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वोरजिणिदधरित [८. ४. १३ - मुवण-यह-पणयन्यायारविंदे। निवुद्ध-परे सम्मइ-जिण-बरिंदे ।। तिन्नि जि संबच्छर अट्ठ मास । दस अवर वियाणहि पंच दिवस ।। पत्निी अच्छेति तुरिगे काले । पंचत्त हवेसइ तुह् क्याले । सीमंत-नरण दुक्सहो खाणीहिं । जाणवउ प, पढ़मावणीहि ।। नारइट निरंतर-दुक्ख-बरिमु । होस हि चउरासी परिस-सहसु ।। नासारथि तओं हय-दुक्ख-जालि।
ओस प्पिणीहे तइयम्मि कालि ।। घत्ता-सिरिचंदुजल किनि जग-गुरु सब-सुहकर ।
नामें पोमु महाइ होसहि तुहुँ तित्थंकरु ॥४॥ इय वीरजिणि चरिश सेणिय-धम्मलाह-तिस्थयर-गोन-धो णाम
अट्टमो संधि ॥८॥
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( श्रीचन्द्रकुत कहाकोसु संधि १३-१४ से संकलित )