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बीरजिकिरि
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'उनका उन्हें सन्तोषजनक रीलिसे समाधान मिल गया । यह समाधान या वे छह द्रव्य तथा सात तत्त्व जिनके द्वारा त्रैलोक्य को समस्त वस्तुओं व घटनाओंका स्वरूप समझ में आ जाता है । वे छह द्रव्य इस प्रकार हैं- जीव, पुद्गल, धर्म, अर्म, आकाश और काल । और वे सात तत्त्व इस प्रकार हैं- जीन, अजीव, आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । जीवनका मूलाधार वह जीव या आत्मतत्त्व है जो जड़ पदार्थों से भिन्न है, आत्म-संवेदन तथा पर-पदार्थ-बोध रूप लक्षणोंसे युक्त है एवं अभूर्त और शाश्वत है । तथापि वह जड़ तत्त्वोंसे संगठित शरीरमें व्याप्त होकर नाना रूप-रूपान्तरों व जन्म-जन्मान्तरोंमें गमन करता है । जितने मूर्तिमान् इन्द्रियग्राह्य पदार्थ परमाणुसे लेकर महास्कन्ध तक हमें दिखाई पड़ते हैं वे सब अजीव पुद्गल द्रव्यके रूप-रूपान्तर हैं । धर्म और अधर्म ऐसे सूक्ष्म अदृश्य अमूर्त तत्त्व है जो लोकाकाशमें व्याप्त है और जो जीव व पुद्गल पदार्थोको गणत करने अ होने हेतु भूत माध्यम हैं। आकाश वह तत्व है जो अन्य सब द्रव्योंको स्थान व अवकाश देता है, और काल द्रव्य वस्तुओंके बने रहने, परिवर्तित होने तथा पूर्व और पश्चात्की बुद्धि उत्पन्न करनेमें सहायक होता है । यह तो सृष्टिके वस्त्रों व तथ्यों की व्याख्या हुई। किन्तु जीवकी सुखदुःखात्मक सांसारिक अवस्थाको समझने और उसकी ग्रन्थिको सुलझाकर आत्मतत्त्वके शुद्ध-बुद्ध प्रमुक्त स्वरूपके विकास हेतु अन्य सात तत्त्वोंको समझने की आवश्यकता है। जीव और अजीब तो सुष्टिकै मूल तत्त्व हैं ही। इनका परस्पर सम्पर्क होना यही आसव है । इस सम्पर्क या आखवसे ऐसे बन्धका उत्पन्न होना जिससे आत्माका शुद्ध स्वरूप ढक जाये और उसके ज्ञान दर्शनात्मक गुण कुण्ठित हो जायें, उसे बन्ध या कर्मबन्ध कहते हैं। जिन संयमरूप क्रियाओं व साधनाओं द्वारा इस जीव व अजीवके सम्पर्कको रोका जाता है उसे संदर कहते हैं। तथा जिन व्रत और तपरूप क्रियाओं द्वारा संचित कर्मबन्धको जर्जरित और विनष्ट किया जाता है उन्हें निर्जरा कहते हैं । जब यह कर्म-निर्जराकी प्रक्रिया पूर्ण रूप से सम्पन्न हो जाती है तब जीव अपने शुद्ध स्वरूपको प्राप्त कर लेता है, वह मुक्त हो जाता है, उसे निर्वाण मिल जाता है । इस प्रकार हम देख सकते हैं कि उक्त जीव और अजीवकी पूर्ण व्याख्यामें सृष्टिका पदार्थ विज्ञान या भौतिकशास्त्र का जाता है। भाव व बन्धमें मनोविज्ञानका विश्लेषण आ जाता है । संबर और निर्जरा तत्वोंके व्याख्यान में समस्त नीति व आचार शास्त्रका समावेश हो जाता है, और मोक्षके स्त्ररूप में जीवनके उच्चतम आदर्श ध्येय व विकासका प्रतिपादन हो जाता हैं । केवलज्ञानमें इसी समस्त बोध-प्रबोधका पूर्णतः व्यापक सूक्ष्मतम स्वरूप समाविष्ट है ।