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प्रस्तावना
इमान किया था, और इसी बीरताके कारण देवने उन्हें महावीर व बोरनाथको उपाधि प्रदान की । यह आख्यान हमें कृष्ण द्वारा कालियनागके दमनका स्मरण कराता है।
३. तन अपनी तीस वर्षको अवस्थामै महावीरने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। उनकी अज्याका स्वरूप यह था कि वे गृह त्यागकर कुण्डपुरके समीपवती ज्ञातृषण्डकनमें बछे गये और उन्होंने अपने समस्त भूषण-वस्त्र त्याग दिये। अपने हायसे उन्होंने अपने केशोंको उखाड़ फेंका और वे तीन दिनका उपन्नास लेकर ध्यानस्थ हो गये। तत्पश्चात् वे बाहर देश-देशान्तरका भ्रमण करने लगे। वे निवास तो
करते थे बनोपननमें हो, किन्तु अपने व्रतों और उपनासके नियमानुसार दिनमें ... एक बार नगर या ग्राममें प्रवेश कर भिक्षा ग्रहण करते थे। वे ध्यान और आत्म
चिन्तन तथा समता-भावकी साधना था तो पद्मासन लगाकर करते थे अथवा खगासनसे खड़े हुए ही नासान दृष्टि रखकर । लेशमात्र हिंसा नहीं करना, तुणमात्र परायी वस्तुका अपहरण नहीं करना, लेशमात्र भी असत्य वचन नहीं : बोमना, मैथुनकी कामनाको मनमें भी स्थान नहीं देना तथा किसी प्रकारकी धनसम्पत्ति रूप परिग्रह नहीं रखना–वे ही पांच उनके महाव्रत थे। इन निषेधात्मक यमों या प्रतोंके साथ-साथ वे उन शारीरिक और मानसिक पीड़ाओंको भी शान्ति
और धैर्यपूर्वक सहन करनेका अभ्यास करते थे जो गृहहीन, निराश्रय, वस्त्रहीन व धनधान्य-हीन त्यागी के लिए प्रकृतितः उत्पन्न होती है, जैसे भूख-प्यास, शीतअरुण, हौस-मच्छर आदिको बाधाएं जो परोपह कहलाती है।
४. केवलज्ञान इन तपस्याओंका अभ्यास करते हुए उन्होंने अपनी प्रव्रज्याफे बारह वर्ष व्यतीत कर दिये । फिर एक दिन जब वे ऋजुकूला नदीके तीरपर जम्भक ग्रामके समीप ध्यानमग्न थे तभी उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। इस केवलज्ञानका स्वरूप यदि हम सरलबासे समझाने का प्रयत्न करें तो यह था कि जीवन और सृष्टिके सम्बन्ध में जो समस्याएँ व प्रश्न सामान्य जिज्ञासु चिन्तक के हृदयमें उठा करते हैं
१. महापुराण (सं.) ७५, २८८.९५। महापुराण ( अपभ्रंश ) ९५, १०, १००१५ ।
भागवत-पुराण, दशम स्कन्ध ।