वेधमानोऽपि नीत्वा द्वादशवत्सरान् । । छायस्थ्येन जगद्वन्धुजम्भिक-ग्राम-संनिधौ ।। ऋजुकूलानदीतीरे मनोहरवनान्तर । महारत्नशिलापट्टे प्रतिमायोगमावरान् ॥ स्थित्वा षष्ठोपवासेन सोश्वस्तात्सालभूरुहः । वैशाखे मासि सज्योत्स्नदशम्यामपरालके ।। हस्तोत्तरान्तरं याते शशिन्यारूढ़-शुद्धिक: 1 सापकश्रेणिमारुह्म शुक्लध्यानेन सुस्थितः ।। घातिकर्माणि निर्मूल्य प्राप्यानन्तचतुष्टयम् ।
परमात्मपदं प्रापत्परमेष्ठी स सन्मतिः ।। यही बात हरिवंशगुराग (२,५६-५९) में इस प्रकार कही गयी है :
मनःपर्ययपर्यन्त-चतुज्ञानमहेशणः । तपो द्वादशवर्षाणि चकार द्वादशात्मकम् ।। बिहरन्न थ नाथोऽसौ गुणग्राम-परिग्रहः । ऋजुकूलापगाकूले जम्भिक-ग्राममोयिवान् ।। तत्रातापनयोगस्थः सालाभ्यासशिलातले । यैशाख्न-शुक्लपक्षस्य दशम्यां षष्ठमाश्चित: ।। उत्तराफाल्गुनी प्राप्ते शुक्लध्यानी निशाकरे।
नित्य घातिसंघातं केवलज्ञानमाप्तवान् ।। इस प्रकार भगवान् महावीरका केवलज्ञान-प्राप्ति रूप कल्याणक जम्भिक प्रामके समीप ऋजुकुला नदीके तटपर सम्पन्न हुआ। इस ग्रामका नाम आचारंग सूत्र व कल्पसूत्रम जभिय तथा नदीका नाम ऋजुवालुका पाया जाता है।
अद्यापि अभी तक इस नाम और नदीको स्थितिका निर्णय नहीं हुआ, तथापि इसमें कोई सन्देह नहीं दिखाई देता कि उक्त नदी वही है जो अब भी विहारमें कुयेल या कुएल-कूला नामसे प्रसिद्ध है और उसके तट पर इसी नामका एक बड़ा रेलवे जंक्शन भी है। उसी के समीप जम्हुई नामक नगर भी है । अत: वही
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प्रस्तावना
स्थान भगवान्का ज्ञान-प्राप्ति क्षेत्र स्वीकार करके वहाँ समुचित स्मारक बनाया जाना चाहिए।
११. महावीरवेशना-स्थल
केवलज्ञान प्राप्त करके भगवान् राजगृह पहुँचे, और उस नगरके समीप विपुलाचल पर्वतपर उनका समवसरण बनाया गया। वहीं उनकी दिव्यध्वनि हुई जिसका समय श्रावण कृष्ण प्रतिपदा कहा गया है । इसके अनुसार भगवानका प्रथम उपदेश केवलज्ञान-प्रासिसे ६६ दिन पश्चात् हुआ। यह बात हरिवंशपुराण ( २,६१ आदि ) में निम्न प्रकार पायी जाती है :
पदपष्टिदिवसान भूयो मौनेन विहरन् विभुः । आजगाम जगत् ख्याते जिनो राजगृहं पुरम् ।। आरुरोह गिरि तत्र विपुलं विपुलथियम् । प्रश्नोधार्थ स लोकानां भानुमानुदयं यथा ॥ श्रावणस्यासिते पक्षे नक्षत्रेऽभिजिति प्रभुः ।
प्रतिपद्य हि पूर्वाहे शासनार्थमुदाहरत् ॥ __इस प्रकार विहार राज्य के अन्तर्गत राजगृह नगरके समीप विपुलाचलगिरि ही वह पवित्र और महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है जहाँ भगवान् महावीरका दिव्य शासन प्रारम्भ हुआ। इस पर्वतपर पहलेसे ही अनेक जैन-मन्दिर है, और कोई २५-३० वर्ष पूर्व यहाँ वीर-शासन स्मारक भी स्थापित किया गया था। तबसे वीरशासन-जयन्ती भी श्रावण कृष्णा प्रतिपदाको मनायी जाती है। तथापि उक्त स्मारक और पवित्र दिनको अभीतक वह देशव्यापी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हुई जो उनके ऐतिहासिक महत्त्वके अनुरूप हो । इस हेतु प्रयास किये जाने की आवश्यकता है, क्योंकि यही वह स्थल है जहाँ न केवल भगवान्का धर्म-शासन प्रारम्भ हुआ था, किन्तु उस समपके सुप्रसिद्ध वेद-विज्ञाता इन्द्रभूति गौतमने आकर भगवान्का नायकत्व स्वीकार किया और वे भगवान्के प्रथम गणघर बने । यहीं उन्होंने भगवान्की दिव्यध्व निको अंगों और पूर्वोके रूपमें विभाजित कर उन्हें ग्रन्थारून किया। यहीं मगधनरेश श्रेणिक बिम्बसारने भगवान्का उपदेश सुना और गौतम गणघरसे धर्म-चर्चा करके जैन-पुराणों और कथानकोंकी रचनाकी नींव डाली । यहीं श्रेणिकने ऐसा पुण्यबन्ध किया जिससे उनका अगले मानव जन्ममें महापा नामक तीर्थकर बनना निम्चित हो गया ।
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वीरजिणिवचरिउ
१२. महावीरनिर्वाण-क्षेत्र ऋजुकूला नदीके तटपर केवलज्ञान प्राप्त कर तथा विपुलाचलपर अपनी दिव्यध्वनि द्वारा जन-धर्मका उपदेश देकर भगवान् महावीरने ३० वर्ष तक देशके विविध भागों में विहार करते हुए धर्मप्रचार किया। तत्पश्चात् वे पावापुर में आये और वहां अनेक सरोवरोंसे युक्त वनमें एक विशुद्ध शिलापर विराजमान हए। दो दिन तक उन्होंने विहार नहीं किया, और शुक्लध्यानमें तल्लीन रहकर कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रिके अन्तिम भागमें जब चन्द्र स्वाति नक्षत्रमें था तब उन्होंने शरीर परित्याग फर सिद्ध-पद प्राप्त किया । प्रस्तुत ग्रन्थ ( ३,१ ) में यह बात इस प्रकार कही गयी है :
अंत-तित्मणाहु वि महि विहरिवि । जण-दुरिया दुलंबई पहरिवि ।। पावापुरवरु पत्तउ मशहरि । णव-तर-पल्लनि वणि बहु-सरवरि ।। संठिउ पविमल-रयण-सिलायलि । रायहंसु पावइ पंकय-दलि ।। दोगिण दियह पविहारा मुएप्पिणु । णिबत्तिइ कत्तिइ तम-कराणि पक्ख बजद्दसि-यासरि । सुक्क-झाणु तिजउ झाएप्पिण ।। थिइ ससहरि दुहहरि साइवाइ पच्छिमरणिहि अवरारि ।
रिसिसहसेण समउ रयछिंदणु ।।
सिद्धउ जिणु सिद्धत्या गंदणु । ठीक यही वृत्तान्त उत्तरपुराण ( ६७,५०८ से ५१२) में इस प्रकार पाया जाता है :
इहान्त्व-तीर्थनाथोऽपि विहत्य विषयान् बहुन् । क्रमात्पावापुरं प्राप्य मनोहर-बनान्तरे । बहूनां सरसां मध्ये महामणि-शिलातले ॥ स्थित्वा दिनद्वयं वीतविहारो वृद्धनिर्जरः । कृष्ण-कार्तिक-पक्षस्य चतुर्दश्यां निशात्यये ।। स्वातियोगे तृतीयेद्ध-शुक्लध्यानपरायणः । कृषियोग-संरोधः समुच्छिन्नक्रियं श्रितः ।।
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प्रस्तावना
हताघासिचतुष्कः सन्नशरीरो गुणात्मकः ।
गन्ता मुनिसहस्रेण निर्वाणं सर्ववाञ्छितम् ।। इन उल्लेखोंपर से स्पष्ट है कि भगवान् महावीरका निर्वाण पावापुरके समीप ऐसे वनमें हुआ था जिसमें आस-पास अनेक सरोवर थे। वर्तमानमें भगवानका निवाण-क्षेत्र पटना जिले के अन्तर्गत विहार-शरीफके समीप वह स्थल माना जाता है जहां अब एक विशाल सरोवरके बीच भव्य जिनमन्दिर बना हुआ है, और इस तीर्थक्षेत्रकी व्यापक मान्यता है। दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदाय एकमतसे इसी स्थलको भगवान्की निर्वाण-भूमि स्वीकार करते हैं ।
फिन्तु इतिहासज्ञ विद्वान् इस स्थानको वास्तविक निर्वाण-भूमि स्वीकार करने में अनेक आपत्तियां देखते हैं। कल्पसूत्र तथा परिशिष्ट पर्वके अनुसार जिस पावाम भगवान्का निर्वाण हुआ था वह मल्ल नामक क्षत्रियों की राजधानी थी। ये मल्ल वैशालीके वज्जि व लिच्छवि संघ में प्रवि थे, और मगधके एक सत्तात्मक राज्यसे उनका वैर था । अतएव' गंगाके दक्षिणवर्ती प्रदेश जहाँ वर्तमान पावापुरी क्षेत्र है वहाँ उनके राज्य होने की कोई सम्भावना नहीं है। इसके अतिरिक्त बौद्ध अन्धी जैसे-ध-
निय, शान्तिमा पिसे सिद्ध होता है कि पाबाकी स्थिति शाक्य प्रदेशमें थी और वह वैशालीसे पश्चिमकी ओर कुशीनगरसे केवल दश-बारह मीलकी दूरी पर था। शाक्यप्रदेशके साम-गाम में जब भगवान् बुद्धका निवास था तभी उनके पास सन्देश पहुँश था कि अभी अर्थात् एक ही दिन के भीतर पावामें भगवान महावीरका निर्माण हुआ है।
इस सम्बन्धके जो अनेक उल्लेख बौद्ध सन्थों में आये हैं उनका ऊपर उल्लेख किया जा चुका है। इन सब बातोंपर विचार कर इतिहासमा इस निर्णयपर पहुंचे हैं कि जिस पावापुरीके समीप भगवान्का निर्वाण हुआ था वह यथार्थतः उत्तरप्रदेश के देवरिया जिलेमें व कुशीनगर के समीप वह पावा नामक नाम है जो आजकल सठियांव ( फाजिलनगर ) कहलाता है और जहाँ बहुत-से प्राचीन खण्डहर व भग्नावशेष पाये जाते हैं। अतएव ऐतिहासिक दृष्टिसे इस स्थानको स्वीकार कर उसे भगवान् महावीरको निर्वाण भूमिके योग्य तीर्थक्षेत्र बनाना चाहिए।'
१. निर्माण भूमि-सम्बन्धी विस्तार पूर्वक विवेचन के लिए देखिए श्री कन्हैयालाल कृत
'पावा समीक्षा (प्रकाशक- अशोक प्रकाशन, वाटरा बाजार, लापा, बिहार १९:४२ )। हिमी एड कल्चर ऑफ दो इण्डियन प्रीपिल, खण्ड २ । दि एज अॅफ इमीरियल यूनिटी, पृ. ७ गल्ल।
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वीरजिणिवचरित १३. महावीर समकालीन ऐतिहासिक पुरुष
(क) वैशाली-नरेश चेटक युत प्राकी गन्धि पाचम तथा संस्कृत उत्तरपुराण (पर्व ७५) में वैशाली के राजा चेटकका वृत्तान्त आया है। चेटकके विषयमें कहा गया है कि वे अति विख्यात, विनीत और परम आहेत अर्थात् जिनधर्मावलम्बी थे । उनको रानीका नाम सुभद्रादेवी था। उनके दश पत्र हर-धनदत्त, धनभद्र, उपेन्द्र, सुदत्त, सिंहभद्र, कुम्भोज, अकम्पन, पतंगत, प्रभंजन और प्रभास । इसके सिवाम इनके सात पुषियां भी थीं। सबसे बड़ी पुत्रीका नाम प्रियकारिणी था जिसका विवाह कुण्डपुर नरेश सिद्धार्थ से हुआ था और उन्हें ही भगवान महावीर के माता-पिता बननेका सौभाग्य प्राप्त हुआ। दुसरी पुत्री थी मगावती जिसका विवाह वत्सदेशको राजधानी कौशाम्बीके चन्द्रवंशी राजा शतानीकके साथ हुआ। तीसरी पुत्री सुपमा दशाण देश ( विदिशा जिला ) की राजधानी हेमकभके राजा दशरथको व्याही गयी । चौथी पुत्री प्रभावती कच्छ देशकी रोरुका नामक नगरी के राजा उदयनकी रानी हुई। यह अत्यन्त शीलवता होनेके कारण शीलवतीके नामसे भी प्रसिद्ध हुई। चेटककी परिवों पुत्रीका नाम ज्येष्ठा था। उसकी याचना गन्धर्व देशके महीपुर नगरवर्ती राजा सात्यकिने की। किन्तु चेटक राजाने किसी कारण यह विवाह सम्बन्ध उचित नहीं समझा । इसपर क्रुद्ध होकर राजा सात्यकिने चेटक राज्यपर आक्रमण किया 1 किन्तु वह युद्धमें हार गया और लज्जित होकर उसने दमवर नामक मुनिसे मुनिदीक्षा धारण कर ली । ज्येष्ठा और छठी पुत्री चेलनाका चित्रपट देखकर मगधराज श्रेणिक उनपर मोहित हो गये, और उनकी याचना उन्होंने चेटक नरेशसे की। किन्तु श्रेणिक इस रामय आयुमें अधिक हो चुके थे, इस कारण चेटकने उनसे अपनी पुत्रियोंका विवाह स्वीकार नहीं किया। इससे राजा थेणिकको बहुत दुःख हुआ। इसकी चर्चा उनके मन्त्रियोंने ज्येष्ठ राजकुमार अभयकुमारसे की । अभयकुमारने एक व्यापारीका वेष धारण कर वैशालीके राजभवनमें प्रवेश किया, और उक्त दोनों कुमारियोंको राजा श्रेणिकका चित्रपट दिखाकर उनपर मोहित कर लिया। उसने सुरंग मार्गसे दोनोंका अपहरण करनेका प्रयल किया। चेलनाने आभूषण लानेको बहाने ज्येष्ठाको तो अपने निवास स्थानकी और भेज दिया और स्वयं अभयकुमारके साथ निकलकर राजगृह आ गयी, तथा उसका श्रेणिक राजा से विवाह हो गया। उधर जब ज्येष्टाने देखा कि उसकी बहन उसे धोखा देकर छोड़ गयी तो उसे बड़ी विरक्ति हुई और उसने एक आयिकाके पास जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। पेटककी सातवीं पुत्रीका नाम चन्दना
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प्रस्तावना
था । एक बार जब वह अपने परिजनोंके साथ उपवनमें क्रीड़ा कर रही थी तब मनोवेग नामक एक विद्याधरने उसे देखा और वह उसके सौन्दर्य पर मोहित हो गया । उसने छिपकर चन्दनाफा अपहरण कर लिया। किन्तु अपनी पत्नो मनोवेगाके कोपसे भयभीत होकर उसने चन्दनाको इरावती नदीके दक्षिण तटवर्ती भूतरमण नामक वन में छोड़ दिया। वहां उसकी भेंट एक श्यामांक नामक भीलसे हुई। वह उसे सम्मानपूर्वक अपने सिंह नामक भीलराजके पास ले गया । भोलराजने उसे कौशाम्बीके एक धनी व्यापारी सेठ ऋषभसेनके कर्मचारी मित्रवीरको सौंप दी, और यह उसे अपने सेटके पास ले आया। सेठकी पत्नी भदाने ई-वश अपनी यन्दिनी दासी बनाकर रखा। इसी अवस्थामें एक दिन जब उस नगरमें भगवान् महावीरका आगमन हुआ, तब चन्दनाने बड़ी भक्तिसे उन्हें आहार कराया। इस प्रसंगसे कौशाम्बी नगरमें चन्दनाकी ख्याति हुई, और उसके विषयमें उसकी बड़ी बहन रानी मुगावतीको भी खबर लगी। वह अपने पुत्र राजघुमार उदयनके साथ सेठके घर आयी, और चन्दनाको अपने साथ ले गयी ! फिर चन्दनाने वैराग्य भावसे महावीर भगवानकी शरणमें जाकर दीक्षा ग्रहण कर ली, और अन्ततः वही भगवान के आयिका-संघकी अग्रणी हुई। __वैशालीनरेश चेटक तथा उनके गृह-परिवार व सम्पत्तिका इतना वर्णन जैनपुराणों में पाया जाता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि वैशाली के नरेश चेटक महावीरके नाना थे, मगधनरेता श्रेणिक तथा कौशाम्बीके राजा शतानीक उनके मात-स्वसा-पति ( मौसिया ) थे, एवं कौशाम्बीनरेगा शतानीकके पुत्र उनके मातृस्त्रसापुत्र ( मौसयाते भाई ) थे।
(ख) मगध-नरेश श्रेणिक बिम्बिसार मगध देशके राजा थेणिकका भगवान् महावीरसे दीर्घकालीन और धनिष्ट सम्बन्ध पाया जाता है। बहुत-सी जैन पौराणिक परम्परा तो श्रेणिक के प्रश्न और महावीर अथवा उनके प्रमुख गणधर इन्द्रभूतिके उत्तरसे ही प्रारम्भ होती है। उनका बहुत-सा वृत्तान्त प्रस्तुत ग्रन्थ की सन्धि छहसे ग्यारह तक पाया जायेगा। इस नरेशकी ऐतिहासिकतामें कहीं कोई सन्देह नहीं है। जैन ग्रन्थों के अतिरिक्त बौद्ध साहित्यमें एवं वैदिक परम्पराके पुराणोंमें भी इनका वृत्तान्त व उल्लेख पाया जाता है । दिगम्बर जैन परम्परामें तो उनका उल्लेख केवल श्रेणिक नामसे पाया जाता है, किन्तु उन्हें भिम्भा अर्थात् भेरी बजानेकी भी अभिरुचि थी ( देखिए सन्धि ७,२ ) और इस कारण उनका नाम भिम्भसार अथवा भाभसार भी प्रसिद्ध हुआ पाया जाता है । श्वेताम्बर मन्यों में अधिकतर इसी नामसे इनका उल्लेख
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धीरजिणिवरित
किया गया है। इसी शब्दका आनंश रूप बिम्बिसार या बिम्बलार प्रतीत होता है, और बौद्ध परम्परामें श्रेणिकके साथ-साथ अथवा पृथक रूपसे यही नाम उल्लिन खित हुआ है। बौद्ध ग्रन्थ उदान अटुकथा १०४ के अनुसार निम्बि सुवर्णका एक नाम है, और राजाका शरीर स्वर्णके समान-वर्ण होने के कारण उसका बिम्बि. पार नाम पड़ा ! पन तिब्बतीय परम्परा ऐसी भी है कि इस राजाकी माताका नाम विम्बि था और इसी कारण उसका नाम बिम्बिसार पड़ा। किन्तु जान पड़ता है कि ये व्युत्पत्तियाँ उक्त नामपर-से कल्पित की गयी है। श्रेणिक नामकी भी अनेक प्रकारसे व्युत्पत्ति की गयी है। हेमचन्द्र कृत अभिधान-चिन्तामणि में 'श्रेणी: कारयति श्रेणिको मगधेश्वरः' इस प्रकार जो श्रेणियोंकी स्थापना कर वह श्रेणिक, यह व्युत्पत्ति बतलायी गयी है। बौद्ध परम्परा के एक विनय पिटकको प्रतिमें यह भी कहा पाया जाता है कि चूंकि बिम्बिसारको उसके पिताने अठारह श्रेणियों में अवतरित किया था, अर्थात् इनका स्वामी बनाया था, इस कारणसे उसकी श्रेणिक नामी प्रसिद्धि हुई । अर्द्धमागधी जम्बूद्वीप पण्यत्तिमें ९ नारू और ९, कारू ऐसी अठारह श्रेणियों के नाम मी गिनाये गये है। नौ नारू है-कुम्हार, पटवा, स्वर्णकार, सूतकार, गन्धर्व ( संगीतकार ), कासवग, मालाकार, कच्छकार और तम्बूलि । तथा नी कारू है--चर्मकार, यन्त्रपीड़क, गंछियां, छिम्पी, कंसार, सेवक, ग्वाल, भिल्ल और धीवर । यह भी सम्भव है कि प्राकृल ग्रन्थों में इनका नाम जो 'सेनीय' पाया जाता है उसका अभिप्राय सैनिक या सेनापतिसे रहा हो और उसका संस्कृत रूपान्तर भ्रमवश श्रेणिक हो गया हो।
प्रस्तुत ग्रन्थ के अनुसार मगध देश राजगह नगरके राजा प्रक्षेणिक या उपश्रेणिककी एक रानी चिलातदेवी ( किरातदेवी ) ले चिन्नातपुत्र या किरातपुत्र नामक कुमार उत्पन्न हुआ । उसने उज्जैनीके राजा प्रद्योतको छलसे बन्दी बनाकर अपने पिताके सम्मुख उपस्थित कर दिया। इससे पूर्व उद्योतके विरुद्ध राजाने जो
औदायनको भेजा था उसे उद्योतने परास्त कर अपना बन्दी बना लिया था । चिलातपुत्रकी सफलतासे उसके पिताको बहुत प्रसन्नता हुई और उन्होंने उसे ही अपना उत्तराधिकारी बनाकर उनका राज्याभिषेक कर दिया। किन्तु वह राज्यकार्यमें सफल नहीं हुआ और अनीतिपर चलने लगा । अतः मन्धियों और सामन्तोंने निर्वासित राजकुमार श्रेणिकको कांचीपुरसे बुलवाया । श्रेणिकने आकर किरातपत्रको पराजित कर राज्यसे निकाल दिया । चिलातपुत्र बनमें चला गया और अहाँ ठगों और लुटेरोंका नायक बन गया। तब पुनः एक बार धेणिकने उसे
१. मुनि नगराज : मागम और त्रिपिटक, पृष्ट ३२४ ।
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प्रस्तावना
परास्त किया। अन्ततः चिलातयने विरक्त होकर मुनि-दीक्षा धारण कर लो। इसी अवस्थामें वह एक शृगालोका भक्ष्य बनकर स्वर्गवासी हुआ।
श्रेणिकका जन्म उपक्षेणिककी दूसरी पत्नी सुप्रभादेवीसे हुआ था । वह बहुत विलक्षण-बुद्धि था। पिला द्वारा जो राज्यकी योग्यता जानने हेतु राजकुमारोंकी परीक्षा की गयो उसमें श्रेणिक ही सफल हुआ। तथापि राजकुमारोंमें वर उत्पन्न होनेके भयसे उसने श्रेणिकको राज्यसे निर्वासित कर दिया। पहले तो श्रेणिक नन्दग्राममें पहुँचा, और फिर वहाँसे भी परिभ्रमण करता हुआ तथा अपनी बुद्धि
और साह ।। नमस्कार मितत: हला जनगुगं पहुंच र, । मगध राजा चिलातपुत्र के अन्यायसे त्रस्त होकर मस्त्रियोंने थेणिनाको आमन्त्रित किया और उसे मगधका राजा बनाया।
एक दिन राजा अपनी राजधानीके निकट वनमें आखेटके लिए गया। वहीं उसने एक मुनिको ध्यानारूडू देखकर उसे एक अपशकुन समझा और क्रुद्ध होकर उनपर अपने शिकारी कुत्तोंको छोड़ दिया। किन्तु ये कुत्ते भी मुनिके प्रभावसे शान्त हो गये और राजाके बाण भी उन्हें पुष्पके समान कोमल होकर लगे। तब राजाने अपना क्रोध निकालने के लिए एक मृत सर्प मुनिके गले में डाल दिया। इस घोर पापसे श्रेणिकको सप्तम नरकका आयु-बन्ध हो गया। किन्तु जब उन्होंने देखा कि उनके द्वारा इतने उपसर्ग किये जाने पर भी उन मुनिराजके लेशमात्र भी रागद्वेष उत्पन्न नहीं हुआ, तब उनके मनोगत भावों में परिवर्तन हो गया। जब मनिने देखा कि राजाका मन शान्त हो गया है, तब उन्होंने अपनी मधुर वाशीसे उन्हें आशीर्वाद दिया और धमोपदेश भी प्रदान किया। बस, यहीं राजा थेणिकका मिथ्यात्व भाव दूर हो गया और उन्हें क्षायिक सम्यक्त्वनी प्राप्ति हो गयी। वह मुनिराजके चरणोंमें नमस्कार कर प्रसन्नतासे घर लौटे 1
एक दिन राजा श्रेणिकको समाचार मिला कि विपुलाचल पर्वतपर भगवान् महावीरका आगमन हुभा है। इसपर राजा भक्तिपूर्वक वहाँ गया और उसने भगवान्की वन्दना-स्तुति की। इस धर्म-भावनाके प्रभावसे उनके सम्यक्त्वको परिपुष्टि होकर सप्तम नरककी आयु घटकर प्रथम नरवकी शेष रही, और उसे तीर्थकर नामकर्मका बन्ध भी हो गया। इस अवसरपर राजा श्रेणिकने गौतम गणधरसे पूछा कि हे भगवन्, यद्यपि मेरे मनमें जैन मतके प्रति इतनी महान् श्रद्धा हो गयी है, तथापि व्रत-ग्रहण करनेकी मेरी प्रवृत्ति श्यों नहीं होती ? इसका गणधरने उत्तर दिया कि पहले तुम्हारी भोंगों में अत्यन्त आसक्ति रही है व गाद मिथ्यानका उदय रहा है । तुमने दुश्चरित्र भी किया है और महान आरम्भ भी। इससे जो तीब्र पाप उत्पन्न हुआ उससे तुम्हारी नरककी आयु बंध चुकी है।
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वीरजिणिवच रिज
देवायुको छोड़कर अन्य किसी भी गतिकी आयु जिसने बांध ली है उसमें व्रतग्रहण करनेकी योग्यता नहीं रहती । किन्तु ऐसा जब सम्यग्दर्शन धारण कर सकता है । यही कारण है कि तुम सम्यक्त्वी तो हो गये, किन्तु व्रत ग्रहण नहीं कर पा रहे।
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गणनायकः ।
सर्व निधाय तच श्रद्धाभून्महती मते । जैने कुतस्तथापि स्यान्न मे व्रत - परिग्रहः ॥ इत्यनुश्रेणिक प्रश्नादवादीद् भोग-संजननाद्वाव-मिथ्यात्वानुभवोदयात् ॥ दुश्चरित्रान्मद्दारम्भात्संचित्यैनां निकाचितम् । मारकं बद्धवानायुस्त्वं प्रागेवात्र जन्मनि ॥ देवायुषोऽयायुर्नाङ्गी स्वीकुरुते व्रतम् । श्रद्धानं तु समाधत्ते तस्मात्वं नाग्रहीतम् ॥
( उतरपुराण ७४, ४३३-३३ )
इसी समय गौतम गणधर ने राजा श्रेणिक को यह भी बतला दिया कि भगवान् महावीर के निर्वाण होने पर जब चतुर्थकाल की अवधि केवल तीन वर्ष, आठ माह और पन्द्रह दिन शेष रह जायेगी तभी उसकी मृत्यु होगी । श्रेणिका इतना दृढ सम्यक्त्वो हो गया था कि सुरेन्द्रने भी उसकी प्रशंसा की। किन्तु इसपर एक देत्रको विश्वास नहीं हुआ और वह राजाको परीक्षा करने आया । अब राजा एक मार्गसे कहीं जा रहा था तब उस देवने मूनिका भेष बनाया बोर बह जाल हाथमें लेकर मछलियाँ पकड़ने लगा । राजाने आकर मुनिश्री वन्दना की, और प्रार्थना की कि में आपका दास उपस्थित हूँ तब आप क्यों यह अधर्मकार्य कर रहे हैं । यदि मछलियोंकी आवश्यकता ही है तो में मछलियाँ पकड़ देता है। देवने कहा, नहीं नहीं, अब मुझे इससे अधिक मछलियों की आवश्यकता नहीं । यह वृत्तान्त नगरमें फैल गया, और लोग जैन धर्मकी निन्दा करने लगे । तब राजा श्रेणिकने एक दृष्टान्त उपस्थित किया। उन्होंने अपनी सभा के राजपुत्रको जीवनवृत्ति सम्बन्धी लेख अपनी मुद्रासे मुद्रित कर और उसे मलावलित कर प्रदान किया। उन्होंने बड़ी प्रसन्नता से इस लेखको अपने मस्तकपर चढ़ाकर स्वीकार किया । तब राजाने उनसे पूछा कि इन मलिन लेखों को तुमने अपने मस्तकपर क्यों चढ़ाया ? उन्होंने उत्तर दिया कि जिस प्रकार खचेतन जीव मलिन शरीर से लिप्स होते हुए भी वन्दनीय है, उसी प्रकार आपका यह लेख मलिन होते हुए भी हमारे लिए पूज्य है । तब राजाने हँसकर उन्हें बतलाया कि
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प्रस्तावना
इसी प्रकार धर्म-मुद्राके धारक मुनियों में यदि कोई दोष भी हो, तो उनसे घृणा नहीं, किन्तु उनकी विनय ही करना चाहिए, और विनम्रतासे उन्हें दोषोंसे मुक्त कराना चाहिए । राजाकी ऐसी धर्म-श्रद्धाको प्रत्यक्ष देखकर वह देव बहुत प्रसन्न हुआ और राजाको एक उत्तम हार देकर स्वर्गलोकको चला गया। यह कथानक इस बातका प्रमाण है कि जबसे श्रेणिकने जैन-धर्म स्वीकार किया तबसे उनकी धार्मिक श्रद्धा उत्तरोत्तर दृढ़ होती गयी और वे उससे कभी विचलित नहीं हुए ।
(ग) श्रेणिक-सुत अभयकुमार श्रेणिक जब राजकुमार ही थे और राज्य निर्वासित होकर चिलापत्रके राज्यकालमें कांचीपुरमें निवास कर रहे थे तब उनका विवाह वहाँ के एक द्विजकी कन्या अभयमतीसे हो गया था। उससे उनके अभयकुमार नामका पुत्र उत्पन्न हुआ जो अत्यन्त विलक्षण-बुद्धि था। उसने ही उपाय करके अपने पिताका विवाह उनकी इच्छानुसार चेलमादेवी से कराया । वह भी श्रेणिकके साथ-साथ भगवान् महावीरके समवसरणमें गया था, और न केवल दृढ़-सम्यमत्वी, किन्तु धर्मका अच्छा ज्ञाता बन गया था। यहांतक कि स्वयं राजा श्रेणिकने उससे भी धर्मका स्वरूप समझनेका प्रयत्न किया था। अन्ततः अभयकुमारने भी मुनि-दीक्षा ग्रहण कर ली, और वे मोशगामी हुए । ( उत्तरपुराण ७४, ५२६-२७ आदि )
(घ) श्रेणिक-सुत वारिषेण जैसा कि पहले कहा जा चुका है, राजा श्रेणिकका चेलनादेदीसे विवाह उनकी ढलती हुई अवस्थामें उनके ज्येष्ठ पुत्र अभयकुमारके प्रयत्नसे ही हुआ था। पेलनाने वारिषेण नामक पुत्र का जन्म दिया। वह बाल्यावस्था से ही घामिक प्रवृत्तिया था, और उत्तम भावकोंके नियमानुसार श्मशानमें जाकर प्रतिमायोग किया करता था। एक बार विद्यापचर' नामक अंजनसिद्ध घोरने अपनी प्रेयसी गणिकासुन्दरीको प्रसन्न करने के लिए राजभवन में प्रविष्ट होकर चेलनादेवी के हारका अपहरण किया। किन्तु उसे वह अपनी प्रियाके पास तक नहीं ले जा राका । राजपुरुष उस चन्द्रहास हारको चमकको देखते हुए उसका पीछा करने लगे। यह बात उस चोरने जान ली, और वह श्मशानमें ध्यानारूढ़ वारिषेण कुमारके चरणों में उस हारको फेंककर भाग गया। राज-सेवकोंने इसकी सूचना राजाको दी। राजाने वारिषेणको ही चोर जानकर क्रोधवश उसे मार डालनेकी आज्ञा दे दी । किन्तु वारिषेणके धर्म-प्रभायसे उसपर राजपुरुषोंके अस्त्रशस्त्र नहीं चले । उसका वह दिव्य प्रभाव देखकर राजाने उन्हें मनाकर राज
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घोरजिभिवचरित महल में लानेका प्रयत्न किया, किन्तु वे नहीं आये और महावती मुनि हो गये। उन्होंने पलासखेड़ नामक ग्राममें भिक्षा-निमित्त जाकर अपने एक बालसखाका भी सम्बोधन किया और उसे भी मुनि बना लिया। एक बार उसका मन पुनः अपनी पत्नीकी और लापमान हुअा। किन्तु बारगी उसे अपनी माता पेलनाके महलमें ले जाकर अपनो निरासक्ति भावनाके द्वारा पुनः मुनिव्रतमें दृढ़ कर दिया।
(ङ) श्रेणिक-सुत गजकुमार राजा थणिककी एक अन्य पत्नी धनश्री नामक थी। उसे जब पांच मासवा गर्भ था तब उसे वह दोहला उत्पन्न हुआ कि आकाश मेघाच्छादित हो, मन्द-मन्द वृष्टि हो रही हो, तब वह अपने पति के साथ हाथीपर बैठकर परिजनोंके सहित महोत्सवके साथ अनमें जाकर क्रीडा करे। उस समय वर्षाकाल न होते हुए भी अभयकुमारने अपने एक विद्याधर मित्रकी सहायतासे अपनी विमाताका यह दोहाला सम्पन्न कराया । यथासमय रानी धनश्रीने गजकुमार नामक पुत्रको जन्म दिया। जब वह युवक हुआ तब एक दिन उसने भगवान महावीर की शरणमें जाकर धोपदेश सुना और दीक्षा ग्रहण कर ली। एक बार गजकुमार मुनि कलिंग देशमें जा पहुंचे और वहाँकी राजधानी दन्तीपुरकी पश्चिम दिशामें एक शिलापर विराजमान होकर आतापन योग करने लगे । वहाँके राजाको ऐसे योगका कोई ज्ञान नहीं था। अतः उसने अपने मन्त्रीसे पूछा कि यह पुरुष ऐसा आताप • क्यों सह रहा है ? उनका मन्त्री बुद्धदास जैन-धर्म-विरोधी था। अतः उराने राजाको सुझाया कि इस पुरुषको वात रोग हो गया है और वह अपने शरीरमें गरमी लाने के लिए ऐसा कर रहा है । राजाने करुणाभावसे पूछा, इसकी इस व्याधिको कैसे दूर किया जाये ? मन्त्रीने उपाय बताया कि जब यह अनाथ पुरुष नगरमें भिक्षा मांगने जाये, तब उसके बैठने की शिलाको अग्निसे खूब नपा दिया जाये जिससे उसके ताप द्वारा उसपर बैठनेवालेकी प्रभंजन वायु उपशान्त हो जायेगी। राजाकी आज्ञासे वैसा ही किया गया । परिणाम यह हुआ कि जब गजकुमार मुनि भिक्षासे लौटकर उस शिलापर विराजमान हुए तब वे उसकी तीव्र तापके उपसर्गको सहकर मोक्षगामी हो गये। पश्चात् वहां देवोंका आगमन हुआ और वह मन्त्री, राजा तथा अन्य सहनों जन धर्म में दीक्षित हुए । (च) कौशाम्बीनरेश शतानीक व उदयन तथा
उज्जैनीनृप चण्डप्रद्योत चन्दनाके वृत्तान्तोंमें आया है कि बैशालीनरेश चेटककी सात पुत्रियों में से एक ममावती कौशाम्बी के सौमवंशी नरेश शतानीकसे ब्याही गयी थी। यह
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प्रस्तावना
राजधानी इलाहाबादसे कोई ३५ मील दक्षिण-पश्चिमकी ओर वहीं थी जहा अब कोसम नामका ग्राम है । अब महावीर कौशाम्बी आये और चन्दनाने उन्हें आहार दिया, तब रानी मृगावतीने भी आकर अपनो उस कनिष्ठ भगिनीका अभिनन्दन किया। दातानीक के पुत्र चे उदयन थे जिनका विवाह उज्जैनी नरेश चण्डप्रद्योतकी पुत्री वासवदत्तासे हुआ था। पौस साहित्यिक परम्परानुसार उदयनका और बुद्धका जन्म एक ही दिन हुआ था । तथा एक सुदृढ़ जैन परम्परा यह है कि जिस रात्रि प्रद्योतके मरणके पश्चात् उनके पुत्र पालकका राज्याभिषेक हुआ उसी रात्रि महावीरका निर्वाण हुआ था 1 इस प्रकार वे उल्लेख उक्त दोनों महापुरुषों के समसामयिकत्व तथा तात्कालिक राजनैतिक स्थितियोंपर उपयोगी प्रकाश हालते हैं। १४. महावार-जीवनवाविषयक साहित्य का विकास
(छ) प्राकृतमें महावीर-साहित्य भगवान् महावीरका निर्वाण ई. सन् ५२७ वर्ष पूर्व हुआ और उसी समयसे उनके जीवन-चरित्र सम्बन्धी जानकारी संगृहीत करना आरम्भ हो गया । भगवान के प्रमुख शिष्प इन्द्रभूति गौतम थे जो धवलाके रचयिता वीरसेनके अनुसार चारों वेदों और छहों अंगोंके ज्ञाता शीलवान उत्तम ब्राह्मण थे। ऐसे विद्वान् शिष्यके लिए स्वाभाविक था कि वे अपने गुरुके जीवन और उपदेशोंको सुव्यवस्थित रूपसे संग्रहीत करें। उन्होंने यह सब सामग्री बारह अंगों में संकलित की जिसे द्वादश गणि-पिटक भी कहा गया है । इनके बारहवें अंग दृष्टिवादमें एक अधिकार प्रथमानुयोग भी था जिसमें समस्त तीर्थकरों व चक्रवतियों आदि महापुरुषोंकी वंशावलियोंका पौराणिक विवरण संग्रह किया गया जिसमें तीर्थकर महावीर और उनके नाथ या ज्ञातवंशका इतिहास भी सम्मिलित था।
दुर्भाग्यतः इन्द्रभूति गौतम द्वारा संगृहीत यह साहित्य अन अप्राप्य है । किन्तु उसका संक्षिप्त विवरण समस्त उपलभ्य अर्द्धमागधी साहित्यमें बिखरा हुआ पाया जाता है । समवायांग नामक चतुर्थ अंगमें चौबीसों तीर्थंकरोंके माता-पिता, जन्मस्थान, प्रभज्या-स्थान, शिष्य-वर्ग, आहार-दाताओं आदिका परिनय कराया गया है। प्रथम श्रुतांग आचारांगमें महाषीरकी तपस्याका बहुत मार्मिक वर्णन पाया जाता है । पाँच धुतांग व्यापा-प्रज्ञप्तिमें जो सहस्रों प्रश्नोत्तर महावीर और गौतमके बीच हुए अथित है उनमें उनके जीवन व तात्कालिक अन्य घटनाओंकी अनेक झलकें मिलती हैं। उनके समयमें पापित्यों अर्थात् पार्श्वनाथके अनुयायियोंका बाहुल्य था तथा आजीवक सम्प्रदायके संस्थापक मंखलि-गोशाल उनके
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वीरणिणिवपरित
सम-सामयिक थे। उसी कालमैं मगध और वैशाली के राज्यों में बड़ा भारी संग्राम हुआ था जिसमें महाशिला-कंटक वे रथ-मुसल नामक यन्त्र-चालित शस्त्रोंका उपयोग किया गया इत्यादि । सातवें अंग उपासकाध्ययनमें महावीरके जीवनसे सम्बद्ध वैशाली ज्ञात-षण्डवन कोल्लाग सन्निवेश, कर्मारग्राम, वाणिज्यग्राम आदि स्थानोंके ऐसे उल्रदेस प्राप्त है जिनसे उनके स्थान-निर्णयमें सहायता मिलती है। नथें श्रुतांग अनुत्तरीपपालिकमें तीर्थकरके सम-सामयिक मगध-नरेश श्रेणिककी चेलना, धारिणी व नन्दा नामक रानियों तथा उनके तेवीस राजकुमारोंके दीक्षित होनेके उल्लेख है । मूलसूत्र उत्तराव्ययन व दशवकालिकमें महावी रके भूल दार्शनिक, नैतिक व आचारसम्बन्धी विचारोंका विस्तारसे परिचय प्राप्त होता है । कल्पसूत्र में महावीरका व्यवस्थित रीतिसे जीवन-चरित्र मिलता है। मह समस्त साहित्य कालोन अद्भमाया भाषाम है।
शौररोनी प्राकृतमें यतिवृषभ कृत तिलोय-पण्णत्ति ( त्रिलोक-प्रज्ञप्ति ) ग्रन्य बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि उसमें प्राकृत गायाओंमें हमें तीर्थकरों व अन्य शलाका. पुरुषोंके चरित्र नामावली-निबद्ध प्राप्त होते हैं। इनमें महावीरके जीवन-विषयक प्रायः समस्त बातोंकी जानकारी संक्षेपमें स्मरण रखने योग्य रीतिसे मिल जाती है। ( सोलापुर, १९५२)
इसी नामावली निबद्ध सामग्रीके आधारपर महाराष्ट्री प्राकृत के आदि महाकाव्य पचम-चरियमें महावीरका संक्षिप्त जीवन चरित्र, रामचरित्रकी प्रस्तावनाके रूपमें प्रस्तुत किया गया है । भावनगर, १९१४) । संघदास और धर्मदास गणी कृत वसुदेव-हिण्डी ( ४-५वी शाप्ती) प्राकृत कथा साहित्यका बहुत ही महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें भी अनेक तीर्थकरोंके जीवन-चरित्र प्रसंगवश आये हैं जिनमें वर्षमान स्वामीका भी है ( भावनगर, १९३०-३१ )। शीलांक कृत च उपन-महापुरिस-चरियं ( वि. सं. ९२५ ) में भी महावीरका जीवन-चरित्र प्राकृत गहामें दणित है ( धाराणसी १९६१ )।
भश्वर कृत कहावलि ( १२वीं शती ) में सभी प्रेमठ शलाकापुरुषोंके चरित्र सरल प्राकृत गद्यमें वर्णित है ( गा. ओ. सी.)1 पूर्णतः स्वतन्त्र प्रबन्ध रूपसे महावीरका चरित्र गुणचन्द्र सूरि द्वारा महावीर-चरियमें वर्णित है ( वि. स, ११३९ ) । इसमें आठ प्रस्ताव है जिनमें प्रथम चारमें महावीरके मरीचि आदि पूर्व भवोंफा विस्तारसे वर्णन है ( बम्बई १९२९) । गुणचन्द्र के ही सम-सामयिक देवेन्द्र अपरनाम नेमिचन्द्र सूरिने भी पूर्णत: प्राकृत पद्यबद्ध महाबीर-चरियकी रचना की ( वि. सं. ११४१ )। इसमें मरीचिसे लेकर महावीर तक छब्बीस भवोंका वर्णन है जिसकी कुल पद्म-संख्या लगभग २४०० है ( भावनगर, वि. सं.
