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धौरजिणिदचरित [४.२.१७विज चोरू णियाणाउ कहेपिणु ।
पंचसयाइँ सहायहं लेप्पिणु ॥ घत्ता-- बलवंतहि मंतहि ततहि गावित्र ढुक्कउ तकार ॥
अंधारइ घोरइ पसरियइ रयणिहि दूसिय-भवस्वरू ॥२।।
माणवेण उ केण वि दिटुर । अरुहदास-वणि-भवणि पइट्ठउ । दिट्टी तेण तेत्थु पसरिय-जस । जिणवरदासि णह-णिद्दालस ।। पुच्छिय कुसुमाले कि चेयसि । भगु भणु माइरि किं णा सोवसि ॥ ताई पबोल्लि उ महु सुड सुख-मणु । परइ बप्प पइसरइ तवोवणु पुत्त-
विओथ-दुक्खु तणु वाव। तेण णिह महु कि पि विणावइ ।। बुद्धिमंतु तुहुँ चुइ-विण्णायहि । एहु णिवारहि सुहडोवाहि ॥ . पई हउँ वंधत्रु परमु घियप्पमि । जं मग्गहि त दविणु समप्पमि || तं णिसुणिवि णिरुकु गउ तेत्तहि । अच्छइ सहुँ वहुयहिं वरु जेत्तहि ॥ जंपइ भो कुमार णउ जुज्जइ । जणु परलोय-ाहेण जि खिज्जड़।। गियडु माणइ दूरु जि पेच्छह । पल्लड़ तणु-मुपवि मह वंछह ।। णिवडिउ कक्करि सेलि सिलायर्याल । जिह सो तिह तुहुँ मरहिम शिफलि ।। तवि किं लग्गइ माणहि कण | ता पभणइ वरु तुहँ वि जि सुगणत्र ।। जीवहु तित्ति भो र विज्जद। इंदिय-सोक्खं तिट्टण छिज्जइ ॥