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४. ३.२६ 1
हिन्दी अनुवाद सीख ली एवं अपना नाम विद्युच्चोर रख लिया। वही अपने पांच सौ सहायकोंको लेकर तथा बलवान मन्त्र-तन्त्रोंका गर्व रखता हुआ रात्रिके घोर अन्धकारमें दूषित अन्नमयी नरकरके रूपमें जम घरमें पहुँचा ।।२॥
चोरको जम्बूस्वामीकी मातासे बातचीत और फिर
जम्बूस्वामीसे वार्तालाप अरुहृदास सेठके भवन में प्रवेश करनेपर भी उसे किसी भी मनुष्यने नहीं देख पाया । उस चोरने वहाँ यशस्विनी जिनदासी सेठानीको निद्रा और आलस्य रहित जागती हुई देखा । तब चोरने उससे पूछा कि हे माता, तुम जाग क्यों रही हो, सोती क्यों नहीं। सेठानीने कहा-मेरा शुद्धमन पुत्र अगले दिन तपोवनमें प्रवेश करेगा। यही पुत्रवियोग का दुःख मेरे शरीरको तप्त कर रहा है, और इसी लिए हे बाबू , मुझे तनिक भी निद्रा नहीं आती। तू बुद्धिमान है अतएव हे सुभट, किन्हीं बुद्धिमानों द्वारा जाने हुए उपायोंसे इसको रोक ले 1 मैं तुझे अपना परमबन्धु समझती हैं। अतएव यह काम कर देनेपर तू जितना धन मांगेगा मैं उतना ही दूंगी। सेठानीको वह बात सुनकर विद्युच्चोर उसी स्थानपर गया जहाँ अपनी वधओंके साथ वर बैठा था। वह चोर बोला-हे कुमार, यह तुम्हें उचित नहीं कि अपने परलोकके आग्रहसे तुम अपने स्वजनोंको खेद उत्पन्न करो। तुम निकट की बातको तो देखते नहीं, दूर की वस्तु देखते हो । जिस प्रकार हाथीका शावक निकटवर्ती पल्लव और तृणको छोड़कर ऊपर लगी हुई मधुकी इच्छा करता हआ कंकर-पत्थरोंसे पूर्ण शिलातलपर गिर कर मरणको प्राप्त होता है, उसी प्रकार तुम निष्फल अपना मरण मत करो । तपस्यामें क्यों लगते हो? इन कन्याओंसे प्रेम करो। इसपर वरने कहा—तू बुद्धिसे शून्य है। भोगसे जीवकी तुप्ति नहीं होती। इन्द्रिय-सुखोसे उसकी तृष्णा नहीं बुझाती ।