________________
१. ३.४ ]
हिन्धी अनुवाद
जम्बूदीप पूर्व विदेह पुष्कलावती देशके धनमें
पुरुरव मामका शबर और शबरी उस देश में एक वन था, जो फूले हुए सरस पुष्योंको परागसे धूसर था । वहाँके सरोवर सुन्दर फूले हुए कमलोंसे आच्छादित थे। कन्दराएं झरनोंके जलप्रवाहसे पूरित थीं। वहाँ किन्नरोंके हाथोंको वीणाओंकी सुन्दर ध्वनि सुनाई देतो थी। कहीं सिंहों के पंजोंसे मदोन्मत्त हाथी विदारित हो रहे थे, तो कहीं पर्वतको गुफाओंमें गज-मुक्ताओंको निधि सुरक्षित रखी गयी थी | कहीं धूमते हुए कस्तूरी-मृगोंको सुगन्ध आ रही थी, तो कहीं कुरर, शुक और कोकिलाओंका कलरव सुनाई दे रहा था। कहीं वनचरोंके समूह सन्तोषपूर्वक विलास में मग्न थे, तो कहीं भ्रमरोंकी प्रिय और मनोहर ध्वनि सुनाई पड़ती थी। ऐसे उस मधुकर नामक वनमें पुरूरव नामका एक शबर रहता था। वह अत्यन्त दुर्भावनाओंसे दूषित था। एक समय जब वह अपने प्रचण्ड धनुष और बाणको लिये हुए अपनी कृष्णवर्ण शबरीके साथ उस वनमें विचरण कर रहा था, तभी उसने स्थावर और जंगम जीवोंको यत्नपूर्वक रक्षा करनेवाले श्रेष्ठ मुनि सागरसेनको देखा। उसने तत्काल उन्हें अपने बाणसे छेद देनेका विचार किया, किन्तु वह अपने बाणको जब तक हाथमें ले तभी उसको स्त्रीने उसे रोका। वह शबरी तमाल व नीलमणिके सदृश काली थी, छोटे हाथोके दाँतके टुकड़ोंसे निर्मित कर्ण-भूषण पहने हुए थी तथा तृणके बने कील धारण किये थी। वह हाथोके मदके समान नीलवर्ण थी, वृक्षोंके पत्तोंसे बने वस्त्र धारण किये थी और लता-बेलीसे बने कटिसूत्रको पहने थी । उसके हाथमें मांस एवं फलोंसे भरी पिटारी थी। उसके नेत्र नोल-कमलके सदश थे ॥२॥
शबरोका मुनिको मारमेसे शबरको रोकना
और उसे मुनिका धर्मोपदेश उस शबरीने शबरसे कहा-मत मार। हाय रे मढ़, तू कुछ भी विवेक नहीं करता। यह कोई मृग नहीं है। वे ज्ञानी मुनिराज हैं जो