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प्रस्तावना
१९७३ )। इनसे कुछ ही समय पश्चात् ( वि. सं. ११६८ के लगभग ) देवभद्र मगीने भी महाबीर-चरियको रचना की ( अहमदाबाद, १९४५ )।
(ज) संस्कृतमें महावीर-साहित्य तत्वार्थसूत्र-जैसी सैद्धान्तिक रचनाओं को छोड़ जन साहित्य सृजनमें संस्कृत भाषाका उपयोग अपेक्षाकृत बहुत पीछे किया गया । ( हम जानते है कि सिखसेन विवाकरने अपनी पांच स्तुतियां भगवान् महावीरको ही उद्देशित करके लिखी हैं। बारम्भकालीन काव्यशैलीमें लिखित जटिल या जटाचार्य के 'वरांगचरित' तथा रविषेणके 'पद्मपुराण' (इ. स. ६७६ ) की ओर संस्कृत जैन साहित्यमें हम निर्देश कर सकते हैं। ये दोनों 'कुवलयमाला' (ईसाफे ७७९ ) से भी पूर्व कालीन हैं ।) तीर्थकरोंके जीवन-परित्र पर महापुराण नामक साग-सम्पूर्ण रचना जिनसेन और उनके शिष्य गणभद्र द्वारा शक सं. ८२० के लगभग समान की गयी थी। इसके प्रथम ४७ पर्व आदिपुराणके नामरो प्रसिद्ध है जिनमें प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव और उनके पुत्र प्रथम चक्रवर्ती भरतका जीवन चरित्र णित है । ४८ से ७६ तक के पर्व उत्तरपुराण कहलाता है जिसकी पूरी रचना मुणभद्र-कृत है। और उसमें शेष तेवीस तीर्थकरों व अन्य शलाकापुरुषों के जीवनवृत्त हैं। इनमें तीर्थकर महावीरका चरित्र अन्तिम तीन सीमें ( ७४ से ७६ तक ) सुन्दर पद्योंमें है जिनकी कुल पद्य-संख्या ५४९ + ६९१ + ५७८ = १८१८ है (वाराणसी, १९५४)। लगभग पौने तीन सौ वर्ष पश्चात् ऐसे ही एक विशाल त्रिषष्टि-शलाका-पुरुषचरितकी रचना हेमचन्द्राचार्यने १० पोंमें की जिसका अन्तिम पर्व महावीरचरित्रविषयक है ( भावनगर, १९१३ ) । एक महापुरुष-चरित स्वोपज टीका सहित मेरुतुंग द्वारा रचा गया जिसके पांच सगोंमें क्रमशः ऋषभ, शान्ति, नेमि, पाव और महावीरके चरित्र वर्णित है। यह रचना लगभग १३०० ई. की है। काव्यकी दृष्टिसे शक सं. ९१० में असग द्वारा १८ सगों में रचा गया वर्धमान चरित है ( सोलापुर १९३१)। किन्तु यहाँ भी प्रथम सोलह समेिं महावीरके पूर्व भवोंका वर्णन है और उनका जीवन-शुस अन्तिम दो सगोमें। सकसकीतिकृत वर्धमान पुराणमें १९ सर्ग हैं और उसकी रचना वि. सं. १९१८ में हुई । पयनन्दि, केशव और वापीवल्लभ द्वारा भी संस्कृत में महावीर चरित्र लिने जानेके उल्लेख पाये जाते हैं।
(A) महावीर-जीवनपर अपभ्रंश साहित्य समस्त तीर्थकरों व अन्य शलाकापुरुषों के चरित्र पर अपभ्रंशमें विशाल और श्रेष्ठ तथा सर्व काव्य-गुणोंसे सम्पन्न रचना पुष्पदन्त कृत महापुराण है ( शक सं०
[११]
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वीरजिणिवचरिउ
८८७ )। इसमें कुल १०२ सन्धिया है, जिनमें महावीरका जीवन-चरित्र सन्धि ९५ से अन्त तक वणित है ( बम्बई १९४१ ) । स्वतन्त्र रूपसे यह परित्र कवि श्रीधर द्वारा रचा गया। उनको एक अन्य रचना पाराणाह-चरिउका समाप्ति-काल वि. सं. ११८९ उल्लिखित है, अतः इसी कालके लगभग प्रस्तुत ग्रन्थका रचनाकाल निश्चित है। श्रीधरकी अपनश रचनाएँ इस कारण भी विशेष रूपसे ध्यानाकर्षक हैं कि कयिने अपनेको हरियाणा निवासी प्रकट किया है। हरियाणा 'आभीरकाणाम' का अपभ्रंश है जिससे वह आभीर जातिकी भूमि सिद्ध होती है, और काव्यादर्शके कार्ता दाडौके अनुसार आभीरों आदिकी बोलीके आधारसे अपभ्रंश वाव्यको शैली विकसित हुई थी। अतः कहा जा सकता है कि पांचवींछठी शतीस लेकर बारीं शती तक हरियाणाम अपभ्रंश रचनाको परम्परा प्रचलित रही। सोजसे इस प्रदेशके कवियोंकी अन्य रचनाओं का पता लगाना, तथा उनके आधारसे उस क्षेत्रको प्रचलित बोलियोंका तुलनात्मक अध्ययन करना भाषाशास्त्र व ऐतिहासिक दृष्टिसे बहुत महत्वपूर्ण होगा।
विक्रम संवत् १५०० के आस-पास ग्वालियरके तोमरनरेश डूंगर सिंह और उनके पुत्र कीतिसिंहके राज्यकालमें कन्निवर रयधने अनेक रचनामों द्वारा अपभ्रंश साहित्यको पुष्ट किया। उनके द्वारा रचित 'सम्मा-चरिउ' दस सन्धियोंमें पूर्ण हुआ है। नरसेन-कृत 'बमाण-कहा' की रचनाका ठीक समय ज्ञात नहीं । किन्तु इसी कविकी एक अन्य रचना 'सिरिवाल-चरिउ की हस्तलिखित प्रति वि. सं. १५१२ की है। अतः नरसेनका रचना-काल इसके पूर्व सिद्ध होता है। जयमित्र हल्ल कुत 'अङ्कमाण-कथ्य' की एक हस्तलिखित प्रति वि. सं. १५४५ को प्राप्त है । ग्रन्यो अन्तमें पानन्दि मुनिका उल्लेख है जो अनुमानतः प्रभाबन्द्र भट्टारको वे ही शिष्य हैं जिनके वि. सं. १३८५ से १४५० तकके लेख मिले है । कविने अपनी रचनाको 'होलिवम्म-कण्णाभरण' कहा है तथा हरिइन्दु ( हरिश्चन्द्र ) कविको अपना गुरु माना है।
(अ) महाबीर-जीवनपर कन्नड़ साहित्य संस्कृतमें असम विरचित 'वर्द्धमानपुराण' से अनेक ऋन्नड़ कवियोंको स्फूर्ति मिली है। असगका 'अगस' ऐसे ही लिखते हैं और कन्नड़में इसका अर्थ रजक ( घोत्री ) होता है ! फिन्तु सचमुच 'असग' शब्द 'असंग' शब्दका जनसाधारण उच्चारण जैसा मालूम होता है। अभी-अभी दूसरे नागधर्म विरचित 'वीरवर्धमानपुराण' के एक हस्तलिखित भी प्रकाश बाया है। इसमें सोलह संग है, और उनमें महावीरका पूर्वभव और प्रस्तुत जीवनका वर्णन है। यह एक
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प्रस्तावना
चम्पूकाव्य है और इसमें कई संस्कृत वृत्तका उपयोग हुआ है। इसका काल सन् १०४२ है | उसके बाद आचरणने 'वर्तमानपुराण' लिखा है । इनका सम्मानसूचक नाम वाणी वल्लभ था । यह एक चम्पू हैं और इसकी रचना संस्कृत काव्य शैली में हुई है। इसमें भी सोलह सर्ग है और कविने कई एक अलंकारों का उपयोग किया है । इसका काल लगभग सन् ११९५ है । पद्मकविले १५२७ में जनसाधारण शैली में सांगत्य छन्दमें 'वर्द्धमानचरित्र' लिखा है। इसकी बारह सन्धियाँ हैं ।
( ट ) बौद्ध त्रिपिटक - पालि साहित्यमें महावीर
وی
जैन आगम ग्रन्थोंमें बुद्ध के कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलते। किन्तु बौद्ध त्रिपिटकमें 'निर्गठनातपुत' ( निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र ) के नामसे महावीर व उनके उपदेश आदि सम्बन्धी अनेक सन्दर्भ पाये जाते हैं । इनका पता लगभग सौ वर्ष पूर्व तब चला जब चन्दनकी पालि टैक्स्ट सोसायटी तथा सेक्रेट बुक्स ऑफ दी ईस्ट नामक ग्रन्यमालाओंमें बौद्ध एवं जैन आगम ग्रन्थोंका प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। डॉ. हर्मन याकोबीने आचारांग कल्पसूत्र, सूत्रलांग, उत्तराध्ययन सूत्रका अनुवाद किया ( से. बु. क्र. २२ व ४५ ) और उनकी प्रस्तावना में पालि साहित्यके उन उल्लेखोंकी ओर ध्यान आकृष्ट किया जिन्दमें निग्गंठनातपुत्त के उल्लेख आये हैं । तत्पश्चात् क्रमदाः ऐसे उल्लेखों की जानकारी बढ़ती गयी और अन्ततः भुनि नगराजजीने 'आगम और त्रिपिटक: एक अनुशीलन' शीर्षक ग्रन्थ ( कलकत्ता १९६९ ) में छोटे-बड़े ऐसे ४२ पालि उद्धरणोंका संकलन किया है जिनसे निस्सन्देह रूपसे सिद्ध हो जाता है कि दोनों महापुरुष सम-सामयिक थे, उनमें महावीर जेठे थे, तथा उनका निर्वाण भी बुद्ध पूर्व हो गया था। उन्होंने पूरी छान-चीन के पश्चात् वीर निर्वाण काल ई. पू. ५२७ ही प्रमाणित किया है ।
1
१५. प्रस्तुत संकलन
तीर्थकरोंके चरित्रसम्बन्धी अपभ्रंश साहित्य में प्राचीनतम रचना पुष्पदन्त कृत महापुराण हूँ। चूंकि इस ग्रन्थको रचना मान्यखेटमें उस समय हुई थी जब वहाँ राष्ट्रकूटनरेश कृष्णराज { तृतीय ) को राज्य था, तथा स्वयं कविके कथनानुसार उन्होंने उसकी रचना सिद्धार्थ संवत्सर में प्रारम्भ कर क्रोधन संवत्सर में समाप्त की थी, अतः उसका समासि काल शक ८८७ ( सन् १६५ ई. ) सुनिश्चित है ।
उप महापुराणको १०२ सन्धियोंमें से अन्तिम आठ अर्थात् ९५ से १०२वीं सन्धियोंमें भगवान् महावीरका जीवन चरित्र वर्णित है और उन्हीं में से प्रधानतया यह संकलन किया गया है। मूलमें विषय-क्रम इस प्रकार है- महावीरके जन्म से लेकर केवलज्ञान तककी घटनाएँ ( सन्धि ९५-९७ ), महावीरके आर्यिका संघको
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७८
वीरजिणिवचरित प्रथम मणिनी चन्दनाका जीवन-वृत्त ( सन्धि ९८), जीवन्धर मुनिके पूर्व भव ( सन्धि ९९ ), अम्बुस्वामीकी वीक्षा (सन्धि १००), प्रीतिकर-आख्यान ( सन्धि १०१ ) तथा महावीरनिर्वाण ( सन्धि १०२)। इनमें से जीवन्धर और प्रीतिकरके आख्यानोंको महावीरके ऐतिहासिक जीवन-वृत्तसे असम्बन होने के कारण पूर्णतया छोड़ दिया गया है, और शेष विवरणोंको इस प्रकार संक्षिस किया गया है कि उनमें महावीरका चरित्र निधि धारा रूपसे आ जाये ( सन्धि १-३ ) व उनके गणधर शिष्य जम्बूस्वामीका ( सन्धि ४) तथा आयिका चन्दनाका ( सन्धि ५) चरित्र स्वतन्त्र रूपसे प्रस्तुत हो जाये । ___महावीरके सम-सामयिक मगधमरेश श्रेणिक बिम्बिसार थे जिनके प्रश्नोंके आधारसे ही रामस्त जनपुराण साहित्यका निर्माण माना गया है। किन्तु उनका तथा महावीरकी विशेष भक्त महारानी बेलनाका एवं श्रेणिकके पुत्रोंकी दीक्षादिका वृत्तान्त महापुराणमें नहीं आ पाया | उसकी पूर्ति सन्धि ६-११ में श्रीचन्द्र कृत कहाकोसु क्रमशः सन्धि ५०; १२, १३, १४, ३ और ४९से कर ली गयी है जिससे श्रेणिकसे पूर्वके मगधनरेश चिलातपुत्र ( सन्धि ६) श्रेणिकका राज्यलाम, धर्मलाभ व परीक्षादि ( सन्धि ७-९) एवं उनके पुत्र बारिषेण ( सन्धि १० ) और गजकुमार (सन्धि ११) का वृत्तान्त विधिवत् समाविष्ट हो गया है। श्रीचन्द्र कृत कथाकोशका रचनाकाल वि. सं. ११२३ के लगभग (प्रकाशन अहमदाबाद, १०.६९) तीर्थकरके धर्मोपदेशके बिना यह संकलन अपूर्ण रह जाता। अतएव इरा विषयका आकलन अन्तिम १२वीं सन्धिमें महापुराणकी सन्धि १०-१२ से किया गया है। इस प्रकार यद्यपि सन्धियोंको संख्या १२ हो गयी है तथापि वे बहुत छोटो-छोटी है और उनमें कुल कडवकोंकी संख्या केवल ७१ है। कडवक भी प्राय: बहुत छोटे-छोटे ही हैं। प्रयत्न यह किया गया है कि अल्पकालमें ही महावीर तीर्थकर व उनके समयकी राजनैतिक परिस्थितियों का स्पष्ट ज्ञान पाठकको हो जाये तथा महाकविकी रचना-शैली व काव्यगुणोंकी रुचिकर जानकारी भी प्राप्त हो जाये । प्रस्तावनामें घटनाओं व महापुरुषोंसम्बन्धी विवेचन साहित्यिक परम्पराको स्पष्ट करने की दृष्टिसें किया गया है । मूल पाठमें समासान्तर्गत प्रत्येक शब्दको लघुरेखा द्वारा पृथक् कर दिया गया है जिससे अर्थ समझनेमें सरलता हो । कुछ स्थानों पर पाठ-संशोधन भी किया गया है, व नयी पद्धति के अनुसार ह्रस्व ए और थो की मात्राएँ भिन्न रखी गयी हैं । अनुवाद मूलानुगामी होते हुए भी भाषाकी दृष्टि से मुहावरेसे हीन न हो यह भी प्रयत्न किया गया है। साथ ही उसमें आये निलष्ट व पारिभाषिक शब्दों को कुछ खोलकर समझाने का भी प्रयाप्त
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प्रस्तावना
इस प्रकार आशा है कि यह छोटा-सा ग्रन्थ संकलन होते हुए भी महावीर भगवान्के जीवन चरित्रविषयक विशाल साहित्यमें अपना एक विशेष स्थान प्राप्त करेगा।
मयी रचनाका नामकरण भी एक समस्या होती है। विशेषतः जब एक ही विषय पर नयी-गुरानी अनेक रचनाएँ उपलभ्य हो तब उनके नाम स्पष्टत: पुथक न होनेसे भ्रान्तियां उत्पन्न होती है। प्राकृत व अपभ्रंशमें ऊपर उल्लिखित ग्रन्यनामावलिमें महावीर चरिय, अलमाण-चरिउ, बड्डमाण-कहा व सम्मइ-चरिउ नाम आ चुके हैं । पुष्पदन्तने इस चरित के आदिमें 'सम्मई' नामसे नायककी वन्दना की है व सन्धियोंकी पुष्पिकाओंमें उनके नामोल्लेख 'वीरसामि', 'वीरणाह', 'वडमाणसामि' व 'जिणिद' रूपसे किये हैं। अतः मैंने आदि और अन्तके पुषिपकोल्लेखोंको मिलाकर प्रस्तुत ग्रन्थको बीर-जिणिद-चरित कहना उचित समझा ।
-हीरालाल जैन
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विषयानुक्रम
सन्धि -१ भगवानका गर्भावतरण, जन्म और तप [२-२३]
कवक
१ मंगलाचरण तथा काव्य-रचनाकी प्रतिज्ञा। २ जम्बूद्वीप, पूर्वविदेह, पुष्कलावती देशके वनमें पुरुरव नामका शवर और
शबहरी । ३ शबरीका मुनिको मारनेसे शबरको रोकना और उसे मुनिका धर्मोपदेश । ४ अयोध्या नगरीके राजा भरत चक्रवर्ती । ५ भरत चक्रवर्तीकी रानी अनन्तभतीने उस शबरके बीवको मरीधि नामक
पुत्रके रूप में जन्म दिया। ६ मरीचिका जीव पुष्पोत्सर नामक स्वर्गके विमानसे आकर राजा सिद्धार्थ व
रानी प्रियकारिणी निशलाका पुष हुआ। " कुण्डपुरकी शोभा। ८ प्रियकारिणी देवीका स्वप्न 1 ९ तीर्थकर महावीरका गर्भावतरण, जन्म तथा मन्दराचल पर अभिषेक । १. भगवान्का नामकरण, स्वभाव-वर्णन, बाल-क्रीडा तथा देव द्वारा परीक्षा । ११ भगवान्को मुनि-दीक्षा।
सन्धि-२
केवलज्ञानोत्पत्ति २४-३७] १ कूलग्राममें भगवानको आहारदाम । २ उज्जैनी में भगवान्की रुद्र द्वारा परीक्षा। ३ रुद्रका उपसर्ग विफल हुआ। ४ कौशाम्बी में चन्दना कुमारी द्वारा भगवान्का दर्शन ।
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वीरजिणिवचरिउ
करवक
५ चन्दना द्वारा भगवान्को आहार-दान । ६ भगवान्को केवलज्ञानकी उत्पति । ७ भगवान् के इन्द्रभूति गौतमादि एकादश गणधर । ८ भगवान्का मुनिसंघ सहित विपुलाचल पर्वत पर आगमन ।
सन्धि -३ वीरजिनेन्द्रको निर्वाण-प्राप्ति [३८-४५] १ भगवान्का विपुलाचल्से विहार करते हुए पावापुर आगमन । २ भगवान्का निर्वाण तथा उनकी शिष्य-परम्परा । ३ प्रस्तुत ग्रन्थ की पूर्व परम्परा । ४ कवि की लोक-कल्याण भावना। ५ कवि-परिचय।
सन्धि -४
जम्बूस्वामिकी-प्रव्रज्या [४६-५९] १ राजा श्रेणिक द्वारा अन्तिम केवली विषयक प्रश्न व गौतम गणधर का
उत्तर। २ जम्बूस्वामि-विवाह व गृह में चोर प्रवेश । ३ चोरको जम्बूस्वामी को मातासे बातचीत और फिर जम्बूस्वामीसे वार्तालाप | ४ अम्बूस्वामी और विधुच्चर चोरके बीच युक्तियों और दृष्टान्तों द्वारा वाद
विवाद । । ५ दृष्टान्तों द्वारा वाद-विवाद चालू । ६ जन्मकूपका दृष्टान्त व जम्बूस्वामी तथा विद्युतपरको प्रवज्या । ७ नम्बूस्त्रामीको केवलज्ञान-प्राप्ति ।
सन्धि -५
अन्यना-तपग्रहण [६० -७३] १ राजा चेटक, उनके पुत्र-पुत्रियां तथा चित्रपट । २ राजा थेशिकका चित्रपट देखकर चेलना पर मोहित होना और उसका राजकुमार द्वारा अपहरण ।
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विषयानुक्रम
कड़बक ३ ज्येष्ठा-वैराग्य, चलनी-णिक-विवाह तथा चन्दनाका मनोवेग विद्याधर द्वारा
अपहरण व इरावती के तीरपर उसका त्याग । ४ चन्दनाका वनमें त्याग, भिल्लनी द्वारा रक्षण तथा कौशाम्बीके सेठ धनदत्तके
घर आगमन । ५ सेठानी द्वारा विश चन्दनाका बन्धन, महाबोरको आहारदान व तपग्रहण ।
सन्धि -६ चिलातपुत्र-परोषह-सहन {७४-८३] १ दिलातपुत्र का जन्म । २ चिलातपुत्रको राज्य-प्राप्ति । ३ चिलातपुत्रका राज्यसे निष्कासन व वनवास तथा धेणिकका राज्याभिषेक । ४ चिलातपुत्र द्वारा कन्यापहरण, श्रेणिक द्वारा आक्रमण किये जानेपर
कन्या-घात तथा भारगिरि पर मुनि-दर्शन । ५ मुनिका उपदेश पाकर चिलातपुत्रकी प्रवन्या, ज्यन्तरी द्वारा उपसर्ग तथा
मरकर महमिन्द्रपद-प्राति ।
सन्धि -७
श्रेणिक-राज्यलाभ [८४-२१] १ जम्बूद्वीप, भरतक्षेत्र, मगरदेश, राजगृहपुर, राजा उपणिक, रानी सुप्रभा,
पुत्र थेणिक । सीमान्तनरेश अभिधर्मके प्रेषित अश्व द्वारा राजाका अप• हण व वनमें किरातराजकी पुत्री तिलकावतीसे विवाह ।। २ किरात-कन्यासे चिलातपुत्रका जन्म । राजा द्वारा राजकुमारोंकी परीक्षा। ३ राजपुत्र श्रेणिक परीक्षामें सफल, किन्तु भ्रातृ-वैरको आशंकासे उसका
निर्वासन । ४ चिलातपुत्रका राज्याभिषेक घ अन्यायके कारण मन्त्रियों द्वारा श्रेणिक
का आनयन । ५ चिलातपुत्रका निर्वासन और श्रेणिकका राज्याभिषेक ।
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वीरजिणिवचरिउ
कड़वक
श्रेणिक धर्मलाभ व तीर्थंकर गोत्र-बन्ध [९२-९९] १ राजा श्रेणिककी आखेट-यात्रा, मुनि-दर्शन व भाव परिवर्तन । २ श्रेणिकराजा जन-शासनके भक्त बनकर राजधानी में लौटे। ३ महावीरने विपुलाचल पर मानेकी सूचना और श्रेणिकका उनकी बन्दना
हेतु गमन । ४ महावीरका उपदेश सुनकर राजा श्रेणिकको क्षायिक-सम्यक्त्वकी उत्पत्ति ।
सन्धि -२
श्रेणिक-धर्म-परीक्षा [१००-१०५] १ श्रेणिकके सम्यक्त्वकी परीक्षा हेतु देवका धीवर-रूप-धारण । २ देवमुनिके धीवर-कर्मसे लोगोंमें दिगम्बर धर्मके प्रति धुणा तथा श्रेणिक
द्वारा उसका निवारण । ३ मलिन मुद्राओं के उदाहरणसे सामन्तों की शंका-निवारण य देव द्वारा राजाको
वरदान ।
सन्धि-१० श्रेणिक-पुत्र वारिषेणकी योग-साधना [१०६-११३] .१ वारिषेणकी धार्मिक-वृत्ति । विद्युच्चर चौरकी प्रयसी गणिकासुन्दरीको चेलना
रानीका हार पानेका उन्माद । २ विद्युच्चर घोर द्वारा रानीके हारका अपहरण तथा राजपुरुषों द्वारा पीछा किये जानेपर ध्यानस्थ वारिपेणके पास हार फेंककर पलायन | राजा द्वारा वारिषेणको मार डालनेका आदेश । ३ देवों द्वारा वारिषेणकी रक्षा । राजाके मनानेपर भी मुनि-दीक्षा एवं
पलासखेड ग्राममें आहार ग्रहण । ४ पुष्पडाल साह्मणकी दीक्षा, मोहोत्ति और उसका निवारण ।
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करणक
विषयानुक्रम
सन्धि-११
श्रेणिक पुत्र गजकुमारकी दीक्षा [ ११४- ११९ ]
१ श्रेणिक पत्नी धनश्रीका गर्भधारण, दोहला तथा गजकुमारका जन्म ।
२ गजकुमारकी दीक्षा, दन्दीपुरकी यात्रा तथा वहाँ पर्वतपर आतापन योग । ३ शिलान्तापनले उपसर्ग, गजकुमारका मोक्ष और राजा तथा मन्त्रीका जैनधर्म-प्रहृण ।
सन्धि - १२
तीर्थंकरका धर्मोपदेश [ १२० - १४३ ]
८५
१ भव्यों की प्रार्थनापर जिनेन्द्रका उपदेश -- जीवोंके भेद-प्रद ।
२ एकेन्द्रियादि जीवोंके प्रकार ।
३ जीवोंके संज्ञी असंज्ञी भेद व दश प्राण |
४ गति, इन्द्रिय आदि चतुर्दश जीव-मार्गणाएँ व गुणस्थान
५ कर्मबन्ध व कर्मभेद-प्रभेद ।
६ कषायों का स्वरूप तथा मोहनीय कर्मकी व अन्य क्रमको उसर - प्रकृतियाँ ।
७ नाम, आयु, गोत्र व अन्तराय कर्मोंके भेद |
८ सिद्ध जीवोंका रूप
९ अजीव तत्त्वोंका स्वरूप |
१० पुद्गल द्रव्यके गुण उपदेश सुनकर अनेक नरेशों की प्रव्रज्या ।
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वीरजिनिंदचरिउ
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१०
પ
२०
२५
सन्धि १
१
विद्धसिय-रइवइ सुरबइ-परवइफणिवइ-पय डिय - सासणु । पणवैविणु सम्म जिंदिय-दुम्मइ जिम्मल - मन्ग- पयासणु ॥ ध्रुवक विणासो भवाणं
मणे संभवाणं ।
दिने मा खयम्गी-शिक्षाणं थिरो मुक्क-माणो अरीणं सुहीणं
समेणं वराय
चलं दुब्विणीयं
णियं पाण-मगं
सया किसाओ
सया संपण्णो पहाणी गणाणं
ण पेम्मे सिणो तमीसं जईणं दमाणं जाणं
पहू उमाणं । ताणंपिणं । वसी जो समाणो । सुरीणं सुदीर्ण । पतं सरायं
जयं जेण णीयं ।
कथं सासमग्गं ।
सया चत्त-माओ | सया जो विसष्णो । सु-दिव्वंगणाणं महावीर सण्णो । जए संजणं । खमा-संजाणं | पत्थमाणं । जिणं वद्धमाणं | चरितं भणामो । णिसामेह कव्वं । भए किंपि सिद्धं ।
उहाणंरमाणं
दया-षड्ढमाणं सिरेण नमामो पुणो तस्स दिव्वं गणेसेहिं दि धत्ता - पायड - रवि दीवह जंबू- दीवइ पुत्र- विदेह मणहरि ।
सीय उत्तरयल पविमल सरजलि पुक्खलबह-दे संतरि ||१||
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सन्धि १
भगवान्का गर्भावतरण, जन्म और तप
१
मंगलाचरण तथा काव्य-रचनाको प्रतिज्ञा
मैं उन सन्मति भगवान्को प्रणाम करता हूँ जिन्होंने कामदेवका विध्वंस किया है, जिनका शासन सुरपति, नरपति तथा नागपति द्वारा प्रकट किया गया है, जिन्होंने कुशानकी निन्दा की है और निर्मल मोक्षमार्गका प्रकाशन किया है। वे भगवान् जन्म-भरणकी परम्पराके विनाशक हैं तथा मनुष्यों के मन में उत्पन्न हुए अज्ञानरूपी अन्धकारको दूर करने के लिए सूर्य समान हैं । वे प्रभु पापरूपी ईंधनको नष्ट करने के लिए अग्नि समान उत्तम तपोंके निधान हैं। वे स्थिर हैं, मानसे मुक्त हैं और इन्द्रियोंको वश में करनेवाले हैं, तथा शत्रु और मित्र, सुरी और सुधीजनोंपर समान दृष्टि रखते हैं । उन्होंने अपने समताभाव द्वारा, प्रमादी रागयुक्त तथा दुर्विनीत चंचल मनको पराजित कर दिया है। उन्होंने इस जगत्को ज्ञानके मार्ग पर लगाया है, तथा शाश्वत मार्गको स्थापना की है। वे सर्वदा कषायरहित हैं और विषादहीन है । उनके हर्ष भी नहीं है और मायाका भी अभाव है। वे सदैव सुप्रसन्न रहते हैं। आहार, भय आदि संज्ञाएँ उनके नहीं होतीं । वे उन तपस्विगणोंके प्रधान हैं, जिन्होंने दिव्य द्वादश अंगों का ज्ञान प्राप्त किया है । वे महावोर नामक तोर्थंकर, उत्तम देवांगनाओं के प्रेममें आसक्त नहीं हुए। ऐसे उन जगत् भरके मुनियों और अकाओंके स्वामी, दम, यम, क्षमा, संयम एवं अभ्युदय और निःश्रेयस् रूप दोनों प्रकारके लक्ष्मी तथा समस्त द्रव्योंके प्रमाणके ज्ञानी, दयासे वृद्धिशोल वर्धमान जिनेन्द्रको में अपना मस्तक झुकाकर नमन करता हूँ और उनके चरित्रका वर्णन करता हूँ। उनके इस दिव्य काव्यको सुनिए । इसका गणधरोंने तो विस्तारसे उपदेश दिया है, किन्तु में यहाँ थोड़े में कुछ वर्णन करता हूँ ।
सूर्यरूपी दीपकसे प्रकाशमान इस जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह नामक मनोहर क्षेत्र में निर्मल जलके प्रवाहसे युक्त सौता नदी के उत्तर तटपर पुष्कलावती नामक देश है || १ ||
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वीरजिणिचरिउ
२
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वियसिय- सरस- कुसुम-रथ-धूसरि । पचिमल-मुष-कमल-छाइय-सरि ॥ सिर-अल-बद्द - पूरिय-कंदरि । किंणर कर वीणा-रव-सुंदरि ॥ केसरि-कररुह दारिय-मयगछि । गिरि-गुह- णिहि णिहित्त-मुत्ताइलि ॥ हिंडिर-कथूरिय-मयपरिमलि । कुरर-कीर - कलयं ठी-कलयलि || परिओसिय-विलसिय-वणयर-गणि । महुयर - पिय-मणहरि महुयर-वणि ।। सबरु सु-दूसिउ दु-परिणामें । होत आसि पुरुरउ णांमें || चंड-फंड-कोड-परिग्गहु । काल- सबरि-आलिंगिय-विग्गहु ॥ अइ-परिरक्खिय थावर-जंगमु | सायरसेणु णामु जइ- पुंगसु ॥ विधहुँ तेण तेत्थु आढत्त । जाव ण मरगणु कह व ण घित्तर || ताम तमाल-नील मणि-वण्ण हूँ । सिसु करि दंत खंड-कय-कण्णई ॥ पत्ता--तण विरइय- कील हूँ गय-मय-गील हैं
तरु-पत्ताइ-णियत्थ हूँ |
वेल्ली-डित पंकयन्त हूँ पल-फल- पिढर- विहृत्थई ||२||
३
भणिउ पुलिदियाइँ मा घायहि । हा है मूढ ण किंपि विषेयहि || मिगु ण होइ बुहु देवु भडारउ | हु पणविजन होय पियारण ||
[ १.२.१
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१. ३.४ ]
हिन्धी अनुवाद
जम्बूदीप पूर्व विदेह पुष्कलावती देशके धनमें
पुरुरव मामका शबर और शबरी उस देश में एक वन था, जो फूले हुए सरस पुष्योंको परागसे धूसर था । वहाँके सरोवर सुन्दर फूले हुए कमलोंसे आच्छादित थे। कन्दराएं झरनोंके जलप्रवाहसे पूरित थीं। वहाँ किन्नरोंके हाथोंको वीणाओंकी सुन्दर ध्वनि सुनाई देतो थी। कहीं सिंहों के पंजोंसे मदोन्मत्त हाथी विदारित हो रहे थे, तो कहीं पर्वतको गुफाओंमें गज-मुक्ताओंको निधि सुरक्षित रखी गयी थी | कहीं धूमते हुए कस्तूरी-मृगोंको सुगन्ध आ रही थी, तो कहीं कुरर, शुक और कोकिलाओंका कलरव सुनाई दे रहा था। कहीं वनचरोंके समूह सन्तोषपूर्वक विलास में मग्न थे, तो कहीं भ्रमरोंकी प्रिय और मनोहर ध्वनि सुनाई पड़ती थी। ऐसे उस मधुकर नामक वनमें पुरूरव नामका एक शबर रहता था। वह अत्यन्त दुर्भावनाओंसे दूषित था। एक समय जब वह अपने प्रचण्ड धनुष और बाणको लिये हुए अपनी कृष्णवर्ण शबरीके साथ उस वनमें विचरण कर रहा था, तभी उसने स्थावर और जंगम जीवोंको यत्नपूर्वक रक्षा करनेवाले श्रेष्ठ मुनि सागरसेनको देखा। उसने तत्काल उन्हें अपने बाणसे छेद देनेका विचार किया, किन्तु वह अपने बाणको जब तक हाथमें ले तभी उसको स्त्रीने उसे रोका। वह शबरी तमाल व नीलमणिके सदृश काली थी, छोटे हाथोके दाँतके टुकड़ोंसे निर्मित कर्ण-भूषण पहने हुए थी तथा तृणके बने कील धारण किये थी। वह हाथोके मदके समान नीलवर्ण थी, वृक्षोंके पत्तोंसे बने वस्त्र धारण किये थी और लता-बेलीसे बने कटिसूत्रको पहने थी । उसके हाथमें मांस एवं फलोंसे भरी पिटारी थी। उसके नेत्र नोल-कमलके सदश थे ॥२॥
शबरोका मुनिको मारमेसे शबरको रोकना
और उसे मुनिका धर्मोपदेश उस शबरीने शबरसे कहा-मत मार। हाय रे मढ़, तू कुछ भी विवेक नहीं करता। यह कोई मृग नहीं है। वे ज्ञानी मुनिराज हैं जो
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१०
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वीरजिजिदचारेज
तं णिसुणिषि भुय-दंड-बिहू सणु । मुक्कु पुलिंदै महिहि सरासणु ॥ पण सुणि बारदु सब्भावें । तेणाभासि णासिय पावें ॥ भो भो धम्म-बुद्धि तुह होज्जउ । बोहि समाहि-मुद्धि संपज ॥ जीव महिंसहि अलि म बोल्लहि । कर यलु परणि कहिँ मि म चल्लहि ॥ पर-रमणिहि मुह कमलु म जोयहि ||
- मंडलिकर- पत्तु में ढोयहि ॥ को विम दिहि दूसिङ दोसें । संग पमाणु करहि संतोस ॥ पंचुंबर-महु पाणणिबायणु । रयणी-भोयगु दुक्ख भायणु ॥ वाह विवज्जद्दि मणि पडिवज्जहि । णिच्चमेव जिणु भक्ति पुज्जहि ॥ तं णिसुणेवि मणुय-गुण-णासहँ । लक्ष्य णिवित्ति तेण महु-मासहूँ || धत्ता - हुउ जीव दयावरु सबरु निरक्खर लग्गउ जिणवर धम्मइ ।
कालें जंतें गिलिउ कथं तें पण सोहम् ||३||
मुउ
४
तेत्धु सु-दिव्य भोय भुंजे पिणु । एक्कु समुदोष जीवेप्पिशु ॥ पत्थु चिउलि भारद्द - वरिसंतरि । कोस - विसइ सुसास- णिरंतरि ।। गंदण-वण-रही-रव-रम्महि । परिहा - सलिल - वलय- अविगम्महि || कणय - विणिम्मिय-मणि-मय- सम्महि । णायरणार- विरइय-सह-कम्महि ||
[ 1. ३.५
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१. ४.८ ]
हिन्दी अनुवाद
लोकप्रिय हैं, और सभी उन्हें प्रणाम करते हैं। शबरी की यह बात सुनकर उस पुलिन्द ने अपने भुजदण्ड के भूषण धनुषको भूमिपर पटक दिया और सद्भावपूर्वक मुनिवरको प्रणाम किया। पापका नाश करनेवाले उन मुनिराजने उसे आशीर्वाद देते हुए कहा - हे शबर तुझे धर्म- बुद्धि तथा शुद्ध ज्ञान और समाधि प्राप्त हो । अब तु जोवोंकी हिंसा मत करना, झूठ मत बोलना तथा कभी भी पराये धनको हाथ नहीं लगाना, परायी स्त्रियों के मुख कमलको ओर मत घूरना और उनके स्तन मण्डलपर हाथ नहीं चलाना । दोषोंसे दूषित होनेपर भी किसीको निन्दा नहीं करना, घरमें कितना साज-सामान रखना है इसकी सन्तोष पूर्वक सोमा कर लेना । वट, पीपल, पाकर, उमर व कठूमर इन पाँच उदुम्बर फलोंका, तथा मधु, मद्य और मांसका भोजन एवं रात्रिभोजन, दुःखके कारण बनते हैं । तू आखेट करना छोड़ दे । इसकी अपने मनमें दृढ़ प्रतिज्ञा कर ले | प्रतिदिन भक्ति भाव पूर्वक जिनभगवान्की पूजा करना । मुनिके इस उपदेशको सुनकर उस शबरने मानवीय गुणों का नाश करनेवाले मघु और मांसके स्यागकी प्रतिज्ञा ले ली। इस प्रकार वह निरक्षर शबर जीवदया में तत्पर हो गया और जिन धर्म में लग गया। काल व्यतीत होनेपर वह यम द्वारा निगला जाकर मरा और सौधर्म स्वर्ग में देव उत्पन्न हुआ ॥३॥
४
अयोध्या नगरीके राजा भरत चक्रवर्ती
७
उस स्वर्ग में दिव्य भोगोंको भोगकर सथा एक सागरोपम काल जीवित रहकर वह शबर स्वर्गसे च्युत हुआ । उस समय इस विशाल भारतवर्षमें कोशलदेश धन-धान्य से सम्पन्न था। उसकी राजधानी अयोध्या नगरी के नन्दनवन मयूरोंको ध्वनिसे रमणीक थे । उसके चारों ओर खाईका मण्डल था जो पानीसे भरा था और जिसके कारण वह नगरी शत्रुओंके लिए दुर्गम थी । वहाँके महल स्वर्णसे निर्मित और मणियोंसे जड़े हुए थे । वहाँ नागरिक लोग शुभ कर्म ही करते थे, अशुभ कर्म
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वीरजिणिवचरित सुर-तरु-पल्लव-तोरण-वारहि । वण्ण-विचित्त-सत्त-पायाहि ।। धूय-धूम-कज्जलिय-गवक्खहि । भूमि-मयारंजिय-साहसक्ख हि ।। उज्झा-णयरिहि पय-पाय-सुरवइ । होतउ रिसणाहु चिरु णरवइ ।। पविमल-णाण-धारि सुह-संकर। पदम-परिंटु पढम-वित्थंकर ।। आइ-बंभु मइएवु महामहु । भुषण-त्तय गुरु पुण्ण-मणोरहु ।। तदु पहिलारहु सुख भरसरु । जो छक्लंड-धरणि-परमेसरु ।। मागहु वर-तणु अण पहासु वि । जित्ता सुरु वेयडूढ-णिवासु वि ॥ विज्जाहर-बइ भय-काविय ।
णमि-विणमीस वि सेव कराविय ॥ घता-जो सिसु-हरिणच्छिा सेविउ लच्छिइ
गंगइ सिंधुइ सिंचिः। णच-कमल-दलक्खहि उबवण-जक्खहि
णाणा-कुसुमहि अंचि ॥४॥
२०
.
