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२. ८. १० ।
हिन्दी अनुवाद
भगवान के इन्द्रभूति गौतम आदि एकादश गणधर महाज्ञानवान् एवं विभूतियुक्त इन्द्रभूति गौतम महावीर भगवान्के श्रेष्ठ गणधर हुए। दूसरे वायुभूति, तीसरे अग्निति, चौथे सूधर्म मुनीन्द्र जो अपने कुलरूपी आकाशके चन्द्रमा थे, अनिंद्य, नर-वन्द्य तथा चारित्रमें अमंद थे । पाचवं ऋषि मार्य, छठे मुण्ड ( भाग्य ), सातवे सुत (पुत्र.) जो इन्द्रियोंकी आसत्तिासे रहित तथा वीरभगवान्के चरणकमलोंके भक्त थे । आठवें मैत्रेय जो महानगसे शोभायमान, इन्द्रियजित् व शुक्लध्यानी तथा चित्तसे पवित्र थे । नवमें अकम्पन जो सदैव तपस्यामें अकम्प रहते थे। दस अचल और ग्यारहवें प्रभास जो देहके अनुरागसे रहित तथा कामदेव के विनाशक थे। जिनेन्द्र भगवान्के ये ग्यारह गणधर मनि हुए जो शल्य-रहित और महान थे। इनके अतिरिक्त भगवानके तीन सौ शिष्य ऐसे थे, जो समस्त पुणे एवं अंगों के ज्ञाता थे, सुप्रसिद्ध थे एवं अवतोंके त्यागी अर्थात् महानती थे। भगवान्के नौ सौ शिष्य ऐसे थे जिनके सर्वावधि ज्ञानरूपी चक्षु खुल गये थे अर्थात् जो सबिधि-ज्ञान-धारी थे। भगवान्के संघमें एक हजार तीन सौ से मुनि भी थे जो मोह और लोभके त्यागी तथा क्षमा और दम आदि गुणोंसे भूषित थे ॥७॥
भगवान्का मुनिसंघसहित विपुलाचल पर्वतपर आगमन भगवान्के संघमें पाँच चतुर्थ-ज्ञान-धारी अर्थात् मनःपर्ययज्ञानी तथा सात केवलज्ञानी मुनि भी थे।
उनके चार सी ऐसे श्रेष्ठ वादी मुनि थे जो द्विज, सुगत (बुद्ध), कपिल और हर ( शित्र ) इनके सिद्धान्तोंका खण्डन करनेमें समर्थ थे। इन मुनियोंके अतिरिक्त संघमें छत्तीस सहस्र संयमिनी अर्थात् अणिकाएं, एक लाख गृहस्थ थावक तथा तीन लाल श्राविकाएँ थीं। देव और देवियोंकी तो संख्या असंख्य थी। उन परमेष्ठी देवके साथ संख्येय तिर्यंच भी थे जो उनके साथ रहने में सुखका अनुभव करते थे।