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६. ५. २२]
हिन्दी अनुवाव कन्या हमारी हो चुकी है तब उसे अन्य किसीकी नहीं होने देना चाहिए। ऐसा विचार कर उसने उस कुमारीको हत्या कर दी। वह मरकर उसी वनमें व्यन्तर देवी हुई। और चिलातपुत्र अपने प्राणोंके भयसे भागकर दुर्गम और उच्च बभार पर्वत पर जा चढ़ा। उस पुण्यभूमिमें उसे भवभयहारक मुनिदत्त नामक मनिके संघ सहित दर्शन हुए। चिलातपूत्रने भयसे काँपते हुए शरीर सहित पापसे विरक्त होकर मुनिको नमस्कार क्रिया और उनसे पूछा ||४||
मुनिका उपदेश पाकर चिलातपुत्रकी प्रव्रज्या, व्यन्सरी
द्वारा उपसर्ग तथा मरकर अहमिन्द्र पद-प्राप्ति
हे साधु, मुझे संक्षेपमें वह सारभूल उपदेश कहिए जो जिनदेवने कहा है। तब उन मुनीश्वरने उसे सबमें सारभूत और सुखकारी उपदेश कहा जो इस प्रकार है-हे पुरुषवर, तू जिसकी इच्छा करता है उसकी इच्छा मत कर, और जिसकी त इच्छा नहीं करता उसकी इच्छा कर, यदि इस संसार रूपी महासमुद्रको पार करना चाहता है। जो इन्द्रियोंके विषय आदि परभाव हैं उनको छोड़ और जो विषयों से रहित आत्मभाव है, उनको ग्रहण कर । मुनिका यह उपदेश सुनकर चिलातपूत्रको वैराग्य उत्पन्न हो गया और संक्षेप यह कि उसने प्रव्रज्या धारण कर ली । मनिसे यह सुनकर कि अब उसकी आयु थोड़ी ही शेष रह गयी है, उसने विशेष सन्तोषके साथ प्रायोग्य मरण नामक समाधि ले ली। तब राजा श्रेणिक वहीं अपने सैन्य सहित आया। और उसने देखा कि उसका भाई साध हो गया है तव 'यह बहुत अच्छा किया' ऐसी प्रशंसा करके तथा पुजा, अर्चा व प्रणाम करके वहाँते गमन किया। यहाँ इसी बीच उस व्यन्तरीने उसे देखा और बैरके वश होकर उसने उसका उपसर्ग किया ! उसने चील पक्षीका रूप धारण करके उसके ध्यानस्थ होते हुए सिरपर बैठकर