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वीरजिणिवचरित [२. ४. १७सा णिच्च देव तहि णच-णवउ । एत्तहि परमेटि सु-भइरबउ ।। गुरु-पाव-भाव भरविवसियउ। विसहेपिपण हर-दविलसियन । सम-सत्तु-मित्त-जीविय-रमणु । अण्णहि दिणि भव्ब-समुद्धरणु ।। पिंडस्थिउ जाणिय-जीव-गइ ।
कोसंबी-पुर-वरि पइसरइ ।। घत्ता-णियल-मिरुद्ध-पयाइ चेद्धय-णिव-दुहियाइ॥
आविधि संमुहियाइ पणवेप्पिणु दुहियाइ ॥४॥
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कोहव-सित्थइँ सरावि कयई । . सउवीर-विमीसई हयमयई ॥ मुणि-णाहु करयलि ढोइयई। तेोग वि णियदिदिइ जोइयई ।। जायाई भोज्जु रस-दिषण-दिहि । अट्ठारह-वण्ड-पयार-विहि ।। जिण-दाण-पहावे दुरमई। आयस-डियई रोहिय-क्रमई ।। सज्जण-मण-गयणाणंदणहि । परिगलियई णियलई चंदणहि ॥ अमरहिं महुयर-मुह-पेल्लिय है । कुंदई मंदारई घल्लियई ।। रयणाई वण्या-कञ्बुरियाई। पसरत-किरण-विप्फुरियाई ।। ह्य दुदुहि साहुक्कार काउ । गुणि-संग कासु ण जाल जउ॥ करणहि गुणोहु विउसेहिं थुत्र | सहुँ बंधवेहि संजोज हुउ ।। बारह-संवच्छर-तव-चरणु । किउ सम्मइणा दुवक्रय-हरणु ।