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वीरणिणिवचरिउ
वड-मुंड कीडियहि निरंतर |
घत्ता-पणिय पात दुक्खु महंत सहिऊण समाहि-जुत्र । सो सोक्ख निरंतर पंचाणुत्तरे
॥
सिद्धि विमाणमिंदु हु ||५||
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[ ६.५.२३
वीरजिदिचरिए चिलायपुत्त परीसह सहणी णाम संधि ॥६॥
( श्रीचन्द्रकृत कहाको संधि ५० से संकलित )