ता कंकेल्ली-दल-कोमल कर। वीणा-वंस-हंस-कोइल-सर ।। तासु देवि उत्तुंग-पयोहर। णाम अणंतमइ त्ति मणोहर | सो सुर-सुंदरि चालिय-धामह । ताहि गलिभ जायउ सबरामरु ॥ सुज णामें मरीइ विक्खायड । बहु-लक्खण-समलंकिय-कायउ ।। देष-देउ अच्चंत-विवेइउ । णीलंजस मरणें उज्वेइ उ ।।
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१. ५. १०] हिन्दी अनुवाद नहीं। वहाँके तोरण-द्वार कल्पवृक्षोंके पल्लवोंसे सुशोभित थे। वह विचित्र वर्णके सात प्राकारोंसे सुरक्षित था। वहाँके गवाक्ष धूपके घूएंसे काले हो रहे थे। बहाके भूमिभाग इतने सुन्दर थे कि वे इन्द्रका भी मनोरंजन करते थे। ऐसी उस अयोध्या नगरीके राजा ऋषभनाथ थे, जिनके चरणों में देवेन्द्र भो नमस्कार करते थे। उन्होंने दीर्घकाल तक राज्य किया। वे विशुद्ध ज्ञानके धारक शुभशंकर ( पुण्य और सुखकर्ता ) प्रथम नरेन्द्र और प्रथम तीर्थकर हुए। वे ही आदिब्रह्म, महादेव और महाविष्णु कहलाये। वे तीनों लोकोंके गुरु तथा मनोरथोंके पूरक हुए। उनके प्रथम पुत्र भरतेश्वर थे, जो षट्खण्ड पृथ्वोके सम्राट् हुए। उन्होंने घेताढ्य गिरिपर निवास करनेवाले सुन्दर देहधारो मागधप्रभास नामक देवको भी जीत लिया। उन्होंने विद्याधरीक स्वामी नाम जोर किमि नामक राजाओंको भयसे कम्पायमान कराकर उनसे अपनी सेवा करायी। बाळमगनयनी लक्ष्मी भी उनकी सेवा करती थी। गंगा और सिन्धु नदी-देवियां उनका अभिषेक करती थों तथा नये कमलदलोंके सदृश नेत्रोंवाले उपवन-निवासो यक्ष भी नाना प्रकारके पुष्पोंसे उनको पूजा करते थे ॥४॥
भरत चक्रवर्तीकी रानी अनम्तमतीने उस शबरके जीवको
मरीचि नामक पुत्र के रूपमें जन्म दिया भरतकी रानी अनन्तमती अत्यन्त सुन्दर थी। उसके हाथ कंकेली पुष्पोंके दलोंके समान कोमल तथा उसका स्वर वीणा, हंस, बांसुरी व कोकिलके समान मधुर था। उसी तुग-पयोघरी देवोके गर्भ में वह शबरका जीय आकर उत्पन्न हुआ, जिसके ऊपर देवलोकको सुन्दरियां चमर ढोरती थीं। उनका वह पुत्र मरीचि नामसे विख्यात हुआ। उसका शरीर अनेक शुभ लक्षणोंसे अलंकृत था। जब उसके पितामह देवों के देव व अत्यन्त ज्ञानवान् नीलांजसा नर्तकोके मरणसे विरक्त होकर पृथ्वी
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[ १. ५. ११
योरजिणिवचरिउ चरण-कमल-जुय-णमियाहंडलु । दिक्खंकिउ मेल्लिवि महिमंडलु ।। हरि-कुरु-कुल-कच्छाइणरिंदहि । समउ णमंसिउ इंद-पडिदहि ।। झाणालीगु पियामा जइयहुँ। णत्तउ जह पावइयउ तझ्यहुँ । दुच्चर-रिसइ-महा-तय-लग्गउ । भग णराहिव एह वि भगाउ ।। सरवरसालेगु पि६इ गाउ भुक्खई भज्जइ लज्जइ णग्गउ ।। वकलु परिहाइ तरु-हल भक्खइ।
मिच्छाइहि असच्चु णिरिक्खइ ।। पत्ता-बहु-दुरिय-महल्ले मिच्छा-सल्लें
विविह-देह-संघार। मरहेसर-गंदणु संसय-हय-मणु
चिर हिंडिवि संसारइ ।।५।।
दुवई--धुव-णीसासु मुयइ सो तेत्तिय
पक्खहिँ दुह-विहंजणो। जाणइ ताम जाम छट्ठावणि
वडिय-ओहि-दसणो ॥ परमागम-साहिय-दिव-माणि । णिवसंतहु पुप्फुत्तर-विमाणि || जश्यह बट्टाइ छम्मासु ताम् । परमाउ-माउ परमेसरासु ॥ तझ्यहुँ सोहम्म-सुराहिवेण । पणि कुबेरु इच्छिय-सिवेण || यह जंबुदीवि भरतरालि । नमणीय-विसइ सोहा-विसालि ।। कुंडरि राउ सिद्धत्थु सहित । जो सिरिहरु मग्गण-वेस रहिउ ।
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१. ६. १४ ] हिन्दी अनुवाद मण्डलका राज्य त्यागकर दीक्षित मुनि हो गये और इन्द्र भी उनके चरण-कमलोंको प्रणाम करने लगे, तब इन्द्र और प्रतीन्द्र एवं हरिवंश व कुरुवंशके कच्छादि राजाओसहित उनके इस पोते मरोनिने भी अपने पितामहको ध्यानलीन अवस्थामें नमन किया और यह उसी समय प्रवजित हो गया। किन्तु शीन ही उन भगवान ऋषभदेवके दुश्चर महातपको असह्य पाकर जब अनेक अन्य दीक्षित राजा तपसे भ्रष्ट हुए, तब वह भी भ्रष्ट हो गया । वह वल्कल धारण करने लगा, वृक्षोंके फल खाने लगा और मिथ्यादष्टि हो कर असत्य बातोंपर दष्टि देने लगा । इस प्रकार नाना महान पापोंसे युक्त मिथ्यात्वरूपी शल्यके कारण उसने अनेक जन्मों में अनेक प्रकारके शरीर धारण किये, और वह भरतेश्वरपुत्र होकर भी मन में संशयके आघातसे चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता रहा ॥५॥
मरोचिका जीव पुष्पोत्तर नामक स्वर्गके विमानसे आकर राजा सिद्धार्थ व रानी प्रियकारिणी
(त्रिशला ) का पुत्र हुआ उस स्वर्ग में देवरूपसे रहते हुए वह सहस्र वर्ष में एक बार आहार करता था और उतने ही पक्षों में श्वासोच्छ्वास लेता था। वहाँ समस्त दुःखों का विनाशकर अपने अवधि-दर्शन द्वारा छठी पृथ्वी तक की बातें जान लेता था। इस प्रकार परमागममें कहे हुए गुणोसे युक्त दिव्य प्रमाणवाले उस पुष्योत्तर विमान में रहते हुए जब अपनी उत्कृष्ट आयुप्रमाणके छह मास शेष रहे तभी सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र ने जगत्-कल्याणको कामना से प्रेरित होकर कुबेरसे कहा-इस जम्बूद्वीपके भरत क्षेत्र में विशाल शोभाधारी विदेह प्रदेशमें कुण्डपुर नगरके राजा सिद्धार्थ राज्य करते हैं। वे आत्म-हितैषी हैं और श्रीधर होते हुए भी विष्णुके समान वामनावतार
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३०
१२
वीर जिगिरिज
अकवाल- चोन्जु जो देउ रुद्दु । महिष सुरेहिं जो गुण-समृद्दु ॥ ण गिलिउ गद्देण जो समर-सूरु | जो धम्मानंदु ण सघर-दूरु ॥ जो रु अहिंदल दलिय-मल्लु । जो पर-र-णाहहु जणइ सल्छु || अणिवेसिय-पिय-मंडल- कुरंगु । जो भषणइंदु अविडियंगु ॥ जो कामधेणु पसु भाव चुक्कु । जो चिंतामणि चिंता- विमुक्कु ॥ अणवरय-चाइ चार घण्णु । असहोयर-रिउ सयमेव कण्णु ॥ दो-बहुवि जो रणि सहसबाहु | सुहि-दिण्ण जी जीमूयबाहु ॥ बालिहारि रायाहिरात | जो कपरुक्खु णव कट्टभाव ॥ बत्ता - पियकारिणि देवि तुंग- कुंभ- कुंमत्थणि । तहु रायहु इह णारीयण - चूडामणि ||६||
૭
दुबई - यहुँ बिहिं मि जक्ख कमलक्ख खरखियासबो । चवीस जिगिंदु सुख होही पय-जय णविय वासवो ॥
[ १.६.१५
:
1
}
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१.७.४ ]
हिन्दी अनुवाद सम्बन्धी याचक वेषसे रहित हैं। वे दुःखो जनोंको आश्चर्य-जनक दान देकर सुखी बनानेवाले शंभु है, किन्तु वे ऐ जान नहीं है जो कपाल धारण करके कौतुक उत्पन्न करते हैं। वे गुणोंके समुद्र होते हुए भी समुद्र के समान देवों द्वारा मथित नहीं किये गये। वे समर-शूर होते हुए भी ऐसे सूर्य नहीं हैं जिसे केतु ग्रह निगल जाये। वे धर्ममें आनन्द मानते हैं और आनन्दपूर्वक धनुष भी धारण करते हैं, तथापि वे अपने घरसे निर्वासित होकर धर्मराज युधिष्ठिरके समान दूर नहीं गये । वे अच्छे-अच्छे मल्लोंको भी पराजित करनेवाले नर थे, किन्तु नर अर्थात् अर्जुनके समान उन्हें बहनला नामक नर्तकीका वेष धारण नहीं करना पड़ा। वे अपने शत्रु-राजाओंके हृदय में भयरूपी शल्य उत्पन्न करते थे। उनके राज्यमें ग्राम सघनतासे बसे हुए थे, जिसके कारण उनमें मगोंको बसनेके लिए स्थान नहीं था। वे सर्वांग ऐसे पूर्ण और सुन्दर थे जैसे मानो पृथ्वोपर इन्द्र हो उतर आया हो। वे भुवन-मण्डलके चन्द्रमा थे, किन्तु चन्द्र के समान उनका अंग खण्डित नहीं होता था। वे याचक जनोंको कामनाओंको पूर्ण करने वाले कामधेनु होते हुए भी कामधेनु जेसी पशुअवस्थासे मुक्त थे। वे मनमें चिन्तित अभिलाषाओं को पूरा करनेवाले चिन्तामणि होते हुए भी अपने मन में चिन्ताओंसे विमुक्त रहते थे। वे कर्णके समान निरन्तर दानशील तथा धनुविद्यामें ख्याति-प्रास थे, तथापि वे कणके समान अपने सहोदर भ्राताओके शत्रु नहीं बने । उनको भुजाएं तो दो हो थों, किन्तु युद्धमें वे सहस्रबाहु जैसी वीरता दिखलाते थे। वे सूधो अर्थात् विद्वानोंको जीविका प्रदान करते थे, अतएव वे साक्षात् जोमूतवाहन थे जिन्होंने अपने मित्रके लिए अपना जीवन दान कर दिया। वे राजाधिराज लोगोंके दारिद्रयको दूर करनेवाले कल्पवृक्ष थे, तथापि कल्पवृक्ष के समान वे काष्ठ एवं कटु भाव-युक्त नहीं थे।
ऐसे उन सिद्धार्थ राजाकी रानी प्रियकारिणो देवी थों जो विशाल हाथियों के कुम्भस्थलोंके समान पीनस्तनी होती हुई समस्त नारी-समाजको चूडामणि थीं ॥६॥
___ कुण्डपुरको शोभा इन्द्र कुबेरसे कहते हैं कि हे कमल-नयन यक्ष, इन्हीं राजा सिद्धार्थ और रानी प्रियकारिणीके शुभ लक्षणोंसे युक्त मदिरादि व्यसनोका त्यागी पुत्र चौबीसवा तीर्थकर होगा, जिसके चरणोंमें इन्द्र भी नमन करेंगे ।
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' वीरजिणिवचरिउ [ १.७. ५एयह दोहि मि सुर-सिरि-विलासु । करि घणय कणय-भासुरु णिवासु ।। ता कयउ कुंडपुरु तेण चारु । सम्वत्थ रयण-पायार-भारु॥ सम्वत्थ रहय-पाणान्दवाका सम्वत्थ पारेड्-परिरुद्ध-चारु ।। सम्वत्थ फलिय-णदण-वणालु। सम्वत्थ तरुणि-णचणवमाल॥ सम्वत्थ धचल-पासायतु। सव्वस्थ सि हिर-चुंबिय-णतु ।। सव्यस्थ फलिह-बद्धामणिल्छु । सव्वत्थ धुसिण-रस-छड़य-गिल्लु ॥ सव्यत्थ निहित्त-विचित्त-फुल्लु । सम्वत्थ सुफुल्लंधय-पियल्लू ।। सध्वस्थ वि दिब्ब-पसंडि-पिंगु । सम्वत्थ वि मोत्तिय-रइय-रंगु ।। सम्वत्थ वि वरुलिए िफुरह। सम्वत्थ वि ससिकतेहि सरह । सम्वत्थ वि रविकतेहिं जलद । सम्वत्थ चलिय-चिंधेहि चलइ॥ सवत्थ पडह-महल रयालु । सव्वस्थ णडिय-गड णसालु। सम्वत्थ णारिणेउर-णिघोसु ।
सम्वत्थ सोम्मु परिगलिय दोसु । धत्ता- पहुपंगणि तेत्थु वंविय-चरम-जिणिः ।
छम्मास बिरय रयणमिट्टि जक्खि ॥७
दुवई-ठिय-सउहयल-णिहिय-सयणयलइ
सयल-दुहोह-हारिणी। णिसि णिहंगयाइ सिविणावणि
दोसइ सोक्खकारिणी ॥
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१.८.४]
हिन्दी अनुवाद अतएव हे कुबेर, इन दोनोंके निवास भवनको स्वर्णमयो, कान्तिमान् व देवोंकी सीने विलास योग्य बना दो। इन्द्रकी आज्ञानुसार कुबेरने कुण्डपुरको ऐसा ही सुन्दर बना दिया। उसके चारों तरफ रत्नमयी प्राकार बन गया जिसके सब ओर नाना प्रकार के द्वार थे और उसके चारों ओर ऐसी परिखा थी जिससे वहाँ शत्रुओंका संचार अवरुद्ध हो जाये। नगरके चारों ओर फल-फूलोंसे सुसज्जित नन्दन वन थे, और स्थान-स्थानपर तरुणी स्त्रियों के लिए उत्तम नत्य-शालाएँ थीं। सर्वत्र धवल प्रासाद दृष्टिगोचर होते थे, जिनके शिखर आकाशकी अन्तिम सीमाको चूम रहे थे। उनके तल मागकी भूमि स्फटिक शिलाओंसे पटी हुई थी, और सभी स्थान केशरके रसके छिड़कापसे गीले हो रहे थे। सर्वत्र रखे गये फूलोंकी विचित्र शोभा थी जिनका भ्रमर रसपान कर रहे थे। समस्त स्थान दीप्तिमान स्वर्णसे पीला पड़ रहा था, और सर्वत्र मोतियोंसे रचित रंगावली दिखाई देती थी। पूरा भवन वैडूयं मणियोंसे चमक रहा था, चन्द्रकान्त मणियोंसे जल झर रहा था और सूर्यकान्त मणियोंसे ज्वाला प्रज्वलित हो रही थी। उसके ऊपर उड़ती हुई ध्वजाओंसे भवन चलायमान सा दृष्टिगोचर हो रहा था। सभी ओर नगाड़ों और मृदंगोंकी ध्वनि सुनाई पड़ रही थी, तथा सर्वत्र नृत्यशालाओं में नृत्य और नाटक हो रहे थे, कहीं नारियोंके नूपुरोंकी मधुर ध्वनि सुनाई दे रही थी। सर्वत्र शान्ति व्याप्त थो और कहीं भी द्वेष व अपराधोंका नामोनिशान नहीं था। ऐसे उस राजभवनके प्रांगण में अन्तिम तीर्थंकरको वन्दना करनेवाले उस यक्षोंके राजा कुबेरने छह मास तक रत्नोंको वृष्टि को ॥७॥
प्रियकारिणी देवौका स्वप्न एक दिन जब प्रियकारिणो देवी अपने प्रासादके सौरतल (करी मंजिल ) में स्थित शयनालयमें शयन कर रही थीं, तब उन्हें निद्रामें समस्त दुःखोंका अपहरण करनेवाली और सुखदायी स्वप्नावली दिखाई दो। उस सुरेन्द्रको अप्सराओंके समूह द्वारा सम्मानित तथा समस्त
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वीरजिणिवचरित [ १.८.५सुरिंदच्छरा-थोत्त-संमाणियाए। सुसिद्धत्थ-सिद्धत्थ-रायाणियाए || सलीलं चरंतो चलो णं गिरिंदो । जिर्णयाइ दिट्ठो पमसो करियो ।। सिता विलंबत सहा-समेओ। हरी भीसणो दिव-पोमाहिसेओ ।। घरं दाम-जुम्म विहू वीअ-धंतो। रवी रस्सि-जालावली-विष्फुरंतो।। सरते सरंत विसारीण दंदं । घडाणं जुयं लोय-कल्लाण-वंदं ।। पहुल्लत-राईव-राई-णिवासो। पवढत-वेला-विसासो सरीसो । पहा-उज्जलं हेम-सेहोर-पीढं । महाहिंद-हम्म विलासेहिं रूढं । मरुधूय-चिंधं सुभित्ती-विचित्तं । घरं चारु आहंडलीयं पवित्तं ।। मणीणं समूह पहा-चिप्फुरंतं । परं सोह्माणं तमोह हरतं ।। जलतो हुयासो धरायां सधामे । णियच्छेवि दीहच्छि सामा-विरामे ।। विउद्धा गया जत्थ रायाहिराओ। धरित्तीस-चूडामणी-घि-पाओ ।। पियाए सुई दसणाणं वरिटुं । फलं पुच्छियं तेण सिटुं विसिटुं ।। सुओ तुज्झ होही महा-देवदेवो। महा-वीयराओ विमुकापलेषो ।। महा-धीरवीरो महा-मोक्खगामी ।
तिलोयस्स बंदो तिलोयस्स सामी । पत्ता-घरपंगणि तासु रायहु सुह-पन्भारहि ।
चुट्टउ धणणाहु अविडिय-धण-धारहि ॥८॥
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१.८ ३४ ]
हिन्दी अनुवाद
૭
छाओंको सिद्ध करनेवाले राजा सिद्धार्थंको रानी भावो जिनेन्द्रकी
माताने निम्नलिखित सोलह स्वप्न देखे
—
१. लीलामय गति से चलते हुए गिरीन्द्र के समान मदोन्मत्त हाथी । २. लटकती हुई सास्नायुक्त (गल-कम्बल) से महान् वृषभ । ३. भोषण सिंह ।
-४, दिव्य अभिषेक-युक्त लक्ष्मी देवो ।
५. उत्तम दो पुष्पमालाएँ ।
६. अन्धकारको दूर करता हुआ चन्द्रमा । ७. किरण जालावलिसे स्फुरायमान सूर्य । ८. सरोवर में चलती हुई दो मछलियाँ | ९, लोक-कल्याण के प्रतीक वन्दनीय दो कलश । की प्रिरोचन |
मिले हुए
(११. छलती हुई तरंगोंको नियन्त्रित करनेवाला समुद्र ।
१२. प्रभासे उज्ववल स्वर्णमय सिंहासन ।
१३. विलासोंसे समृद्ध महानागेन्द्रका प्रासाद |
१४. पवनसे उड़ती हुई ध्वजाओं सहित उत्तम भित्तियोंसे विचित्र सुन्दर और पवित्र इन्द्रभवन |
१५. प्रभासे स्फुरायमान अत्यन्त शोभनीय तथा अन्धकारके समूहको दूर करनेवाला मणिपंन ।
१६. जाज्वल्यमान अग्नि ।
अपने निवासगृह में रात्रि के अन्तिम प्रहरमें इन सोलह स्वप्नोंको देखकर दीर्घनयनी महारानी प्रियकारिणी जाग उठीं, एवं वे वहाँ गयीं जहाँ राजाधिराज सिद्धार्थं विराजमान थे, जिनके चरणोंका घर्षण बड़ेबड़े नरेशोंके शिरपर चूडामणियोंसे किया जाता था। उनसे उनकी प्रिया रानीने अपने स्वप्नोंका फल पूछा । राजाने उनका फल शुभ और श्रेष्ठ बतलाया, और विशेष बात यह कही कि तुम्हारे एक पुत्र होगा जो महादेवोंका देव, महान् वीतराग, अभिमानसे मुफ्त, महावीरोंका वीर, महामोक्षगामी, त्रैलोक्य द्वारा वन्दनीय और त्रिलोकका स्वामी होगा | इन्द्रने कुबेरको आदेश दिया कि राजा सिद्धार्थके प्रासादके प्रांगण में प्रचुर रूपसे निरन्तर वनकी धारावृष्टि होती रहे ||८||
३
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बौरजिणिवचरिउ
[१.२.१
दुवई–कय-विन्भम-विलास परमेसरि
बाल-मराल-चारिणी । कंकण-हार-दोर कहिसुप्तय
कुंडल-मउड धारिणी ।। चंदक्क कति संपण्ण-कित्ति । सिरि हरि सलच्छि दिहि पंक्रयच्छि । सइ किसि बुद्धि जयनगब्भ-सुद्धि । आसाढ-मासि ससियर-पयासि। पानांना लि हा सिनि मालिक दिस-णिम्मलम्मि छट्ठी-
दिम्मि । संसार-सेउ थिल गम्भि देव । संपण्ण-हिति कय कणय-विट्टि। जवखेण ताम णव-मास जाम । मासम्मि पति चित्ता-णिउत्ति । सिय-तेरसीह जणिओ सईद । जिणु मुवण-णातु मम्माह-देहु । मुणि-भासिया पपणासियाइँ । सह दोसयाई जइयहुँ गया। णिवुइ जिणिदि अह-तिमिरयंदि। सिरिपासणाहि लच्छी सणाहि । 'तणु केति-कंतु तझ्यहुँ तियंतु। बद्धाउमाणु सिरिवद्रमाणु ।
जइवहु पहूड जय-तिलयभूष। ___घत्ता-पयणि हि-खीरेहि कलसहि जिय-छणयंदहि ॥
अहि सित्तु जिणिटु मंदर सिहरि सुरिंदहि ॥९॥
दुवई-पुजिउ पुज्जणिज्जु मणि-दामहि
भूसिउ भुवण-भूसणो । संथुज चित्त-वित्त-वावारहिं
कु-समय-रइय-दूसणो॥
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-१. १०.४]
हिन्यो अनुवाद
तीर्थंकर महावीरका गर्भागकरण, जन्म तणा
मन्दराचलपर अभिषेक विभ्रम और विलाससे युक्त बालहंसचारिणी, कंकन, हार, डोर, कटिसूत्र, कुण्डल और मुकुट धारण किये हुए चन्द्र और सूर्यके सदृश . कान्तियुक्त तथा कोर्तिसम्पन्न कमलनयना परमेश्वरी श्री, ह्री, लक्ष्मी, धृति, कीति और बुद्धि, इन देवियोंने स्वयं आकर महारानोके गर्भको शद्धि की। आषाढ़ मासके चन्द्रसे प्रकाशमान व अन्धकार-समहको दूर करनेवाले शुक्लपक्षमें छठी तिथि के दिन जब दिशाएं निर्मल थीं, तब संसारके सेतुभत भगवान महावीर, माताके गर्भ में आकर स्थित हए । .. तबसे नव मास तक धरणेन्द्र यक्ष आनन्ददायी स्वर्णको वृष्टि करता रहा। जब चित्रा नक्षत्र घुक्ल चैत्रमासका आगमन हुआ तब शुक्लपक्षकी त्रयोदशोके दिन उस सतीने स्वर्णको आभासे युक्त शरीरवान् भुवननाथ जिनेन्द्रको जन्म दिया। जब पापरूपी अन्धकारको नष्ट करने के लिए चन्द्रके सदश लक्ष्मीनाथ श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्रको निर्वाण प्राप्त किये .. दो सौ पचास वर्ष व्यतीत हुए थे तभी उन शरीरकान्तिसे युक्त जन्मजरा-मरण-अतीत, व्याधियोका अन्त करनेवाले, जगतके तिलकभूत श्री वर्धमान जिनेन्द्र अपनी आयु बाँधकर उत्पन्न हुए । तत्पश्चात् सुरेन्द्रोंने जिनेन्द्रको मन्दर पर्वतके शिखरपर ले जाकर पूर्ण चन्द्रको कान्तिको जीतनेवाले कलशों द्वारा क्षीरोदधिके जलसे उनका अभिषेक किया। :.
भगवानका नामकरण, स्वभाव-वर्णन, बाल-क्रीड़ा
तथा देव द्वारा परीक्षा भगवान्का अभिषेक करनेके पश्चात् उन देवेन्द्रोंने मणिमय मालाओं द्वारा उनकी पूजा की, जो त्रैलोक्य द्वारा पूजित थे। उन्हें आभूषणोंसे विभूषित किया, जो स्वयं भुवन-भषण थे, तथा नाना प्रकारके क्रियाकलापों
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वीरजिणिवचरित
[ १. १०.५आघोसिउ णामें बढमाणु । जगि भणमि भडारउ कहु समाणु ।। जो पेक्खिवि णउ गंभीरु उयहि । जो पेक्खिविण थिर गिरिंटु समहि ॥ जो पेक्निवि चंदु ण कतिकंतु । जो पेविखवि सूरु ण तेयवंतु ।। मज्झत्थ-भाउ सुह-सुक-लेसु । णं धम्मु परिहिउ पुरिस-वेसु ।। बुझिय-परमक्खर-कारणेहि। ओ संजय-विजयहिं चारणेहिं । अवलोइर सेसवि देवदेउ । हउ भीसणु संदेह हे ॥ सम्मइ कोकिल संजम-धणेहिं। विरक्य-गुरु-विणय पयाहिणेहिं ।। अहिसेय-सलिल-धुय-मंदरेण । जो णिब्भउ भणि पुरंदरेण ।। तं णिसुणिवि देव संगमेण । होइवि भीमें उरजंगमेण ॥ णंदणवणि कीला-सरु णिरुधु । गय सहयर सिसु थिउ तिजगबंधु ॥ तहु फणि-माणिक्कई फसमाणु ।
अविउलु अचलु वि सिरि-वड्ढमाणु । धत्ता-फण-मुह-दाढाउ कर फुसंतु ण संकिउ ।
पुज्झिवि देवेण धीरणाहु तहि कोक्किउ ॥१०॥
दुवई-जे सिसुन्दसणेण रिउणो वि हु
होति विमुक्क-मच्छरा। अस्स कुमार-काल-परिवट्टण
वषय तीस वच्छरा ॥
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१. ११.४] हिन्दी अनुवाद सहित उनकी स्तुति की जो मिथ्यामतोंमें दूषण दिखानेवाले थे। उनका नाम वर्धमान रखा गया । कवि कहते हैं कि उन भगवानको मैं किसके समान कहूं ? उन्हें देखकर तो समुद्र भी गम्भीर नहीं ठहरता, ऐसी उनको गम्भीरता है। गनी विचरता न धीरता ऐसो कि उन्हें देखकर पथ्वी और सुमेरु पर्वत भी स्थिर नहीं कहे जा सकते | वे ऐसे कान्तिवान् हैं कि उन्हें देखकर चन्द्रको कान्ति कुछ नहीं रहती। तेजस्वी भी वे ऐसे हैं कि उन्हें देखकर सूर्य भी तेजवान नहीं रहता। वे माध्यस्थ भावसे युक्त तथा शुभ शुक्ललेश्यावाले थे। मानो स्वयं धर्म ही पुरुषका वेष धारण कर आ उपस्थित हुआ हो। संजय और विजय नामक चारणऋद्धिधारो देवोंने परमोपदेश रूप वाणी को समझकर ही उनके शैशवकालमें ही देखकर उन्हें देवोके देव तीर्थंकर जान लिया और उनके भीषण सन्देहका कारण दूर हो गया। संयमधारी मुनियोंने अत्यन्त विनयभावसे उनकी प्रदक्षिणा की और उन्हें सन्मति कहकर पुकारा। उनके अभिषेक-जलसे मन्दर पर्वतको धोनेवाले पुरन्दरने उन्हें निर्भय कहा। देवोंको सभामें उनको ऐसी प्रशंसा सुनकर संगम नामक एक देवने उनको परीक्षा करनी चाही। बह भयंकर सर्पका रूप धारण करके कुण्डपुरके नन्दनवन में आया, जहाँ कुमार महावीर कोड़ा कर रहे थे। वे जिस वृक्षपर क्रीड़ा कर रहे थे, उस क्रोड़ा-वृक्षको उस सर्पने चारों तरफसे घेर लिया। यह देख उनके साथ क्रीड़ा करनेवाले सहचर शिशु सब भाग गये, किन्तु वे त्रिजगत्के बन्धु वहीं ठहरे रहे । वे श्रीवर्धमान निर्याकुल और अचल होकर उस भयंकर सर्पके फणपर के माणिक्यका स्पर्श करने लगे। वे उसके फण और मुख की दाढ़ोंका अपने हाथसे स्पर्श करते हुए जरा भो शंकित नहीं हुए। यह देख उस देवने उनको पूजा की और उन्हें वीरनाथ कहकर पुकारा ॥१०॥
भगवान्को मुनि-दीक्षा कुमारकालसे ही जिनके दर्शनमात्रसे शत्रु अपने द्वेष-भावको छोड़ देते थे, उनके कुमारकालको प्रवृत्तिके तीस वर्ष व्यतीत हो गये। अब
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जी वीरजिणिवचरिउ [१.१५. ५- . जो सत्त-हत्य-सुपमाणियंगु। में विद्धंसिउ दूसहु अणंगु॥ णिन्वेइउ सो मालिय-करेहि। संबोहिउ लोयंतिय-सुरेहि ॥ अदिसिंचिउ पुणु सयलामरेहि। विजिजतड चामर-वरेहि ।। चंदप्पह-सिवियहिँ पहु चडिपणु । तहिं पाह-संड-बणि णवर दिपणु ।। मग्गसिर-कसण-दसमी-दिति । संजायइ तियसुमछवि महति ।। चोलीणइ चरियावरण-पीक । हत्थुत्तर-मज्झासिइ ससंकि ।। छट्टोववासु किउ मलछरेण । तवचरणु लहड परमेसरेण मणिमय-पडले लेपिणु ससेस ।
इंदे खीरण्णवि घित्त केस ॥ धत्ता-परमेट्टि रिसिंदु
थिउ पडिवज्जिवि संजमु । थुउ भरह-णरेहि
पुप्फयंत-वंदिय-कमु ॥११॥
इय वीरजिणिदचरिए गमावतरण-जम्म-तप-वण्णणो णाम
पटमो संधि ॥१॥
( महापुराणु संधि ९५-९६ से संकलित )
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१. ११. २४ ] हिन्दी अनुवाद उनके शरीरका प्रमाण पूरे सात हाथ हो गया था, तथापि उन्होंने कामके वशीभूत न होकर कामदेव को जीत लिया था। तभी लौकान्तिक देवोंने आकर उन्हें सम्बोधित किया और हाथ जोड़कर उन्हें वेराग्य-भाव उत्पन्न करा दिया। फिर उत्तम चमरोंसे व्यजन करते हुए समस्त देवोंने उनका अभिषेक किया। फिर भगवान् चन्द्रको प्रभासे युक्त पालकीपर विराजमान हुए और ज्ञातषण्डवन में पहुंचे। वहां उन पापहारी परमेश्वरने, मार्गशीर्ष ( अगहन ) कृष्णपक्ष दशमीके दिन जब देवोंका महोत्सव हो रहा था और चन्द्रमा उत्तराफाल्गुनी कौर हाल नक्षों के भोग स्थित था, तभी अपने चारित्रावरण कर्मरूपी मलको दूर कर, षष्ठ उपवास सहित तपश्चरण ग्रहण किया । तभी उन्होंने केश-लोंच किया और इन्द्र ने उन केशोंको एक मणिमय पटल में लेकर क्षीरोदधिमें विसर्जित कर दिया। इस प्रकार वे मुनीन्द्र परमेष्ठी संयम ग्रहण कर आसीन हुए। भारतवर्षको समस्त जनताले उनको स्तुति को । कवि पुष्पदन्त भी उनके . चरणोंको बन्दना करते हैं ॥११॥
इति वीर जिनेन्न गर्भावसरण, जन्म और ठप विषयक प्रथम
सन्धि समाप्त ।। सन्धि १॥
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सन्धि
२
मणपज्जय-संजुत्तम देवदेउ थिर-चित्तः । तार-हार-पंडुर-घरि कूल-गाम-णामह पुरि ।।धुवक।।
भिक्खहि परमेसरु पइसरइ। घरि घरि सुसमंजसु संचरइ ।। मणपज्जय-गयणे परियरिउ । कूलहु घर-पंगणि अवयरिउ ॥ रायहु पियंगु-वण्णुज्जलहु । पणवतहु मालय-करयलहु ! थिउ भुवण-णाहु दिण्णउ असणु । णव-कोडि-सुधु मुणि-दिव्वसणु ।। तं लेप्पिणु किर जा णीसरिउ । ता भूमि-भाउ रयणहिं भरिउ ॥ देवहि जयतूर, ताडियई। गयणयलहु फुल्लई पाडियई ।। मो चारु दाणु उन्घोसियर। अइ-सुरहिउ पाणिउ वरसियउ ॥ मंदाणिटु यूढट सीयलउ । णिउ णर-वंदिउ बहु-गुण-णिलउ ।। एत्तहि. दुकम्मई णिद्ववइ । भीसणि णिजणि वणि दिणु गमइ ।। जिणु जिण-कप्पेण जि चकमइ ।
जो पाण-हारि तासु वि खमइ ॥ घत्ता-सुणह-सीह-सीयालहँ, ओरसियह सदूलहूँ ।
वणि अच्छइ उन्भुन्भज रणिहि णं थिरु खंभउ ॥१॥
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सन्धि २ केवलज्ञानोत्पत्ति
कूलग्राममें भगवान्को आहार-वान देवोंके देव भगवान महावीर स्थिर चित्त तथा मनःपर्यय जानसे युक्त होकर उस कूलग्नाम नामक पुरीमें पहुंचे जहाँके निवासगृह तारों और हारोंके समान उज्ज्वल दृष्टिगोचर होते थे। वहां उन परमेश्वरने भिक्षाके लिए प्रवेश किया और बड़े साम्य-भावसे एक घरसे दूसरे घरकी ओर गमन करने लगे। वे अपने मनःपर्यय ज्ञानरूपी नेत्रसे ही अपने आसपासके लोगोंके मनको जान रहे थे । वे वहाँक राजा कूलके गृहप्रांगणमें अवतरित हुए। उस प्रियंगु वर्ण-से उज्ज्वल नरेशने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया। वे भुवननाथ वहां ठहर गये और राजाने उन्हें मुनिके योग्य नव-कोटि-शुद्ध आहार दिया । जब आहार लेकर भगवान् बाहर निकले तब जिस भूमिभागपर उन्होंने आहार लिया था वह रत्नोंसे परिपूर्ण हो गया। देवोंने अयध्वनि करते हुए तूर्य बजाये तथा आकाशसे फूल बरसाये। उन्होंने घोषित किया-अहो, यह बड़ा सुन्दर दान हुआ । इस समय अतिसुगन्ध-युक्त पानी बरसा । मन्द और शीतल पवन प्रवाहित हुआ तथा उस अनेक गुणोंके निवास राजा की लोगोंने वन्दना की। यहाँ जिन भगवान् महाघोर अपने दुष्कर्मोको विनष्ट करते हुए उस पुरीके समीप भोषण निर्जन वनमें दिन व्यतीत करने लगे। वे जिनकल्पी चारित्रसे अपनो चर्या करते थे और जो कोई उनके प्राण हरण करनेको इच्छा से उनके समीप आता था उसके प्रति भी वे समभाव रखते थे। जिस वनमें श्वान, सिंह और शृगाल तथा शार्दूल गर्जना करते हुए चारों और विचरण करते थे उसी वनमैं के रात्रिभर खड़े-खड़े ऐसे ध्यान-मग्न रहते थे जैसे मानो वह कोई स्थिर स्तम्भ हो ।।१।।
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१०
१५
२०
२५
२६
बीरजिविचरिउ
ण करइ सरीर-संठप्प - चिह्नि । सुपरीसह सहइ ण मुयह दिहि || वडत केस जड-मालियर ।
चंद फणिउल-माणियउ || उज्जेहि पिवणि भययरिहि । तम- कसणहि भीम-विहावरिहि ।। अण्णहि विणि सिद्धि-पुरंधि-पिउ पिवणि पडिमा जोएण थिल ॥ जोईसर जण-जणणत्तिहरु | अत्रलोइ रुहे परमपरु ॥ मई कय उवसग्गहु किं तसइ । पिय चरिय गिरिं किं ल्हसइ । किं ण णंदणु पियकारिणिहि । जोयउँ जिणु सम्म धारिणिहि ॥ इस चितिथि जेहा-तणुरुहिण | पिंगच्छि- भिउडि-भीसण- मुहिण || बेयाल का कंकाल -घर । करवाल-सूल-क्षस पर सुंकर ॥ पिंगुद्ध केस दीहर-हर | फिलिकिलि-रव-बहिरिय-भुवणहर ।। चोइय धाइय हरिदिष्ण-कम | फुफुप्फुयंत विसि विसविसम || पत्ता- कय- भुषणय ल-विम
[ २.२.१
पुणु त्रि हरेण रहें || णिय-विज्जहिं दरिसाविड गुरु पाउसु वरिसाविङ ॥२॥
३
पुणु वणयर-गणु कय-पंडिखलणु । पुणु धगधगंतु जालिउ जणु ॥ देविंद चंद दप्प-हरण हैं । पुणु मुक्त गाणा-पहरण हूँ ||
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- २.३.४ ]
हिन्दी अनुवाद
उनी में भयानको नहारा परीक्षा भगवान अपने शरीरके संस्कारको कोई क्रिया नहीं करते थे। वे बड़े-बड़े परिषहोंको भो सहन करते थे और धैर्य नहीं छोड़ते थे। अपने बढ़ते हुए केशोंकी जटाओंसे लिपटे हुए वे ऐसे दिखाई देते थे मानो अनेक सपंरूपी मालाओंसे वेष्टित चन्दनका वृक्ष हो । एक दिन उज्जैनीके भयंकर श्मशान में अन्धकारसे कालो भोषण रात्रिके समय वे सिद्धि रूपी महिलाके प्रियपति प्रतिमा योगसे स्थित थे, तभी उस अवस्थामें लोगों के जन्म-मरण रूपी व्याधिका हरण करनेवाले परमश्रे योगीश्वरको रुद्रने देखा। रुद्रने विचारा-देखू, क्या यह उपसर्ग करनेपर अस्त होता है और क्या अपने चारित्ररूपी गिरीन्द्रसे नीचे गिरता है ? देखू कि यह सम्यकदर्शन धारण करनेवाली प्रियकारिणी देवोका ही पुत्र जिनेन्द्र है, या नहीं। ऐसा विचार करके उस ज्येष्ठाके पुत्र रुद्रने लाल आँखें, टेढी भौहें
और भीषण मुख बनाकर काल-कंकालधारी बैताल बनाये जो अपने हाथों में तलवार, शूल, झष और फरसे लिये थे। उनके केश पिंगल वर्ण
और खड़े हुए थे, नख बड़े लम्बे थे तथा वे अपनी किलकिलाहटको ध्वनिसे भुवनरूपी गृहको बहिरा कर रहे थे। रुद्रकी प्रेरणासे वे सब भगवानको ओर दौड़े। सिंह भी उनपर झपट पड़े और भीषण विषधारी सर्प भी उनकी ओर फुफकार करते हुए दौड़ पड़े। इसके अतिरिक्त भी उन रुद्र हरने जो भुत्रनमात्रका संहार करने में समर्थ थे, अपनी विद्याओं द्वारा भीषण मेघोंको दर्शाया और घोर जल वृष्टि की ॥२॥
रुद्रका उपसर्ग विफल हुमा रुद्रने समस्त वनचरों द्वारा क्षोभ उत्पन्न कराया। धगधकाती हुई अग्नि भी जलायो और नाना प्रकारके ऐसे अस्त्र-शस्त्र भी छोड़े जिनसे देव, इन्द्र और चन्द्रका भी दपं चूर-चूर हो जाय । किन्तु रुद्रके समस्त
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वोरनिणिवपरित [२. ३.५सम्वइँ गयाई विहलाई किह ।। किषिणहु मंदिरि वीणाइँ जिह ॥ सञ्चइ-तणएण पवुत्तु हलि । गिरिवर-सुइ वियसिय-मुह-कम लि || वीरहु वीरत्तु ण संचलइ। कि मेरु-मिहरि कथइ ढलइ ॥ इय मणिवि बे वि दिवि गय है । षसहारुढइ रह-रस-स्य है। चेडय-रायहु लय-ललिय-भुय । णिय-पुर-वरि चंदण णाम सुय । गंवणवणि कीड कमल-मुहि ।
जिह जणणि-जणणु ण वि मुणइ सुहि ॥ घत्ता-तिह विलसिय-बम्मीसें णिय केण वि खयरीसें ।
पुणु णिव-परिणि भाएं वणि धझिय सु-विजोएं ॥३॥
णिय-बंधु-विओय-विसण्ण-मइ । तहिं दिट्टी वाहें हंसगइ । धणयत्ते वसहयात वणिहि । ते दिपणी वणिचूडामणिहि ॥ थणिणा णिय-मंदिरिणिहिय सइ । रूवेण णाई पच्चक्न रह । पडिचक्ख-गुणेहि विमस्थिइ । चितिउ तहु पियइ सुहरियह ।। पही कुमारि जइ रमइ वरु। तो पुणु महु दुका होइ घर ॥ एयहि केरउ सहुँ जोव्वणिण । णासमि वररूउ कुभोयणिण । इय भणिवि णियंबिणि रोसवस । घल्लंति भीम-दुव्वयण-कस ॥ कोड्य-करहु सराउ भरि ।। सहुँ कजिएण रस-परिह रिज ।।
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२. ४. १६ ] हिन्दी अनुवार उपसर्ग ऐसे विफल हुए जैसे कृपण पुरुषके घर जाकर दीनजन विफल ही वापस हो जाते हैं। तब उन सात्यकी-पुत्र रुद्रने पार्वतीसे कहा-हे प्रफुल्ल-कमलमुखी गिरिवर-पुत्री पार्वती, देखो इस वीरकी वीरता लेशमात्र भी चलायमान नहीं होती । भला क्या सुमेरपर्वत कही इसकता है ? ऐसा कहकर वे दोनों भगवान्की वन्दना करके अपने वृषभपर आरूढ़ हो, रति-रसमें अनुरक्त होते हुए वहांसे चले गये। उधर चेतकराजाकी, लताके समान कोमल भुजाओंवाली कमलमुखी चन्दना नामको पुत्री जब अपने नगरके नन्दनवन में कोड़ा कर रही थी, तभी कामवासनासे प्रेरित होकर एक विद्याधरने उसका चुपचाप अपहरण कर लिया। इससे उसके माता-पिता तथा सखो-साथियोंको इसका कोई पता न चला। वह विद्याधर उसे ले तो गया किन्तु बोचमें ही अपनी गृहिणीके क्रोधकी आशंकासे भयभीत होकर उसने उसे वनमें ही छोड़ दिया ||३||
कौशाम्बोमें चन्दना कुमारी द्वारा भगवान्का वर्शन अपने बन्धु-वर्गसे बिछुड़कर और उस वनमें अपनेको अकेली पाकर चन्दनाको बड़ा दुःख हुआ। उसी समय उस हंसगामिनीको एक धनदत्त नामक व्याधने देख लिया। उसने उसे अपने साथ ले जाकर उस नगरके श्रेष्ठ धनी वृषभदत्त नामक वणिक्को सौंप दिया। वणिक्ने उस सतीको अपने घरमें रखा । किन्तु वह अपने सौन्दर्य से साक्षात् रति ही थी। अतएव उस वणिकको सुभद्रा नामक पत्नीने प्रतिकूल भावनाओंसे प्रेरित होकर विचार किया कि यदि मेरा पति इस कूमारीपर आसक्त हो गया तो फिर मेरे लिए यह घर दुष्कर हो जायेगा । अतएव अच्छा होगा कि में कुत्सित भोजन द्वारा इसके यौवनके साथ-साथ सुन्दर रूपको भी नष्ट कर दूं । ऐसा विचारकर वह स्त्री रोषके वशोभूत हो उसपर भीषण दुर्वचनरूपी कोड़ोंका प्रहार करने लगी। उसे वह नित्य ही एक कटोरे भर रस-विहीन कोदोंका भात कांजीके साथ खानेको दे देती थी।
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वीरजिणिवचरित [२. ४. १७सा णिच्च देव तहि णच-णवउ । एत्तहि परमेटि सु-भइरबउ ।। गुरु-पाव-भाव भरविवसियउ। विसहेपिपण हर-दविलसियन । सम-सत्तु-मित्त-जीविय-रमणु । अण्णहि दिणि भव्ब-समुद्धरणु ।। पिंडस्थिउ जाणिय-जीव-गइ ।
कोसंबी-पुर-वरि पइसरइ ।। घत्ता-णियल-मिरुद्ध-पयाइ चेद्धय-णिव-दुहियाइ॥
आविधि संमुहियाइ पणवेप्पिणु दुहियाइ ॥४॥
२५
कोहव-सित्थइँ सरावि कयई । . सउवीर-विमीसई हयमयई ॥ मुणि-णाहु करयलि ढोइयई। तेोग वि णियदिदिइ जोइयई ।। जायाई भोज्जु रस-दिषण-दिहि । अट्ठारह-वण्ड-पयार-विहि ।। जिण-दाण-पहावे दुरमई। आयस-डियई रोहिय-क्रमई ।। सज्जण-मण-गयणाणंदणहि । परिगलियई णियलई चंदणहि ॥ अमरहिं महुयर-मुह-पेल्लिय है । कुंदई मंदारई घल्लियई ।। रयणाई वण्या-कञ्बुरियाई। पसरत-किरण-विप्फुरियाई ।। ह्य दुदुहि साहुक्कार काउ । गुणि-संग कासु ण जाल जउ॥ करणहि गुणोहु विउसेहिं थुत्र | सहुँ बंधवेहि संजोज हुउ ।। बारह-संवच्छर-तव-चरणु । किउ सम्मइणा दुवक्रय-हरणु ।
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:
२. ५. २० ] हिन्दी अनुवाद
इसी बीच रुद्र के द्वारा किये गये उस अत्यन्त भयंकर तथा भीषण पापभावसे प्रेरित होकर किये गये उपसगको सहनकर वे परमेष्ठी भगवान् महावीर जो शत्रु-मित्र तथा जीवन और मरण आदि द्वन्द्वोंमें समता-भाव रखते थे, वे एक दिन भव्योंके उद्धारकी भावना रखते हुए तथा जीवोंकी विचित्र गतिको समझते हुए आहारके निमित्त कौशाम्बीपुरमें प्रविष्ट हुए। तभी सांकल से बँधे हुए पैरोंसे युक्त उस दु.खी चेतकराज पुत्रीने भगवान्के सम्मुख आकर उन्हें प्रणाम किया ॥४॥
चन्दना द्वारा भगवानको आहार-दान चन्दनाने अपने कोदोक भातको छाँछसे मिश्रित कर और कटोरेमें रखकर मुनिराजकी हथेली में अर्पित कर दिया। भगवान्ने जब उसे अपनी दृष्टिसे देखा तो वह अठारह प्रकारके स्वादिष्ट और नाना रसोंसे युक्त भोजन बन गया। चन्दनाके भगवानको दिये उस आहार-दानके प्रभावसे उसकी गतिमें बाधा डालनेवाली वे लोहेकी बनी सांकले टूटकर गिर गयौं जिरासे सज्जनोंके अन्तःकरण और नेत्रोंको बहा आनन्द हआ । देवोंने भ्रमरोंके मुखसे प्रेरित झंकारयुक्त मन्दार पुष्पोंकी वर्षा को । उन्होंने नाना वर्णोसे विचित्र तथा .अपनी फैलती हुई किरणोंसे स्फुरायमान रत्नोंकी भी वृष्टि की, दुन्दुभि भी बजायी और साधु-साधुका उच्चारण भी किया। भला गुणीजनोंके संसर्गसे किसे उल्लास नहीं होगा? विद्वानोंने उस कन्याके गुणोंकी स्तुति की। उसका अपने मातापिता आदि बान्धवोंके साथ संयोग भी हो गया ।
सन्मति भगवान्ने दुष्कर्मोंका हनन करते हुए बारह वर्ष तक तपश्चरण किया । अपनी उस चन्दना नामक बहनके अहिंसा और
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वीििणवचरित [२. ५. २१- । पोसंतु अहिंस खंति ससहि । भयवंतु संतु विहरंतु माहि ॥ गड जिम्यि-गामा अइ-णियाड ।
सुविउलि रिजुकूला-णइहि तडि ॥ पत्ता- मोर-कीर-सारस-सरि सुजाणम्मि मणोहरि ।।
साल-मूलि रिसि-राणउ रयण-सिलहि आसीणउ ।।५।।
२५
छट्टेणुबवासें ह्यदुरिएं। परिपालिय-तेरह-विह-चरिएं । वइसाह-मासि सिय-समि दिणि | अवरण्डह जायद हिम-किरणि ।। हत्थुत्तर-मझ-समासियइ। पटु बडिवण्णा केवल-सियइ ।। घणघणई घाइकम्मई इय है ।। खुहियाई झत्ति तिणि वि जयई ।। घंटा-रव हरि-रव पडह-रच' । आया असंख सुर संख-रव ।। वंदियउ तेहिं वीराहिवाइ सुत्तामउ चरण-जयलु णवई॥ किउ समवसरणु गय-सर-सरण : उवट्ठ तिहुवर्ण-जण-सरणु॥ आहेडलेण पप्फुल्ल-मुहु । सेणिय हार्ड आणि दिय-पमुहुः ।। महु संसयेण संभिषण मई। जिणु पुच्छिा जीवहु तणिय गइ ।। गाहें महु संसउ णासियउ ।। मई अप्पड दिक्खाइ भूसिया।। मई समउ समण-भाषहु गयई।
पावइयई दियह पंचसयह ।। घत्ता-पत्ते मासे सारणि बहुले पातिवए दिणि ।।
उप्पण्णउ न जु-बुद्धिष्ट महु सप्त वि रिसि-रिद्धि |६||
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२. ६. २६ } हिन्दी अनुवाद क्षमा-भावोंका पोषण करते हुए तथा पृथ्वीपर बिहार करते हुए वे भगवान् ऋषिराज जृम्भिका नामक ग्रामके अति विकृत ऋजुकुला नदीके विशाल तटवर्ती मनोहर उद्यानमें जहाँ मयूर, शुक और सारस क्रीड़ा कर रहे थे वहाँ मालवृक्षके मूलों पड़ी हुई रत्नशिकार लिासमान दुर ।।५।।
भगवान्को केवलज्ञानको उत्पत्ति पापका हरण करनेवाले पष्टोपवास करते हुए तथा तेरह प्रकारके चारित्रका पालन करते हुए भगवान अपनी तपस्यामें लीन रहने लगे। फिर वैशाखमासके शुक्लपक्षको दशमी तिथिको अपराहृमें जब चन्द्र हस्त और उत्तरा फाल्गुनि नक्षत्रके मध्यमें स्थित था तब भगवान्को केवलज्ञानरूपी लक्ष्मीको प्राप्ति हुई । उनके सघन घातिकर्म विनष्ट हो गये । उस समय तीनों लोकोंमें जागृति उत्पन्न हुई । घण्टा, पटह तथा शंखोंकी ध्वनि एवं सिंहनाद करते हुए असंख्य देव आ उपस्थित हुए। उन्होंने महावीर भगबान्की बन्दना की। इन्द्रने भी उनके चरण-युगलमें नमन किया । फिर उन्होंने समवशरणकी रचना की जिसके माध्यमें कामको दूर करनेवाले एवं भुवनके लोगोंको आश्रयभूत भगवान् विराजमान हुए। गौतम गणधर राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि हे श्रेणिक, उस समय इन्द्र प्रसप्तमुख होकर मुझ द्विज-प्रमुखको यहाँ ले आया । उस समय मेरी मति संशयसे भ्रान्त थी, अतएव मैंने जिनेन्द्रसे जीवकी गतिके विषयमें प्रश्न किया। भगवान्ने मेरे संशयको दूर कर दिया, तब मैंने अपनेआपको मुनि-दीक्षासे विभूपित किया। मेरे साथ अन्य पाँच सौ द्विज भी प्रव्रज्या लेकर श्रमण बन गये। तत्पश्चात् श्रावणमासके कृष्णपक्षको प्रतिपदाका दिन आनेपर मुझे चारों प्रकारवी बुद्धि तथा सातों ऋषि-ऋद्धियां भी उत्पन्न हो गयों ॥६॥
