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३. ३.१४ ]
हिन्दी अनुवाद विपुलगिरि पर्वतपर निर्वाणरूपी शाश्वत स्थानको प्राप्त हो गये। उसी दिन सुधर्म मुनिको पायमलका प्रक्षालन करनेवाला कंवलज्ञान उत्पन्न हुआ। सुधर्म मुनिका निर्वाण होनेपर कामको जीतनेवाले जम्बू नामक गणधरको वहीं पंचम दिव्यज्ञान अर्थात् केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। उक्त तीन प्रधान केवलज्ञानी गणधरोंके पश्चात् क्रमशः नन्दि, नन्दिमित्र अपर ( अपराजित ), और चौथे गोवर्धन तथा पांचवें भद्रबाहु, पे मेधके समान गम्भीर ध्वनि करनेवाले समस्त श्रुतज्ञानके पारगामी अर्थात् श्रुतकेवली हुए जिन्होंने मिथ्यात्वरूपी मलको दूर कर शुद्ध बीतराग भाव प्राप्त किया। उनके पश्चात् ( ग्यारह अंगों तथा दशपूर्वोके ज्ञाता क्रमशः निम्नलिखित एकादश मुनि हुए) विशास्त्र, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नागसेन, सिद्धार्थ, धृतिसेन, विजय, बुद्धिल, गंग और निःशल्य धर्मसेन । इनके पश्चात् नक्षत्र, यशपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंस, ये पौत्र ग्यारह अंगधारी हुए । कंसके पश्चात् सुभद्र व यशोभद्र मुनि हुए जो आत्मजयी, जनसुखकारी, महान् तीनबुद्धि तथा गणधरके समान ज्ञानी थे॥२॥
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प्रस्तुत ग्रन्थको पूर्व परम्परा यशोभद्रके पश्चात् भद्रबाहु तथा लोहाचार्य भट्टारक हुए। ये ( चारों आचार्य ) जगत्के सारभूत आचारांगके धारी थे। इन्होंने आचारांग शास्त्रका पूर्णज्ञान अपने मनमें धारण किया था, तथा शेष आगमोंका उन्हें केवल एकदेश अर्थात् संक्षिप्त. ज्ञान था। पूर्व कालमें जिस श्रुतज्ञानको शत्रुओंकी वधुओंको वैधव्य दिखलानेबाले ( शत्रु-विजयी ) राजा भरतने सुना था, वही राजपरिपाटीसे निरन्तर सुना जाता रहा और 'उसी धर्मको महा मुनिनाथोंने प्रकट किया। उन संसारके भयरूपी भारको दूर करनेवाले धर्मश्रोताओंमें सबसे पिछले राजा श्रेणिक हुए। आचार्य वीरसेन और जिनसेनने भी उस जैन शासनकी सेवा की जो मदरूपी पर्वतका वज्रके समान विनाशक है। उनके पश्चात् उसे नाना