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८. ४. २८
हिन्दी अनुवाद
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जम्बूस्वामीकी इस बातपर उस घोर चोरने कहा- किसी एक शबरने अपने बाणसे एक हाथीको बेधा । उस बाणधारी दुर्धर, दुष्ट भिल्लको वृक्ष-वासी सर्पने इस लिया ॥ ३ ॥
जम्बूस्वामी और विद्युच्चर चोरके बीच युक्तियों और वृष्टान्तों द्वारा बाद-विवाद
इसपर उसने सीपको भी मार डाला। इस प्रकार वह हाथी भी मरा, धनुर्धारी शबर भी मरा और सर्प भी । उसी समय एक श्रृंगाल मांसाहारकी इच्छासे वहाँ आया। उस लोभीने उस धनुषकी प्रत्यंचा रूप स्नायुको खाना प्रारम्भ किया और वह अपने ही शरीर के रक्तसे प्रसन्न होने लगा । धनुषके छोरोंसे बन्धन टूट जानेके कारण शृगालके दाँत मुड़ गये और तालु छिद गया। इस प्रकार अपनी अति तृष्णा के कारण बेचारा शृगाल भी मारा गया । इसी प्रकार उसकी दशा होती है जो परलोकके पीछे दौड़ता है । अतएव मरो मत! भोग-विलास के सुखका उपभोग करो। इसपर युवक ने कहा- हे चोर, सुन ! एक पथिकने मार्ग में नाना रत्नों को देखा। उनको सुलभ जान वह अपने नेत्रोंको ढाँककर इसलिए आगे चला गया कि इन्हें कोई दूसरा न देख पाये और मैं लौटते हुए इन्हें लेता जाऊँगा । किन्तु लोटनेपर उसे वे रत्न नहीं मिले। इसी प्रकार जिनेन्द्रके वचनरूपी रत्न जिस जीवको नहीं भाते बहु संसारमें भ्रमण करता हुआ नाना प्रकारकी विपत्तियाँ पाता है । वह क्रोध, लोभ, और मोहसे मूढ़ बनकर आठों प्रकारके कर्मबन्धन में पड़ता है। तब चोर कहता है - एक श्रृंगाल मांसका टुकड़ा लिये हुए नदी पार जा रहा था | उसने देखा कि उस वेगवती नदीके पानी में एक मत्स्य अपने शरीरको ऊँचा कर उछल रहा है। उसकी तृष्णावश श्रृंगालने अपने मुँहके मांसखण्डको छोड़कर मत्स्यको पकड़नेका प्रयत्न किया | मत्स्य मुँहमें न आया । किन्तु उसके मुखसे छूटे मांस खण्डको एक गृद्ध झपटकर ले उड़ा । श्रृंगाल स्वयं जलके प्रवाह में बहकर मर गया और मत्स्य जलमें जीवित बच गया । इसपर बरने चोरकी पुनः भर्त्सना की और कहा – एक वर्णिक मार्ग में सुखसे सो गया, और वहीं उसके रत्नोंकी पिटारीको कोई चुरा