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प्रस्तावना
अपनीय तनोः सर्वं वस्त्रमाल्यविभूषणम् । पञ्चमुष्टिभिरुद्धृत्य मूर्धजानभवन्मुनिः ॥
इन तीनों उल्लेखॉका अभिप्राय यह है कि नाथ, नाथ, नाय अथवा ज्ञात बंशीय भगवान् महावीर ने मार्गशीर्ष कृष्णा १०वीं के दिन षण्डवनमें जाकर तपश्चरण प्रारम्भ किया और वे मुनि हो गये । यथार्थतः अर्द्धमागधी ग्रन्थों, जैसे कल्पसूत्रादिमें इसे 'णाय- संडवन' अर्थात् ज्ञातृ क्षत्रियोंके हिरसेका वन कहा गया है और मेरे मतानुसार उत्तरपुराण में भी मूलतः पाठ नाथ- षण्डवन व अपभ्रंशमें
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हसंडण रहा हूँ जिसे अज्ञानवश लिपिकारोंने अपनी दृष्टिसे सुधार दिया है । अतः भगवान्की तपोभूमि ज्ञातृवंशी क्षत्रियोंके निवास वैशाली व कुण्डपुरका समीपवर्ती उपवन ही सिद्ध होता है ।
१०. भगवान् का केवलज्ञान क्षेत्र
बारह- संयच्छर तव चरणु fee सम्मणा दुक्कियन्हरणु ॥ पोसंतु अहिंसति ससहि । भवंतु तु विहरंतु महि ॥
गत जिम्हि - गामहु अइ-णियहि । सुविउलि रिजुकूला इहि तडि ||
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भगवान्को केवलज्ञान कहाँ उत्पन्न हुआ इसका उल्लेख प्रस्तुत ग्रन्थ (२, ५) मैं निम्नप्रकार पाया जाता है !
पत्ता -- मोर की र-सारस-सरि उज्जायम्मि मणोहरि ॥
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साल- मूलि रिसि-राणउ रयण - सिलहि आसीत || ५॥
हमदुरिएँ । परिपालिय-तेरह विचरिएँ || बसाह - मासि सिय सभि दिणि 1 अवरह जायइ हिम - किरणि ॥1 हत्युत्तर - मज्झ समासियइ । पण केवल सियइ |
अर्थात् भगवान् महावीरने बारह वर्ष तक तपस्या की, तथा अपनी स्वसा चन्दना अहिंसा और क्षमा भावका पोषण किया एवं विहार करते हुए में