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पौराजिगिरिद
महतो महाणाणवतो सभूई। गणी वाउभूई पुणो अग्गिभूई ।। सुधम्मो मुणिदो कुलायास-चंदो। अणिदो णिवंदो चरिते अमंदो ।। इसी मोरि मुंडी सुओ चत्त-गावो। समुपपण्ण-वीरंघि-राईव-भावो॥ सया सोहमाणो तवेणं खगामो। पवित्तो सचित्तेश मित्तेय णामो !! सयाकंपणो णिच्चलको पहासो । विमुकंग-राओ रई-णाह-णासो।। इमे एवमाई गणेसा मुणिल्ला ! जिणिदस्स जाया असल्ला महल्ला ।। स-पुष्वंगधारीण मुक्कावईणं । पसिद्धाइँ गुत्ती-सयाई जईणं ।। दहेक्कूणयाइं तर्हि सिक्खुमाण।
समुम्मिल्लसवावही-चक्लयाणं ।। घसा-मोहें लोहें चत्तर तिहि सहि संजुत्तउ ।
एक्कु सद्दसु संभूयउ खम-दम-भूसिय रूवाउ |७||
पंचेव च उत्थ-गण-धरहं । सत्तेव सुकेथलि-जइ-बरई ॥ चत्तारि सबई वाई-बरहुं । दिय-सुगय-कविल-हर-णय हरहं ॥ छत्तीस सहासई संजईहिं। भणु एक लक्ग्नु मंदिरजईहि ॥
बखाई तिमिण जाहि सावइहिं । सुर-देवहिं मुक्क-संख-गइहिं ।। संखेजएहिं तिरिएहिं सहुँ। परमेट्टि देर सोक्खाइ महुँ ।
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२. ८. १० ।
हिन्दी अनुवाद
भगवान के इन्द्रभूति गौतम आदि एकादश गणधर महाज्ञानवान् एवं विभूतियुक्त इन्द्रभूति गौतम महावीर भगवान्के श्रेष्ठ गणधर हुए। दूसरे वायुभूति, तीसरे अग्निति, चौथे सूधर्म मुनीन्द्र जो अपने कुलरूपी आकाशके चन्द्रमा थे, अनिंद्य, नर-वन्द्य तथा चारित्रमें अमंद थे । पाचवं ऋषि मार्य, छठे मुण्ड ( भाग्य ), सातवे सुत (पुत्र.) जो इन्द्रियोंकी आसत्तिासे रहित तथा वीरभगवान्के चरणकमलोंके भक्त थे । आठवें मैत्रेय जो महानगसे शोभायमान, इन्द्रियजित् व शुक्लध्यानी तथा चित्तसे पवित्र थे । नवमें अकम्पन जो सदैव तपस्यामें अकम्प रहते थे। दस अचल और ग्यारहवें प्रभास जो देहके अनुरागसे रहित तथा कामदेव के विनाशक थे। जिनेन्द्र भगवान्के ये ग्यारह गणधर मनि हुए जो शल्य-रहित और महान थे। इनके अतिरिक्त भगवानके तीन सौ शिष्य ऐसे थे, जो समस्त पुणे एवं अंगों के ज्ञाता थे, सुप्रसिद्ध थे एवं अवतोंके त्यागी अर्थात् महानती थे। भगवान्के नौ सौ शिष्य ऐसे थे जिनके सर्वावधि ज्ञानरूपी चक्षु खुल गये थे अर्थात् जो सबिधि-ज्ञान-धारी थे। भगवान्के संघमें एक हजार तीन सौ से मुनि भी थे जो मोह और लोभके त्यागी तथा क्षमा और दम आदि गुणोंसे भूषित थे ॥७॥
भगवान्का मुनिसंघसहित विपुलाचल पर्वतपर आगमन भगवान्के संघमें पाँच चतुर्थ-ज्ञान-धारी अर्थात् मनःपर्ययज्ञानी तथा सात केवलज्ञानी मुनि भी थे।
उनके चार सी ऐसे श्रेष्ठ वादी मुनि थे जो द्विज, सुगत (बुद्ध), कपिल और हर ( शित्र ) इनके सिद्धान्तोंका खण्डन करनेमें समर्थ थे। इन मुनियोंके अतिरिक्त संघमें छत्तीस सहस्र संयमिनी अर्थात् अणिकाएं, एक लाख गृहस्थ थावक तथा तीन लाल श्राविकाएँ थीं। देव और देवियोंकी तो संख्या असंख्य थी। उन परमेष्ठी देवके साथ संख्येय तिर्यंच भी थे जो उनके साथ रहने में सुखका अनुभव करते थे।
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बोरनिणिवचरिज [२, ८.११जाणा-विहोय-जिय-सुरई । विहरेप्पिणु वेड गामपुरई। सम्मत्त धोय-मिच्छा-मलई । संबोहिवि भव-जीव-कुलई॥ विहरंतु वसुछ विद्वत्थरह । विउलहरि पाउ भुनमनः ।। आवेपिपणु 'दुह-णिण्णास-यरू । सेणिय पई वंदिउ तित्थयरू || पुच्छियउ पुराणु महंतु पई।
भासियउ असेसु वि तुज्झु मई ।। घत्ता-णिसुणिवि गोत्तममासियं भरहाणंद-विहूसियं ।।
संबुद्धा विसहर-णरां पुष्फयंत-जोईसरों ॥८il
ह्य वीरजिणिवचरिए केवलणाणुष्पत्तिवपणणो णाम
विदियो सन्धी ॥२॥
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२.८. २२ ]
हिन्वी अनुवाद इस विशाल चतुर्विध संघसहित एवं नाना विभूतियों द्वारा देवोंको भी अनुराग उत्पन्न करते हुए भगवान्ने अनेक ग्रामों एवं नगरोंमें बिहार किया तथा भव्य जीवोंके बिशाल समुदायोंका सम्बोधन करके सम्यकदमरूपी जलसे उनके मिथ्यात्वरूपी मलको धो डाला। वे त्रिभूवननाथ वसुधापर बिहार करते हुए तथा काम-व्यसनको दूर करते हुए राजगृहके समीप विपुलाचल पर्वतपर पहुंचे। गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि हे श्रेणिक, तूने विपुलाचलपर आकर उन दुःखविनाशक तीर्थकर भगवान् महाबीरकी वन्दना की । तूने महापुराण सम्बन्धी प्रश्न भी किये जिनके उत्तरमें मैंने तुझे समस्त पुराण कह सुनाया। गौतम गणधरके उस भाषणको सुनकर समस्त भारतदेश आनन्दसे विभूषित हो गया तथा पुष्पदन्त कवि कहते हैं, नाग मनुष्य तथा योगेश्वर सभीका संबोधन हो गया ॥८॥
इति वीरजिनेन्द्र चरितमें केवलज्ञानोत्पत्ति विषयक
द्वितीय सन्धि समास । सघि २।।
( महापुराणु सन्धि ९७ से संकलित )
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सन्धि ३ वीर-जिणिद-णिव्वाण-पत्ति
अंत-तित्थणाहु वि महि विहरिवि । जण दुरियाइँ दुलंघई पहरिवि ।। पावा-पुरवरु पत्ता मणहरि । णव-तरु-पल्लवि वणि बहु-सरवरि ।। संठिन पविमल रयण-सिलायलि। रायहंसु णावइ पंकय दलि॥ दोगिण दियह पविहारु मुएप्पिणु ।
सुक्क-झाणु तिउजउ झाएपिणु ॥ धत्ता--णिबत्तिइ कत्तिह तम-कसणि पत्र च उद्दसि वासरि ।
थिइ ससहरि दुइँहरि साइवइ पनिछम-रणिहि अवसरि ||१||
कय-तिजोय-सुगिरोह अणिहउ । किरिया-छिपाइ झाणि परिहिउ ।। णियाघाइ-चक्कु अदेह उ । वसु-सम-गुण-सरीझ णिपणेहउ ।। रिसि-सहसेण समर रय-छिदणु । सिद्धाउ जिणु सिंद्वत्थडु णंदणु ।। तियस-विलासिणिणनिच'उ तालहिं । अमरिंदहि व कुवलय-मालहिं ।। णिन्वुइ चीरि गलिय-मय-रायउ । इंदभूइ गणि केवलि जायउ ।। सो विउलइरिहि गउ णिवाहु । कम्म-विमुक्कउ सासय-ठाणहु ।।
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सन्धि ३
वीर जिनेन्द्रकी निर्वाण-प्राप्ति
१
भगवान्कामे बिहारपुर आगमन
वे अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महाबीर बिपुलाचलसे चलकर पृथ्वीपर बिहार करते हुए एवं जनताके दुर्लक्ष्य दुष्कर्मीका अपहरण करते हुए पावापुर नामक उत्तम नगरमें पहुँचे । उस नगरके समीप एक मनोहर वन था, जहाँ वृक्ष नये पल्लवों से आच्छादित थे और अनेक सरोबर थे। उस वन में भगवान् एक विशुद्ध रत्नशिला पर विराजमान हुए, जैसे मानो एक राजहंस कमल - पत्रपर आसीन हो । वहाँसे उन्होंने दो दिन तक कोई विहार नहीं किया और वे तृतीय शुक्लध्यान में मग्न रहे । फिर कार्तिक मास कृष्णपक्षको चतुर्दशीके दिन रात्रिके अन्तिम भाग में जब चन्द्र सुखदायी स्वाति नक्षत्र में स्थित था, तब उन्हें निर्वाणकी प्राप्ति हो गयी ||१||
२ भगवान् का निर्माण तथा उनकी शिष्य-परम्परा
भगवान् ने अपने मन, वचन और काय इन तीनों योगोंका भले प्रकार निरोध करके छिन्न-क्रिया-निवृत्ति नामक ध्यान धारण किया। उन्होंने चारों अधाति कर्मीका नाश कर डाला। और इस प्रकार ये सिद्धार्थं राजाके पुत्र जिनेन्द्र महानू जिन, राग-द्वेषरहित होकर तथा समस्त पाप रूपी रजको दूर करके, शरीर रहित होते हुए, सम्यक्त्व आदि अष्टगुणोंसे युक्त सिद्ध हो गये । उनके साथ अन्य एक सहस्र मुनि भी सिद्धत्वको प्राप्त हुए। उस समय नये कमल-पुष्पोकी मालाओंको धारण किये हुए सुरेन्द्रोंने ताल दे देकर, देवलोककी अप्सराओंका नृत्य कराया ।
वीर भगवान् के निर्वाण प्राप्त करनेपर मद और रागको विनम्र कर इन्द्रभूति गणधर ने केवलज्ञान प्राप्त किया। वे अपने कर्मोंस मुक्त होकर,
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१५
२०
२५
૪૦
१०
वीरजिणि वरि
तहिं वासरि उत्पाद केवलु | सुणिहि सुषम्म पक्खालिय-मलु ॥ तण्णव्वाणइ जंबूदारु । पंच दिव्व णाणु हय-कामहु ॥ मंदि सु-दिमित्त अवरु वि मुणि। गोवद्भणु चत्धु जलहर-झुणि ॥
ए पच्छइ समत्थ सुय-पास्य । गिरसिया - मिच्छायम रुि णीरय ॥ पुणु वि विसहज पोहिल खत्तिव । जउ गाउ वि सिद्धत्थु इयति ॥ दिसे विजय बुद्धिल्लउ । गंगु धम्मसे विणीसल्लड ||
पुणु वाक्खत्त पुणु जसवाल 1 पंड णाम घुसेगु गुणालच ॥
[ ३.२.१३
घत्ता -- अणुकंसउ अप्पन जिणिचि थिउ पुणु सुहद्दु जग-सुहरु 11 जसभदु अखुदु अमंद-मंद णार्णे णावर गणहरु ||२||
३
मद्दवाहु लोकु भडारउ | आयारंग धारि जग-सारउ ॥ यहि सव्यु सत्धुमणि माणिउ । सेस एक्कु देसु परियाणि ॥ पुव्वयालि सुइ णिसुणिय भरहें । राएं रिङ बहु-दाघिय विरहें || एव राय-परिवाडि णिसुणिउ । धम्मु महामुनि जाहहिं पिसुणिउ ॥ सेणिय-राउ धम्म-सोयार हूँ । पछिल्लउ वज्जिय-भय-भारहूँ || जिणसेणेण वीरसेणेण वि ॥ जिण सासणु सेवित्र मय-गिरि-पवि || ता विपच्छ बहु-रस-गडियइ । भर कारात्रि पद्धडिय ||
1
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३. ३.१४ ]
हिन्दी अनुवाद विपुलगिरि पर्वतपर निर्वाणरूपी शाश्वत स्थानको प्राप्त हो गये। उसी दिन सुधर्म मुनिको पायमलका प्रक्षालन करनेवाला कंवलज्ञान उत्पन्न हुआ। सुधर्म मुनिका निर्वाण होनेपर कामको जीतनेवाले जम्बू नामक गणधरको वहीं पंचम दिव्यज्ञान अर्थात् केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। उक्त तीन प्रधान केवलज्ञानी गणधरोंके पश्चात् क्रमशः नन्दि, नन्दिमित्र अपर ( अपराजित ), और चौथे गोवर्धन तथा पांचवें भद्रबाहु, पे मेधके समान गम्भीर ध्वनि करनेवाले समस्त श्रुतज्ञानके पारगामी अर्थात् श्रुतकेवली हुए जिन्होंने मिथ्यात्वरूपी मलको दूर कर शुद्ध बीतराग भाव प्राप्त किया। उनके पश्चात् ( ग्यारह अंगों तथा दशपूर्वोके ज्ञाता क्रमशः निम्नलिखित एकादश मुनि हुए) विशास्त्र, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नागसेन, सिद्धार्थ, धृतिसेन, विजय, बुद्धिल, गंग और निःशल्य धर्मसेन । इनके पश्चात् नक्षत्र, यशपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंस, ये पौत्र ग्यारह अंगधारी हुए । कंसके पश्चात् सुभद्र व यशोभद्र मुनि हुए जो आत्मजयी, जनसुखकारी, महान् तीनबुद्धि तथा गणधरके समान ज्ञानी थे॥२॥
३
प्रस्तुत ग्रन्थको पूर्व परम्परा यशोभद्रके पश्चात् भद्रबाहु तथा लोहाचार्य भट्टारक हुए। ये ( चारों आचार्य ) जगत्के सारभूत आचारांगके धारी थे। इन्होंने आचारांग शास्त्रका पूर्णज्ञान अपने मनमें धारण किया था, तथा शेष आगमोंका उन्हें केवल एकदेश अर्थात् संक्षिप्त. ज्ञान था। पूर्व कालमें जिस श्रुतज्ञानको शत्रुओंकी वधुओंको वैधव्य दिखलानेबाले ( शत्रु-विजयी ) राजा भरतने सुना था, वही राजपरिपाटीसे निरन्तर सुना जाता रहा और 'उसी धर्मको महा मुनिनाथोंने प्रकट किया। उन संसारके भयरूपी भारको दूर करनेवाले धर्मश्रोताओंमें सबसे पिछले राजा श्रेणिक हुए। आचार्य वीरसेन और जिनसेनने भी उस जैन शासनकी सेवा की जो मदरूपी पर्वतका वज्रके समान विनाशक है। उनके पश्चात् उसे नाना
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वौरमिणिवचरिउ [३. ३, १५पढिवि सुणिवि आयण्णिवि णिम्मलि ।। पयडिउ मामइएं इय महियलि 11 कम्म-क्लय-कारणु गणि-दिहउ । एवं महापुराणु भइ सिहर ॥ एत्थु जिणिद-मग्गि ऊणाहिट । युरि-विहीन साहिन !! तं महु खमहु तिलोयहु सारी । अरुहुग्गय सुयएवि भडारी ।। चलषीस वि महु कटुस-खयंकर |
देंतु समाहि बोहि तित्थंकर ॥ घन्ता-दुहु छिंद ज णदउ मुयणयलि णिरुवमु कण्ण-रसायणु ॥
आयपणउ मण्णउ ताम जणु जाम चंदु तारायणु ॥३||
२५
दरिसल मेह-जालु वसुझारहि। महि पिच्चर बहु-धणा-पयारहि ।। गंदउ सासणु वीर-जिणेसहु । सेणिउ णिग्गउ गरय-णिवासह ॥ लग्गड पहवणारंभहु सुरवइ ।
दउ पय सुह गंद णरवइ ।। जैवउ देसु मुहिक वियंभ3 1 जणु-मिच्छत्तु दुचित्त णिसुंभउ ।। पडिवष्णिय परिपालण-सूरहु । होउ संति भरहहु वर-वीरहु ॥ होज संति बहु-गुण-गणवंतहँ । संसह दयवंसहं भयवंतहूँ ।। होउ संति संतहु दंगइयहु । होउ संति सुयणहु संतइयहु ।। जिया-पय-पणमण-वियलिय-गन्वर ।
होउ संति णोसेसह भव्वाह् ।। घत्ता--इय दिव्वहु कम्वहु तणउ फलु लहु जिणणाहु परच्छड ।।
सिरि-भरहहु असाहु जहि गमणु पुरफयंतु तहि गच्छउ ॥४॥
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३.४.१८ ] हिन्दी अनुवाद रसोंसे जटित पद्धडिया छन्दमें महामन्त्रि भरतने लिखवाया । उसे पढ़कर, सुनकर व कानोंमें देकर मामैया द्वारा वही निर्मल महीतल पर प्रकट किया गया । गणधरों द्वारा उपदिष्ट यह पुराण कर्मक्षयका कारण है। इसी दृष्टि से मैंने इस महापुराणको सृष्टि की है । इस जिनेन्द्र मार्गके कथनमें मुझ बुद्धिहीन द्वारा जो कुछ कम या अधिक कहा गया हो उसे त्रैलोक्यको सारभूत अरहंत भगवान द्वारा प्रादुर्भूत पूज्य ध्रुतदेवी क्षमा .. करें ! ने नौबीसों तीर्थकर, जो मात्र पागोंकाक्षा करनेवाले हैं, मुझे समाधि और बोधि प्रदान करें। यह अनुपम कर्ण-रसोयनरूप रचना भुवनतल पर दुःखों का नाश करे और आनन्द उत्पन्न करे, तथा लोग उसे तब तक श्रवण और मनन करें जबतक आकाशमें चन्द्र और तारागण विद्यमान हैं ।।३॥
कविकी लोक-कल्याण भावना
मेघ-समूह यथासमय संपत्तिधाराओसे वर्षा करें । पृथ्वी प्रचुर धन-धान्यसे भरी रहे। वीर जिनेन्द्रका शासन जीवोंको आनन्ददायी हो। राजा श्रेणिक अपने नरक-निवाससे बाहर निकले और आगामी तीर्थकरके रूपमें देवेन्द्र उनकी अभिषेक-विधिमें लग जावें। समस्त प्रजा सुखसे आनन्द करे और शासकगण भी प्रसन्न रहें । देशभरमें आनन्द हो और सुभिक्ष फैला रहे । लोग अपने मिथ्यात्व और दुश्चिन्तनका विनाश करें । अपनी प्रतिज्ञाके परिपालनमें शुरवीर श्रेष्ठ सुभट भरतको शान्ति प्राप्त हो। नाना गुण-समूहोंके धारी दयावान् सन्त और मनियोंको भी शान्ति प्राप्त हो। मज्जन, दंगय्या और सूजन संतैयाको भी शान्ति मिले। शेष उन समस्त भव्योंको भी शान्ति मिले जिनका गर्व व अभिमान जिनेन्द्र भगवान्के चरणोंमें प्रणाम करनेसे दूर हो गया है। इस दिव्य काव्यको रचनाका फल जिनेन्द्र भगवान् मुझे शीघ्र प्रदान करें तथा मुझ पुष्पदन्त कविका गमन भी वहीं हो जहाँ श्री भरत और भगवान् अरहंत गये हैं ॥४॥
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४४
वीरजिणिवधरित
[३. ५.१
सिद्धि-षिलासिणि-मणहर-दूएं । मुद्धापवी-तणु-संभूएं। णिद्धण-सधण-लोय-समचित्ते । सब-जीव-णिकारण-मित्ते ।। सह-सलिल-परिवढिय-सोतें। केसव-पुत्ते कासव-गोनें । विमल-सरासइ-जणिय-विलासें। सुष्ण-भषण-देवलय-णिवासें ।। कलिमल-पबल-पडल-परिचत्ते । घिरेण गिप्पुत्त-कलते॥
इ-वावी-तलाय कय हाणें । जर-चावर-वकाल-परिहाणे ।। धीरे धूली-धूसरियगें। दूरयरुझिय दुजण-संगे। महि-सयणयले कर-पंगुरणें । मग्गिय-पंडिय-पडिय-मरणे ।। मण्णखेड-पुरवरि णिवसंते । मणि अरहंत-धम्मु झायते॥ मरह-मण्णणिज्ज पाय-णिलएं । कन्व-पबंध-जणिय-जण-पुलए ।। पुष्फयंत-कइणा चुय-पके । जह अहिमाणमेर-णामंके ।। कयउ कन्चु भत्ति परमत्थे । जिण-पय-पंकय-मलिय-इत्थें ।। कोहण-संवच्छरि आसाढइ ।
दहमइ दियहि चंद-सह-पढइ । घत्ता-णिह गिरहहु मरहहु बहुगुणहु कइकुलतिलएं भणियउ ।।
सुपहाणु पुराणु तिसहिहिं मि परिसह चरिउ समाणियउ ॥५॥ इय वीरजिणिदचरिए जिम्बाणगमणो णाम तहलो सन्धी ॥३॥
( महापुराण सन्धि १७२ से संकलित )
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३. ५. २८]
हिन्दी अनुवाद
कवि-परिचय इस पुराणकी रचना कश्यपगोत्रीय केशव भट्ट तथा मुग्धा देवीके पुत्र पुष्पदन्त द्वारा की गयी है। वे सिद्धिरूपी विलासिनीके मनोहर दूत हैं। उनकी चित्तवृत्ति निर्धन और धनी लोगों के प्रति समान रहती है। बे समस्त जीवों के निष्कारण मित्र हैं। उनके कान शब्दरूपी जलसे भरे हुए हैं। वे स्वच्छ निर्मल सरस्वतीका आश्रय लेकर प्रसन्न रहते हैं । वे शुन्य ग्रह या देवालयको अपना निवास बना लेते हैं। वे कलिकालकी मलिनताके प्रबल पटलसे रहित हैं। उनका न कोई अपना निजी घर है और न कोई पुत्र व स्त्री है। वे कहीं भी किसी नदी, कुए या तालाबमें स्नान कर लेते हैं और कैसे भी जीर्णवस्त्र या बल्कलको पहन लेते हैं। वे धूलिसे धूसरित अंग भी रह लेते हैं। वे धैर्यवान हैं और दुर्जनोंके । संगका दुरसे ही परित्याग करते हैं। वे भूमितलको ही अपनी दौया बना लेते हैं और अपने ही हाथका तकिया लगा. लेते हैं। वे पण्डित-पण्डितमरण अर्थात श्रेष्ठ मुनियों जैसे समाधिमरणको याचना करते हैं। उन्होंने इस उत्तम मान्यखेट नगरमें निवास किया व मनमें अरहन्त धर्मका ध्यान रखा। वे भरत मन्त्री द्वारा सम्मानित हुए। वे नय-निधान अपने काव्य-प्रबन्धकी रचना द्वारा लोगोंको रोमांचित कर देते थे। अपने मनोमालिन्यको दुरकर, भक्ति सहित परमार्थकी भावनासे जिनेन्द्रके चरणकमलोंमें हाथ जोड़कर प्रणामकर जगत्में अभिमान-मेरु नाम से विख्यात उन्हीं पुष्पदन्त कविने इस काव्यकी रचना की ओर उसे क्रोधनसंवत्सरके आषाढ़ मासके शुक्लपक्षको दशमी तिधिको पूर्ण किया।
इस प्रकार निःशेष पापोंसे रहित बहुगुणी भरतके निमित्त उक्तकविकुलतिलक पुष्पदन्त द्वारा वर्णित यह वेसठ-शलाका-पुरुष-चरित रूपी सुप्रधान पुराण समाप्त हुआ ||५||
इति पीर-जिनेन्न-वस्तिमें निर्वाणप्राप्ति विषयक
तृतीय संधि समास ॥३॥
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सन्धि ४ जम्बूसामि-पवजा
पाहिडिषि मंडिवि सयल महि
धम्में रिसि परमेसा । समिति हि विउलानिधि आयल
काले वीर-जिणेसह ॥ध्रुवक।। सेणिउ गउ पुणु वंदण-त्ति । समवसरणु जोयंतर भत्तिइ । पुणु मगहाडि भावें घोसइ। देव चरम केवलि को होसह ॥ भारह-वरिसि गणेसरु भासई। एहु सु विज्जुमालि सुरु दीसइ ॥ भूसिउ अच्छराहिं गुणवंबहि। विज्जुवेय-विज्जुलिया कंतहिं ।। पिक: सालि-छेत्तु जलिओ सिहि । मय-मत्त करिंदु बहु-मय-णिहि ।। देव-दिण्ण-जंबूहल-दायइ । इय सिविणय-दंसणि संजाय ॥ असहयास-बणियहु घण-थणियहि । सुरवरु जिणदासिहि सेहिणियहि ।। सत्तम-दिवसि गभि थाएसइ। जंबू सुरहु पुज्ज पावेसइ ।। . जंबुसामि णाम इहु होसह । तक्कालइ णिन्दुइ जाएसइ ।। वढमाणु पावापुर-सर-वणि । णिद्ध-णील-णय-वरंगुल-तणि ||
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सन्धि
४
जम्बूस्वामिकी प्रव्रज्या
राजा श्रेणिक द्वारा अन्तिम केवली विषयक
प्रश्न व गौतम गणधरका उत्तर
भगवान् महावीर विचरण करते हुए तथा अपने धर्मोपदेशसे समस्त जगत्को अलंकृत करते हुए यथा समय सुन्दर विपुलाचल पर्वतपर आकर विराजमान हुए । तब मगधके राजा श्रेणिक भक्तिपूर्वक उनकी वन्दनाके लिए गया और भगवान्के समोसरणके दर्शन किये। फिर मगध नरेशने धर्मभावसे प्रश्न किया हे देव, इस भारतवर्षमें अन्तिम केवलज्ञानी कौन होगा? इसपर गौतम गणधर बोले-हे राजन्, यह जो तुम अपने सम्मुख विद्युत्के समान कान्तिवान् और गुणवती अप्सराओं सहित विद्युन्माली देवको देख रहे हो, वही आजसे सातवें दिवस भरहदास सेठको उस जिनदासी सेठानीके गर्भमें उत्पन्न होगा जब वह पके हुए शालिक्षेत्र, जलती हुई अग्नि, मदोन्मत्त तथा बहुनसे मदसे आच्छादित हाथी और देव द्वारा दिये हुए जम्बूफलके उपहारको अपने स्वप्नमें देखेगी, तब उस स्वप्नके फलस्वरूप उनका पुत्र जम्बू देव द्वारा पूजा प्राप्त करेगा, और इस पृथ्वीपर उसका नाम जम्बूस्वामी होगा और वह उसी जन्ममें निर्वाण प्राप्त करेगा।
उसी समय स्निग्ध नीलवर्ण चौरानबे अंगुल ऊँचे शरीरके धारी भग- . वान् वर्धमान पावापुरके सरोवर युक्त वनमें ऐसे निर्वाणको प्राप्त होंगे, जो
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२५
५
४८
धीरजनिरि
तयहुँ जाएसइ मित्राणहु । अचलहु केवल-गाण-पहाणहु ||
पत्ता - इउँ केवलु अद्दणिम्मलु पाविषि समय सुहम्में || एक जि पुरु वोसिय सुरु आवेसमि हय-कम्मे ||१||
२
सुणि सेणिय कूणिउ तुह णंदणु । बोसम सुरणादणु ॥ जंबूसामिवि तहिं आवेसइ । ree - दिक्ख भन्ति मगेसह ॥ सयहिं सो पिज्जेसह मड्इ | यि पुरि सत्त-भूमि-धिय-मंडइ || तह पारंभव्व । ते विनिय-मणि अबद्देरिव्व ॥ सायरदत्त-तणय पोमावइ ।
अवर सुलक्खण सुर-गय-वर गइ || पोसिरिति कणयसिरि सुंदरि । वियसिरिति अवर वर घणसिरि || भवण-मज्झिमाणिक-पईवह । रचण-चुण्ण रंगावलि भाव || एहिं सहुँ तहँ अच्छा मणहरु । उष्णवियय व कंकण करु ।। बरु बहुहुँ करयलु करि ढोयइ । जगणितासु पछष्णु पलोयइ || तहि अबसर सुरम्म-देसंतरि । बिज्जराय सुड पोयणपुरवरि ॥ विज्जुहु णामें सुहडम्मणि । कुद्ध सो अरि-गिरि-सोदामणि || केण वि कारणेण णं दिग्गउ । णिय पुरु मेल्लिवि सहसा निभाउ ||
[ ४.१.२५
अणु कवाड उग्धादणु । सिक्षि लोय-बुद्धि- णिद्धाष्णु ||
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४. २. १६ ]
हिन्दी अनुवाद
४९
अचल है और केवलज्ञानप्रधान है। उस समय मैं अर्थात् गौतम गणधर अति निर्मल केवलज्ञान प्राप्त करूँगा और कर्मघाती गणधर सुधर्म सहित इसी देवोंको सन्तुष्ट करनेवाले राजगृह नगर में आऊँगा ॥१॥
२
स्वामी विवाह व गहमें चोर प्रवेश
P
गौतम गणधर कहते हैं कि है श्रेणिक, तुम्हारे पुत्र कुणिक को मैं संबोधित करूँगा और वह श्रुतज्ञान पाकर आनन्दित होगा । उसी समय जम्बूस्वामी भी वहाँ आवेगा और वह भक्तिपूर्वक अरहन्तदीक्षा माँगेगा 1 किन्तु उसके बन्धुजन उसे बलपूर्वक रोकेंगे और वह अपने नगर में सप्त भूमिप्रासाद अर्थात् सतखण्डे महलमें रहने लगेगा। फिर उसके बिवाहकी तैयारी की जायगी। किन्तु वह अपने मनमें उसकी अवहेलना करेगा तथापि सागरदत्त सेठकी पुत्री पद्मावती, देवगजगामिनी सुलक्षणा, पद्मश्री, सुन्दरी कनकश्री, विनयश्री, धनश्री भवन के मध्य माणिक्य प्रदीपके समान माणिक्यवती और रत्नोंके चूर्णसे निर्मित रंगावलीके समान सुन्दरी रंगावलि, इनके साथ वह वरके रूपमें नये कंकन बांधे अपना हाथ उठाकर उन वधुओंका पाणिग्रहण करेगा। उसी रात्रि जब उसकी माता चुपचाप देख रही थी, तभी उनके घरमें एक चोरने प्रवेश किया। यह चोर यथार्थंतः उसी समय सुरम्यदेशको राजधानी पोदनपुरके विद्युत्य नामक राजाका पुत्र था। उसका नाम विद्युच्चर था और वह सुभटोंका अग्रणी था। वह शत्रुरूपी पर्वतों के लिए बज्रसमान दिग्गज किसी कारणसे क्रुद्ध हो गया और अकस्मात् अपना नगर छोड़कर चला गया। उसने अदृश्य होने, कपाट खोलने तथा लोगोंकी बुद्धिको विनष्ट करनेकी विद्या
७
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धौरजिणिदचरित [४.२.१७विज चोरू णियाणाउ कहेपिणु ।
पंचसयाइँ सहायहं लेप्पिणु ॥ घत्ता-- बलवंतहि मंतहि ततहि गावित्र ढुक्कउ तकार ॥
अंधारइ घोरइ पसरियइ रयणिहि दूसिय-भवस्वरू ॥२।।
माणवेण उ केण वि दिटुर । अरुहदास-वणि-भवणि पइट्ठउ । दिट्टी तेण तेत्थु पसरिय-जस । जिणवरदासि णह-णिद्दालस ।। पुच्छिय कुसुमाले कि चेयसि । भगु भणु माइरि किं णा सोवसि ॥ ताई पबोल्लि उ महु सुड सुख-मणु । परइ बप्प पइसरइ तवोवणु पुत्त-
विओथ-दुक्खु तणु वाव। तेण णिह महु कि पि विणावइ ।। बुद्धिमंतु तुहुँ चुइ-विण्णायहि । एहु णिवारहि सुहडोवाहि ॥ . पई हउँ वंधत्रु परमु घियप्पमि । जं मग्गहि त दविणु समप्पमि || तं णिसुणिवि णिरुकु गउ तेत्तहि । अच्छइ सहुँ वहुयहिं वरु जेत्तहि ॥ जंपइ भो कुमार णउ जुज्जइ । जणु परलोय-ाहेण जि खिज्जड़।। गियडु माणइ दूरु जि पेच्छह । पल्लड़ तणु-मुपवि मह वंछह ।। णिवडिउ कक्करि सेलि सिलायर्याल । जिह सो तिह तुहुँ मरहिम शिफलि ।। तवि किं लग्गइ माणहि कण | ता पभणइ वरु तुहँ वि जि सुगणत्र ।। जीवहु तित्ति भो र विज्जद। इंदिय-सोक्खं तिट्टण छिज्जइ ॥
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४. ३.२६ 1
हिन्दी अनुवाद सीख ली एवं अपना नाम विद्युच्चोर रख लिया। वही अपने पांच सौ सहायकोंको लेकर तथा बलवान मन्त्र-तन्त्रोंका गर्व रखता हुआ रात्रिके घोर अन्धकारमें दूषित अन्नमयी नरकरके रूपमें जम घरमें पहुँचा ।।२॥
चोरको जम्बूस्वामीकी मातासे बातचीत और फिर
जम्बूस्वामीसे वार्तालाप अरुहृदास सेठके भवन में प्रवेश करनेपर भी उसे किसी भी मनुष्यने नहीं देख पाया । उस चोरने वहाँ यशस्विनी जिनदासी सेठानीको निद्रा और आलस्य रहित जागती हुई देखा । तब चोरने उससे पूछा कि हे माता, तुम जाग क्यों रही हो, सोती क्यों नहीं। सेठानीने कहा-मेरा शुद्धमन पुत्र अगले दिन तपोवनमें प्रवेश करेगा। यही पुत्रवियोग का दुःख मेरे शरीरको तप्त कर रहा है, और इसी लिए हे बाबू , मुझे तनिक भी निद्रा नहीं आती। तू बुद्धिमान है अतएव हे सुभट, किन्हीं बुद्धिमानों द्वारा जाने हुए उपायोंसे इसको रोक ले 1 मैं तुझे अपना परमबन्धु समझती हैं। अतएव यह काम कर देनेपर तू जितना धन मांगेगा मैं उतना ही दूंगी। सेठानीको वह बात सुनकर विद्युच्चोर उसी स्थानपर गया जहाँ अपनी वधओंके साथ वर बैठा था। वह चोर बोला-हे कुमार, यह तुम्हें उचित नहीं कि अपने परलोकके आग्रहसे तुम अपने स्वजनोंको खेद उत्पन्न करो। तुम निकट की बातको तो देखते नहीं, दूर की वस्तु देखते हो । जिस प्रकार हाथीका शावक निकटवर्ती पल्लव और तृणको छोड़कर ऊपर लगी हुई मधुकी इच्छा करता हआ कंकर-पत्थरोंसे पूर्ण शिलातलपर गिर कर मरणको प्राप्त होता है, उसी प्रकार तुम निष्फल अपना मरण मत करो । तपस्यामें क्यों लगते हो? इन कन्याओंसे प्रेम करो। इसपर वरने कहा—तू बुद्धिसे शून्य है। भोगसे जीवकी तुप्ति नहीं होती। इन्द्रिय-सुखोसे उसकी तृष्णा नहीं बुझाती ।
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धौरजिशिवचरित [४. ३. २७धत्ता-ता घोरें चोरें बोल्लियउ सवरें विद्धउ कुंजर ।।
सो भिल्लु ससल्लु दुमासिाय फणिणा दट्टउ दुद्धरु ।।३।।
तेण वि सो त मारिउ विसहरु । मुउ करि मुउ सबरुल्लु धणुद्धरु ।। तेत्थु समीहि वि मासाहारउ । तहि अवसरि आयउ कोट्ठारउ ।। लुद्धर णिय-तणु-लोहें रंजइ। चाव-सिंथणाऊ किर भुंजइ ।। तुट्ट-णिबंधणि मुहरुह मोडिइ । तालु विहिष्णु सरासण-कोडिइ ।। मुउ जंबुउ अइतिइ भग्गः। जिह तिह सो परलोयहु भग्गउ ।। म मरु म मरु रइ-सुहु अणुहुंजहि । भणइ तरुणु तक्कर पडिवजहि || सुलह ई पेच्छिवि विविहई रयण।। गड पंधिउ दंकिवि णिय-गयणई ।। जिणवर-वयणु जीउ उ भाव । संसरंतु विविहावइ पावह ।। कोहें लोहें मोहें मुज्झइ। अट्ट-पयारे कम्में बज्झइ॥ कहइ थेणु एक्केय सियालें। मास-खंड छडिवि तिहालें। तणु घल्लिय उपरि परिहन्छहु । तीरिणि-सलिलुच्छलिंग्रह मच्छहु ॥ आमिसु गहियउ पविखणि-णा। सो कड्ढिवि णिउ सलिल-पवाहें । मुज गोमाउ मच्छु जलि अच्छिञ्च । ता लंपेक्स्यु वरें णिमपिछउ ।। चणियह पंथि को वि सुह सुत्तउ । रयाण-करंडउ तहु तहि हित्तः ।।
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८. ४. २८
हिन्दी अनुवाद
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जम्बूस्वामीकी इस बातपर उस घोर चोरने कहा- किसी एक शबरने अपने बाणसे एक हाथीको बेधा । उस बाणधारी दुर्धर, दुष्ट भिल्लको वृक्ष-वासी सर्पने इस लिया ॥ ३ ॥
जम्बूस्वामी और विद्युच्चर चोरके बीच युक्तियों और वृष्टान्तों द्वारा बाद-विवाद
इसपर उसने सीपको भी मार डाला। इस प्रकार वह हाथी भी मरा, धनुर्धारी शबर भी मरा और सर्प भी । उसी समय एक श्रृंगाल मांसाहारकी इच्छासे वहाँ आया। उस लोभीने उस धनुषकी प्रत्यंचा रूप स्नायुको खाना प्रारम्भ किया और वह अपने ही शरीर के रक्तसे प्रसन्न होने लगा । धनुषके छोरोंसे बन्धन टूट जानेके कारण शृगालके दाँत मुड़ गये और तालु छिद गया। इस प्रकार अपनी अति तृष्णा के कारण बेचारा शृगाल भी मारा गया । इसी प्रकार उसकी दशा होती है जो परलोकके पीछे दौड़ता है । अतएव मरो मत! भोग-विलास के सुखका उपभोग करो। इसपर युवक ने कहा- हे चोर, सुन ! एक पथिकने मार्ग में नाना रत्नों को देखा। उनको सुलभ जान वह अपने नेत्रोंको ढाँककर इसलिए आगे चला गया कि इन्हें कोई दूसरा न देख पाये और मैं लौटते हुए इन्हें लेता जाऊँगा । किन्तु लोटनेपर उसे वे रत्न नहीं मिले। इसी प्रकार जिनेन्द्रके वचनरूपी रत्न जिस जीवको नहीं भाते बहु संसारमें भ्रमण करता हुआ नाना प्रकारकी विपत्तियाँ पाता है । वह क्रोध, लोभ, और मोहसे मूढ़ बनकर आठों प्रकारके कर्मबन्धन में पड़ता है। तब चोर कहता है - एक श्रृंगाल मांसका टुकड़ा लिये हुए नदी पार जा रहा था | उसने देखा कि उस वेगवती नदीके पानी में एक मत्स्य अपने शरीरको ऊँचा कर उछल रहा है। उसकी तृष्णावश श्रृंगालने अपने मुँहके मांसखण्डको छोड़कर मत्स्यको पकड़नेका प्रयत्न किया | मत्स्य मुँहमें न आया । किन्तु उसके मुखसे छूटे मांस खण्डको एक गृद्ध झपटकर ले उड़ा । श्रृंगाल स्वयं जलके प्रवाह में बहकर मर गया और मत्स्य जलमें जीवित बच गया । इसपर बरने चोरकी पुनः भर्त्सना की और कहा – एक वर्णिक मार्ग में सुखसे सो गया, और वहीं उसके रत्नोंकी पिटारीको कोई चुरा
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१०
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योर जिfवचरिज
वणि तुम्हारिसेहिं अण्णामहिं । सो कुसी कहिंसिय पाहिं ॥
[ ४.४.२९
घत्ता - दुःपेक्खें दुक्खें पीडियउ वणिवइ आवइ पत्तउ | जिण-वय रयणें वज्जियउ जीउ वि परह गित ||४||
गड पाविदु उम्मग्गे । त्रिसय कसाय- बोर-संसर्गे ॥ तं आणिवि-पर-वण-हारें । उत्तर विष्णु बुद्धि-वित्थारे !! सासुय कुद्ध सुग्रह् हणालइ | मरण - काम डिट्ठी तर मूलइ ॥ णिसुणि सुवण्णदारु पाउहिए । आहरणहु लोहे मह-रहिएं ॥ मरणोवाउ सिद् धवलच्छिहि । गय-मयणहि घर-पंकय लिहि ॥ महल पाय दिष्णु गल्लि पासव | तग्णिबाइ सुख दुर दुरासउ ॥ सो मुख जोइवि णीसासुहइ ।
-गमगु पडिवण्णव सुहइ || जिह सो मुड - कंकण-मोहें । तिह तुहुँ म मरु मोक्ख -सुह-लोहें ।। भइ कुमार धुत्त ललिश्रंगल । एक्कहिं यरि अस्थि रह-रंग ॥ तं जयंति का वि मणि- मेहल | कय मय महवि विसंठुल ॥ आणि धाइ पच्छिमदारें । tas रमित्र सुणिउ परिवारें ॥ राएं जाउ सो हिक्काविउ | असुर-पवणि विवरि घल्लाविव ।। किमि खजंतु दुक्खु पावेष्पिणु । उसी रयहु पाणमुपप्पिणु ।।
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४. ५. २६ ] हिन्दी अनुवाद ले गया। उसी वनमें तुम्हारे समान अज्ञानी प्राणि-हिंसकोंने उस वणिक को कुशील बना दिया और वह आपत्तिमें पड़ कर घोर दुःखोंसे पीड़ित हुआ । यही दशा होती है उस जीवकी जो जिन-वचन रूपी रत्नोंसे रहित होकर नरकमें पहुँचता है ।।४।।
दृष्टान्तों द्वारा वाद-विवाद घालू विषय और कषाय रूपी चोरोंके संसर्गसे जीव उन्मार्ग-मामी, पापी और दुष्ट बन जाता है। जम्बूस्वामीकी यह बात सुनकर उस पराये धनका अपहरण करनेवाले चोरने अपने बुद्धि-विस्तारसे इस प्रकार उत्तर दिया-कोई एक पुत्रवधू अपनी साससे क्रुद्ध होकर वनमें गयी और वहाँ वृक्षके मूलमें आत्मघातकी इच्छा करने लगी। इस अवस्थामें उसे सुवर्णदारु नामक एक मृदंग बजानेवालेने देखा। इसकी बात सुनकर उस मुर्खने उसके आभूषणोंके लोभसे उस घरकी कमल-लक्ष्मी धवलाक्षी काम-रहित जीवनसे विरक्त हुई महिलाको मरनेका उपाय बतलानेका प्रयत्न किया। उसने अपने मृदंगपर पैर रखकर वृक्षसे लटकते हुए पाशको अपने गलेमें डाला किन्तु इसी बीच वह मृदंग फिसलकर गिर गया और वह दुष्ट दुराशय फाँसीसे लटककर मर गया ! उसको मरा देखकर उस पुत्रवधूने उष्ण निःश्वास छोड़ते हुए घर लौट जाना उचित समझा। जिस प्रकार वह मृदंगबादक उस वधूके धन-कंकन आदिके मोहसे मर। बसे ही तू मोक्षसूखके लोभसे मत मर।
कुमारने उत्तर दिया-एक ललितांग धूर्त क्रिसी नगरमें रहता था और राग-रंगमें आसक्त था । इसको देखकर राजाकी मणिमेखला-धारिणी एक रानी काम-पीड़ासे विह्वल हो उठी। उसने अपनी यात्रीके द्वारा उसे पश्चिम द्वारसे बुलवा लिया और उसके साथ रमण किया। यह बात परिवारको ज्ञात हो गयी और राजाको उसकी सूचना मिल गयी 1 तब रानी ने उमको छिपानेके लिए अपने अशुचि मलसे पूर्ण शौच-स्थानमें हलवा दिया। वहाँ कोड़े उसे खाने लगे और वह दुःख पाते हुए प्राण
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धोरजिणिदचरिउ [४.५.२७जिह सो तिह जणु भोयासत्तउ ।।
मरइ बाप णारि-यगड रत्तर ।। धत्ता-णिय-इच्छइ पच्छइ भीरुयह जीवहु वेय-समग्गउ ।।
गासंतहु अंतहु भव-हणि मच्चु-गाम करि लग्गउ ||५||
णिवडिउ जम्म-कूद विहि-विहियइ । कुल-तम-मूल-जाल-संपिहियइ ।। लंबमाणु परमाउसु-वैल्लिहि । पंचिंदिय-महु-बिंदु-मुल्लिाहि ॥ काले कसण-सिपाहि विहिपणी। सा दियहुंदुरेहिँ विच्छिण्णी ।। णिवडिउ णरय-भीम-विसहर-मुहि । पंच-पयार-घोर-दाविय-दुहि ।। इय आयपिणवि तह आहासिउ । सम्वहि धम्मि स-हियाउ णिवेसिउ ।। जणणिइतक्करण वर-कण्णहि । मरगय-मणहर-कंचण-यण्णहि ।। ता अंबरि उग्गमिउ दिवायरु । जंबूदेउ परराइड सायरु ।। कूणिरण राएं गयनामिहि । णिक्खवणाहिसेउ किउ सामिहि ।। सिवियहि रयण-किरण-विप्फुरियहि ।
आरूढाउ यर-मंगल-भरियहि ॥ णाणा-सुर-तरु-कुसुम-पसत्थइ । विउलि विजल-धरणीहर-मत्थई ।। बंभण-वणियहिं पत्थिव-पुत्तहिं । पुत्त-कलत्त-मोह-परिचत्तहि ।। विज्जूचोरें समउ स-तेयउ ।
चोरहँ पंच-सएहि समयउ॥ णिचाराहिय-वीर-जिणिदहु। पासि सधम्म? धम्माणंदङ ।
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४. ६. २६ ] हिन्दी अनुवाद छोड़कर नरकको गया । जिस प्रकार वह धूर्त भोगासक्त होनेके कारण इस विपत्तिमें पड़ा, वैसे ही स्त्रीके प्रेममें अनुरक्त हुआ मनुष्य मरणको प्राप्त होता है।
एक भीरु मनुष्य भवरूपी वनमें जा रहा था। उसके पीछे स्वेच्छारो मृत्यु नामक वेगवान् हाथी लग गया। उसके भयसे वह जीव भाग खड़ा हुआ ||५11
जन्मकूपका दृष्टान्त व जम्बूस्वामी तथा विद्युम्चरको प्रवज्या भागते-भागते वह एक विधि-विहित जन्मरूपी कूपमें जा गिरा जो कूलरूपी वृक्षकी जड़ोंके जालसे आच्छन्न था। कुपके मध्यमें ही वह उत्कृष्ट आयुरूपी बल्लीसे लटक गया। वहाँ उसे पंचेन्द्रिय रूपी मधुके बिन्दुका सुख प्राप्त हुआ । किन्तु उस बेलिको काल द्वारा कृष्ण और श्वेत वर्णोंसे विभिन्न रात्रि और दिवसरूपी चूहोंने काट डाला। उस बेलिके कटनेसे वह जीव नरकरूपी भयंकर सर्पके मुखमें जा पड़ा, जहां उसे पाँच प्रकारके घोर दुःखोंको भोगना पड़ा। कुमारके इस दृष्टान्तको सुनकर उन सभी श्रोताओं, अर्थात् कुमारकी माता, चोर और मरकत-मणि तथा सुवर्णके समान मनोहर-वर्णवाली उन श्रेष्ठ कन्याओंकी धर्ममें श्रद्धा उत्पन्न हो गयी। इसी समय आकाशमें सूर्यका उदय हो गया और जम्बूस्वामी घरसे निकल पड़े। राजा कुणिकने गजगामी जम्बस्वामीका निष्क्रमण-अभिषेक किया। कुमार रत्नोंकी किरणोंसे स्फूरायमान तथा श्रेष्ठ मंगल द्रव्योंसे भरी हुई शिविका (पालको ) में आरूढ़ हुए। वे तेजस्वी कुमार नाना कल्पवृक्षोंके पुष्पोंसे शोभायमान विपुलाचल पर्वतके मस्तकपर पहुंचकर, अपने पुत्र और स्त्रियोंके मोहका परित्याग करनेवाले ब्राह्मण, वणिक तथा क्षत्रिय पुत्रों सहित एवं उस विद्युच्चोर तथा उसके पाँच सौ साथी चोरों सहित वीर जिनेन्द्रके पास धर्मनन्दी सुधर्माचार्यसे
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धौरजिणिवचरित पत्ता-तउ लेसइ होसइ पर जइ होएप्पिणु सुयकेवलि ।।
हय-कम्मि सुधम्मि सुणिन्वुयह जिण-पय-विरइय-पंजलि ||६||
पत्तइ बारहमइ संवच्छरि। चित्त-परिहिह वियलिय-मन्टरि ।। पंचमुणाणु पट्हु पावेसइ। भवु णामेण महारिसि होसइ ॥ तेण समउ महिनलि बिहरेसइ । दह-गुणियर चत्तारि कहेसइ ।। वरिसई धम्मु सव्व-भवोहहूँ। विद्धंसिय-बहु-मिछा-मोहहूँ । अंपिाको ति होला महु पहु-वंसहु उण्णइ होसइ ।।
इय वीरजिणिदचरिए जम्बूसामि-पवजावण्णणो
णाम चउत्थो संधि ॥४॥
( महापुराणु संधि १०० से संकलित )
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४. ७. १० ] हिन्दी अनुवाद तप ग्रहण करेंगे, वा श्रेष्ठ यति होवेंगे और फिर सुधर्म आचार्यके कर्मोंका विनाश कर निर्वाण प्राप्त कर लेनेपर, वे जिनेन्द्र भगवान्के चरणों में हाथ जोड़कर श्रुतकेवली होवेंगे ।।६।।
जम्बूस्वामीको केवलज्ञान-प्राप्ति इसके पश्चात् बारहवां वर्ष आनेपर वे अपने मनको समाधिमें स्थित कर रागद्वेष रहित होते हुए पंचमज्ञान अर्थात केवलज्ञानको प्राप्त करेंगे। उनके शिष्य भव नामक ऋषि होवेगें। उसके पास जम्बूस्वामी महीतलपर बिहार करते हुए दश गुणित चार अर्थात् चालीस वर्ष तक समस्त भव्य जीबौंको धर्मका उपदेश देवेंगे, और उनके मिथ्यात्व और मोहका विध्वंस करेंगे। इस प्रकार जम्बूस्वामी अन्तिम केवली होवेंगे और मेरे विशालवंश रूपी शिष्य-परम्पराकी उन्नति होगी। .
