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वीरमणिचरिउ
हैं। उनका प्राचीनतम बौद्ध साहित्य से भी मेल खाता है। जिस प्रकार बौद्ध साहित्य त्रिपिटक कहलाता है उसी प्रकार यह जैन साहित्य गणिपिटकके नामसे उल्लिखित पाया जाता है ।
यह समस्त साहित्य अंगप्रविष्ट कहा गया है। इसके अतिरिक्त मुनियोंके आचार व क्रियाकलापका विस्तार से वर्णन अंगबाह्य नामक चौदह प्रकारको रचनाओं में पाया जाता है जो इस प्रकार हैं
१. सामायिक, २. चतुति ३४ प्रतिक्रमण, ५. वैनविक, ६. कृतिकर्म, ७. दशकालिक ८. उत्तराध्ययन, ९. कल्पव्यवहार, १०. कल्पा कल्प, ११. महाकल्प, १२. पुण्डरीक, १३. महापुण्डरीक, १४. निषिद्धिका ।
इन नामोंसे ही स्पष्ट है कि इन रचनाओंका विपय धार्मिक साधनाओं और विशेषतः मुनियोंकी क्रियाओंसे सम्बन्ध रखता है । यद्यपि ये चौदह रचनाएँ अपने प्राचीन रूपमें अलग-अलग नहीं पायी जातीं, तथापि इनका नाना अन्योंमें समावेश है और वे मुनियों द्वारा अब भी उपयोग में लायी जाती हैं ।
वल्लभीपुरमें मुनि संघ द्वारा जो साहित्य संकलन किया गया उत्तमें उक्त प्रथम ग्यारह अंगों के अतिरिक्त औपपातिक, राय-पसेणिय आदि १२ उपांग निशीय, महानिशीय आदि ६ छेदसून; उत्तराध्ययन, आवश्यक आदि ४ मूलसूत्र; वतु:दारण, आसुर-प्रत्यास्थान आदि दश प्रकीर्णक, तथा अनुयोगद्वार और नन्दी मे दो चूलिका सूत्र भी सम्मिलित हो गये जिससे समस्त अर्द्धमागधी बागम-ग्रन्थों की संख्या ४५ हो गयी जिसे वेताम्बर सम्प्रदाय द्वारा धार्मिक मान्यता प्राप्त है। यह समस्त साहित्य अपनी भाषा व शैली तथा दार्शनिक व ऐतिहासिक सामग्री के लिए पालि साहित्य के समान ही महत्त्वपूर्ण है ।
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७. महावीर पिर्वाण काल
भगवान् महावीरका निर्वाण कब हुआ इसके सम्बन्ध में यह तो स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होता है कि यह घटना कार्तिक कृष्णपक्ष चतुर्दशी को रात्रि के अन्तिम चरण में अर्थात् अमावस्या के प्रातःकालसे पूर्व घटित हुई और उनके निर्वाणोत्सवको देवों तथा मनुष्योंने दीपावलीके रूपमें मनाया । तदनुसार आजतक कार्तिककी दीपावली
१. सनवायांग सूत्र २११-२२७ घट्खण्डागम, १, २ विंटर निज: इंडियन लिटरेचर भाग २ जैन लिटरेचर
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टोका भाग १, पृष्ठ २६. आदि । कापडिया : हिस्ट्री ऑफ दि जैन
केनानिकल लिटरेचर | जगदीशचन्द्र प्राकृत साहित्य का इतिहास १४ २३ आदि । हीरालाल जैन : भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृष्ठ ५५ आदि। नेमिचन्द्र शास्त्री : माकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृष्ठ १५७ आदि