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वीरजिणिवचरिउ
१२. महावीरनिर्वाण-क्षेत्र ऋजुकूला नदीके तटपर केवलज्ञान प्राप्त कर तथा विपुलाचलपर अपनी दिव्यध्वनि द्वारा जन-धर्मका उपदेश देकर भगवान् महावीरने ३० वर्ष तक देशके विविध भागों में विहार करते हुए धर्मप्रचार किया। तत्पश्चात् वे पावापुर में आये और वहां अनेक सरोवरोंसे युक्त वनमें एक विशुद्ध शिलापर विराजमान हए। दो दिन तक उन्होंने विहार नहीं किया, और शुक्लध्यानमें तल्लीन रहकर कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रिके अन्तिम भागमें जब चन्द्र स्वाति नक्षत्रमें था तब उन्होंने शरीर परित्याग फर सिद्ध-पद प्राप्त किया । प्रस्तुत ग्रन्थ ( ३,१ ) में यह बात इस प्रकार कही गयी है :
अंत-तित्मणाहु वि महि विहरिवि । जण-दुरिया दुलंबई पहरिवि ।। पावापुरवरु पत्तउ मशहरि । णव-तर-पल्लनि वणि बहु-सरवरि ।। संठिउ पविमल-रयण-सिलायलि । रायहंसु पावइ पंकय-दलि ।। दोगिण दियह पविहारा मुएप्पिणु । णिबत्तिइ कत्तिइ तम-कराणि पक्ख बजद्दसि-यासरि । सुक्क-झाणु तिजउ झाएप्पिण ।। थिइ ससहरि दुहहरि साइवाइ पच्छिमरणिहि अवरारि ।
रिसिसहसेण समउ रयछिंदणु ।।
सिद्धउ जिणु सिद्धत्या गंदणु । ठीक यही वृत्तान्त उत्तरपुराण ( ६७,५०८ से ५१२) में इस प्रकार पाया जाता है :
इहान्त्व-तीर्थनाथोऽपि विहत्य विषयान् बहुन् । क्रमात्पावापुरं प्राप्य मनोहर-बनान्तरे । बहूनां सरसां मध्ये महामणि-शिलातले ॥ स्थित्वा दिनद्वयं वीतविहारो वृद्धनिर्जरः । कृष्ण-कार्तिक-पक्षस्य चतुर्दश्यां निशात्यये ।। स्वातियोगे तृतीयेद्ध-शुक्लध्यानपरायणः । कृषियोग-संरोधः समुच्छिन्नक्रियं श्रितः ।।