इसि जम्बूस्वामि-प्रवज्या विषयक चतुर्थ सन्धि समाप्त
सन्धि ॥ ४ ॥
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संधि चंदणा-तवगणं
पभणइ महियल-णाहु गय-मिच्छत्त-तमंधहि ।। अणु चंदगाह भवाई सुरहिय-चंदण-गंधहि ।। संघिसुगेविण मास गुणिया । सुणि सेणिय अक्खमि तुह घइयरु ।। सिंधु-विसइ वइसाली-पुरवरि । घर-सिरि-ओहामिय-सुर-वर-घरि ।। चेड़उ णाम णरेसरु णिवसइ । देवि अखुद सुहद्द महासइ ।। धणयत्त धणभदु उविंदउ | सुहयत्तउ हरियत्तु णियंगउ || कंभोयउ कंपणउ पयंगउ। अवर पहंजणु पुत्तु पहासा ।। धीयउ सत्त रूवाघिण्णासउ ।। सेयंसिणि सूहव पियकारिणि । अवर मिगावइ जण-मण-हारिणि ।। सुप्पह देवि पहावइ चेलिणि । बाल-मराल-लील-गइनगामिणि ।। जेह विसिह भडारी चंदण। रूव-रिद्धि-रजिय-संकंदण ।। पियकारिणि वर-माह-कुलेसहु । सिद्धत्थहु कुडउर-परेसहु || दिपण सयाणीयस्स मिगावइ । सोम-वंस-रायहु मंथरगइ ।। सूर-वंस-जायहु ससि-यर-गह । दसरह-रायगु दिपणी सुष्पह ॥
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सन्धि
५
चन्दना-तपग्रहण
राजा चेटक, उनके पुत्र-पुत्रियों तथा चित्रपट
धराधीश श्रेणिकने पूछा-हे भगवन , मुझे उस आर्यिका चन्दनाका चरित्र सुनाइए,जिसके शरीरमें चन्दनकी सुगन्ध है तथा जिसने मिथ्यात्वरूपी अन्धकारको दूर कर दिया है। राजाके इस प्रश्नको सुनकर गौतम मुनिवरने कहा हे श्रेणिक, मैं चन्दनाका वृत्तान्त कहता हूँ, तुम सुनो। सिन्धु-विषय ( नदी-प्रधान विदेह नामक प्रदेश ) में वैशाली नामक नगर है जहाँके घर अपनी शोभासे देवोंके विमानोंकी शोभाको भी जीतते हैं । उस नगरमें चेटक नामक नरेश्वर निवास करते हैं। उनकी महारानी महासती सुभद्रासे उनके धनदत्त, धनभद्र, उपेन्द्र, शिवदत्त, हरिदत्त, काम्बोज, कम्पन, प्रयंग, प्रभजन और प्रभास नामक पुत्र हए । उनकी अत्यन्त रूपवती सात पुत्रियाँ भी हुईं जिनके नाम हैं, श्रेयांसिनी सुभमा प्रियकारिणी, जनमनोहारिणी मुगावती, सुप्रभा देवी, प्रभावती, चेलिनी बालहंसलीलागामिनी ज्येष्ठा और विशेष रूपसे पूज्य चन्दना । ये सभी कन्याएं अपनी रूपऋद्धिसे इन्द्रके मनको भी अनुरक्त करती थीं। प्रियकारिणीका विवाह श्रेष्ठ नायवंशी कुण्डपुर नरेश सिद्धार्थके साथ कर दिया गया। मंदगामिनी मृगावती, कौशांबीके सोमवंशी राजा शतानीक को ब्याह दी गयीं । चन्द्र किरणोंके समान चमकीले नखोवाली सुप्रभाका विवाह सूर्यवंशमें उत्पन्न दशरथ राजाके साथ हो गया। उर्वशी और
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वोरजिणिवचरित [५. १. २६उद्दायाणहु पहावइ राणी । विशाली उपासना महिउरि काम-वाण-परिहहउ । अलहमाणु अवरु चि आम्हा ।। जेहि कारणि सकचइ णामें । आयाउ जुज्झहु दुष्परिणामें । पदउ आइ वि चेड़य-रायहु । को सका करवाल-णिहायहु ।। अइ-दूसह-णिन्वेषं लइयाउ । दमवर-मुगिहि पासि पवढ्याउ ।। अण्णहि दिणि चित्तयरें लिहियाई । रूवई बर-पटुंतर-णिहियई ।। काम-विलास-विसेसुम्पत्तिहि । जोइयाई राएं णिय-पुत्तिहि ।। पडिउ बिंदु चेलिणि-ऊरूयलि | विट्ठल कयली कंदल-कोमलि ॥ तायें तोडु कयउ विवरेरउ । चित्तयरें बोल्लिड सुइ-सारउ ।। एवं विणु पडिबिंबु ण सोहइ । धाइ जाम ऊरुत्थलु चाहइ । ता दिहाउ तहि लंछणु एयइ।
अखिउ रायहु जाय-विवेयइ ।। घत्ता-ता संन्द गरिंदु गउ रायहरहु लीलइ ।।
जिण-पडिबिंबहँ पासि पडु संणिहिउ धणालइ ॥१॥
दिउ पडु पई पुच्छिय किंकर । तेहिं पवुत्तः बरि-भयंकर ।। एयई लिहियई विणय-विणीयह। विचई चेडय-महिवा-धीयह् ।। चउहुँ विवाह हुयट विहुरंतउ ! तीहि मज्झि ढो जोवणवंतउ ।।
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-५. २. ६ ]
हिन्दी अनुवाद रम्भाके समान प्रभावती उद्दायन नरेशकी रानी हुई। किन्तु महीपुरका राजा सात्यकि कामके बाणसे प्रेरित होते हुए भी उन कन्याओंमें से किसीको न पाकर रुष्ट हो उठा और वह दुर्भावनाके वश ज्येष्ठाको बलपूर्वक प्राप्त करने हेतु उसके पितामे युद्ध करने आ पहुँचा। किन्तु बह युद्धमें चेटक राजासे पराजित होकर भाग गया। कौन ऐसा है जो चेटक राजाके खड्गकी मारको सह सके ? इस पर राजा सात्यकि अत्यन्त दुस्सह विरक्ति के वश होकर दमवर मुनिके पास प्रवजित हो गया।
एक दिन राजा चेटकके पास एक चित्रकार आया और उसने राजकूमारियोंके सुन्दर चित्रपट बनाये। राजाने अपनी पुत्रियोंके उन चित्रोंको देखा जो अपने सौन्दर्यसे काम-बिलासकी भावनाको उत्पन्न करते थे। किन्तु उन्होंने देखा कि कदली-कंदल समान कोमल चेलिनी की जंघापर एक स्याहीका बिन्दु पड़ा है। उसे देख चलिनोंक पितान' अपना मुख फेर लिया। चित्रकारने राजाकी मनःस्थिति जान ली। उसने चित्र-शास्त्रके मर्मकी बात बताते हुए राजासे कहा-हे महाराज, इस बिन्दुके बिना यह चित्र शोभायमान नहीं होता। इसी बीच धात्रीने जाकर चेलिनी राजकूमारीके जंघा-स्थलका निरीक्षण किया और उसके वहाँ भी तिलका काला बिन्दु देखा। तब उस विवेकशालिनी धात्रीने आकर यह बात राजासे कही। इसपर नरेन्द्र बहत रुष्ट हो उठे। उनके क्रोधसे भयभीत होकर यह चित्रकार चुपचाप वैशाली नगरसे निकल भागा । वह राजगृह पहुंचा और वहाँ उसने राजकुमारी चेलनाके चित्रपट को राजाके उद्यान मन्दिरमें जिन-प्रतिबिम्बके पास रख दिया ॥१॥
राजा श्रेणिकका चित्रपट देखकर चेलनापर मोहित होना
__ और उसका राजकुमार द्वारा अपहरण गौतम गणधर राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि हे राजन्, तुमने उस चित्रपटको देखा और उसके विषयमें अपने किंकरोंसे पूछा। उन्होंने बतलाया-हे शत्रु-भयंकर नरेश, ये चित्रबिंब चेटक राजाकी विनयशील पुत्रियोंके लिखे गये हैं। इनमेंसे प्रथम चारका विवाह हो चुका है, किन्तु उनसे लघु तीन से दो यद्यपि यौवनको प्राप्त हो गयी हैं, तथापि अभी तक
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वीरजिणिवरित [५. २.७अज्ज घिणिव दिज्जति ण कासु यि । एक कण सहई खल-तम-रवि ।। ते वयणेण भयाण-सर-वणियउ। दाँ तु तिहिं सुइ दिन हा हा हे कुमार तुह तायडें । बढ३ कामायस्थ सरायडु ।। चेडय-धीयहि अइ-आसत्तउ । सूरु व दिद्विनाम्मु अइमत्तड ।। ससुरु ण देश् जुण्ण-वयवंतह। वट्टइ अवसरू मइ-दिहिवंतहु ।। ता कुमरे तुह रूवे किउ पडु । तं णिवासु लेविष्णु गउ भडु पडु ॥ पंडिउ वीर-णिय-कय-वेसउ । आयउ कण्ण उणय-यय-वेसउ || पुच्छिउ ताहि लिहिउ ते भाणि । किंण मुणह मगहाहिउ सेणिउ ।। ता दोह मि कण्णहूँ मय-मत्तई। पेम्म कुसुभई रत्तई गेत्तई।। कुडिलाइ चेलिणीइ सर-रुद्धद । कपडे इट्ट जेट्ट रइ-लुद्धइ । भणिय जाहि आहरण लएप्पिणु । आवहि लहु वच्चहुँ ल्हि कपिणु ।। लम्गहुँ गलकंदलि मगहेसहु ।
अलि-जल णील-णिद्ध-मउ-केसहु ।। घत्ता-आहरणाई लावि जा पडिआवइ बाली।
ता तहिं ताश णं दिट्ट चेलिणि मयणमयाली ।।२।।
बहिणि-विओय सोय-संतत्ती । खंतिहि जसमईहि उपसंती ।। पाय-मूलि तवचरणु लएप्पिा । थक जेट इंदियाई जिणेप्पिगु॥
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५. ३. ४ ]
हिन्दी अनुवाद उनका किसी के साथ विवाह सम्बन्ध नहीं हुआ। हे खलरूपी अन्धकारके सूर्य, सबसे छोटी कन्या ( चन्दना) अभी भी अबोध है। अपने किंकरोंके इन वचनोंसे तुम मदनके बाणसे आहत हो गये । तब तुम्हारे मन्त्रियोंने तुम्हारे पुत्रसे कहा-हाय, हाय, हे कुमार, तुम्हारे पिता कामासक्त होकर इस अवस्थाको प्राप्त हुए हैं। वे राजा चेटककी पूर्वीपर अत्यन्त आसक्त होकर ऐसे अनुरक्त दिखाई देते हैं जैसे सूर्य अत्यन्त रक्तवर्ण होकर सबके दृष्टिगोचर हो जाता है । किन्तु उनके प्रस्तावित श्वसुर अर्थात् राजा चेटक उन्हें इस कारण अपनी कन्या नहीं देना चाहते, क्योंकि वे आयुमें बृद्ध हो चुके हैं। यह अवसर हैं जब तुम अपनी बुद्धि और धैर्यका अच्छा परिचय दे सकते हो । गौतम मुनि राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि हे राजन, मन्त्रियोंकी उक्त बातको सुनकर राजकुमारने तुम्हारा चित्रपट बनवाया। चित्रपट बन जानेपर एक भट उसे कुमारके निवासस्थानपर ले गया। फिर वह राजकुमार पण्डित वोद्र ( बैल लादने वाले ? ) वणिक्का वेश बना कर वैशाली नगरमें पहुँचा। राजकन्याओंने चित्रपटमें लिखित नवबयस्क तथा सुन्दर वेषयुक्त पुरुषको देखकर उसके सम्बन्धमें पूछताछ की। तब वणिक-वेषधारी राजकूमारने कहा-क्या आप नहीं जानती कि ये मगधके नरेन्द्र श्रेणिक हैं। यह सुनकर उन दोनों कन्याओंके नेत्र मदोन्मत्त हो उठे और प्रेमरूपी केगरसे रंजित हो गये । दोनों बहिनोंमें चेलिनी अधिक चतुर थी। उसने कामसे पीड़ित तथा रति से लुब्ध होकर बहिन ज्येष्ठासे छलपूर्वक कहा-आप अपने निवासपर जाकर आभूषणोंको ले आइए, तब हम दोनों यहाँसे चपचाप छिपकर निकल चलेंगे, तथा भ्रमर समूहके समान नील और स्निग्ध तथा मृदु केशोंसे युक्त मगधेशके गलेमें लगकर उनका आलिंगन करेंगे। किन्तु जन ज्येष्ठा आभूषण लेकर लौटी तब उसने वहाँ मदनोत्सुक चेलिनोको नहीं देखा ॥२॥
ज्येष्ठाका वैराग्य, चेलिनी-श्रेणिक विवाह तथा चन्वनाका मनोवेग विद्याधर द्वारा अपहरण व इरावती
के तोरपर उसका त्याग अपनी बहिनके वियोगके शोकसे संतप्त होकर ज्येष्ठा यशोमति नामक आर्यिकाके समीप जाकर उपशान्त हुई और उन्हीसे तपश्चरणकी दीक्षा
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घोरजिणिवचरित [ ५. ३. ५चेलिणि पुणु तुह पुत्तें ढोइय । पर स-सणेहें णिरु अवलोइय ॥ परिणिय सुंदरि जय-जय-सहें। घर आणिय दइयेण सहहें। तहि महएवी-पट्ट णिबद्ध । सा रइ तुहुँ णावइ मयरद्धउ ॥ ताहि सुखंतिहि पासि णिहालिउ । चंदणाइ सावय-वज पालिउ ॥ सहुँ सम्मत्त चार गुणड्डय। दाहिण-सेडिइ गिरि वेयड्ड । सोवण्णाहर पुरि मणवेयउ। विहरमाणु णहि परिणि-समेयर ।। आयउ उववणि णिच्च-वसंतई । दिट्ठी चंदण चंदणचंतई ।। णियय-धरिणि णिय गेहे थचेपिणु । पडिआवेप्पिणु कण लएप्पिणु ।। सो जा गच्छद पुणु णिय-भवणष्ठ । आलोयणिय दिट्ट ता गयणहु ।। अवयरंति आहास वइयरु । देबिई तुहँ जाणिउ मायायर ॥ तुज्झु विज्ज कय-रोस-णिहाएं। ताडिय देवय वाम पाएं। एवहिं किं कुमारि पई चालिय । अच्छा कोव-जलण-पजालिय ।। णिच्चमेय हियवद संकंतहि ।
तं णिसुणिवि सो भीयउ कंतहि ।। घत्ता-भूय रमण-वण-मज्झि पवर-इरावइ-तीरइ ।।
साहिय तेण खगेण विज्ज फीसर केरह ।।३।।
पत्तलय णामेण णिहिती। ताह पुत्ति संपत्त धरिती ॥
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६७
५.४.२] हिन्दी अनुवाद लेकर इन्द्रियोंको जीतते हुए उन्हींके चरणोंमें रहने लगी। उधर चेलिनीको तुम्हारा पुत्र राजगृह ले आया और उसका तुमने अत्यन्त स्नेहभावसे अवलोकन किया। तुमने जय-जय घोषके साथ उस सून्दरीका परिणयन कर लिया और सौहार्दपूर्ण भाग्यसे उसे अपने घर ले आये। तुमने चेलनाको महादेवी पदपर प्रतिष्ठित किया। इस प्रकार वह रति और तुम कामदेवके समान सुखसे रहने लगे।
उधर चेटककी सबसे लहुरी पुत्री चन्दनाने धर्मभावसे प्रेरित होकर सुक्षान्ति नामक आर्यिकाके.समीप थावक व्रत ग्रहण कर लिया। सम्यक्त्व भावसे सुन्दर गुण-प्रचुर वेताढ्यगिरिकी दक्षिण श्रेणीमें स्थित सुवर्णनाभ नामक पुरीमें मनोवेग नामक विद्याधर रहता था। एक दिन वह अपनी गृहिणीके साथ आकाशमें विहार करता हुआ उस उपवनमें आया जहाँ नित्य ही वसन्त ऋतु रहा करती थी और जहाँ चन्दनके वृक्षोंकी सुगन्ध रहती थी। वहां उसने चन्दना कुमारीको देखा। देखने ही उसने वापिस जाकर अपनी गृहिणीको तो अपने घरमें जा छोड़ा और पुनः उसी उपवनमें आकर कन्याका अपहरण कर लिया। उसे लेकर जब वह अपने घरको पुनः जाने लगा तब उसने आकाशसे उतरती हुई आलोकिती विद्यादेवीको देखा। देवीने उससे बात कही कि देवी ( तेरी पत्नी मनोवेगा ) ने तुम्हें मायाचारी जान लिया है, और रोषपूर्ण होकर तरी विद्याको अपने बायें परसे ठुकरा दिया है 1 तुमने इस प्रकार इस कुमारीको क्यों अपहृत किया ? इसीलिए तेरी गृहिणी कोपाग्निसे प्रज्वलित हो रही है । यह सुनकर मनोवेग नित्य अपने हृदयमें विराजमान रहनेवाली अपनी कान्तासे भयभीत हो उठा। उस विद्याधरने विशाल इरावतीके तीर पर स्थित भूतरमण नामक वनके बीच फणीश्वर (नागेश्वर या गरुड) की विद्याको सिद्ध किया ॥३॥
चन्दनाका वन त्याग, भिल्लों द्वारा रक्षण तथा
कौशाम्बीके सेठ धनदत्तके घर आगमन ! मनोवेगने पत्रलघु नामकी अपनी उसी विद्याके बलसे चन्दनाको उक्त वनमें फेंक दिया और वह उसीके प्रभावसे भूमितलपर उतर गयी।
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वीर जिणिचरिउ
पंचक्खर हूँ चितिं विज्झाय | धम्म-माणु णिम्मलु उपाय || वियलिय जिस उगमिड पयंगड । वायरु एक पत्तु सामंग ॥ नामें कालु तासु जिण वयण हूँ । साहियाई मुद्ध जग-सयण हूँ ।। अणु तिहु दिई आहरणहुँ । पहत दियर किरण हूँ | से तुझें यि सुंदरि तेत्तहिं । भीम - सिहर - गिरि - णियड जेनहिं ॥ भिल्लू भयंकरि पल्लिहि राणउ । नामें सीहु सीहु-रस- जाणउ ॥ तासु बाल काले समप्पिय । तेण वि कामाला विलुपिय ॥ का थिय परमेसरि | जा लगइ वणयरु वण-केसरि ॥ ता सो रुक्खु जेब उम्मूलिउ । सासण- देवयाहिं पडिकूलिङ || रे चिलाय करु सुमि होयहि । अप्पर काल वयम शिवायहि ॥ ता सो तसिउ थक्कु तुण्डिकउ । पत्र- जुय वडिउ विचार-विमुक्कउ || कंद-मूल-फल-दाबिय-साथइ । पोसिय देवि विसाय माय ॥ श्रिय इव दिणा हूँ तहिं जयहुँ । वच्छ देसि 'कोसंविद्दि तइयहुँ । सहस्रेणु वणिव धणइत्तउ । मित्तीक तहुर्किकस भत्तउ ॥ मित्तु सो जिसीहहु वण-गाहहु ॥ घरु आयउ सुष्टिय जलवाहुहु ॥ अपि तासु तेण पत्थिव सुय । बाल- मुणाल-बलय- कोमल-भुय ||
[ ५.४. ३
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हिन्यो मनुभाव वह अपने चित्तमें पंचाक्षर मन्त्रका ध्यान करती और निर्मल धर्मध्यान उत्पन्न करने लगी।
जब रात्रि व्यतीत हो गयी और सूर्यका उदय हुआ तब एक श्यामाङ्ग वनचर वहाँ आया । उसका नाम काल था। चन्दनाने उसे जगत्के आश्नयभूत जिनवचनोंका उपदेश दिया तथा सूर्यकी किरणोंके समान कान्तियुक्त आभरण भी दिये । वह इस प्रकार सन्तुष्ट होकर उस सुन्दरीको वहाँ ले गया जहाँ भीमशिखर नामक पर्वतके निकट एक भयंकरी नामक पल्ली में मद्य-रस-पान करनेवाला सिंह नामक भिल्ल राजा रहना था। काल-वनचरने बालिकाको उसे ही समर्पित कर दिया और उसने भी कामासक्त होकर उसे छिपाकर रख लिया। वह परमेश्वरी वहां कायोत्सर्ग भद्रामें ध्यान करने लगी। उस अवस्थामें जब वह बनकेसरी, वनचर उसका आलिंगन करनेको उद्यत हुआ तब वह उन्मूलित वृक्षके समान स्तब्ध रह गया और शासन-देवताने उसे फटकारा-देख किरात, खबरदार ! तु उस पुत्रीको अपना हाथ नहीं लगाना । तू अपनेको कालके मुखमें मत डाल । इसपर बह भिल्लराज अस्त होकर मौन हुआ रुक गया और विकारको छोड़ उसके चरण-युगलमें आ पड़ा। तत्पश्चात् उस निषादको माता, उसे स्वादिष्ट कन्द-मूल व फल देकर पोषण करने लगी।
इस प्रकार जब वह वहां कुछ दिनों तक रह चुकी तब एक दिन वत्सदेशको कौशाम्बी नगरीका वृषभसेन नामक धनवान् वणिक वहाँ आया। उसका मित्रवीर नामक एक भक्त किंकर बनराज सिंहका मित्र था। अतः बह सूकृतके जलप्रवाह रूप भिल्लके घर आया । वनराजने उस कमल. मालके समान कोमल भुजाओंवाली राजकन्याको उसीको अर्पित कर दी
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योजिशिवचरित [५. ४. ३५ढोइय बणि कुल-गयण-ससंकहु ।
भिच्चे वसहसेण-गामंकहु ॥ चत्ता-एकहि वासरि जाव जोइवि सेट्टि तिसाइच ।।
बंधिवि कोतल ताइ जल-भिंगाबाइल ।।४||
चिट्ठ-दुट्ठ-कट्ठाइ रउदइ । ता दिट्ठी सेट्ठिणिइ सुहृदइ ।। मुंडिउ सिरु पावई पम्मेल्लहि । आयस-णियलु घित्तु णीसल्लाहि ॥ कोदव-कूरु सजिन दिजइ । णियमेव जा एव दमिजइ ।। ता परमेट्ठि छिण्ण-संसारउ | आयउ भिक्खहि वीक भडारउ ।। पखिलाहिवि विहीद किउ भोयष्णु । दियणउ तं तहु सउवीरोयणु ।। पत्त-दाण-तरु तक्खणि फलिया। गयागहु कुसुम-णिया परिघुलियउ ।। गन्जिय दुंदुहि बहु-माणिक है। पडियई भा-भारंपरिकाई ।। रवण-विचित्त-दिपण-विविहंगय । देवेहि मि देविहि बंदिय पय ॥ नियस-घोस-कोलाहल सह । जय-जय-जय-संजाय-णिण ।। गमिय मिगावइए लहुयारी । बहिणि सपुत्तइ गुण गरुयारी॥ यभि-सुयाइ पाविदुइ जं कि । तो विष साहइ विलसिउ विप्पि३ ॥ सेडिणि सेदि बे वि कम-णमियई। अम्हई पाव ई पावें खवियाँ। परमेसरि तुह सरणु पट्टई। एवहिं परितायहि पाविहई ।
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५. ५.२६ ]
हिन्दी अनुवाद
७१
और वह भृत्य उसे अपने कुलरूपी आकाशके चन्द्र वृषभसेन नामक वणिक् के पास ले आया। एक दिन उसने सेठको प्यासा देखकर अपने केशको बांधा और वह जलका कलश उठाकर उसके पास आयी ||४||
सेठानी द्वारा ईर्ष्याविश चन्दनाका बन्धन, महावीरको आहारदान व सप-ग्रहण
इसी अवस्था में उसे धृष्ट, दुष्ट, कष्टदायी व क्रोधी सुभद्रा नामक सेठानीने देख लिया । चन्दनाके पापवृत्तिसे मुक्त और निःशल्य होनेपर भी उस दुष्ट सेठानीने उसका सिर मुड़वा डाला और उसके पैरोंमें लोहेकी सांकल बाँध दी। वह उसे प्रतिदिन कॉजी के साथ कोदोंका भात खाने को देती थी। इस प्रकार जब उसे दण्डित किया जा रहा था, तभी संसारके भ्रमणको छिन्न करनेवाले परमेष्ठी जिनभगवान् वहाँ भिक्षाके निमित्त आये । उनका पडगाहन करके चन्दनाने उन्हें बही काँजी और ओदनका आहार विधिपूर्वक दिया । यह पात्रदान रूपी वृक्ष तत्क्षण हो फलित हो उठा और आकाशसे पुष्पकलियोंकी वर्षा हुई । दुन्दुभि बजने लगी तथा बहुतसे माणिक्य चमचमाते हुए प्रचुरमात्रामें वहाँ गिरे । देवने आकर उस देवी को रत्नोंसे जड़े हुए नाना प्रकारके आभूषण प्रदान किये और उसके चरणों की वन्दना की। उन देशोंकी घोषणा व कोलाट्यध्वनिसे तथा जय जयके शब्दों के निनादसे आकृष्ट होकर रानी मृगावती अपने पुत्र सहित वहाँ आयी और उसने अपनी छोटी बहनको उसके गुणोंसे बड़ी होनेके कारण नमन किया। उस पापिनी वणिक् पत्नीने उसके साथ जो बुरा व्यवहार किया था, वह चन्दनाने नहीं बतलाया । सेठ और सेठानी दोनोंने उसके चरणोंमें नमन किया और कहा कि हम पापी वापसे पीड़ित थे अब हम तुम्हारे गरण में प्रविष्ट हुए हैं । हे
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३०
३५
७२
वीरमिणिचरिउ
ता चंद्रण भणिउ को दुगु । को संसारि एत्थु किर सजणु ॥ धम्में सच्छु होइ भल्लाउ । पायें पुणु जण विपिय-गार ॥ इस - दिसु पत्त यत्त जय-सिरि-धव | आइय परमाणड़ें बंध
बंद वीर सामि परमप्पड | एयाणेय - वियम्पसमगच ।।
[ ५.५.२७
धत्ता - जिग-पय-पंक- मूलि बारह-बिहु विस्थिण्णव । चंद्रणाइ त घोरु तर्हि तक्खाणि पडिवगड |
इस वीरजिदिचरिए चंदपणं णाम पंचम संधि॥५॥
( महापुरा से
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५. ५. ३६ ]
हिन्दी अनुवाद
७३
परमेश्वर, अब हम पापिष्ठोंकी रक्षा कीजिए। तब चन्दनाने कहा - इस संसारमें यथार्थतः कौन दुर्जन है और कौन सज्जन है ? धर्म से ही सबका भला ऐसा है, और पाप ही लोग बुरा करनेवाला बन जाता है। यह वार्ता दशों दिशाओं में फैल गयी। तब राजश्रीके धनी चन्दनाके बन्धुबान्धव भी परमानन्द सहित वहाँ आये। उन्होंने परमात्मा वीर भगवान्की वन्दना की। उन जिन भगवान् के चरण-कमलोंमें बैठकर एक व अनेक भेद रूप बारह प्रकारका महान् घोर तप उसी क्षण चन्दनाने स्वीकार कर लिया ||५||
to
इति चन्द्रा तपग्रहण विषयक पंचम सम्धि समाप्त सन्धि ॥ ५ ॥
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१०
५
१५
२०
२५
संधि ६
परसेणिय- सुप - चिलाय पुत्त - परोसह
१
सच्वंगु वि मिलियहिं उजंगुलियहिं चालणि व्य किउ धीर-मणु । सहवि निरवो न वि निय-कजहो चलिउ चिलायपुत्तु समगु ॥ महा-विस असि गुणवंतड । गुहिल सत्यवाहि वणि होत ॥ तेण सियाल पंथ समलें । गच्छते समे स- सत्यं ॥ सुणि गामंतर तर नामच । भिक्खागड निवि जिय-काम || सिद्धउ अन्नु नत्थि समभाविउ | गुलु तिल-बट्टि देवि भुंजावि ॥ तेण फलेण दीव पद मिल्ला । हमवयम्मि खेत्ते सोहिल्ला || कालु करेणु को माग । हुन पलिओम जीवित माणन || पुणे नंदणवर्ण सुरु तत्तो चुउ । मगहा- मंडले रायगिहे हुउ ।। परसेणियो नरिंदो नंद | रूवं जण-मध्य-णयणाणं ॥ जणिउ चिलाय देवि जेण जं । नाम चिलायपुत्तु किड तेण जे 1
श्रचा एकहिंदि रामँ बद्ध-कसाएँ
अदाय उज्जेणि पुरि । संगरि संदाणहि बंधेवि आणहि पेस पज्जोहो उवरि ॥१॥
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सन्धि६ चिलातपुत्र-परीपह-सहन
चिलातपुत्रका जन्म उज्जंगुलि ( काकी ) ने आकर सर्वांग चालिनीके समान छेद डाला, तो भी धीर मनस्वी चिलातपुत्र श्रमण अपने निर्दोष तपस्या-कार्यसे विचलित नहीं हुए । प्राचीन कालमें मगध देशमें गुणवान्-गुनहिल ( गुणधीर ) नामक सार्थबाह बणिक रहता था। एक दिन वह अपने सार्थ सहित बनमार्गमें गमन कर रहा था, तभी एक ग्राममें उसने भिक्षाके लिए आये हुए तपधर नामक कामविजयी मुनिको देखा । वणिक्के पास उस समय कोई सिद्ध अन्न नहीं था, अतएव उसने उन समभावी मुनिको गुड़ और तिलपट्टी देकर आहार कराया। इस पायदानके फलस्वरूप वह मरने पर प्रथम द्वीप अर्थात् जम्बुद्वीपके शोभायमान हेमवत् नामक क्षेत्रमें एक कोश-प्रमाण शरीरयुक्त व पल्योपमकाल तक जीवित रहनेवाला मानव उत्पन्न हुआ। फिर वह नन्दन वनमें देव हुआ और वहाँसे च्युत होकर मगधमण्डल के राजगृह नगरमें राजा प्रश्रेणिकका चिलातदेवी द्वारा उत्पन्न तथा रूपसे लोगोंके मन और नयनोंको आनन्ददायी चिलातपुत्र नामक राजकुमार हुआ। एक दिन राजा प्रधेणिवाने क्रुद्ध होकर राजपुत्र उदायनको यह आदेश देकर उज्जयिनीपुरीको भेजा कि वहाँके राजा प्रद्योतको युद्ध में जीतकर और बन्धनोंसे बांधकर मेरे पास ले आओ ||१||
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'वीरजिणिवचरिउ
ता तहि गाउर-उरगपुर-सामिउ । पज्जोएग चिरणे आयामि। बंधेवि धरिउ सुणेपिणु धुत्ते। विजयखण नराहिव-पुत्ते ।। तत्थ सस्थ-वाहिण हवेपिणु । आप्पिड गंपिछलेण हरेरिणां ।। रोसें तेण देसु नासंतउ। सबलु होवि परजोउ पात्तः ।। आयन्नेप्पिणु पहु चिंताविउ । पट्टगम्मि पडहाउ देवाविउ ।। जो महु वहरि घरेपिण दावइ । सो जं मग्गइ तं फुड पावड ।। ता चिलायपुत्ते हेराविउ । सर मल-कोर मारत पाविउ ।। बंधवि उज्जैणी वड आणि । तृसेपिणु नंदणु सम्माणि ॥ दिन्न ३ मग्गि र मगहा-राएँ।
पुरे सच्छंद-विहाक पसाएँ । घसा-बहुकाले राणउ सुट्छु सयाण ,
घरु पुरु परियणु परिहरेवि। भव-सय मल हरणहो गउ तवयरणहो
. रज्जे चिलायपुनु धरवि ॥२॥
रज्जु करते आवह पाविय । पय चिलायपुत्त संताविय ।। तहो अन्ना उ नियवि नयवंतहूँ। जाउ अचित्तु मंति-सामंतहूँ ।। रइउ मंतु सव्वद मणे भाविउ । सेणित कंचिपुरहो आणाचित्र ।।
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हिन्दी अनुवाद
२
विलातपुत्रको राज्य प्राমি
इसी बीच प्रद्योतने गौर उरगपुरके स्वामीको रण में बाँध लिया। उसके बन्धनकी बात सुनकर मगध नरेशके विजय नामक पुत्रने सार्थवाहका वेश धारण करके छलपूर्वक उसे छुड़ा लिया और राजगृह ले आया। इस बातपर रुष्ट होकर प्रद्योतने अपने दल-बल सहित मगध देशपर आक्रमण कर दिया । यह बात सुनकर मगध नरेन्द्रको चिन्ता उत्पन्न हुई और उन्होंने राजधानीमें भेरी बजवायी कि जो कोई मेरे बैरीको पकड़कर मुझे दिखलायेगा वह जो कुछ मांगेगा वही दूँगा । तब चिलातपुत्रने उसपर घात लगायी और जब वह जलक्रीडा कर रहा था तभी उस उज्जयिनीपति प्रद्योतको पकड़ लिया और बाँधकर राजगृह ले आया ।
राजाने सन्तुष्ट होकर अपने पुत्रका सम्मान किया । मगधराजने प्रसन्नता पूर्वक चिलातपुत्रको मन सोना दान तथा नगर में स्वच्छन्द विहारका उपहार दिया 1
६. ३.६ ]
5161
इसके बहुत काल पश्चात् जब राजा प्रश्रेणिक बहुत सयाने हो गये तब उन्होंने घर, पुर और परिजनों का त्याग कर सैकड़ों भवों ( जन्मों) के पापका हरण करनेवाला तपश्चरण स्वीकार कर लिया और राज्यपर चिलातपुत्रको प्रतिष्ठित कर दिया ||२||
चिलातपुत्रका राज्यसे निष्कासन व वनवास तथा श्रेणिकका राज्याभिषेक
राज्य करते-करते चिलातपुत्रपर एक आपत्ति आ गयी, क्योंकि उससे प्रजा सन्तप्त हो उठी थी । उसका अन्याय देखकर नीतिवान् मन्त्रियों और सामन्तों का चित्त उससे हट गया था। उन्होंने मन्त्रणा की जो सभी मनको भा गयी। उन्होंने कांचीपुर से श्रेणिकको बुला लिया ।
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वीरजिविचरिज
मिलिड परिग्गहु सलु वि एविणु । नसारि वाइड चप्पेविणु ॥ मायामहो पास जाएविणु । काणणे विस को विराएत्रिषु || रज्ज-भद्र हो ।
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थिं जीवइ मावश्यहो वित्तिन ॥ भद्दमित्त तो मित पियार । नं रामो लक्खणु दिहि-गारउ || रुद्दमित्त-माउलो केरी। धी सुहद सुहाइँ जणेरी ॥ सो परिणण न पाइ अवरहो । दिज्ज लग्गी साबिय पवरहो ॥
धत्ता - इय वत्त सुपिणु तत्थावेष्पिणु मेलावेपि सुडस | ते मड्डे हरेष्पिणु कन्न एपि जगह नियंतो वे यि ॥३॥
४
वक्त गुणेपि सेणिय-राणउ | अलग्ग सेणा सागर ॥ राउतहिं जान
चाहिय ।
पिगु ण-पवेसि पडिगाहिय ।। बिं
सुह
सूरा पजर भयंकर । रायह कि करंति किर तक्कर ॥ ता के विरुद्ध वृद्धा । के विकतो पणे छुद्धा ॥ पनि नियवि निरारिउ सेन्नहो । जिह अम्म हि होइ न अन्नहो । एम भणेवि कुमारि वियारिय । सा चिलायपुत्तं संघारिय ||
[ ६.३.७
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६. ४. १२ ] हिन्दी अनुवार
७९ समस्त परिजन जाकर एकत्र हुए और उन्होंने दुर्बुद्धि चिलातपुत्रको नगरसे निकाल बाहर किया। उसने अपने मातामहके पास जाकर वनमें एक प्रबल कोट बनाया। वह राज्यभ्रष्ट होकर वहाँ अनीतिपूर्वक चौरवृत्तिसे जीवन-यापन करने लगा। उसका एक भद्रमित्र नामक प्रियमित्र था, जैसे रामको लक्ष्मण अत्यन्त प्रिय थे। उस के रुद्रमित्र नामक मामाकी एक सुखदायक सुभद्रा नामक पुत्री थी । चिलातपुत्र उसका परिणय नहीं कर पा रहा था, क्योंकि उसका वागदान किसी अन्य बलवान्को कर दिया गया था। यह बात सुनकर चिलातपुत्रने सैकड़ों सुभट एकत्र किये और वहाँ आकर बलपूर्वक कन्याका अपहरण कर लिया। लोगोंके देखतेदेखते ही वे दोनों वहाँसे चले गये ||३||
चिलातपुत्र वारा कन्यापहरण, श्रेणिक द्वारा आक्रमण किये
जानेपर उसका धात तया भारगिरिपर मुनि-दर्शन यह बात सुनकर राजा श्रेणिक सेना सहित उसका पीछा करने लगा। राजा व धुड़सवार जब वहाँ पहुँच भी न पाये तभी उसने एक वनप्रदेशमें जाकर उस कन्यासे विवाह कर लिया। यद्यपि उसके पास बहुत-से भयंकर शरवीर योद्धा थे, तब भी भला चोर राजाका क्या सामना कर सकते हैं ? उनमें से कितने ही अस्त हुए, निरुद्ध हुए और बाँध लिये गये तथा कितने ही यमराजकी पालकीमें डाल दिये गये । सेना द्वारा किये गये उस भारी संहारको देखकर चिलातपुत्रने विचार किया कि जब यह
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चोरजिदिचरिउ
हूई अंतरि तहि जिवणंतरे । अपणु पाण भए दु-संचरे ॥ चडि पलाऊ गरुयारण व्यमि पावणे व भार ||
बत्ता - मुदितु भडारउ भव-भय-हारराव सह संघेय नियच्छिय |
भय-वेविर गत्ते पाव-विरते
-
तेण नवेपणु पुछिउ |४||
कहि कहि साहु किंपि संखेवें । सासु कहिउ जो देवें ॥ ता वसु तासु सुहयारउ । कहिल रिसीसे सब सारख ॥ जं इच्छसि तं नेच्छ
अं पुण नेच्छसि तुमं पुरिस-सीह | तं इन्सु जइ इच्छसि
संसार-महन्नवं तरिढुं ।। चियाइय पर भाव विसज्जहि । निव्विसाइयनिय पविजहि ॥ सुणेवि एवं निब्वेएँ लइयउ । संखेवेण जे सो पव्वइयउ ॥ आयala stars विसेसें । थिउ पाउग्ग-मरणे संतोसें ॥ ता सेणिउस से तत्थाय उ । भाइ निपनि साहु संजायत || चंग कियउपसंस करेष्पिणु ॥
अंचेवि पुजेवि पणवेपिशु ॥ एत्यंतर अंतरिए निहालिङ । बइर बसान तान खम्भालिन || प्राणत्यो सबलियन हवेषिणु । कङ्क्षिय लोण सिरि वइसेष्पिणु ॥
[ ६.४.१३
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६. ५. २२]
हिन्दी अनुवाव कन्या हमारी हो चुकी है तब उसे अन्य किसीकी नहीं होने देना चाहिए। ऐसा विचार कर उसने उस कुमारीको हत्या कर दी। वह मरकर उसी वनमें व्यन्तर देवी हुई। और चिलातपुत्र अपने प्राणोंके भयसे भागकर दुर्गम और उच्च बभार पर्वत पर जा चढ़ा। उस पुण्यभूमिमें उसे भवभयहारक मुनिदत्त नामक मनिके संघ सहित दर्शन हुए। चिलातपूत्रने भयसे काँपते हुए शरीर सहित पापसे विरक्त होकर मुनिको नमस्कार क्रिया और उनसे पूछा ||४||
मुनिका उपदेश पाकर चिलातपुत्रकी प्रव्रज्या, व्यन्सरी
द्वारा उपसर्ग तथा मरकर अहमिन्द्र पद-प्राप्ति
हे साधु, मुझे संक्षेपमें वह सारभूल उपदेश कहिए जो जिनदेवने कहा है। तब उन मुनीश्वरने उसे सबमें सारभूत और सुखकारी उपदेश कहा जो इस प्रकार है-हे पुरुषवर, तू जिसकी इच्छा करता है उसकी इच्छा मत कर, और जिसकी त इच्छा नहीं करता उसकी इच्छा कर, यदि इस संसार रूपी महासमुद्रको पार करना चाहता है। जो इन्द्रियोंके विषय आदि परभाव हैं उनको छोड़ और जो विषयों से रहित आत्मभाव है, उनको ग्रहण कर । मुनिका यह उपदेश सुनकर चिलातपूत्रको वैराग्य उत्पन्न हो गया और संक्षेप यह कि उसने प्रव्रज्या धारण कर ली । मनिसे यह सुनकर कि अब उसकी आयु थोड़ी ही शेष रह गयी है, उसने विशेष सन्तोषके साथ प्रायोग्य मरण नामक समाधि ले ली। तब राजा श्रेणिक वहीं अपने सैन्य सहित आया। और उसने देखा कि उसका भाई साध हो गया है तव 'यह बहुत अच्छा किया' ऐसी प्रशंसा करके तथा पुजा, अर्चा व प्रणाम करके वहाँते गमन किया। यहाँ इसी बीच उस व्यन्तरीने उसे देखा और बैरके वश होकर उसने उसका उपसर्ग किया ! उसने चील पक्षीका रूप धारण करके उसके ध्यानस्थ होते हुए सिरपर बैठकर
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वीरणिणिवचरिउ
वड-मुंड कीडियहि निरंतर |
घत्ता-पणिय पात दुक्खु महंत सहिऊण समाहि-जुत्र । सो सोक्ख निरंतर पंचाणुत्तरे
॥
सिद्धि विमाणमिंदु हु ||५||
