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१२. ३. ४ ] हिन्दी अनुवाद
१२५ सुवर्ण, ताँबा, त्रिपुष् अर्थात् शीशा, मणि और चाँदी, ये खर पृथ्वीकायिक कहे गये हैं। जलकायिक जीवोंका शरीर वारुणि अर्थात् मद्य, क्षीर, क्षार, घृत, मधु और जल आदि रूप कहा गया है। अग्निकायिक वे होते हैं जो दूरसे ही अपना स्वरूप धूम्रसे मलिन हुआ दिखलाते हैं, अथवा जो वज्र, विद्युत्, रवि, मणि व ज्वालारूप ज्योतिर्मय होते हैं । दिशाओं और विदिशाओंमें जो उत्कलि ( झंझावात ), मण्डली ( चक्रवात) अथवा गज़ा-निनाद स्वरूप बाय बहती है वह वायकाय है। वनस्पतिकायिक जीव सुप्रसिद्ध ही हैं जो गुच्छोंमें, गुल्मोंमें, वल्लियामें और तृणोंमें, पर्बोमें तथा वृक्षोंकी सघन शाखाओंमें उत्पन्न होते हैं, ऐसा यतीश्वरने कहा है।
वृक्षरूप वनस्पतिकाय जीव पर्याप्त भी होते हैं, और अपर्याप्त भी; सुक्ष्म भी होते हैं और बादर अर्थात् स्थूल भी, और साधारण भी होते हैं एवं प्रत्येक भी । साधारण जीव वे होते हैं, जिनका श्वासोच्छ्वास और आहार साधारण अर्थात् एक साथ ही होता है। प्रत्येक वनस्पति जीव वे होते हैं जो एक-एक वृक्षमें एक-एक रूपसे रहते हैं तथा जो छेदन और भेदन क्रियाओंसे मृत्युको प्राप्त हो जाते हैं।
द्वीन्द्रियजीव तुन्दाधि अर्थात् पेटके कीटाणु कुक्षिमि व क्षुब्ध ( पानी में डूबे हुए ) शंख आदि असंख्य भेदरूप कहे गये हैं। गोमी और पिपीलिका अर्थात चीटियाँ आदि श्रीन्द्रिय एवं माखी और भ्रमर आदि चौइन्द्रिय जीव हैं। इन जीवोंमें क्रमश: एकेन्द्रियसे लेकर चार इन्द्रियों तकक्री ज्ञानेन्द्रियाँ होती हैं, अर्थात् एकेन्द्रिय जीवके स्पर्शमात्रकी एक ही इन्द्रिय होती है। द्वीन्द्रियोंमें स्पर्श और रस ये दो इन्द्रियां होती हैं । त्रीन्द्रियोंके स्पर्श, रस और गन्ध ये तीन इन्द्रियाँ तथा चतुरिन्द्रिय जीबोंके स्पर्श, रस, गन्ध और नेत्र ये चारों इन्द्रियाँ होती हैं ।।२।।
जीवोंके संज्ञी-असंशो भेव व वंश प्राण उक्त प्रकारके एकसे लेकर चार इन्द्रियों तकके जीवोंमें क्रमशः तीन, चार और पाँच पर्याप्तियाँ होती हैं । अर्थात् एकेन्द्रियोंमें आहार, शरीर तथा स्पर्शेन्द्रिय द्वीन्द्रियोंमें आहार, शरीर व प्रथम दो इन्द्रियां और आनप्राण ये चार पर्याप्तियाँ; त्रीन्द्रियोंमें आहार, शरीर, प्रथम तीन इन्द्रियाँ और आनप्राण ये चार पर्याप्तियाँ; तथा चतुरिन्द्रिय जीवोंमें आहार, शरीर, चार