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धौरजिशिवचरित [४. ३. २७धत्ता-ता घोरें चोरें बोल्लियउ सवरें विद्धउ कुंजर ।।
सो भिल्लु ससल्लु दुमासिाय फणिणा दट्टउ दुद्धरु ।।३।।
तेण वि सो त मारिउ विसहरु । मुउ करि मुउ सबरुल्लु धणुद्धरु ।। तेत्थु समीहि वि मासाहारउ । तहि अवसरि आयउ कोट्ठारउ ।। लुद्धर णिय-तणु-लोहें रंजइ। चाव-सिंथणाऊ किर भुंजइ ।। तुट्ट-णिबंधणि मुहरुह मोडिइ । तालु विहिष्णु सरासण-कोडिइ ।। मुउ जंबुउ अइतिइ भग्गः। जिह तिह सो परलोयहु भग्गउ ।। म मरु म मरु रइ-सुहु अणुहुंजहि । भणइ तरुणु तक्कर पडिवजहि || सुलह ई पेच्छिवि विविहई रयण।। गड पंधिउ दंकिवि णिय-गयणई ।। जिणवर-वयणु जीउ उ भाव । संसरंतु विविहावइ पावह ।। कोहें लोहें मोहें मुज्झइ। अट्ट-पयारे कम्में बज्झइ॥ कहइ थेणु एक्केय सियालें। मास-खंड छडिवि तिहालें। तणु घल्लिय उपरि परिहन्छहु । तीरिणि-सलिलुच्छलिंग्रह मच्छहु ॥ आमिसु गहियउ पविखणि-णा। सो कड्ढिवि णिउ सलिल-पवाहें । मुज गोमाउ मच्छु जलि अच्छिञ्च । ता लंपेक्स्यु वरें णिमपिछउ ।। चणियह पंथि को वि सुह सुत्तउ । रयाण-करंडउ तहु तहि हित्तः ।।