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[ ६.५.२३
वीरजिदिचरिए चिलायपुत्त परीसह सहणी णाम संधि ॥६॥
( श्रीचन्द्रकृत कहाको संधि ५० से संकलित )
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६.५.२८ ]
हिन्दी अनुवाध
८३
उसकी आँखें निकाल ली। उसने बड़ी-बड़ी मुण्डों वाले कीटोंके द्वारा उसके शरीरको चलनीके समान बेच डाला। ऐसी प्राणान्तकारी महान् दुःखकी वेदनाको सहकर भी समाधिमें तल्लीन रहकर चिलातपुत्र मृनि निरन्तर सुखदायी पंचअनुत्तर विमानों में से सिद्धिविमान में अहमिन्द्र देव हुए ||५||
इति विलातपुत्र- परीषह विषयक छठी सन्धि समाप्त ॥ सन्धि ६ ॥
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संधि ७ सेणिय-रज-लंभो
५
ध्रुवक—पणवेप्पिणु जिणव सिद्धि-बहू-पर
दूरोसारिय-दुच्चरित्र । भाषणह का सोरा मामला
आहासमि सेणिय-चरिउ || ध्रुवकं ।। खंडयं-जंबू-दीधि दाहिणे भारह-वत्ति सोहिणे | मगहा देसि सुंदरं अस्थि रायगिह पुरं ॥
जहि दोसु मणा-वि न गुणु जि सव्वु । तहि अस्थि राउ पहयारि-गन्तु ।। ज्यसेपिउ नामें परम-कित्ति । तहो सुप्पह देवि सु-सील-वित्ति ।। हुन पुत्तु ताह सेणिज कुमार। गुण-गण-निवासु पच्चक्खु माझ । पुविल्टु सरेप्पिणु वइर-हेच । पञ्चंत-चरेण पयंड-बेउ ।। एकहिं दिणि राएँ दुट्छु आसु । अहिधम्म संपेसिज हयासु ।। पेक्खेप्पिा परिओसिउ मणेण । थुउ बाइ निवेण स-परियणेण ।। तथारुहेवि दुजउ यलण। गर याहिंयालि कोऊहलेण ॥ ता नर-हरि हरिणा हरिवि तेण । निज भीसावणु वणु तखणेण || चइऊण तुरउ तरु-तले निविदछ । तत्थ वि किराय-राण दिदछु ।।
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सन्धि ७ श्रेणिक-राज्य लाभ
अम्बूद्वीप, भरतक्षेत्र, मगधवेश, राजगृहपुर, राजा उपयणिक, रानी सुप्रभा, पुत्र श्रेणिक । सीमान्त नरेश अभिधमके प्रेषित अश्व द्वारा राजाका अपहरण व वनमें
किरातराजको पुत्री तिलकावतोसे विवाह सिद्धिरूपी वधूके वर तथा दुश्चरित्र का दुरसे अपहरण करनेवाले जिनेन्द्रको प्रणाम करके मैं लोगोंके मनमोहक सुहावनी कथारूप श्रेणिकचरितका वर्णन करता हूँ। उसे सुनो । जम्बूद्वीपके दक्षिण भागमें शोभायमान भरतक्षेत्र है और उसके मगध देशमें सुन्दर राजगृह नामक नगर है। वहाँ तनिक भी कोई दोष नहीं, और सभी गुण वर्तमान हैं। वहाँ शत्रुके गर्वका विनाश करनेवाले परमकीर्तिवान् राजा उपश्रेणिक राज्य करते थे। उनकी अत्यन्त शीलवती रानी सुप्रभा देवी थी। उनसे घेणिक कुमार नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जो नाना गुणोंका निवासभूत और साक्षात् कामदेवके समान सुन्दर था। एक दिन उनके सीमान्तवर्ती राजा अभिधर्मने पूर्व वैरका स्मरण कर मगधराजको एक प्रचण्डवेग, दुष्ट अश्व भेजा। उस अश्वको देखकर राजाके मनमें बड़ा सन्तोष हुआ तथा उसने अपने परिजनों सहित अश्वकी खूब प्रशंसा की। वह बलपूर्वक दुर्जेय राजा कुतुहलवश उस अश्वपर आरूढ़ होकर बाहर मैदान में गया । तत्क्षण ही वह अश्व राजाका अपहरण करके एक भीषण वनमें ले गया। तुरगको छोड़कर राजा जब एक वृक्षके नीचे बैठे थे, तभी वहाँके किरातराजने उन्हें देखा।
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वो रजिणिवचरिउ
जमदंडे दुट्ट-कयंत वासु । संगहिउ नमसिवि निउ निवासु ॥ सम्माणिऊण अवितत्थ-संधु | काऊण ते चाया निबंधु ॥ जो होमइ आयहे देव पुत्तु । दायब्बु रज्जु तो हूँ नित्तु ॥ घत्ता - इय भणिवि मनोहर पीण-पओहर तिलयावइ तम-हर-मुहिय । अरि-दलवट्टणु परिणावेपिणु निय-दुहिय ॥ १ ॥
पेसिउ सुहव
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२
खंड-ता तहिं तीन समं तहो बहु- समएण सरीख किउ ताएं नाउ चिलायपुत्तु | कालेश कुमार पमाणन्यत्तु ॥ एक्कहि दिणि सक्क सभाणपण | फिड नेमित्तिक राणरण ||
[ ७.१.२५
रह-सोक्खं मागत हो । जायद मयमन्तरी ॥
महुप पुत्तहँ मज्जु एत्थु । कहि होसह को रजो समत्थु ॥ आहासइ परियाणिय-समत्यु | जी निव सिंघासण-मत्थयत्थु ॥ ताडंतु भेरि भीमारि तासु । सुहाण देतु चरन्मइ-पयासु ॥ भुंजेस पायसु सो निरुत्तु | होस तुह रज्जहो जोग्गु पुत्तु ॥ ता तेण परिक्खा छेउ सन्बु । सोहणि दिगि करण सुलग्गे सब्बु || हक्कारिवि पंच वि सुय-सयाई । भणिया नरिंदें नुय पयाहूँ || जं जं तुम्ह पडिहाइ स्थु । तं तं निम्सकिय पत्धु ॥ निमुणेषि एड पहसिय-मुहेहिं । सहसा पुत्र ई-सर-तगुरुहेहि ॥
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७. २. २२]
हिन्दी अनुवाद बह यमदण्ड नामक किरात दुष्टोंके लिए यम-निवासके समान उस राजाको नमस्कार करके उसे अपने घर ले गया और राजाका खूब सम्मान किया। किरातराजकी सुन्दर यौवनवती पुत्रीको देखकर राजा उसपर मोहित हो गया। तब किरातराजने राजाके साथ यह शपथबन्ध किया कि जो उसकी पुत्रीका पुत्र होगा उसे ही राज्य दिया जाये। ऐसा पक्का निबन्धन करके उसने अपनी मनोहर पीनपयोधर चन्द्रमुखी पुत्री-तिलकावतीका विवाह राजाके माथ कर दिया तथा उसके साथ सुखीभूत शत्रुविजयी राजाको उनके नगरको प्रेषित कर दिया ॥११॥
किरात कन्यासे बिसातपुत्रका जन्म । राजा द्वार
राजकुमारोंको परीक्षा अपनी राजधानी राजगृहमें पहुंचकर राजा उपश्रेणिक अपनी इस नयी पत्नीके साथ रतिसुखका अनुभव करते हुए रहने लगा। बहुत समयके पश्चात् उनके मदनके समान सून्दर पुत्र उत्पन्न हुआ। पिताने अपने इस पुत्रका नाम चिलातपुत्र रखा । यथा समय कुमार अपनी तरुणावस्थाको प्राप्त हुआ।
एक दिन उस इन्द्रके समान राजाने एक नैमित्तिकसे पूछा कि यह बतलाओ कि मेरे इन अनेक पुत्रोंके बीच कौन मेरे पश्चात् राज्यका भार सँभालने में समर्थ हो सकेगा। समस्त बातोंको जाननेवाले उस नैमित्तिक ने कहा---हे राजन्, जो राजपुत्र, राजसिंहासनके ऊपर बैठकर भेरी बजाता हुआ तथा श्वानोंको भी कुछ खानेको देता हुआ पायस ( खीर) का भोजन करेगा वहीं अपनी श्रेष्ठ बुद्धिको प्रकाशित करनेवाला, भयंकर शत्रुओंको त्रस्त करनेवाला, तुम्हारे राज्यको संभालने योग्य पुत्र होगा, इसमें सन्देह नहीं। यह सुनकर राजाने एक शुभ दिन, शुभकरण और शुभ लग्नमें परीक्षाके हेतु अपने सभी पाँच सौ पुत्रोंको बुलवाया । वे आकर राजाको प्रणाम कर बैठ गये । तब नरेन्द्रने उनसे कहा कि तुम्हें जो-जो वस्तु पसन्द हो, उस-उसको निःशंक होकर ले लो। राजाको यह बात सुनकर उन राजकुमारोंने प्रसन्नमुख होते हुए किन्हींने आभूषण
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वीरजिणिवचरित [७. २. २३वत्ता केहि वि आहरणई हरि करि-रयणई गंधई तंबोलई वरई।
लाई सुविचित्तई बर-बाइत्तई केहि मि कुसुम ई सुंदरई ॥२||
खंडयं-सेपिओ सिंहासणे मणि-गण-किरणुब्भासणे ।
आम्हेति भेरि वरि थक्को कामं करि ।। परिवाडिए सूयारहिं कुमार । बइमारिय सयल विण कुमार ॥ रायापसेण सुवण्ण-थाल । दाऊग खीरि वढिय-रसाल ।। भुंजंतह ताहूँ ललंतजीह । पयिमुका मंडल नाइसीह ।। आवंत निएप्पिणु भीम साण । सहसा भएण सयल वि पलाण ॥ गंभीर धीरु परि एक्कु थक्कु । सेणिय-कुमार भय-भाव-मुक्कु॥ ताडंतु विणोण भेरि दितु । सुणहाण थोव-थो हसंतु॥ जेमिज वीसस्थउ मई-विसालु । जायउ निच्छय-मणु भूमिपालु ।। जो रज्जहो जोग्गु अणंत-विज्जु । सो सम्ब-पयत्ते पालणिज्जु ।। इय चिंतिवि दायज्ज भरण । पुद्दईसरेण जाणिय-नएण ॥ मंडल-विद्यालिउ एह पाउ । जो देसाइ आयहो को वि ठाउ || सी हउ वि सु-निन्छउ तासु सब्बु ।
अधियारु हरेसमि पाण-इन्चु ॥ घत्ता-इय देपिणु घोसण खल-मण-पोसणा
नीसारिड नगरहो तुरिउ । तिस-भुक्खायामिउ सिंधुर-गामित्र
नंदगामु सो पइसरिज ।३।।
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७. ३.२८ ]
हिन्दी अनुवाद
८१
लिये, किन्होंने घोड़े, हाथी व रत्न लिये, किन्होंने उत्तम गन्ध व ताम्बूल लिये, किन्होंने विचित्र-विचित्र उत्तम वादित्र लिये, और किन्होंने सुन्दर पुरुष ही ग्रहण किये ॥२॥
राजपुत्र श्रेणिक परीक्षा में सफल, किन्तु भ्रातृ-वैरकी आशंका से उसका निर्वासन
किन्तु राजकुमार श्रेणिक मणि-समूहों की किरणोंसे दीप्तिमान् सिंहासनपर अपने सुन्दर हाथ में भेरी लेकर जा बैठा । रसोइयोंने उन सब कुमारों को, जो कार्तिकेय के सदृश थे, क्रमशः बैठाया और राजाके आदेशानुसार उन्हें स्वर्णके थालोंमें स्वादिष्ट खीर परोस दी। ज्यों ही उन्होंने अपना भोजन प्रारम्भ किया त्यों ही सिह के समान जीभ लपलपाते हुए श्वान छोड़ दिये गये। सभी राजकुमार उन भयंकर श्वानोंकी आते देख सहसा भय से भाग उठे । किन्तु एकमात्र गम्भीर और धीर श्रेणिक कुमार भयकी भावनासे मुक्त होते हुए अपने आसनपर बैठे रहे। वे विनोदपूर्वक भेरी बजाते जाते थे और हंसते हुए थोड़ा-थोड़ा, भोजन कुत्तोंको भी देते जाते थे । इस प्रकार उस विशाल बुद्धिमान् राजकुमारने विश्वस्त भाव से अपना भोजन समाप्त किया । यह देख भूषालने अपने मनमें निश्चय कर लिया कि यही राजकुमार राज्य करने योग्य है। साथ ही उन्होंने यह भी विचार किया कि, जो राजकुमार अनन्त विद्याओंका धनी है, और राज्य करने योग्य है उसका समस्त प्रयत्नपूर्वक संरक्षण करना चाहिए। ऐसा चिन्तन कर उस नीतिज्ञ धराधीशने दायादों ( राज्यके भागीदार भ्राताओं) के बीच वैर के भयसे श्रेणिक कुमारको इस घोषणाके साथ नगरसे बाहर निकाल दिया कि इसने कुत्तोंके जूठे भोजन करनेका पाप किया है, अतएव जो कोई इसे अपने यहाँ ठहरनेको स्थान देगा, उसके समस्त धन और प्राणोंका भी में निश्चयरूपसे हरण कर लूँगा । ऐसे खल पुरुषोंके मनको प्रसन्न करनेवाली घोषणा कराकर राजाने तुरन्त ही श्रेणिक कुमारको नगरसे निकाल दिया । तब वह गजगामी राजकुमार भूख और प्यासरो त्रस्त होता हुआ नन्दग्राममें जाकर प्रविष्ट हुआ ||३॥
१२
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वीरजिणिवचरिउ
[७. ४. -१
अच्छइ तहिं भोयासत्तु जाम । एतह वि तासु ताटण ताम || दाऊण चिलायसुअस रज्जु । धीरेण आणुविउ अप्प-कन्जु । संजायउ राउ चिलायपुत्तु । सो करइ कयावि न कि पि जुत्तु ॥ ता मंतिहिं दृउ लहेवि सुद्धि । संपेसिउ कंचीपुर सुबुद्धि ।। गंभूत सुम्पह-सुमासु। उवएसिउ वइयर णिव-सुयासु ॥ रज्जम्मि थवेवि चिलाय पुत्तु । संजायउ तात्र मुणी तिनमुत्तु । सयल वि पय रज्जु करंतपण । संताविय तेग कयंतागण ।। किं बहुणा गच्छहुँ एहि सिग्घु ।
कुल रज्जु णिवारहि लोय-विग्धु ।। घत्ता-जाण-वल्लह पोमिणि जिह गय-गोमिणि परिषीडिय दोसायरेण |
संभाइ पहायक देउ दिवायरु तिद पई पय परमायरेण ॥४॥
खंडयं-अभयमई बसुमित्तउ पुळेचि कतो कतउ ।
रायाण स-पुरोहियं आयउ सो णिलयं णियं ।। गंपिणु चप्पेवि चिलायपुत्तु । गीसारवि धल्लिड अणय जुत्तु ॥ सुह-दिंग सुहि-सयहिं बधु पर्दु । सुंदर-मइ अरि-गाय-घड-घर१ ॥ तोसेवि सु-वयहिं सब लोय । थिन रज्जे दिव मुंजंतु भोय । ५।। इस वीर-जिगिंदररिए मेणिय-रज-लंभी णाम
सत्तमो संधि ॥७॥ ( श्रीचन्द्रकृत कहाकोसु संधि १२ से संकलित )
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हिन्यो अनुवाद
चिलातपुत्रका राज्याभिषेक व अन्यायके कारण मस्त्रियों द्वारा
श्रेणिकका आनयन यहाँ भोगोंमें आसक्त रहते हुए एक दिन राजा उपश्रेणिनाने अपना राज्यभार चिलातपुत्रको सौंप दिया और धीरतापूर्वक आत्मकल्याणका कार्य अर्थात् दीक्षा ग्रहण सम्पन्न किया। चिलातपुत्र राजा तो हो गया, किन्तु बह उचित कार्य कदापि नहीं करता था। तब मन्त्रियोंने श्रेणिककुमारका पता लगाया और यह जानकर कि बे अब कांचीपुरमें जा पहुंचे हैं, उन्होंने एक बुद्धिमान दूतको कांचीपुर भेजा। उसने सुप्रभाके पुत्र थेणिक राजकुमारके पास जाकर उन्हें वृत्तान्त सुनाया कि तुम्हारे पिता तो चिलातपुत्रको राज्यपर बैठाकर विनुप्तिधारी मुनि हो गये, और इधर राज्य करते हुए चिलातपुत्रने यमके समान समस्त प्रजाको सन्तापित कर दिया है । बहुत कहनेरो क्या लाभ, आप शीघ्र ही हमारे साथ चलिए, राज्य सँभालिए और प्रजाके कष्टोका निवारण कीजिए। जिस प्रकार लोकप्रिय पचिनी सूर्यके अस्त होनेपर दोषाकर अर्थात् निशाधीश चन्द्रसे परिपीड़ित होती हुई प्रभाकर सूर्यदेवका स्मरण करती है, उसी प्रकार प्रजा परम आदर भावसे आपको प्रतीक्षा कर रही है ।।४।।
चिलातपुत्रका निर्वासन और श्रोणिकका राज्याभिषेक श्रेणिक कुमार अपनी नयी परिणीता अभयमती और वसुमित्रा नामकी प्रियपत्नियोंसे तथा राजा व पुरोहितसे पुछकर अपने पूर्व निवास राजगृहमें आया । आते ही उसने अनीतिवान् चिलातपुत्रको पराजित कर वहाँसे निकाल बाहर किया। फिर एक शुभ दिन समस्त सुहृद् और सुजनोंने उस सुन्दर बुद्धिशाली शत्रुरूपी गज रामूहको नष्ट करनेवालं राजकुमारको राजपट्ट बाँध दिया । अपने मधुर वचनों द्वारा सब लोगोंको सन्तुष्ट करता हुआ राजा श्रेणिक राजसिंहासनपर प्रतिष्ठित हुआ और दिव्यभोगोंका उपभोग करने लगा ।।५।। इति श्रेणिक-राज्य लाभ विषयक सप्तम सन्धि समाप्त
॥ सन्धि ७ ॥
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संधि ८ सेणिय-धम्म-लाहो तित्थंकर-गोत्त-बंधो य
एक्कहिं दिणे किंकर-परियरिउ । पारद्धिादे नरवइ नीसरिर || अडविहि पइसारि समय-परु । परमेसरू अवही-नाण-धरु ।। मुणि जसहरू पेपिछवि जसहा
पडिमा-जोएं दुरिय-हरु। कहि दिट्टउ पहु अगिट्टल
अ-सजणु कज-विणास-यक | अइ-रोल-घसेण मुणीसरहो । पुद्दईसरेण परमेसरहो ॥ बह-हेड कयंत व जणिय-भया । सुगहाण विमुक्का पंच-सया ॥ मुणि-माह पेण विणीय किया। दाऊण पयाहिण पुरज थिया । ते निवि नरिंदे नि-पसरा । करे करिवि सरासणु मुक्क सरा ।। मणि-माहहो होवि पुष्फ-पयरू । चलणोवरि यडिज बाग-नियरु ।। पुणु सप्पु चित्तु मुउ झत्ति गले । तबयरण-करण-णिहविय-मले ।। रिसि-बह-परिणामें तहिं समए । नरयम्मि नरेसरु सत्तमय ॥ बद्धान हवेप्पिणु उवसमिउ । तं चोज्जु निएवि मुणिह नमिउ ।।
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सन्धि ८ श्रेणिक-धर्म-लाभ व तीर्थकर गोत्र-बन्ध
राजा श्रेणिकको आखेट-पात्रा मुनि-दर्शन व भाव-परिवर्तन
एक दिन राजा श्रेणिक अपने किंकरों सहित आखेटके लिए निकला। वनमें पहुँचते ही उसने आत्म और परको समदृष्टि से देखने वाले अवधिज्ञानधारी यशरबी परम मनीन्द्र यशोधरको कर्मोको नष्ट करनेवाले प्रतिमा योगमें स्थित देखा । उन्हें देखकर राजाने सोचा-अरे! कार्यविनाश करनेवाला यह अनिष्ट-अपशकुन मुझे कहाँसे दिख गया? इस प्रकार अत्यन्त क्रोधके वशीभूत होकर राजाने उन परमेश्वर मुनीन्द्रका वध करनेके लिए उनपर यमराजके समान भयंकर पाँच सौ श्वान छोड़े। किन्तु मुनिके माहात्म्यसे वे विनययुक्त हो गये और उनकी प्रदक्षिणा करके उनके सम्मुख बैठ गये। यह देख कर राजाने अपने हाथमें धनुप लेकर तीन बाण छोड़े। किन्तु बह बाणोंका समूह भी पुष्पपुंज बनकर मुनिराजके चरणोंमें जा पड़ा। तब राजाने एक मृत सर्प उठाकर तुरन्त उनके गले में डाल दिया जो कि अपने तपश्चरण द्वारा पापमलको दूर कर चुके थे । मुनिका वध करने की भावनाके कारण उसी समय राजाने सप्तम नरकमें उत्पन्न होनेका आयु-बन्ध किया। किन्तु उसी समय मुनिका उक्त आश्चर्य देखकर उनका मन उपशम भावसे व्याप्त हो गया और उन्होंने
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[८. १. २५
२५
पोरजिणिवचरित घत्ता-भरावते सम-रि-मित्र
जाणेपिणु उपसंत-मणु । वर-भासा पुण्य-पयासप
उच्चारिवि आसी-वयणु ।।१।।
दुक्किय-कम्भिधण-जलण-सिह । किय धम्म-सवण अय-विह ।। निसुणेवि अयोरमु मुणि-वयः । निवु निदिवि अप्पुणु पुणु जि पुणु ।। जायउ जिण-सामणि लीण-मणु | पडिबन्नउ खाइड सदहणु ।। नहन्याल सुरेहि अहिणंदियउ । ता राउ जाउ आणदियउ || बंदेपिणु सिरि-जसहर-सवणु । आयउ गुहाई-वई निय-भवणु || दुरुज्झिय मिच्छा-समय-माणु । सुहुँ करद रज्जु पालिय सुया । चेल्लप-मह एविध परिथरिउ। रामु व सीया अलंकरिउ ।। एक्कहिं दियहम्मि सहा-भघणे ।
जामच्छइ पहु नर-नियर-घणे ॥ घत्ता-आवेप्पिणु कर मलंप्पिणु
ता बणवाले विन्नविउ । परमेसर नाण-दिणेसर
देव-देउ सुर-नर-नविउ ॥२॥
मामिय तइलोय-लोय-सरणु । अमरा हिव-रइय-समोसरणु || जिय-दुजय-काम-कसायारणु। दूरीकय जाइ-जरा-मरगु ॥
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९५
८. ३ ४ ]
हिन्दी अनुवाद
मुनिको नमन किया। वे भगवान् मुनि तो शत्रु और मित्र के प्रति समदृष्टि रखते थे | उन्होंने राजाको उपशान्तमन हुए जानकर पुण्यप्रकाशी उत्तम भाषामें आशीर्वादका उच्चारण किया ॥१॥
૨
श्रेणिक राजा जैन शासन के भक्त बनकर राजधानी में लौटे
राजा श्रेणिकने यशोधर मुनिसे दुष्कृत कर्मरूपी ईंधनको जलाने वाले अग्नि के समान अनेक प्रकारका धर्मं श्रवण किया। मुनिके उन अनुपम वचनोंको सुनकर राजाने बारम्बार अपने आपकी निन्दा की 1 वे अब जिनशासनमें लीन-मन हो गये और उन्होंने आर्थिक सम्यक् दर्शनका लाभ प्राप्त किया। आकाशमें देवोंने उनका अभिनन्दन किया । इससे राजाको और भी अधिक आनन्द हुआ। फिर उन श्रमणमुनि यशोधरको वन्दना करके राजा अपने भवनमें लौट आये। वे अब अपने मनसे मिध्या मतोंको दूर छोड़कर सज्जनोंका पालन करते हुए, सुखपूर्वक राज्य करने लगे । चेलना महादेवी के साथ वे सीताके साथ रामके सदृश अलंकृत दृष्टिगोचर होते थे । एक दिन जब वे नर-समूहसे भरे हुए अपने सभा भवनमें बैठे थे, तभी बनपालने आकर और हाथ जोड़कर विनती की कि हे महाराज, देवों और मनुष्यों द्वारा नमित, ज्ञान- दिवाकर, देवोंके देव, परमेश्वर महावीरका आगमन हुआ है ||२||
३
महावीरके विपुलाचलपर आनेकी सूचना और श्रेणिकका उनकी वन्दना हेतु गमन
बनपालने कहा - हे स्वामी, त्रिलोकके लोगों के शरणभृत इन्द्र द्वारा जिनके समोरगकी रचना की जाती है, जिन्होंने दुर्जय काम और कषायके रणको जीत लिया है, जन्म-जरा और मृत्युको दूर कर दिया है
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औरजिनपिउ [ ८ ३.५दुग्गइन्दु ह-पंकनिदाह निणु । विउल इरि पराइउ वीर-जिणु ।।
आयाणवि ए3 धरा-धरणु । तहो देवि सम्व-अंगाहरणु || सहसत्ति कयासण-परिहरणु । पय सत्त सु-विणयालंकरणु ।। परिओसिड तद्दिसि कय-गमणु । जय देव भणेत्रि पसन्न-मणु ॥ एणवेपिणु भू-यलि लुलिय-तणु । भेरी-रव-परिपूरिय-भुषणु ।। सम्मत संगय-सव्व-जणु । गड़ वंदण-त्ति करि व खणु ॥ गच्छंतु संतु संपय-भवणु।
संपत्तउ सेल-समीव-वणु ।। घत्ता-बर-बंस लग-पसंसल
स-करि म-हरि स-बमा स-सिरि । धर-धारउ रयणहिं सारउ
निय-समु राएँ दिछु गिरि ॥३॥
पणवेप्पिणु सम-परिणइ सणाहु । संथु पय-मत्ति-भरेण साहु ।। तेण वि सुह-दुह-गहमाग-हेन । उत्रासिउ धम्माहम्म-भेउ ।। निसुणेप्पिणु सासय-सुह-निहाणु । पडिवन्नर खाइ सहवाणु || जो विहिउ साहु-बह-करणि भाउ । तं सत्तम-निरा निबद्ध आउ ! कट्टिबि त उ निरु निम्मल-मणेण । पुणु बधु पढमि दसण-बलेण ॥ गुरु-संवेगेण मणोहिरामु । एत्यज्जिा पई तित्थयर नामु ।।
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८. ४. १२ ] हिन्दी अनुवाद तथा जो दुर्गतिके दुःखरूपी कीचड़को सुखाने के लिए ग्रीष्मकालीन दिनके समान हैं, ऐसे वीर जिनेन्द्र विपुलाचल गिरिपर आकर विराजमान हुए हैं। यह बात सुनकर राजा श्रेणिका अपमें समस्त दहक आभूषण वनपालको दे दिये और तत्काल अपने सिंहासनको छोड़कर सद्विनयसे अपनेको अलंकृत करते हुए वे सात पद आगे बढ़े। उन्होंने प्रसन्न होकर उसी दिन भगवानकी वन्दनाके लिए जानेका निश्चय कर लिया। उन्होंने 'जय देव' कहकर प्रसन्न मनसे भूमितलपर अष्टांग प्रणाम किया, और बन्दन-यात्राको सूचना-रूप भेरी बजवा कर उसकी ध्वनिसे समस्त भुवनको परिपूरित कर दिया। सब लोगोंके एकत्र हो जानेपर, राजा श्रद्धापूर्वक बन्दनाभक्तिसे प्रेरित हो उत्सव सहित चल पड़ा। चलते-चलते वह राज्यलक्ष्सीका निधान राजा श्रेणिक पर्वतकी भूमिके समीपवर्ती वनमें पहुंचा। वहाँसे राजाने उस पर्वतको देखा जो उसके ही समान श्रेष्ठवंश ( उत्तम कुल अथवा अच्छे बाँस वृक्षों ) से युक्त था, प्रशंसा प्राप्त था, हाथी, घोड़ों, चमर और शोभासे युक्त था, धराधारक तथा रत्नोंका सार था ॥३॥
महावीरका उपवेशा सुनकर राजा श्रेणिकको क्षायिक
सम्यक्त्वको उत्पत्ति
राजाने समता भावसे युक्त होकर भगवानको प्रणाम किया और उनके चरणोंकी भक्तिके भारसे प्रेरित हो उनकी स्तुति की। भगवान्ने भी राजाको शुभगतिमें जानेके हेतु धर्म तथा दुर्गति-गमनके हेतुभूत अधर्ममें भेद करनेका उपदेश दिया । बहु उपदेश सुनकर राजाने शाश्वत सुखके निधान क्षायिक सम्यक्त्वको प्राप्त किया। उन्होंने जो पहले साधुका बध करनेके भावसे सातवें नरककी आयुका बन्ध किया था, उसको काटकर अत्यन्त निर्मल भावसे अपने सम्यक् दर्शनके बल द्वारा उसे प्रथम नरकके आयुबन्धमें बदल दिया। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपने विशेष संवेग भावसे मनोहर तीर्थकर नाम-कर्मको अर्जित किया । गौतम गण
१३
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वोरजिणिदधरित [८. ४. १३ - मुवण-यह-पणयन्यायारविंदे। निवुद्ध-परे सम्मइ-जिण-बरिंदे ।। तिन्नि जि संबच्छर अट्ठ मास । दस अवर वियाणहि पंच दिवस ।। पत्निी अच्छेति तुरिगे काले । पंचत्त हवेसइ तुह् क्याले । सीमंत-नरण दुक्सहो खाणीहिं । जाणवउ प, पढ़मावणीहि ।। नारइट निरंतर-दुक्ख-बरिमु । होस हि चउरासी परिस-सहसु ।। नासारथि तओं हय-दुक्ख-जालि।
ओस प्पिणीहे तइयम्मि कालि ।। घत्ता-सिरिचंदुजल किनि जग-गुरु सब-सुहकर ।
नामें पोमु महाइ होसहि तुहुँ तित्थंकरु ॥४॥ इय वीरजिणि चरिश सेणिय-धम्मलाह-तिस्थयर-गोन-धो णाम
अट्टमो संधि ॥८॥
२५
( श्रीचन्द्रकुत कहाकोसु संधि १३-१४ से संकलित )
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८. ४. २६ ]
हिन्दी अनुवाद
९९
धरने राजा श्रेणिक से कहा कि हे राजन्, जब भुवनपतियों द्वारा जिनके चरणारविन्दको नमन किया जाता है वे सन्मति जिनेन्द्र निर्वाण प्राप्त कर लेंगे, तब उसके तीन वर्ष, आठ मास और पन्द्रह दिवस इतना समयमात्र चतुर्थकालका शेष रह जायेगा, तभी वयोवृद्ध होते हुए तुम्हारी मृत्यु होगी और तुम डुबकी खानि थम पृथ्वी में जाकर उत्पन्न होगे। वहाँ तुम निरन्तर दुःखकी वृष्टि सहते हुए चौरासी सहस्रवर्षों तक नारकीयके रूपमें रहोगे । बहाँसे अवसर्पिणीके तृत्तीयकाल में अपने सब दुःख जालको दूर कर निकलोगे और चन्द्रके समान उज्ज्वल कोर्तिसे युक्त सर्वसुखकारी जगद्गुरु महापद्म नामक तीर्थंकर होगे ||४||
इति श्रेणिक धर्मलाभ व तीर्थंकर-गोत्रबन्ध विषयक अष्टम सन्धि समाप्त || संन्धि ८ ॥
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܀
با
१५
२०
संधि ९
सेणिय-धम्म- परिक्खा
१
अवरु विजबगृहण अक्खागड | कहमि समुज्झिय-दो सुहागन ॥ च - विह- सुर- निकाय - मज्झत्थं । सुय-नाणीहि माण सामत्यें ॥ मिच्छा धम्म करेिंद्र मदे | अरंज कहा सुरिंदे ॥ धम्म-स्स करते संतें । फेडिय - पुच्छय जण सण-भंतें || भूलि राया सेणिय- सन्निङ | दिढ सम्मत्तु भणेपिणु वन्नि || तं निसुचि अ-सहसाउ । एपिणु नहि चोय-स-बिसाउ ॥ निप्रवि नराहिउ एंतु ससेण । मग सरोवर कडिय मीणउ || चामरवादिहाणु विखायउ | सुर-वरु जाल-इत्थु रिसि जायज || ता तहिं मगसरु संपत्त । जन आलोवि जालु त्रियंत ॥ गुरु-हारज मीणपंत | पण वेष्पिणु विणण उत्तर || मईं दानें होतेणाहम्सउ । जुज्जइ तुम्ह ई एल न कम्मर ||
घत्ता - जइ कज्जु भसेहिं तो तुम्ह है पासत्य पहु ॥ होएहिउँसंपामि मच्छ बहु || १ ||
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सन्धि ९ श्रेणिक - धर्म - परीक्षा
१
श्रेणिक के सम्यक्त्वकी परीक्षा हेतु वेबका धीवररूप धारण
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कवि कहते हैं कि अब मैं यहाँ उपगूहन गुणके दृष्टान्त स्वरूप राजा श्रेणिक विषयक आख्यान कहता हूँ, जो सम्यक्त्वमें उत्पन्न होते हुए दोषों का निवारण कराता है। एक बार श्रुतज्ञान और अवधिज्ञानका सामर्थ्य रखनेवाले तथा मिध्याधर्मरूपी गजेन्द्र के लिए मृगेन्द्रके समान सुरेन्द्रने चतुविध देव-निकायों के मध्य बैठे हुए सभासदोंके मनोरंजनार्थ धर्मकथा कही और प्रश्नकर्ताओंकी भ्रान्तियोंको दूर किया । इस सम्बन्ध में उन्होंने पृथ्वीत्तलपर वर्तमान राजा श्रेणिकको दृढ सम्यक्त्वधारी कहकर उसकी प्रशंसा की। उसे सुनकर एक देवको उसके सच होने का विश्वास नहीं हुआ । अतएव इसकी परीक्षा करने हेतु अपने विमानको आकाशमें चलाता हुआ वह देव वहाँ आया। उसने देखा कि राजा श्रेणिक अपनी सेना सहित कहीं गमन कर रहा है । अतएव वह देव चामरव नामक विख्यात ऋषिका रूप धारण कर तथा अपने हाथ में जाल लेकर राजाके मार्गवर्ती एक सरोवर में मछलियां पकड़ने लगा। जब मगवेश्वर वहाँ पहुँचे तब उन्होंने देखा कि एक ऋषि जाल फेंककर मछलियोंको पकड़ रहे हैं और उन्हें एक भारवाही अजिकाको देते जा रहे हैं। यह देख राजाने उन्हें प्रणाम किया और विनयपूर्वक कहा कि हे मुनिराज, मुझ दास के होते हुए, आपको स्वयं यह अधर्म कार्य करना उचित नहीं है। यदि आपको मत्स्योंसे काम है तो आप एक तरफ हो जाइए और मैं आपका यह मत्स्यबधका कार्य सम्पादित कर देता हूँ ॥ १ ॥
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१०
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बोरणिचरिउ
२
वियायि निम्स-उसमे परन्तु पर्व मुणिं तेग || वराहय एत्तियमेतहिं चैव ।
अन्नहिं नेत्र ||
को देवि ।।
ओणु मी तओ विरह कराउ लत्रि । करे अणिमेस गओ महावs रोहिं नवेचि । बिसज्जित संजय संजड़ वे वि ॥ निएबिणु तारिस ताण विधम्मु । दुइ लोड वियंबर-धम् ॥ मुणेवि विङ्क्षिण अन्न- दिणम्मि | बिनु संविसाये सति ॥ स- लेह-दलाउ नियंक-धराहु । करेपिशु मुद्द जीवणु ताहु || चिदिन्नड सव्वहुँ राय-सुयाहूँ । [ पुरीस वित्तिय कारिवि वाहूँ ] ॥ नवेष्पिणु निम्बिदिगिंछ-मणेहि । करेवि कथंजलि सत्व जहि ॥ चडाचिंड ताड उपवि स-सीसे I स-सेहर चंपय-वास विमी ||
[ ९.२.१
घत्ता - तं निविणिवेण भणिय सञ्च सामंत वरे । मुद्दियड कियाउ किं तुम्हहिं विरुयाउ सिरे ||२॥
३
जय सत्तु च सुव-सामि चक्केण | विएण संविच सामंत चक्कंण ॥ एहम्ह जीवस्स चैयणन तजु जेम । संपुणिनादि-वंद प्रिय फुडु तम || तं वयणु निसुणेवि कुल-कुमुय - चंद्रेण । विसेवितं भणिय सेशिय-नरिंदेश ||
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-२. ३. ६ ]
हिन्यी अमुवाव
देवमुनिके धोवर-कर्मसे लोगों में दिगम्बरधर्मके प्रति घणा तथा
थणिक द्वारा उसका निवारण राजाकी उस बातसे देवने अपने मन में जान लिया कि राजाका सम्यक्त्वभाव सर्वथा विशुद्ध है । तथापि उन्होंने बहाना बनाकर कहाहे राजेन्द्र, हमें इतने ही मत्स्योंसे प्रयोजन है, हमें और नहीं चाहिए । तब राजाने उस विरता आमिकाके हाथसे मत्स्योंको ले लिया और अपने सेवकको सौंप दिया। फिर उन्हें नमस्कार करके मगध नरेश अपने घर चले गये तथा उस संयमी और संयमिनी दोनोंको बिदा कर दिया। उस मनि और अजिकाके उस अधर्म-कार्यको देखकर लोग दिगम्बर धर्मसे घृणा करने लगे। यह बात जानकर उस बुद्धिमान् राजाने एक दिन, एक निदर्शन ( उदाहरण ) उपस्थित करके दिखलाया। उन्होंने जीवन वृत्तिसम्बन्धी लेखपत्रोंको अपनी माग-मुद्वारो मानित करने लगा उन्हें पलसे विलित करके सब राजपूत्रोंको वितरण कर दिया। उन्होंने उन दानपत्रोंको पाकर मनमें किसी प्रकारके घृणाभाव धारण किये बिना हाथ जोड़कर राजाको नमन किया, और दानपत्रोंको अपने मुकुटयुक्त तथा चम्पक पुष्पोंकी बाससे सुगन्धित सिरोंपर चढ़ा लिया। यह देखकर राजाने उन सब श्रेष्ट सामन्तोंसे कहा कि तुमने मेरी उन मलिन मुद्राओं को अपने सिरपर कैसे रख लिया ? ॥२॥
मलिन मुद्राओं के उदाहरणसे सामन्तोंको शंका-निवारण व देव
द्वारा राजाको वरदान राजाके उक्त प्रकार पूछनेपर शत्रु-चक्रको जीननेवाले तथा अपने स्वामीके भक उन सभी सामन्तोंने विनय पूर्वक उत्तर दिया-हे देव, जिस प्रकार हमारा यह शरीर मलिन होनेपर भी चेतना गणतो कारण श्रेष्ठ माना जाता है, उसी प्रकार आपके द्वारा दिये हुए ये मुद्रांकित पत्र मलिन होते हुए भी हमारी जीविकाके साधन हैं, अतएव वे सब प्रकार पूजनीय और वन्दनीय हैं। उनके इस वचनको सुनकर अपने कुलरूपी कूमदको चन्द्रमाके समान प्रसन्न करनेवाले श्रेणिक नरेन्द्रने मुसकराते हुए
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वीरजिणिवचरित [२. ३. ७. जइ निहिल-जिय-नाह-जिण-मुद्द-धारस्स । गुरु-लिणाम गुरुले पनि स्ः ।। मई मुयवि विदिगिंछ नवग्राम किन तासु । ता तुम्ह किं कारणं करहु उवहासु ।। ता तेहिं तं मन्तियं कय-पणामेहिं । मन्नाविओ सामिओ विहिय-सामेहि ॥ तुहुँ एक्कु पर धष्णु भो राय-रापस । जसु अचलु मागु धम्म कय-पाव-विहेम ।। निग्वज्जु जय-पुज्ज पर एक्कु जिण-धम्म । दोस अ-सक्कस्स कि होइ नउ गम्मु ॥ तं सुणिवि आवेवि देवेण नर-नियर | माझे नृवो भणिउ हो भावि-तित्थयर ॥ चुत्तो सि तुहुँ जारिसो देव-रापण | अहिपण फुडु तारितो धम्म-रापण ।। इय भणिधि पुज्जेवि वित्तंतु अक्वेवि । गउ अमरु मुरलोउ तहो हारु बरु देवि ॥ तं नियघि वित्तंतु मिच्छत्ति पविरत्तु ।
संजाउ जणु सव्वु जिण-समय अगुरत्तु ।। घत्ता-अवरेण वि एव सासय-मोक्थुक्कंठिाण || कायन्बु सया वि उवगृहणु समय-
हिण ||३||
२५
ह्य वोरजिणिदचरिए सेशिय-धम्म-परिक्रया-णाम
णवमो संधि ॥१॥
( श्रीचन्द्रकृत कहाको संधि ३ से संकलित )
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९. ३. २६ ]
हिन्दी अनुवाद
१०५
7
