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वीरजिजिदचारेज
तं णिसुणिषि भुय-दंड-बिहू सणु । मुक्कु पुलिंदै महिहि सरासणु ॥ पण सुणि बारदु सब्भावें । तेणाभासि णासिय पावें ॥ भो भो धम्म-बुद्धि तुह होज्जउ । बोहि समाहि-मुद्धि संपज ॥ जीव महिंसहि अलि म बोल्लहि । कर यलु परणि कहिँ मि म चल्लहि ॥ पर-रमणिहि मुह कमलु म जोयहि ||
- मंडलिकर- पत्तु में ढोयहि ॥ को विम दिहि दूसिङ दोसें । संग पमाणु करहि संतोस ॥ पंचुंबर-महु पाणणिबायणु । रयणी-भोयगु दुक्ख भायणु ॥ वाह विवज्जद्दि मणि पडिवज्जहि । णिच्चमेव जिणु भक्ति पुज्जहि ॥ तं णिसुणेवि मणुय-गुण-णासहँ । लक्ष्य णिवित्ति तेण महु-मासहूँ || धत्ता - हुउ जीव दयावरु सबरु निरक्खर लग्गउ जिणवर धम्मइ ।
कालें जंतें गिलिउ कथं तें पण सोहम् ||३||
मुउ
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तेत्धु सु-दिव्य भोय भुंजे पिणु । एक्कु समुदोष जीवेप्पिशु ॥ पत्थु चिउलि भारद्द - वरिसंतरि । कोस - विसइ सुसास- णिरंतरि ।। गंदण-वण-रही-रव-रम्महि । परिहा - सलिल - वलय- अविगम्महि || कणय - विणिम्मिय-मणि-मय- सम्महि । णायरणार- विरइय-सह-कम्महि ||
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