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सन्धि ३
वीर जिनेन्द्रकी निर्वाण-प्राप्ति
१
भगवान्कामे बिहारपुर आगमन
वे अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महाबीर बिपुलाचलसे चलकर पृथ्वीपर बिहार करते हुए एवं जनताके दुर्लक्ष्य दुष्कर्मीका अपहरण करते हुए पावापुर नामक उत्तम नगरमें पहुँचे । उस नगरके समीप एक मनोहर वन था, जहाँ वृक्ष नये पल्लवों से आच्छादित थे और अनेक सरोबर थे। उस वन में भगवान् एक विशुद्ध रत्नशिला पर विराजमान हुए, जैसे मानो एक राजहंस कमल - पत्रपर आसीन हो । वहाँसे उन्होंने दो दिन तक कोई विहार नहीं किया और वे तृतीय शुक्लध्यान में मग्न रहे । फिर कार्तिक मास कृष्णपक्षको चतुर्दशीके दिन रात्रिके अन्तिम भाग में जब चन्द्र सुखदायी स्वाति नक्षत्र में स्थित था, तब उन्हें निर्वाणकी प्राप्ति हो गयी ||१||
२ भगवान् का निर्माण तथा उनकी शिष्य-परम्परा
भगवान् ने अपने मन, वचन और काय इन तीनों योगोंका भले प्रकार निरोध करके छिन्न-क्रिया-निवृत्ति नामक ध्यान धारण किया। उन्होंने चारों अधाति कर्मीका नाश कर डाला। और इस प्रकार ये सिद्धार्थं राजाके पुत्र जिनेन्द्र महानू जिन, राग-द्वेषरहित होकर तथा समस्त पाप रूपी रजको दूर करके, शरीर रहित होते हुए, सम्यक्त्व आदि अष्टगुणोंसे युक्त सिद्ध हो गये । उनके साथ अन्य एक सहस्र मुनि भी सिद्धत्वको प्राप्त हुए। उस समय नये कमल-पुष्पोकी मालाओंको धारण किये हुए सुरेन्द्रोंने ताल दे देकर, देवलोककी अप्सराओंका नृत्य कराया ।
वीर भगवान् के निर्वाण प्राप्त करनेपर मद और रागको विनम्र कर इन्द्रभूति गणधर ने केवलज्ञान प्राप्त किया। वे अपने कर्मोंस मुक्त होकर,