उनसे कहा -- यदि ऐसा है तो मैंने यदि समस्त दुष्कर्मो को जीतने वाले जिनेन्द्र भगवान की मुद्रा धारण करनेवाले, धीवर मुनिको भी गुरुविनयपूर्वक, घृणा छोड़कर, नमस्कार किया तो तुम लोग किस कारण मेरा उपहास करते हो ? राजा के इस दृष्टान्तसे उन सभी सामन्तोंने धर्मके मर्म की बात समझ ली। उन्होंने राजाको प्रणाम किया और समताभाव सहित अपने स्वामीको मना लिया। उन्होंने कहा- हे राजराजेश्वर हे पापविद्वेषी, आप ही एक धन्य हैं, जिनका मन धर्ममें इस प्रकार अचल है । यह जिनधर्म ही निर्दोष और सर्वोपरि जगत्-पूज्य है। जो कोई दोषों में अनासक्त है उसके लिए वह गम्य क्यों नहीं होगा ? यह सब देख सुनकर वह देव वहाँ आया, और समस्त जनसमूहके मध्य राजासे बोला – हे भावी तीर्थकर, तुम्हारा जिस प्रकार वर्णन देवराजने किया था, उससे भी कहीं स्पष्टतः, कहीं अधिक तुम्हारा धर्मानुराग है । ऐसा कहकर, राजा की पुजाकर तथा अपना पूर्व वृत्तान्त सुनाकर वह देव राजाको एक सुन्दर हार देकर देवलोकको चला गया। इस वृत्तान्तको देखकर सब लोग मिथ्यात्वसे विरक्त तथा जैनधर्म में अनुरक्त हो गये । अन्य जो कोई भी धर्मावलम्बी शाश्वत सुखरूप मोक्षके लिए उत्कण्ठित हो उसे भी सदा इसी प्रकार उपगूहुन अंगका पालन करना चाहिए ॥ ३॥
१४
इति श्रेणिक - धर्म - परीक्षा विषयक नवम सन्धि समाप्त ॥ सन्धि ९ ॥
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1
የ
ܕ
संधि १०
सेणिय सुय-वारिसेण - जोय-साहणं
१
सिरिसेवि बेह्मण देविश
काले जंतें मल- बिलउ । संजणिय णामैं भणियउ
वारिसे सु गुण - निलउ ॥ रायरोहि पक्ष साहिय- रायड़ो । वारिसेणु सुड सेणिय-रायहो ॥ सण-ना-चरित-समिद्धउ | पालिय-वासु पसिद्धउ ॥ एयंत्ररु निसि पडिमा - जोएँ । अच्छ पिउवर्ण पाव- विओएँ । तम्सि चेय नयर म्मि सत्तासउ । अस्थि चोरु विज्जुनचर - नामउ ||
भण-मोहणाइ बहु-विज्जउ । अंजण सिद्ध कयं व विज ॥ साहस-पउ बहु-वस'मार्फत | गणिया सुंदरि गणिया कंतर ॥ एक्कहिं दियहि जाम तह मंदिरु | जाइ निखहिं सो नवगादिरु || ताम भज पेच्छ विच्छाई । विराय - चंद चंद्रम नं राई ॥ पुच्छिय मन्त्रावि वराणणि । ag समोर काहूँ अकारण || भाइ गणिया सुंदरि दुल्लह न तुज्वरि कोहु हु बल्ल ॥
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सन्धि १० श्रेणिक-पुत्र वारिपेणकी योग-साधना
वारिषेणको धार्मिक वृत्ति । विशुच्चर चोरको प्रेयसो गणिकासुन्दरीको
चेलना रानीका हार पानेका उन्माद कुछ समय जानेपर लक्ष्मी द्वारा सेवित चेलनादेवीने वारिषेण नामक पुत्रको जन्म दिया, जो पाप-विनाशक तथा मुणोके निधान हुए। राजगहमें नीतिसे समस्त राजाओंको नीतिके मार्गसे अपने वश में करनेवाले राजा श्रेणिकका यह वारिषेण नामक पुत्र दर्शन, ज्ञान और चारित्र से सम्पन्न पर्वोपवासका पालन करनेवाला प्रसिद्ध हो गया। एक बार वह एक वक्ष धारण किये हुए श्मशानमें रात्रिके समय पाप-विनाशक प्रतिमायोगसे स्थित था। उसी नगरमें लोगोंको त्रास देनेवाला विद्यच्चर नामक चोर रहता था। वह स्तम्भन, मोहन आदि बहुत सी विद्याओंको जानता था, और अंजनसिद्ध (अंजन द्वारा अदृश्य होनेकी कलाका ज्ञाता ) था, जैसे मानो साक्षात् यमराज हो । वह बड़ा साहसी तथा अनेक व्यसनोंके वशीभूत था । इसका प्रेम नगरकी प्रसिद्ध वेश्या गणिकासुन्दरीसे था। एक दिन जब वह अपनी उस प्रेयसीके नेत्रोंको सुखद निवासपर रात्रिके समय गया, तब उसने अपनी उस प्रेयसीको उदासमन देखा, जैसे मानो चन्द्रमाकी चाँदनीसे रहित रात्रि हो। चोरने उसे मनाकर पूछा, हे सुन्दर मुखी, तू बिना कारण मेरे ऊपर रुष्ट क्यों हो गयी है ? इसपर गणिकासुन्दरीने कहा, हे मेरे दुर्लभ वल्लभ, मेरा तुम्हारे
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बौर जिणिवचरिउ
किंतुजाण चणम्मि महा-पहु । चिह्नण-देविहि कंठि सुहाबहु || हारु निरवि मज्झ उम्माहुउ | जाविव भोयधण-लाहउ ॥ far पवि पि तेगुद्देएँ । ता धीरिय धण कय-जय खेएँ । पत्ता- उहि देवि करि सिंगारु चित हणहि । किं एक्के ते अवरु वि आणमि जं भणहि ॥६॥
[ १०.१.२५ -
रंजिऊण भामिणीहि अद्धरति रायगेहु निम्गओ लपवि हारू नं कयंत बद्ध-कोह हारतेय-मग्गिलग्ग जे मसाणे हकमाण काउसरिंग अमाणु तत्थ पाच-पक्खि- सेणु घल्लिऊण चंदहासु नं किले सिद्ध कोि तं नियवि हरु लेवि तेहि भासिय सुणेषि. राइणा सिर धुणेवि । पेसिया भडा भवि महु तासु के लुवि । दुट्टपण किं सुषण कुसुण किं सुषण | किंकरा सुणेवि वाणि पत्थर खरगपाणि । झन्ति एत तं परसु जन्थ सो विसुद्ध-लंसु । यत्ता - चलदिसु वेदेवि कोलिङ सो तेहि हि । रयणायर-वेळ- जल-कल्लोलहिं सेलू जिह ||२||
चित्तु हंसगामिणीहिं | पिच्छ-नेहु |
बुझिअम पात्र चारु | धाइया नरिंद्र जोड़ |
वास माया समा । बाण जालु मेल्लमाण | अपि अप्पु झायमाणु । पेच्छिवारिसेणु | पाय- मूलि हारु तासु । सो थिओ अ-लक्खु हो । गंपि सामिणो नवेबि
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१०. २. १८ । . हिन्दी अनुवाद ऊपर कोई क्रोध नहीं है। किन्तु उद्यानवनमें मैंने चेलनादेवीके गले में महाकान्तिवान् और मुहावना हार देखा है, जिससे मुझे उसे पानेका ही उन्माद हो उठा है और अन्य भोग व धनके लाभकी कोई इच्छा नहीं रही है। हे प्रिय, उसी उद्वेगसे सब कुछ छोड़कर बैठी हूँ। अपनी प्रेयसीको यह बात सुनकर लोगोंको दुःख देनेवाले उस चोरने अपनी उस प्रियाको धैर्य बँधाया। उसने कहा-हे देवी, उठो-उठो, अपना शृंगार करो और चिन्ताको छोड़ो। उस एक हारकी तो बात ही क्या है, और भी जो बस्तु तुम कहो उसे लाकर दे सकता हूँ ॥१॥
विद्यच्चर चोर द्वारा रानोके हारका अपहरण तथा राजपुरुषों द्वारा पीछा किये जानेपर ध्यानस्थ धारिषेणके पास हार फेंककर
पलायन । राजा द्वारा वारिषेणको मार डालनेका आदेश अपनी उस हंसगामिनी भामिनीके चित्तको इस प्रकार प्रसन्न करके विद्युच्चर चोर अर्द्धरात्रिके समय धनके लोभसे राजमहलमें जा घुसा और रानीका हार लेकर वहाँसे निकल भागा। उसके पैरोंकी आहट सुनकर राजाके योद्धा सेवक क्रोधपूर्वक यमराजके समान उसके पीछे दौड़ पड़े। वे चोरके हाथमें जो हार था, उसके तेजके मार्गसे ही उसके पीछे लगे थे। वे हाँक लगा रहे थे और बाणजाल छोड़ रहे थे। जब वह चोर श्मशान में पहुँचा, तब उसने वहाँ कायोत्सर्ग मुद्रामें स्थित अपने में अपनी आत्माका ध्यान करते हए वारिषेणको देखा। वह पापी चोर श्येन पक्षीके समान वारिषेणके चरणोंमें, अपने उस चन्द्रहास हारको फेंककर, किसी सिद्ध हुए क्लेशके समान अदृश्य होकर ठहर गया। राजसेवकोंने हारको देखा और उसे लेकर वे राजाके पास गये। उन्होंने राजाको सत्र वृत्तान्त सुना दिया। उनकी बात सुनकर राजाने अपना सिर हिलाया और अपने भटोंको यह कहकर भेजा, कि तुम जाकर वारिषेणका सिर काट डालो। दुष्ट पुत्रसे क्या लाभ ? कुत्सित शास्त्रके मुननेसे क्या हित होता है ? राजाकी वाणी सुनकर वे किंकर हाथमें खड्ग लेकर तत्काल उस स्थानपर पहुँचे जहाँ शुद्ध भावनाओंसे युक्त बारिषेण ध्यानमग्न था। भटोंने उसे चारों ओरसे घेरकर ऐसा झकझोरा जैसे समुद्र तटपर जलकी कल्लोलोंसे पर्वत ॥२॥
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११०
वीरजिणिवपरित
[१०.३.१
जाई जाई पहरणई सरोसहि । मुकई रायाएसे दासहिं । ताई ताई होइषि सययत्तई । धम्म-फलेण धरायलु पसह। पुणु असि-लहि पमेल्लिय कंठहो। विज्जु व मेहहिं गिरि-उचकंठहो।। सा वि माल संजाय सुहिल्लिय | नं तव-बहु सयंवरि घल्लिय ।। तहि अवसरि नहिं दंदुहि वज्जिय । एवि सुरेहिं तासु पय पुजिय ।। तं सुणवि किय-पर-वसाएं । गंपि पुत्तु मनाविज राएँ ॥ . अच्छिउ तो वि नेव कुल-मंडणु | जाउ महा-रिसि कोह विहंडाणु ॥ एक्काह वासरि पालिय दिक्खह । गामु पलासखेड गउ भिक्खहे ।। तत्थ फुफ्फ-डालेण नियन्छिन । चाल-सहाएँ एंतु पडिम्छि। भुंजाविवि बोलाथहुँ मुणिवरु । निग्गउ पिय पुच्छेपिणु दियवरु ।। रम्म-पएस सयाई कहतउ । गउ दूरंतहो पय पणवंतउ ।। तो वि नियतहे भणइ न संजउ ।
गय वेगिण यि जण जाहिं रिसि-आसउ ।। पत्ता-केश वि तहिं बुत्तु वक्रे ण गुण-मणि-खणिहे ।
तवचरणहो आउ सहयरु वारिसेण-मुगिह ।।३।।
२५
तं सुणेवि लजण यध्वइयउ । अभिछउ रइ-संभरणे लक्ष्यः ।। बारह बरिसई महि विष्टरंतत्र । समवसरणु स-मित्तु संपत्तउ ।।
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१०. ४.४ 1
हिन्यो अनुवार
देवों द्वारा वारिषेणको रक्षा । राजाके मनानेपर भी मुनि
बीक्षा एवं पलासखेड प्राममें आहार ग्रहण राजाके आदेशानुसार उसके ने रोषपूर्वक पी. ५.९६-३.१४ छोड़े वे सभी वारिषेणके धर्मफलसे कमलपुष्प होकर धरातल पर गिरे। तब राज-पुरुषों ने उसके कण्ट पर खड्गसे प्रहार किया, जैसे मेधपर्वतकी उपकण्ठ भूमिपर बिजलीका प्रहार हुआ हो । किन्तु वह खड्ग भी सुखदायी पुष्पमाला बनकर उसके कण्ठपर ऐसा गिरा जैसे मानो तपरूपी वधने उनके गले में स्वयंवर-माला अपित की हो। उस अवसरपर आकाशमें दुन्दुभी बजी और देवोंने आकर उनके चरणोंकी पूजा की। इस अतिशयका वृत्तान्त सुनकर राजाको बहुत खेद हुआ और उसने स्वयं जाकर अपने पुत्रको मनाया । किन्तु इसपर भी वे कुलभूषण वारिषेण घरमें न रहे । वे क्रोधके विनाशक महाऋषि बन गये। ___ अपनी दीक्षाके व्रतोंका पालन करते हुए, एक दिन धारिषेण मुनि भिक्षाको लिए पलासखेड़ नामक ग्राममें गये। वहां उनका बालकपनका साथी पुष्पडाल नामक ब्राह्मण रहता था। उसने जब वारिषेणको गाँवमें आते देखा तो उन्हें आमन्त्रित किया और आहार कराया। वह मुनिवरके मुखसे कुछ बुलवाना चाहता था, अतएव अपनी भार्यासे पूछकर मुनिके साथ ग्रामसे चला गया। वह सैकड़ों रम्य प्रदेशोंका वर्णन करता जाता था। बहुत दूर तक चले जानेपर उसने मुनिके चरणोंमें प्रणाम किया, किन्तु इसपर भी उन संयमी मुनिने उसे लौट जानेको नहीं कहा, और वे दोनों जन उस स्थानपर पहुँच गये जहां ऋषि-आश्रम था। वहाँ किसी एकने व्यंगात्मक वाणीमें कहा, देखो, इस गुणरूपी मणियोंके खान बारिषेण मुनिका एक सहचर तपश्चरणकी दीक्षा लेने यहाँ आया है ॥३॥
पुष्पडाल ब्राह्मणको दीक्षा, मोहोत्पत्ति
और उसका निवारण पूर्वोक्त बात सुनकर वह ब्राह्मण लज्जित हुआ और उसने प्रवज्या ग्रहण कर ली। तथापि उसे अपनी गृहस्थीके भोगविलासका स्मरण बना रहता था। उसने अपने मित्रके साथ बारह वर्ष तक विहार किया और
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११२
पोजिणिवरित [ १०.४.५तत्थ नवेषिगु बीर-जिणिदहो। बे वि बइठ्ठ मज्झि मुणि-विंदहो। धम्माहम्मु सुहासुह-संगमु । सागवाना कर निमाम्। अंसह तालया-हर भडवि। गायन केण वि सुर-गण-तंडवि ।। "मइल कुचेली दुम्मणा नाहें प्रयसिएण | किमा जीवेसह धणिय धर उज्यंती विरहेण ॥" सुणवि ए दिय-मुणि मणि सल्लिन । पियह पासु निय-गामहो चल्लिउ ।। चलमणु परियाणेप्पिणु धुत्त । नित्र निय-नयरहो भोलिवि मिते ।। पुत्तु स-मित्तु एंतु पेक्वप्पिा । सहसा अन्मुट्ठाणु करेप्पिणु || नविवि परिक्खा-हेज रवन्नई। चेल्लमान आसणई विइण्णाई ॥ नीरायासणम्मि वइसेमिणु । निय-अतेउर कोकावेप्पिणु ॥ लइ लइ एयज मित्त स-रज्वउ | भणिट चारिसेणेण मणोजउ ।। किं भष्णु एका तान निहीण। बंभणी दोगक, खीण ।। तं निसुणेवि सुट्ट सो लजिउ । दिढ-मणु दु-प्परिणाम-विजित || तहो दिवसहो लग्गिवि संजायउ ।
गुरु-आलोयाय-तिल्थे पहायच ।। घत्ता-अवरेण चि एवं चल-चित्तहो दुफिय-हरणु ।
कायबु अवस्स पजर-पत्तिहिं ठिदिकरणु ।।४।। हय वीरजिणिदचरिण सेणिय-सुय-वारिसेण-जोय-साहणं
___ शाम दहमो संधि ॥१०॥ ( श्रीचन्द्रकृत कहाकोसु संधि ३ से संकलित )
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१०. ४.३२ ]
हिन्दी अनुवाद
११३
तत्पश्चात् वे भगवान् महावीरके समवशरणमें जा पहुँचे । वहाँ उन्होंने वीर जिनेन्द्रको नमन किया और दोनों जन मुनिवृन्द के बीच जा बैठे । उन्होंने वहाँ धर्म के द्वारा शुभकर्म और अधर्म के द्वारा अशुभ कर्मके आगमनका उपदेश सुना और तत्पश्चात् वे वहाँसे बाहर निकल आये । जब वे जा रहे थे, तब एक स्थानपर लतागृह मण्डप में देवगणोंके ताण्डव नृत्य के साथ किसीके द्वारा गाया हुआ एक गीत सुनाई पड़ा जो इस प्रकार था अपने पतिके प्रवास में जानेपर उसकी मैली-कुचैली उदासमन पत्नी विरहसे जलती हुई कैसे जीवित रह सकती है ? यह गीत सुनकर उस द्विज- मुनिके मन में शूल उत्पन्न हुआ और वह अपनी प्रिया के पास पहुँचने के लिए अपने ग्रामकी नीरव पड़ा उसको हुआ जानकर उसका चतुर मित्र भुलावा देकर उसे अपने नगरकी ओर ले गया । अपने पुत्रको मित्र सहित आते देख रानी चेलना ने अकस्मात् उठकर उनका स्वागत किया, नमन किया और परीक्षा हेतु, उन्हें रमणीय आसन बैठनेको दिये । किन्तु वारिषेण त्यागियोंके योग्य आसनपर ही बैठे। फिर उन्होंने अपने अन्तःपुरकी स्त्रियोंको बुलवाया और कहाहे मित्र, इनमें जो तुम्हें मनोज दिखाई दें, उन्हें राज्य सहित ग्रहण कर लो। भला बतलाओ, इनके आगे उस एकमात्र दीन-हीन तथा दुर्गतिसे क्षीण ब्राह्मणीसे क्या लाभ? वारिषेणकी यह बात सुनकर वह ब्राह्मण बहुत 'लज्जित हुआ। उसने अपने मनकी दुर्भावनाओंको छोड़ दिया और बहु धर्ममें दृढ़मन हो गया। उस दिनसे लेकर वह सच्चा संयमी बन गया और उसने अपनी पाप भावना की आलोचनारूपी तीर्थ में स्नान कर लिया ।
-
.
इसी प्रकार दूसरोंके द्वारा भी जिसका मन धर्म से चलायमान हो, उसका अवश्य ही उत्तम उक्तियों और उदाहरणोंसे पाए विनाशक स्थितिकरण करना चाहिए ।
१५
इति श्रेणिकपुत्र वारिपेणकी योगसाधना विषयक दश सन्धि समाप्त ॥ सन्धि १० ॥
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संधि ११ सेणिय-सुय-गयकुमार-दिक्खा
पेच्छह जिणिद-धम्महो पहाउ । तलिय: मलहमारे सार। अट्ठारह-जल-निह्नि जीवियंति । पुरे रायगेह मगहा जणते । धणसिरियह सेणिय निथ प्रणा । अबइन्नु जयरे नव-जोव्वणाहे ॥ सिबियंतरे देविण दिद? भाउ । पंचमण मासे दोहलउ जाउ ।। पुरि परियायेण सहुँ रह्य-सोहे। आरूहे वि दुरा चल-मायरोहे ।। बरिसंत विमले जले दुद्दिणम्मि । मह उच्छवेण गंपिणु वम्मि ॥ कीलेव अस्थि पियाणुराउ। चिंताविउ तं णिसुणेवि राम ।। सो अभयकुमार चारु-चित्त । पूरविड सरेपिपणु खयरु मित्त ॥ सोहाण-दिणे जण-गण-जणिय हरिसु । उत्पन्नउ धन्नउ पुल-पुरिसु ॥ सिविणण गउ देविश विदछु जेण |
किउ गयकुमार तहो नामु तेण || घत्ता-वदिउ जाउ जुवाणउ सयल-कला-कुसलु ।
मयणु व हवे जिणेसर-पाय-पोम-भसलु ॥१॥
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सन्धि ११ श्रेणिक-पुत्र गजकुमारकी दीक्षा
श्रेणिक-पत्नी धनश्रोका गर्भधारण, दोहला
तथा गजकुमारका जन्म जैनधर्मके इस प्रभावको देखिए कि एक तिर्यंच भी सहस्त्रार स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ अपनी अठारह सागरोपम आयुके पश्चात् वह मगध देशके राजगह नगरमें श्रेणिक राजाकी नवयौवना पत्नी धनश्चीके उदरमें अवतीर्ण हुआ। रानीने अपने स्वप्न में एवा नाग ( हस्ती ) देखा और तदनुसार ही गर्भके पांचवें मासमें उसे एक दोहला उत्पन्न हुआ। उसकी इच्छा हई कि पूरीके परिजनों सहित शोभायमान ब भ्रमरसमूहोंसे युक्त हाथी. पर आरूढ़ होकर जब आकाश मेघाच्छादित हो और शुद्ध जलवृष्टि हो रही हो, तब महात् उत्सबके साथ वनमें जाकर क्रीडा की जाये। अपनी प्रियपत्नीकी यह इच्छा जानकर प्रियानुरागी राजा श्रेणिक चिन्तित हो उठे। किन्तु इस दोहलेकी पूर्ति अभयकुमारने अपने सदभावपूर्ण विद्याधर मित्रके स्मरणसे की। तत्पश्चात् एक शुभ दिन वह धन्य पुण्यशाली पुरुष उत्पन्न हुआ, जिसने सब लोगोंकी मनःस्थितिमें हर्ष उत्पन्न कर दिया। देवीने अपने स्वप्नमें एक गजको देखा था, अतएव उनके उस पुत्रका नाम गजकुमार रखा गया। बढ़ते-बढ़ते गजपुत्र यौवनको प्राप्त हो गये। वे समस्त कलाओंमें कुशल, मदनके समान सुरूप तथा जिनेश्वरके चरणकमलोंके भ्रमर समान सेवक हुए ॥१॥
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बोरजिणिवरित
[ ११.२.१
एकहि वासरि बीरु जिणेसा। आगउ गउ तं नवहुँ नरेसरु ।। आयन्नेवि धम्मु वित्थार। लइय दिक्ख तहिं तेण कुमार ।। संचरंतु आगने तिस्थयरहो। गउ कलिंग-बिसयहो दंतिउरहो ।। पच्छिम-दिसिह दिगंवर-सार । गयकुमारु गिरि-सिहरे भडार उ ।। थिउ आयावणे जोय-निरोह । पणविउ गंपिणु भन्न-नरोह ॥ तन्नयराहियेण पर-सीह । विसम-बहरि-दाणव-नरसीह ।। तिव्वायउ विसहंतु नियन्छि । बुद्धदासु मिय-मंति पपुच्छिउ ।। संघहि काई एउ एमच्छइ ।
ता पन्चुत्तर पिसुणु पयच्छह ।। धत्ता-एहु अणाहु समीरे सुट्ट कत्थियः ।
तेणत्यच्छह सामि तिब्बायवे थियड ॥२।।
पुच्छिउ पुणु वि गरिंदै आयहो। फिट्ट केम पहजणु कायहो। भणिउ अमचे एत्तिउ किजइ । एयहो सिल तावेपिणु दिजइ ।। ता पुहईसे सो जे पउत्त। कारावहि पडियार निरुत्तउ ।। तेण वि पाविय-रायापसें । सिल लावावेवि मुक्क विसेसें ।। एत्तहे चरिय करेवि नियत्तज | तत्थारूदउ चारु-चरित्तः ॥
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११. ३. १०)
हिन्दी अनुवाद
११७
गजकुमारकी वीक्षा, वन्तीपुरकी यात्रा तथा
वहाँ पर्वतपर आतापन योग एक दिन वहां वीर जिनेन्द्रका आगमन हुआ। उनको नमन करनेके लिए राजा श्रेणिक उनके पास गये, उस अवसरपर विस्तारपूर्वक धर्मोपदेशका श्रवण करके गजकुमारने वहीं दीक्षा ले ली। वे फिर तीर्थंकरको आज्ञानुसार विचरण करते हुए कलिंग देशके दन्तीपुर नामक नगरमें पहुँचे। नगरकी पश्चिम दिशामें पर्वतके शिखरपर वे श्रेष्ठ और पूज्य दिगम्बर मुनि गजकुमार योग-निरोध करके आतापन योगमें स्थित हो गये । भव्यजनोंने जाकर उन्हें प्रणाम किया। उस नगरके राजा नरसिंह, जो अपने बैरीरूपी दानवोंके लिए नरसिंह थे, ने गजकुमार मुनिको तीन आताप सहते हुए देखा और अपने मन्त्री बुद्धदाससे पूछा कि इस मुनिसंघमें यह एक मुनि इस प्रकार क्यों आताप सह रहा है ? इसपर उस दुष्ट मन्त्रीने उत्तर दिया-यह बेचारा अनाथ वातरोगसे अत्यन्त पीड़ित हो गया है और इसलिए वह इस तीव्र सूर्यकी गर्मी में स्थित है ॥२॥
शिला-सापनसे उपसर्ग, गजकुमारका मोक्ष और
राजा तथा मन्त्रीका जैनधर्म-ग्रहण मन्त्रीकी यह बात सुनकर राजाने उससे पूछा कि मुनिके शरीरका यह वातरोग किस प्रकार मिटाया जा सकता है ? अमात्यने कहामहाराज, ऐसा करना चाहिए कि इनके बैठनेकी शिलाको तप्तायमान कर दिया जाये । तब इसपर राजाने मन्त्रीसे कहा कि तुरन्त मुनिके रोगका यह प्रतिकार करा दो। मन्त्रीने भी राजाका आदेश पाकर उस शिलाको खूब अग्नि द्वारा तापित कराके छोड़ दिया। इधर जब गजकूमार मुनि नगरमें आहारनिमित्त चर्या करके लौटे तब वे शुद्ध चारित्रवान् उसी तपी
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१५
२०
११८
affairs
सो उवसग्गु सहेपिणु धीरज । मोक्खो जाय अ-सरीरउ || देवगम निवि उवसंत | जाड बुद्धदासु जिण भत्तउ ॥ नरसीह वि नरपालहो पुत्तहो । रज्जु समपेवि गुण- गण - जुत्तहो || राय सहासें सहुँ पव्वइयउ | हुउपसिधु तत्र असइ !!
चत्ता - सिरिचंदुजल- काय देव- निकाय - धुर । जायद गेवज्जामरु काले कलुस - चुउ ||३||
[ ११३. ११
इय वीरजिदिचरिए सेणियसुय-गय कुमार - दिवखावणो प्रणाम एयदहमो संधि ॥११॥
( श्रीचन्द्रकृत कहाको ४९ से संकलित )
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११.३.२० ]
हिन्दी अनुवाद
११९
हुई शिला पर आसीन हो गये । उस उपसर्गको धैर्य के साथ सहन करके वे मोक्षगामी और अशरीरी सिद्ध हो गये । उस समय उनके निर्वाण-उत्सवके लिए जो देवोंका आगमन हुआ, उसे देखकर बुद्धदास मन्त्रीके मनमें भी उपशम भाव उत्पन्न हो गया और वह जिन भगवान्का भक्त हो गया । राजा नरसिंह भी अपने गुणशाली पुत्र नरपालको राज्य समर्पित करके अन्य एक सहस्र राजाओंके साथ प्रबजित हो गये, और वे अपनी तपस्या द्वारा अत्यन्त प्रसिद्ध हुए। वे चन्द्रके समान उज्ज्वल - काय होते हुए, देवसमूहों द्वारा प्रशंसित होते हुए, यथासमय पापोंसे मुक्त होकर, ग्रैवेयक स्वर्ग में देव हुए ||३||
इति श्रेणिकसुत गजकुमारकी दीक्षा विषयक ग्यारहवीं सन्धि समाप्त ॥ सन्धि ११ ॥
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संधि १२ तित्थंकर-देसणा
कय-पंजलि-यन एणमंत-सिस
भत्ति-हरिस-वियसिय-बयणु | संसार-दुक्ख-गिव्य उ
जोयवि मिलियउ भन्व-याणु ।। ता णिग्गंत-धीर-दिब्ब-झुणि
तोसिय-फणि-णरामरो। जीवाजीव-णाम-कय-भेयई
तञ्चई कहइ जिग्णवरो॥ साभवाभव जीव दुभेय होति । ते म-भव स-कम्में परिणमंति ।। चउरासी-जोणिहि परिभमंति । अण्णाग-देह-राएं रमंति।। वियलिंदिय सयलिंदिय अणेय । एकिंदिय भासिय पंच-भेय ।। आहार-सरीरिदिय मणाह। आणा-भासा-परमाणूयाहूँ ।। जं कारणु णिवत्तण समत्थु । तं पजत्ति-त्ति भागति एत्थु ।। तं कठिवह परमेसें पात्रत्त । अहमेण ठाइ अंतोमुहुत्तु ॥ जित पारणसु तिह सुर-वरेसु । दस-बरिस-सहासई वसइ तेसु ।। परमें ति-तीस सायर-समाई। मणुपसु तिषिण पलिओषमा ।।
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सन्धि १२
तीर्थंकरका धर्मोपदेश
१
भोंको प्रार्थनावर जिनेन्द्रका उपदेश - जीवोंके भेद-प्रभेव
J
जब जिनेश्वर भगवान्ने भव्यजनों को हाथ जोड़, सिरसे प्रणाम करते हुए, भक्तिपूर्वक हर्षसे प्रफुल्ल-मुख तथा संसारके दुःखोसे उद्विग्न होकर वहाँ एकत्र होते देखा, तब उन्होंने अपने मुखसे निकलती हुई धीर और दिव्य ध्वनि से नागों, मनुष्यों और देवोंको सन्तुष्ट करते हुए तत्वों के स्वरूपका वर्णन किया। उन्होंने कहा कि संसार के समस्त वस्त्र मुख्यतः दो भागों में बाँटे जा सकते हैं। एक जीव और दूसरा अजीव । जीव पुनः दो प्रकारके हैं - सभव अर्थात् संसार में भ्रमण करनेवाले और दूसरे अभव अर्थात् मुक्त जीव जो निर्वाणको प्राप्त हो गये हैं और जिनको अब पुनर्जन्ममरणकी बाधा नहीं रही। जो वे संसारी जीव हैं, वे अपने-अपने कर्मानुसार परिणमन कर रहे हैं । वे जीवोंकी चौरासी लाख योनियोंमें भ्रमण कर रहे हैं, और अन्य अन्य शरीर धारण करके उन्हीं के अनुरागमें रमण करते हैं । इन्द्रियोंकी अपेक्षा जीव तीन प्रकारके हैं- एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रिय । इनमें एकेन्द्रियके पुनः पाँच भेद कहे गये हैं जिनका आगे वर्णन किया जायेगा। इन सभी प्रकारके जीवोंके आहार, शरीर, इन्द्रिय, आनप्राण, भाषा और मनरूप परमाणुओंकी विशिष्ट रचना करनेका जो सामर्थ्य है उसे पर्याप्त कहा जाता है। यह पर्याप्ति आहार आदि उक्त भेदोंके अनुसार छह प्रकारकी कही गयी है। जीवकी एक भवमें कमसे कम आयुस्थिति अन्तर्मुहूर्त अर्थात् एक मूहूर्तकाल के भीतर है। किन्तु नारकीय जीवों तथा देवोंकी जघन्य आयु दस सहस्र वर्षकी तथा उत्कृष्ट आयु तेतीस सागरोपम कालकी कही गयी है । मनुष्योंकी उत्कृष्ट आयु तीन
१६
.
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१२२
वीरजिणिवचरिउ [१२. १. २५-- एईडिपसु चत्नारि होति। विलिंदिपसु पंच जि कहति ।। ता जाम असण्णिाद पंच-करगु । सण्णिउ पजत्ती-छक-धरणु ॥ प्रयहि जे पचप्पंति णेय । ते जति अपज्जत्ता अणेय !! पजपतहु लगइ खणालु |
जगि सबह भिषणमुहुत्तु कालु ॥ घत्ता-ओरालिउ तिरियहुँ माणबहुँ
सुर-णारयहुँ विउविय। हार गंतु का वि गुगि
कम्मु तेउ सयलहँ वि थिउ ॥१॥
३०
तिरिय हवंनि दुविद्य तस थावर
थावर पंच-भेयया । पुहवी आउ तेड वाऊ वि य
___ बहु-विह हरिय-कायया ॥ कसिणारुण हरिय सु-पीयालय
पंडुर अवर वि धूसरिय | पही महि-कायहुँ मउय महि
पंच-वण्ण मई बजरिय ॥
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१२. २.८] हिन्दी अनुवाद
१२३ पल्योपमकालकी, एकेन्द्रिय जीवोंकी चार पल्योपम तथा विकलेन्द्रिय जीवोंकी पाँच पल्योपम कही गयी है। पूर्वोक्त आहारादि छह पर्याप्तियोंमें असंज्ञी जीवोंने प्रथम पाँच अर्थत् साहार, गरी, अन्तिरा, आनप्राण और भाषा ये पाँच पर्याप्तियाँ होती हैं। उनके मन नहीं होता। किन्तु संज्ञी जीबांके मन भी होता है और इस प्रकार उनके सभी छह पर्याप्तियाँ होती हैं । जीवके नये जन्म धारण करते समय जबतक उनके ये पर्याप्तियां पूरी नहीं होतीं, अर्थात् वे आहारादि ग्रहण करके पूर्ण शरीर व इन्द्रियाँ धारण करने तथा श्वासोच्छ्वास करने व शब्दोच्चारण करनेकी योग्यता प्राप्त नहीं कर लेते, तबतक वे अपर्याप्त कहलाते हैं । अनेक जीव ऐसे भी होते हैं जो अपनी अपर्याप्त अवस्थामें ही जन्म-मरण करते रहते हैं। ऐसे जीव लब्ध्यपर्याप्त कहलाते हैं । पर्याप्त जीवोंको अपनी पर्याप्तियाँ पूर्ण करनेमें कमसे कम एक क्षण तथा अधिकसे अधिक भिन्न-मुहूर्त अर्थात् एक मुहूर्त के लगभग समय लगता है। संसारी जीवोंके शरीर पाँच प्रकारके होते हैं-औदारिक, बैंक्रियिक, आहारक, कार्मण और तैजस । इनमें से तिर्यच और मनुष्योंके स्थूल शरीर औदारिक कहलाते हैं। देवों और नारकी जीवोंके शरीर ऐसे स्थूल नहीं होते कि वे इच्छानुसार बदल न सकें । उनके ये शरीर क्रियिक कहलाते हैं । आहार शरीर केवल कुछ विशेष ऋद्धिधारी मुनियोंके ही होता है जिसके द्वारा वे अन्य क्षेत्रमें जाकर बिशेष ज्ञानियोंसे अपनी शंकाओंका निवारण करते हैं। कार्मण और तैजस शरीर सभी संसारी जीवोंके सदैव ही बने रहते हैं। कार्मण शरीरमें उनके कर्म-संस्कार उपस्थित रहते हैं और तैजस शरीर द्वारा उनके अन्य शरीरोसे मेल बना रहता है ||१||
एकेन्द्रियादि जीवों के प्रकार तिर्यंच जीव दो प्रकारके होते हैं- अस और स्थावर । इनमें से स्थावर जीवोंके पाँच भेद हैं—पृथ्वी कायिक, जल-कायिक, अग्नि-कायिक, वायुकायिक तथा नाना प्रकारके हरित बनस्पति-कायिक । पृथ्वी कायिक जीव दे होते हैं, जिनका शरीर काला, लाल, हरित, पीला, श्वेत अथवा धूसरवर्ण ही होता है, और इस कारण इन पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय जीवोंके ये ही पाँच वर्ण कहे गये हैं । ये मृदुल, पृथ्वीकायिक जीव होते हैं ।
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१०
१५
to
૨૫
३०
वीर जिणिवचरिउ
कंण तजय लंब मणि रुपय खर- पुहुई पासिया | वारुणि खीर खार घय-महु- सम जल जाई वि भासिया || दूरहु दरिसाविय धूम - मलिणु । अभी कडे विष वोइ जपु ॥ उपालि मंडल गुंजा - णिणाउ | दिस - विदिसा गं भिण्णु वाउ || गुम्छे गुम्म बली राणेसु । पसु रुक्ख साहा-घणेसु ॥ सु-पसिद्धु वणासइ-काड एसु । उपज जह घोसह जईसु || पञ्चतेयर हुमेरा वि । दुम साहारण पतंय के वि ॥ साधारणाएँ साहारणा हूँ । आणापाणई आहारणा है | पत्तेयहुँ पत्तयइँ गयाएँ । छिंद-भिंदण- णिणं गया है दादि कुखि किमि खुद संख । बी- इंदिय माँ भासिय असंख || ती- इंडिय गोमि पिपीलियाई । चउरिदिय मच्छिय-महुयराई ॥ यत्ता - परिवाडिए किंपि णाण-भवणु
१२४
एयहँ जुत्ति साचडइ | रसुगंधु णय फासहु उयरि । एकेक इंदि चडर ||२||
इ
पती पंच कम-संठिय
छह सत्तट्ठ प्राणया । तेसिं होंति एम पभणंति
महा मुणि विमल पाणया ॥
। १२. २.९
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१२. ३. ४ ] हिन्दी अनुवाद
१२५ सुवर्ण, ताँबा, त्रिपुष् अर्थात् शीशा, मणि और चाँदी, ये खर पृथ्वीकायिक कहे गये हैं। जलकायिक जीवोंका शरीर वारुणि अर्थात् मद्य, क्षीर, क्षार, घृत, मधु और जल आदि रूप कहा गया है। अग्निकायिक वे होते हैं जो दूरसे ही अपना स्वरूप धूम्रसे मलिन हुआ दिखलाते हैं, अथवा जो वज्र, विद्युत्, रवि, मणि व ज्वालारूप ज्योतिर्मय होते हैं । दिशाओं और विदिशाओंमें जो उत्कलि ( झंझावात ), मण्डली ( चक्रवात) अथवा गज़ा-निनाद स्वरूप बाय बहती है वह वायकाय है। वनस्पतिकायिक जीव सुप्रसिद्ध ही हैं जो गुच्छोंमें, गुल्मोंमें, वल्लियामें और तृणोंमें, पर्बोमें तथा वृक्षोंकी सघन शाखाओंमें उत्पन्न होते हैं, ऐसा यतीश्वरने कहा है।
वृक्षरूप वनस्पतिकाय जीव पर्याप्त भी होते हैं, और अपर्याप्त भी; सुक्ष्म भी होते हैं और बादर अर्थात् स्थूल भी, और साधारण भी होते हैं एवं प्रत्येक भी । साधारण जीव वे होते हैं, जिनका श्वासोच्छ्वास और आहार साधारण अर्थात् एक साथ ही होता है। प्रत्येक वनस्पति जीव वे होते हैं जो एक-एक वृक्षमें एक-एक रूपसे रहते हैं तथा जो छेदन और भेदन क्रियाओंसे मृत्युको प्राप्त हो जाते हैं।
द्वीन्द्रियजीव तुन्दाधि अर्थात् पेटके कीटाणु कुक्षिमि व क्षुब्ध ( पानी में डूबे हुए ) शंख आदि असंख्य भेदरूप कहे गये हैं। गोमी और पिपीलिका अर्थात चीटियाँ आदि श्रीन्द्रिय एवं माखी और भ्रमर आदि चौइन्द्रिय जीव हैं। इन जीवोंमें क्रमश: एकेन्द्रियसे लेकर चार इन्द्रियों तकक्री ज्ञानेन्द्रियाँ होती हैं, अर्थात् एकेन्द्रिय जीवके स्पर्शमात्रकी एक ही इन्द्रिय होती है। द्वीन्द्रियोंमें स्पर्श और रस ये दो इन्द्रियां होती हैं । त्रीन्द्रियोंके स्पर्श, रस और गन्ध ये तीन इन्द्रियाँ तथा चतुरिन्द्रिय जीबोंके स्पर्श, रस, गन्ध और नेत्र ये चारों इन्द्रियाँ होती हैं ।।२।।
जीवोंके संज्ञी-असंशो भेव व वंश प्राण उक्त प्रकारके एकसे लेकर चार इन्द्रियों तकके जीवोंमें क्रमशः तीन, चार और पाँच पर्याप्तियाँ होती हैं । अर्थात् एकेन्द्रियोंमें आहार, शरीर तथा स्पर्शेन्द्रिय द्वीन्द्रियोंमें आहार, शरीर व प्रथम दो इन्द्रियां और आनप्राण ये चार पर्याप्तियाँ; त्रीन्द्रियोंमें आहार, शरीर, प्रथम तीन इन्द्रियाँ और आनप्राण ये चार पर्याप्तियाँ; तथा चतुरिन्द्रिय जीवोंमें आहार, शरीर, चार
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१२६
वीरजिनिवरिउ [ १२. ३. ५पंचिंदिय सण्णि असणिण दोगिण । मण-वजिय जे ते ध्व असगिण | सिक्खालावाढू ण लेति पाव । अण्णाण-गूढ-दढ-मूढ-भाव ॥ असु णव जि समत्तिउ पंच ताहूँ। वज्जर जिणिंदु असणियाहँ ।। लहिं पजनिहिं पजत्तएहि । संफासण-लोयण सोत्तरहि ।। मण-बयाण-काय-रस-घाणहि । आणापागाउ अ प्राणहिं ।। दहहि मि जियंति सपिणय तिरिख । अक्वमि णाणा विह टु-णिरिक्ख ।। जलयर ससाइ पंच-प्पयार । कच्छच मयरोहर सुंसुथार ॥ यहयर समुग्ग फुड-वियङ पक्ख | अण्णक चम्म-घा-लोम-पक्ख ।। थलयर च उपय चउबिह' अमेय । एक-खुर दु-खुर करि-गुणह-पाय ।। उरसाप महोरय अजगराइ। किं ताह. गइंदु वि कवलु होई ।। भुय-सप्प वि बक्खाणिय सभेय |
सरदुंदुर-गोधा-णामधेय ॥ पत्ता--जलयर जलेसु खग तरु-गिरिसु.
थलयर गाम-पुरंसु वणे | . दीवायहि मंडल-मज्झि तर्हि
पढमु दीवु भासंति जणे ।।३।।
संसारिय जीब चउ-विह च-गइ भिगा जिह । इंदिन्य-भाषण पंच-पयार पउत्त तिह ।।
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१२. ४.२] हिन्दी अनुवाद
१२७ इन्द्रियाँ, आनप्राण और भाषा ये पाँच पर्याप्तियाँ होती हैं। इनके दश प्राणोंमेंसे क्रमशः छह, सात और आठ प्राण होते हैं। अर्थात् एकेन्द्रिय जीवोंके एक स्पर्श इन्द्रिय, एक कायबल, आनप्राण और आयु सहित रसना और वाक मिलकर द्वीन्द्रियोंके छह प्राण हुए। इनमें प्राण मिलनेसे श्रीन्द्रियके सात, तथा उनमें चक्षु मिलनेसे चतुरिन्द्रियके आठ प्राण हुए । ऐसा निर्मल-ज्ञानी महामनि कहते हैं।
पंचेन्द्रिय जीवोंके दो भेद हैं, संज्ञी और असंज्ञी। जिनके मन नहीं होता वे निश्चय से असंज्ञी कहलाते हैं। वे अपने पापके फलस्वरूप शिक्षा व आलाप आदि ग्रहण नहीं कर सकते । वे निरन्तर अज्ञानमें गहरे डूबे रहते हैं। अज्ञानी जीत्रोंक जिनेन्द्र भगवान्ने दश प्राणोंमेंसे मनको छोड़कर शेष नौ प्राण तथा छह पर्याप्तियोंमेंसे मनपर्याप्तिको छोड़कर शेष पाँच पर्याप्तियाँ कही हैं। संज्ञी तिर्यंच जीव छहों पयाप्तियोंसे पर्याप्त होते हैं। वे स्पर्श, रस, घ्राण, नेत्र और धोत्र ये पांचों इन्द्रियोंको धारण करते हैं तथा पाँच इन्द्रियों, मन, वचन और काय इन तीन बलों तथा आनप्राण और आयु इन दो सहित दगो प्राणोंसे युक्त होते हुए जीवित रहते हैं। अब मैं इनके नाना प्रकारोंका वर्णन करता हूँ जो सामान्यतया देखने में नहीं आते। जलचर झस आदि पाँच प्रकारके होते हैं जिनमें कच्छप, मकर और मकरापहर्ता शुशुमार भी हैं। नभचर अनेत्रा प्रकारके होते हैं । कुछ ऐसे होते हैं जिनके पंखे बड़े-बड़े और स्पष्टतया विलग होते हैं, तथा कुछके पंखे चर्मसे लगे हुए, सघन रोमों सहित होते हैं । थलचर चौपाए चार प्रकारके होते हैं। एक-खुर, दो-खुर, हस्तिपद और श्वानपद । इनके असंख्य भेद हैं। उरुसी, महोरग, अजगर आदि इतने विशाल भी होते हैं कि वे हाथीको भी निगल सकते हैं । भुजसो भी सरड (छिपकली), उन्दुर (भूषक), गोधा (गोह ) आदि नामधारी अनेक भेद कहे गये हैं। जलचर जीव जल में रहते हैं, खुग वृक्षों और पर्वतोपर तथा थलचर ग्राम, पूर और वनमें रहते हैं 1 द्वीपों और समुद्रोंके बलयाकार मण्डल असंख्य हैं जिनका मध्यवर्ती प्रथमद्वीप जम्बूद्वीप कहा गया है ||३||
गति, इन्द्रिय अदि चतुर्दश जीव-मार्गणाएं व गुणस्थान (१) संसारी जीव मनुष्य, तिर्यंच, नारक और देव, इन चार गतियोंके अनुसार चार प्रकारके होते हैं। (२) स्पर्शादि पांच इन्द्रियोंके भेदसे वे पांत्र प्रकारके कहे गये हैं। (३) कायकी अपेक्षासे जीवोंके छह
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धीरजिणिवचरिड काएं छठियह चवल-थिरेण वि | तिविह तिविह-जोपं वेएण वि ।।
जलणिहि-विह वि कसाएं जाया । अट्ट-भेय णाणे विण्णाया ।।
संजम-दंसपेण ति-चउ-विह। लेसा-परिमाणेण वि छ-विह।
भव्वत्तेण विविह सम्मत्ते। सणिण असणी दो सण्णित्ते ।।
आहार आहाय जे जे। चउसु वि गइसु परिट्टिय ते ते ॥
केवलि समुहय विगह-गड़ गया। अझह अजोइ सिद्ध परमप्पय ।।
ते ग लेंति आहारु वियारिय। सेस जीव जाणहि आहारिय ।।
मग्गण-ठाणई चौदह-भेयई। णिमुण हि गुणठाणाई मि एयई।
मिच्छादिहि पहिल्लज गीयउ। सासणु बीयउ मीसु वि तोयउ ।।
अबिरय-सम्माइटि चउत्थउ । पंचभु बिरयाविरउ पसत्थउ ।।
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१२. ४. २२ ] हिन्दी अनुवाद
१२२ भेद हैं—बादर और सूक्ष्म-एकेन्द्रिय तथा द्वीन्द्रिय आदि चार स । (४) योगको अपेक्षा वे तीन प्रकारके हैं-काययोगी, वत्रनयोगी और मनयोगी। ( ५ ) वेदकी अपेक्षा भी उनके तीन भेद हैं, पुल्लिंग, स्त्रीलिंग
और नपुंसक । ( ६ ) कषायकी अपेक्षा वे क्रोधी, मानी, मायावी, और मोही ऐसे चार प्रकारके हैं। (७) ज्ञानको अपेक्षा उनके आठ भेद हैंमतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी ये पाँच तथा कुमति, कुश्रुत, और कुअवधि ये तीन कुज्ञानी। ( ८) संयमकी दृष्टिसे जीवोंके तीन भेद हैं संयमी, संयमासंयमी और असंयमी; अथवा सामायिक छेदोपस्थापना, सूक्ष्म साम्पराय और यथाख्यात इन चार संयमोंकी दृष्टि से वे चार प्रकारके हैं। (९) दर्शनकी दृष्टिसे क्षायिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक ये तीन भेद हैं; अथवा चक्षु, अचक्षु, अवधि, और केवल ये चार दर्शन-रूप हैं। (१०) लेश्या भावके अनुसार उनके कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल, ये छह भेद हैं । ( ११) भव्यलगी. कहा जीवों को तो हैं, लौर अपत्य : १२) सम्यक्त्व. की अपेक्षा भी उनके दो प्रकार हैं, उपशम-सम्यक्त्वो और क्षायिकसम्यक्त्वी । (१३) संज्ञाकी अपेक्षा वे दो प्रकारके हैं, संजी, और असंज्ञी। (१४) आहारकी अपेक्षा जीव दो प्रकारके होते हैं । संसारकी चारों गतियोंमें जो जीव हैं, वे सब आहारक है, किन्तु जो जीव केबलि-समुद्घात कर रहे हैं, विग्रह गतिमें हैं तथा जो अरहन्त, अयोगी व सिद्ध परमात्मा हो चुके हैं, वे आहार नहीं लेते अतएव वे अनाहारक हैं । शेष सभी जीवोंको आहारक जानना चाहिए। ये चौदह मार्गणा-स्थान हैं, क्योंकि इनके द्वारा नाना दृष्टियोंसे जीवोंके भेदोंको खोजा-समझा जाता है।। ___ अब चौदह गुणस्थानों ( आध्यात्मिक उन्नतिको भूमिकाओं) को सुनिए। पहला गुणस्थान मिथ्यादृष्टियोंका है, जिसमें सम्यग्ज्ञानका सर्वथा अभाव होता है । सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर वहाँसे मिथ्यात्वकी ओर गिरते हुए जीवोंका स्थान सासादन कहलाता है और वह दूसरा गुणस्थान है। तीसरा गुणस्थान सम्यक्त्व और मिथ्यात्वके मिश्रणरूप होनेके कारण मिश्र गुणस्थान कहलाता है। चतुर्थ गुणस्थान ऐसे जीवोंका कहा गया है जिन्हें सम्यग्दृष्टि तो प्राप्त हो चुकी है, किन्तु विषयोंसे विरक्तिरूप संयम उत्पन्न नहीं हुआ है। अतएव यह गुणस्थान अविरत सम्यग्दृष्टि कहलाता है । पाँचवाँ गुणस्थान उन जीवोंका है, जो सम्यग्दृष्टि भी हैं और पूर्णरूपसे संयमी न होते हुए भी अणुव्रती अर्थात् श्रावक हैं; इसीलिए यह गुणस्थान
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[१२. ४. २३
पोरजिणिवचरिउ छट्टउ पुणु पमत्त-संजम-धरु । सत्तमु अ-प्पमत्तु गुण-सुंदरु ॥ अट्टमु होइ अउवु अऊवउ । अणित्तिल्लर णवमु अ-वन ।
दहमउ सुहम-राउ जाणिज्जइ । एयारहमुवसतु भणिज्जइ ॥
बारहमा पर-खीणकसायउ। तेरहमट स-जोइ-जिणु जायउ ।। उज्झिय-तिविह-सरीर-भरतरु ।
उवरिल्लज अजोइ परु अक्खरु ।। धत्ता--णारय चत्तारि चत्तारि जि पुणु सुर-पवर ।
तिरियंच वि पंच णीसेसम्मि चडति णर ||
कम्म-विहम्ममाण स-सरीरा । सासय करणुक्षय विवरेरा। दसण-गाण-सहाव-पहट्टा। होति जीव उकिट-णि किट्ठा ।
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१२. ५. ४] हिन्दी अनुवाद विरताविरत नामसे भी जाना जाता है। छठा गुणस्थान उन संयमी मुनियोंका है, जिनमें महावतोंका पालन होते हुए भी कुछ प्रमाद शेष रहता है; अतएव यह प्रमत्त-संयम गुणस्थान कहलाता है। सातवां गुणस्थान, सुन्दर गुणशाली अप्रमत्त-संयमी मुनियोंका है। अष्ठम गुणस्थानमें मुनियोंके उत्तरोत्तर, अपूर्व भावशुद्धि होती जाती है; अतएव यह गुणस्थान अपूर्वकरण कहलाता है। नवम गुणस्थान अनिवृत्तिकरण है जहाँ मान कषायका अभाव होनेसे मुनिके नीचे गिरनेकी सम्भावना नहीं रहती। दशबाँ गुणस्थान सूक्ष्म-साम्पराय या सूक्ष्म-राग कहलाता है. क्योंकि यहाँ पहुँचनेपर मुनियोंकी कषायें अत्यन्त मन्द और सूक्ष्म हो जाती है । ग्यारहवाँ गुणस्थान उपशान्त-कषाय कहा गया है, क्योंकि यहाँ साधकके सभी कषायोंका उपशमन हो जाता है। बारहवां गणस्थान क्षीण-कषाय है क्योंकि यहाँ कषायोका उपशमन मात्र नहीं, किन्तु आत्मप्रदेशोंमें उनका पूर्णतया क्षय हो जाता है । तेरहवां गुणस्थान सयोगि-जिन अथवा सयोगिकेवली कहलाता है, क्योंकि इस स्थानपर आत्माको केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है, किन्तु शरीरका विनाश नहीं होता और इसलिए ये सयोगिकेवली धर्मका उपदेश भी करते और तीर्थकर भी होते हैं । अन्तिम चौदहवाँ गणस्थान उन अयोगि केबली जीवोंका होता है जिन्होंने मन, वचन और काय इन तीन योगोंका परित्याग कर दिया है तथा औदारिक, तेजस और कार्मण इन तीनों शरीरोंके भारसे मुक्त होकर अक्षय पद प्राप्त कर लिया है, अर्थात् परमात्मा हो गये हैं।
जीवोंके आध्यात्मिक उत्कर्ष तथा क्रम-विकासकी दृष्टिसे जो ये चौदह गुणस्थान कहे गये हैं इनमेंसे नारकीय जीवोंके प्रथम चार ही गुणस्थान हो सकते हैं, और बड़े-बड़े देव भी वे ही चार गुणस्थान प्राप्त कर सकते हैं । तिर्यंच जीवोंके पाँच गुणस्थान भी हो सकते हैं, किन्तु प्रथमसे लेकर चौदहवें तक समस्त गुणस्थानोंमें तो केवल मनुष्य ही चढ़ सकते हैं ।।४।।
कर्मवध कर्मभेव-प्रभेद संसारी जीव शरीरधारी होते हैं, और वे निरन्तर अपने कर्मोंसे पीड़ित रहते हैं। इनसे विपरीत जो मुक्तिप्राप्त जीव हैं, वे शाश्वत भावसे युक्त हैं और अपने दर्शन-ज्ञानरूपी स्वाभाविक सुख में तल्लीन रहते हैं। इस
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१०
१५
२०
२५
३०
१३२
वीरजिणिचरिउ
ताहुँ चेटु जा होइ समासम । सा तद्दलिय - ग्रहण-भावक्खम ॥ जेम तेल्लु सिहि- सिह परिणाम | तेम कम्म पग्लु बि पिसामहु || जीवें लइयउ जाइ जियत्तहु । तिब्व-कमाय-रसेहिं पमत्तहु ॥ जिह सिहि भाव बबइ इंधणु । तिह कम्मेण जि कम्महु बंधणु || असु असु सु सु संघइ । सिद्ध भडारण किं पिण बंधइ || अभव जीव जिणणाहें इच्छिय । एकुण ते वि अगंत प्रियच्छिय ॥ मह-सु-ओहि मणपज्जव केवल । णाणावरण-विमुक्त सु-णिकल ॥ शिद्दाणि पलापयला | श्रीगिद्धि गिद्दा पुणु पयला ॥ चक्खु अचक्खु दंसणावरणउ | अवही केवल- दंसणवरणउ ॥ तेहिं विणा सिउ व संखायउ | वेयणीय- दुगु सायासायउ ॥ दंसण-मोहणीउ सम्मन्तु वि । मिच्छन्तु वि सम्मा-मिच्छन्तु वि ॥ दुविहु चरित- मोहु विक्खायउ | णो-कसाउ णामेण कसायउ || तं कसाय - जायड सोलह-विहु | इरु भणेमि पच्छद्द णत्र - बिहु || पढम-कसाय-चचक्कु सु-भीसणु | सत्तम-रव-गामि दिहि-दूसणु ॥
[ १२.५.५
पत्ता - अइ-कोहु समाणु माया लोहु वि दुत्थयरु | समहुँ जाइ जइ वि पबोहइ तित्थयरु ||५|
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१२. ५.३४ ]
हिन्दी अनुवाद
१३३
प्रकार जीव निकृष्ट और उत्कृष्ट होते हैं । जीवोंकी जैसी चेष्टा अर्थात् मन, वचन और काय को क्रिया सम व असम अर्थात् शुभ और अशुभ होती हैं, उसी प्रकार उनमें शुभ और अशुभ कर्मोंक ग्रहण करनेके नाना भेद होते हैं । जिस प्रकार दीपकमें जलता हुआ लेल अग्निकी शिखारूप परिवर्तित होता रहता है, उसी प्रकार कर्मरूपी पुद्गल परमाणु भी जीवों द्वारा ग्रहण किये जाते और तीव्र कषायरूपी रसोंके बलसे उस जीव में प्रमत्तभाव उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार कर्मके द्वारा ही कर्मका बन्धन उसी प्रकार हुआ करता है, जैसे अग्निमें पड़ा हुआ ईंधन अग्निभावको प्राप्त हो जाता है। अशुभभावसे अशुभकर्मका तथा शुभभावसे शुभकर्मका सन्धान होता है । परन्तु सिद्ध भगवान् किसी प्रकारका भी कर्मबन्ध नहीं करते। जिनेन्द्र मत के अनुसार अभव्य जीव एक नहीं हैं, वे अनन्त हैं । कर्म भी अनन्त रूप होते हैं, किन्तु विशेष रूपसे उन्हें आठ प्रकारका बतलाया गया है। पहला ज्ञानावरण कर्म है, जिसके पाँच भेद हैं - मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनः पर्येय ज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण | ये अपने- अपने नामानुसार पाँच प्रकार के ज्ञानोंका आवरण करते हैं, अर्थात् उन्हें ढक देते हैं। इन ज्ञानावरणोंसे सर्वथा विमुक्त तो अशरीरी सिद्ध भगवान् ही होते हैं। दर्शनावरण के नव भेद हैं - निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, निद्रा और प्रचला तथा चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधि- दर्शनावरण और केवलदर्शनावरण । इनसे स्पष्टतया उक्त निद्रा आदि शारीरिक दोष उत्पन्न होते हैं तथा चक्षु आदि दर्शनोंका आवरण होता है। तीसरा कर्म वेदनीय दो प्रकारका है - सातावेदनीय और असातावेदनीय । ये वेदनीय कर्मके दो प्रकार क्रमशः सुख व दुःखका अनुभवन कराते हैं। चौथा मोहनीय कर्म है और उसके मुख्यतया दो भेद हैं-दर्शन-मोहनीय और चारित्र मोहनीय | दर्शन - मोहनीयके मिध्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व ये तीन उपभेद हैं | चारित्र मोहके प्रथमतः कषाय और नोकषाय ये दो भेद हैं । कषायके पहले चार मुख्य भेद और फिर उन चारोंके क्रमशः चारम्वार भेद इस प्रकार सोलह भेद हैं । और नोकषायके नौ भेद हैं जिन्हें आगे बतलाया जायेगा। चार मुख्य कषाय बड़े भीषण होते हैं। वे जीवके भावों में दूषण उत्पन्न करके उसे सप्तम नरक तक ले जाते हैं । ये कषाय हैं- क्रोध, मान, माया और लोभ । अपने कठोर रूपमें ये इतने दुष्कर होते हैं कि उनके रहते जीव उपशम भावको प्राप्त नहीं होता, भले हो
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१.४
धोराजणिवारंट
। १२.६.१
अवरु अ-पचक्खाणु गुरुकः । पश्चकवाणु चक्कु विमुकण्ड ।। संजलणु वि जलंतु उल्हाविउ थी-पु-संढ राज उडाविड ।। भय-रद-अरइ-दुगुंछ उ जित्तड | हासु यि सहुँ सोएण णिहित्तउ ।। सुर णर णश्य तिरिय चउ आउ वि । बायालीस-विहेयउ गाउ वि ।। गइ-णामउ वि जाइ-णामु वि भणु | तणुःणामउ पुगु तणुहि णिबंधणु ।। तणु-संघाउ तणुहि संठाणउ । तणु-अंगोवंगु णि णामाणउ ।। तणु-संघडणु कण-गंधिल्लड । रस-णाम अवरु वि फासिल्लउ ।। आणुपुन्धि अगुरुलहु लक्खिउ । उवघाउ वि परधाउ वि अक्सिड। ऊसासु वि आदायुजोयउ। अण्णु विहायगइ वि तस-कायउ ।। थावर थूलु-सुहुमु पजताउ । अण्णु वि मणिउ अ-प्पज्जत्तउ । पत्तेयंग-गाउ साहारणु । थिर अधिक यि सुहणाउ स-कारणु ॥ असुहु सुभगु दुब्भगु सु-सरिल्लउ । दुस्सह आदेजउ जगि भल्ला ॥ णाउ अणादेजाउ जस कित्ति वि। तित्थयरत्तु णिमिणु मलकित्ति वि॥
२५
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१३५
१२. ६. २६ ].
हिन्दी अनुदान
स्वयं तीर्थंकर ही उसका सम्बोधन करें। यह कषायों का अनन्तानुबन्धी स्वरूप हैं ||५||
कषायोंका स्वरूप तथा मोहनीय कर्मको व अन्य कर्मोंकी उत्तर प्रकृतियाँ
कषायोंका दूसरा प्रकार अप्रत्याख्यान कहलाता है, जिसके होते हुए सम्यक दर्शनकी प्राप्तिमें तो बाधा नहीं पड़ती, किन्तु व्रतोंके ग्रहण करनेकी वृत्ति उत्पन्न नहीं होती । कषायोंका तीसरा प्रकार प्रत्याख्यान है, जिसके सद्भावमें सम्यकदर्शन तथा अणुव्रतोंका ग्रहण तो हो सकता है, किन्तु महाव्रतों का पालन नहीं हो सकता। चौथा कषायभेद है संज्वलन, जिसके होते हुए जीव महाव्रती मुनि तो हो जाता है, तथापि वह सूक्ष्म रूप में कषायोंको लिये हुए रहता है, जिसका स्वरूप दसवें सूक्ष्म-साम्पराय नामक गुणस्थानमें किया गया है। चारों कषायोंके तीव्रता से उतरते हुए उनके मन्दतम रूपको दिखानेवाले ये चार प्रकार प्रत्येक कषायके होते हैं, और इस प्रकार उक्त चार कषायोंके सोलह भेद हो जाते हैं । ये सब कषाय सिद्ध भगवान्ने त्याग दिये है। अब आगे उन नौ नोकषायों को कहते हैं, जिनका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। ये हैं—स्त्रीवेद, पुंवेद तथा नपुंसकवेद रूप तीनों राग, भय, रति, अरति, जुगुप्सा, हास्य और शोक | इन्हें भी जिनभगवान्ने उड़ा दिया है, जीत लिया है व अपने अन्तरंग से बाहर फेंक दिया है । इस प्रकार मोहनीय कर्मके समग्ररूपसे ये ( ४×४+९=२५ ) पच्चीस भेद हुए ।
जीव कभी देवकी आयु बांधता है, कभी नरक की, कभी मनुष्यकी और कभी तिथेच योनि की; इस प्रकार आयुकर्मके चार भेद हैं।
नामकर्मके बयालीस भेद हैं, जिनके नाम हैं १. गति, २. जाति, ३. शरीर, ४. निबन्धन, ५. शरीर संघात, ६. शरीर संस्थान, 3. शरीरअंगोपांग, ८. शरीर संहनन, ९ वर्ण, १० गन्ध, ११. रस, १२. स्पर्श,
१३. आनुपूर्वी, १४ अगुरुलघु, १५. उपघात, १६, परघात, १७, उच्छवास, १८. आताप, १९. उद्योल, २०. विहायोगति, २१. सकाय, २२. स्थावरकाय, २३. बादरकाय, २४. सूक्ष्मकाय, २५ पर्याप्ति २६ अपर्याप्त, २७. प्रत्येक शरीर, २८. साधारण शरीर, २९. स्थिर, ३०. अस्थिर, ३१. शुभ, ३२. अशुभ, ३३. सुभग, ३४. दुर्भग, ३५. सुस्वर, ३६. दुस्वर,
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वीरनिणिवचरिउ [१२. ६. २७घत्ता-चर-गइ-जम्मेण गइ-णामउ अद्वद्ध-विह।
इंदियई गणेवि जाइ-णामु भणु पंच-विहु ।।क्षा
हणिवि पंच णाम. पंच-विहई। एक्कु ति-भेयउ दो दो दु-विहई ।। दो छह पुणु दो चउ अट्ठ-विहइँ । उच्चारुयइँ जाइँ एक-विहई । समलामलइ दोण्णि जगि गोत्तह । ताई मि जेहिं दूरि परिचत्तई ।। दाण भोय-उवभोय-णिवारउ । वीरिय-लाहु हेउ-संघारउ ॥ अंतराउ पंचविहु धुणेप्पिणु | अड्यालीसर सज विहुणेपिणु ।।
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१२. ७. १० ] हिन्दी अनुवार ३७. आदेय, ३८. अनादेय, ३९. यशस्कीति, ४०, अयशस्कीति, ४१. निर्वाण, और ४२, तीर्थकरत्व । ये बयालीस प्रकारके नामकर्म हैं, जिनके द्वारा शरीरके, उनके नामानुसार, विविध प्रकारके गुण-धर्म उत्पन्न होते हैं । इनमें से अनेकके कुछ उपभेद भी हैं, जैसे-गतिनाम कर्म, नरक, तिर्यक, मनुष्य और देव, इन गतियोंके अनुसार चार प्रकारका है । एकेन्द्रिय आदि पाँच इन्द्रियों तकके भेदानुसार जातिनाम कर्मके पांच भेद हैं ॥६॥
नाम, आयु, गोत्र व अन्तराय कर्मोके भेद औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस और कार्मणके भेदसे शरीर नामकर्म पाँच प्रकारका है। इन पांचों शरीरोंके अलग-अलग बन्धन होते हैं, जो शरीर बन्धन नामकर्मसे उत्पन्न होते हैं। उन्हींके अनुसार उन शरीरोंके पांच संघात होते हैं। शरीर-संस्थानके छह प्रकार हैं-समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमण्डल, स्वाति, कुब्ज, वामन और हुण्ड । शरीरांगोपांगके औदारिक, वैक्रियिक और आहारक ये तीन भेद हैं। शरीर-संहननके छह भेद हैं-वज-वृषभ-नाराच, नाराच नाराच, नाराच, अर्ध-नाराच, कीलित और असंप्राप्तासृपाटिका। वर्ण पाँच हैं, कृष्ण, नील, रक्त, हरित और शुक्ल । सुगन्ध और दुर्गन्धके भेदसे गन्ध नामकर्म दो प्रकारका है। रस पाँच हैं--तिक्त, कटु, कषाय, अम्ल और मधुर । स्पर्शनामकर्मके आठ भेद हैं-कठोर, मृदु, गुरु, लघु, स्निग्ध, रूक्ष, शीत और उष्ण । नरक आदि चारों गतियोंके अनुसार आनुपूर्वी नामकर्म चार प्रकारका है। विहायोगतिके दो भेद हैं—प्रशस्त और अप्रशस्त । इन सब उपभेदोंको मिलाकर नामकर्म के तिरानबे भेद हो जाते हैं, जिनके अनुसार समस्त संसारी जीवोंके शरीरमें दिखाई देनेवाले नाना भेदोंका निर्माण होता है।
गोत्रकर्म दो प्रकारका होता है। समल अर्थात् पाप-प्रवृत्ति करानेवाला और अमल अर्थात् शुद्ध प्रवृत्ति करानेवाला। इन दोनोंको भी सिद्धात्माएँ दूर कर देती हैं । अन्तराय कर्मके पांच भेद हैं-दानान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय, वीर्यान्तराय और लाभान्तराय, जो उन-उन गुणोंकी प्राप्तिमें बाधक होते हैं। उक्त आठों कर्मोकी उत्तर प्रकृतियोंको मिलानेसे वे सब एक सौ अड़तालीस हो जाती हैं। इन सबका
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वीरजिणिचारिज [१२. ७. ११पयडिहि माणवंगु मेल्लेप्पिणु । सुद्धसहाज सुइंमु लहेप्पिणु ।। जे गय जीव परम-णिबाणहु । दुक्ख-विमुबहु सासय-ठाणहु ।। चरम सरीर-मामिणा। वधगय-रोय-सोय अविलीणा ।। णिम्मल णिरुबम गिरहंकारा। जीव-दव-घण णाण-सरीरा॥ उडू-गमण-सहाव गंपिण ।। उल-लोउ सयलु वि लंघेप्पिणु ।। अहम पुहई-ट्टि णिविट्ठा ।
अभव जीव जिणदेवें दिट्ठा ।। घत्ता-ते साइ अणाइ दुविह अणंत जि बिबिह-दुहे।
ते पुणु ण मरंति गट पडति संसारमुह ॥७॥
ण बाल उ चुद्ध णीसाव णित्ताथ णाणंग णिम्मेह शिकोह णिल्लोह णिवेन गिजोय गिद्धम्म णिक्कम्म णीराम णिकाम णिश्वेस णिल्लेस । णीरस महाभाष अञ्चत्त चिम्मत ण छुहाइ घेप्पति ण रुयाइ झिज्जंति जाहारु मुंजेति जमलेण लिप्पति
ण मुक्ख सुवियट । पिरगाव णिप्पाव। णिपणेह णिहह । णिम्माण णिम्मोह। णीराय णिब्भोय। णिच्छम्म णिजम्म। णिबाह णिद्धाम । णिगंध णिप्फास । णीसह णीरूप । णिञ्चित णिश्चित्त । ण तिसाइ छिप्पंति । ण रईह सिजति । ओसहु ण जुज्जति । ण जलेण धुप्पंति।
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१२. ८. १४ ]
हिन्दी अनुवाद
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विनाश करके जीव शुद्ध होता और निर्वाण प्राप्त करता है । इन कर्मप्रकृतियों सहित अपने मानवशरीरको छोड़ तथा आत्माके स्वयं शुद्ध स्वभावको प्राप्त कर जो जीव दुख-रहित, शाश्वत स्थान स्वरूप परम निर्वाणको प्राप्त करते हैं वे अपने अन्तिम मानव शरीरके प्रमाणसे कुछ छोट होते हैं, उनके रोग-शोक नहीं होता तथा वे कभी मृत्युको प्राप्त नहीं होते । वे सदैव निर्मल, निरुपम, निरहंकार, जीव द्रव्यसे सघन और ज्ञानशरीरी होते हैं, वे मध्यलोकसे स्वभावतः ऊर्ध्वगमन करते हैं और समस्त ऊर्ध्वलोकका उल्लंघन कर सर्वोपरि अष्टम पृथ्वीके पृष्ठपर निविष्ट हो जाते हैं, उनका पुनर्जन्म नहीं होता ऐसा इन मुक्त जीवोंका स्वरूप जिनेन्द्र भगवान्ने कहा है । ये मुक्त जीव अपनी इस मुक्तावस्था की दृष्टिसे सादि और अनन्त हैं तथा उनके जीवद्रव्यकी दृष्टिसे अनादि और अनन्त है, क्योंकि वे अब पुनः मरण नहीं करते और न विविध दुखोंसे पूर्ण संसार के मुख में पड़ते ||७||
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सिद्ध जीवोंका स्वरूप
वे सिद्ध जीवन बालक होते न वृद्ध, न मूर्ख और न चतुर । वे न किसीको शाप देते न ताप, न गर्व रखते और न पाप करते। वे ज्ञानशरीरी होते हैं, किन्तु उनके मेधा अर्थात् मस्तिष्क व इन्द्रिय-जन्य बोध नहीं होता । न उनके स्नेह है और न देह ही है। वे क्रोधरहित, लोभरहित, मानरहित और मोहरहित होते हैं। उनके न स्त्री, पुरुष आदि लिंगभेद है और न मन, वचन, कायरूप योगोंका भेद है । न उनके राग हैं, न भोग, न रमण है, न काम। वे इन्द्रिय सुखसे व जन्म-मरणसे रहित हैं । वे निर्वाध हैं, और निर्धाम हैं । न उनके द्वेष है, न लेश्या है । वे महानुभाव गन्ध, स्पर्श, रस, शब्द और रूप इन इन्द्रिय विषयोंसे रहित हैं। वे अव्यक्त हैं, चिन्मात्र हैं, निश्चिन्त और निवृत्त है । वे न तो क्षुधाके वशीभूत होते, और न तृषासे आतुर होते; न रोगोंसे क्षीण होते, और न रतिसे पीड़ित होते । न वे आहार - भोजन करते और न औषधिका उपयोग करते । न वे मलसे लिप्त होते और न
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वीरजिणिच रिज
मिदं ण गच्छति अमणा वि जाति सिद्धाण जं सोक्स्यु कि मानवी को वि
अणयण विछति । सयरायरं झति ।
[ १२. ८. १५
तं कई चम्म | सुरु खयरु देवो बि ।
घत्ता - पंचिदिय-मुक्कु परमपर हुबउ चिमले ।
जं सिद्धहँ सोधखु तं ण वि कासु वि भुवण-यले ||८||
एहा दुहि जीव म अस्यि । कहम अजीव वि जेम णिरिक्खिय || धम्म अम्मु दो विरूवुझिय । आयासें काले सहुँ बुज्झिय ।। गइ ठाणोग्गह्वत्तण- लक्खण | के त्रिसुति सु-माण विक्खण || संतु अणाइ समउ बसंत तीय कालु अगामि अनंत ।। तासु ठाणु भण्णइ णर-लोयड | धमाधम्म सम्ब-तिलोयड ॥ विहि मिलोय-ह-माण वियप्पड | आयासु वि अनंतु सुसिरप्पउ || तं जि अलोड जोइ पण्णत्तउ । पोग्गलु होइ पंच-गुणवंत || स गंधे वें फासें । जुत्तउ भिण्ण aण्ण विष्णार्से ||
बंधु देसु अद्धद्ध परसुवि । परमाणु अविधाइ असेसु बि ॥
घता - तं सुहसु विथूलु थूलु-सुद्दम पुणु थूलु भणु । थूलु चउ-पया महु मुण मणु ||९||
भ्रूलाण त्रि
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१२. ९.२० ]
हिन्दी अनुवाद
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उन्हें जलसे धोनेकी आवश्यकता होती । वे नींद नहीं लेते। नेत्र न होते हुए भी वे सब कुछ देखते हैं। उनके मन नहीं होता तो भी वे निरन्तर सचराचर जगत्को जानते हैं। सिद्धों का जो सुख है, उसे यह चर्मचक्षु, कोई मानव, सुरदेव, या विद्याधर कैसे वर्णन कर सकता है ? पंचेन्द्रियोंसे मुक्त जो सुख शुद्ध परमात्म पदको प्राप्त सिद्धोंके होता है, वह इस भुवनतलपर किसी अन्य जीवको नहीं मिलता ॥८
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अजीव तत्त्वोंका स्वरूप
इस प्रकार संसारी और सिद्ध इन दोनों प्रकारके जीवोंका व्याख्यान किया गया। अब मैं उस अजीव तत्त्वके विषयमें जो कुछ जाना गया है, उसका वर्णन करूँगा । धर्म और अधर्म ये दोनों तत्त्व तथा आकाश और काल, इस प्रकार ये चारों अती तत्त्व रूपरहित अर्थात् कि जाने गये हैं । इनका स्वरूप विशेष ज्ञानियों और विद्वानोंने इस प्रकार जाना है | धर्मद्रव्यका स्वभाव अन्य जीवादि द्रव्योंके गमन कार्यमें सहायक होता है, और अधर्म द्रव्यका स्वभाव है गमन करते हुए द्रव्योंको ठहरने में सहायक होना । आकाशका कार्यं शेष सभी द्रव्योंको अवकाश प्रदान करता है, और कालका लक्षण वर्तना अर्थात् भूत, भविष्यत् व वर्तमान समयका विभाजन करना है। इस प्रकार काल अनादि और अनन्त समय रूप है । उसका जो युग, वर्ष, मास आदि रूप व्यावहारिक स्वरूप है, उसका प्रचलन नरलोक मात्र में है, जबकि धर्म और अधर्म की व्याप्ति समस्त त्रिलोक मात्रमें है । आकाश अनन्त है और शब्द-गुणात्मक है। उसका दो भागों में विभाजन पाया जाता है- एक लोकाकाश, दूसरा अलोकाकाश | लोकाकाशमें सभी द्रव्योंका वास तथा गमनागमन है, जो सभी अनुभव में आता है। किन्तु उसके परे जो अन्य द्रव्योंसे रहित अलोकाकाश है, उसका वर्णन केवल योगियों द्वारा किया गया है ।
पुद्गल द्रव्य पांच गुणोंसे युक्त है - शब्द, गन्ध, रूप, स्पर्श और रस । रूपकी अपेक्षा पुद्गल द्रव्य कृष्णादि नाना वर्णोंसे युक्त है । प्रमाणकी अपेक्षा वह स्कन्ध, देश, प्रदेश, अर्धप्रदेश, अर्धि प्रदेश आदि रूपसे विभाज्य होता हुआ परमाणु तक पहुँचता है, जहां उसका पुनः विभाजन नहीं हो सकता। इस प्रकार यह पुद्गल सूक्ष्म भी है, स्थूल भी, स्थूलसूक्ष्म भी, व स्थूल स्थूल । इस प्रकार पुद्गल द्रव्य चतुर्भेदरूप जाना जाता है ||९||
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धोरजिणिवरिउ
[ १२. १०. १.
गंधु वण्णु रसु फासु स-सहल । सुहमु थूल वजरइ स-सद्दछ ।। थूलु-सुहमु जोण्हा-छायाइन। थूलु सलिलु वीरेण णिवेइउ || थूलु-लु पुष्णु धरणी-मंडल | सम्ग विमाण-पडलु मणि-णिम्मलु ।। सुहमई कम्माइयई स-गामई। मण-भासा-वम्गण-परिणामई ।। वण्णाइयहि रसेहिं अणेयहि । परिणमंति संजोय-विओयहि ॥ पूरण-गलण-सहाय-णिउत्तई। पोग्गलाई विविहार पउप्स हैं। भासिञ्जतउ परम-जिणिः । णिसुणिवि धम्मु सुधम्माणदें ॥ वसहसेणु सुहमा लइयऊ। पुरिमतालापुरवा पावश्यउ ॥
इष वीर-जिणिद-चरिए जिण-देसणा णाम
दोदहमो संधि ॥ १२॥
इय बोर-जिणिंद-चरिउ संपुषणउ ।
{ पुष्पदन्त-कृत महापुराणु सन्धि १०-१२ से संकलित )
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________________ 12. 10. 16 / हिन्दी अनुवार पुद्गल द्रव्यके गुण / उपदेश सुनकर अनेक नरेशोंकी प्रव्रज्या पुद्गल द्रव्य गन्ध, वर्ण, रस, स्पर्श और शब्द ये पंचगुणात्मक हैं / उसके सूक्ष्म, स्थूल, स्थूलसूक्ष्म और स्थूलस्थूल ये चार प्रकार पाये जाते हैं / प्रकाश और छाया ये पुद्गल द्रव्य स्थूलसूक्ष्मके उदाहरण हैं / स्थूलका उदाहरण जाल है, स्थूलस्थूलका यह धरणीमण्डल, एवं मणियोंके समान स्वर्ग-विमानपटल / सूक्ष्मपुद्गल अपने-अपने नामोंवाले नाना कर्मोके रूपमें पाया जाता है, तथा मन और भाषा रूप वर्गणाएँ भी उसीके परिणमन हैं। ऐसा भगवान्ने दयापूर्वक कहा है। यह पुद्गल द्रव्य अनेक वर्णों, अनेक रसों आदि रूप परिणमन करता है और उसका संयोग अर्थात् जोड़ और वियोग अर्थात् विभाजन भी होता है। इस प्रकार जो नानाविध पुद्गलोंका वर्णन किया गया, वह पुद्गल शब्दकी इस नियुक्ति अर्थात् व्युत्पत्ति व शब्द-साधनाके अनुरूप है। जिस द्रव्यका स्वभाव पूरण और गलन रूप हो वह पद्गल है। जब आदिदेव भगवान् ऋषभदेव तीर्थकरने धर्मका यह व्याख्यान किया, तब सद्धर्मसे आनन्दित होकर तथा शुभ भावनाओंसे प्रेरित हो परिमताल नगरके स्वामी वृषभसेन प्रवजित हो गये / सोमप्रभ ब श्रेयांस नरेश्वरने भी अपने मानरूपी स्वरका विनाश कर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। इस प्रकार अपने विषादको छोड़ चौरासी. राजा ऋषभ तीर्थंकरके गणधर हो गये // 10 // इति तीर्थकर धर्मोपदेश विषयक बारहवीं सम्धि समाप्त // सन्धि 12 // इति बीर-जिनेन्द्र-चरित समाप्त