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प्रस्तावना
इसी प्रकार धर्म-मुद्राके धारक मुनियों में यदि कोई दोष भी हो, तो उनसे घृणा नहीं, किन्तु उनकी विनय ही करना चाहिए, और विनम्रतासे उन्हें दोषोंसे मुक्त कराना चाहिए । राजाकी ऐसी धर्म-श्रद्धाको प्रत्यक्ष देखकर वह देव बहुत प्रसन्न हुआ और राजाको एक उत्तम हार देकर स्वर्गलोकको चला गया। यह कथानक इस बातका प्रमाण है कि जबसे श्रेणिकने जैन-धर्म स्वीकार किया तबसे उनकी धार्मिक श्रद्धा उत्तरोत्तर दृढ़ होती गयी और वे उससे कभी विचलित नहीं हुए ।
(ग) श्रेणिक-सुत अभयकुमार श्रेणिक जब राजकुमार ही थे और राज्य निर्वासित होकर चिलापत्रके राज्यकालमें कांचीपुरमें निवास कर रहे थे तब उनका विवाह वहाँ के एक द्विजकी कन्या अभयमतीसे हो गया था। उससे उनके अभयकुमार नामका पुत्र उत्पन्न हुआ जो अत्यन्त विलक्षण-बुद्धि था। उसने ही उपाय करके अपने पिताका विवाह उनकी इच्छानुसार चेलमादेवी से कराया । वह भी श्रेणिकके साथ-साथ भगवान् महावीरके समवसरणमें गया था, और न केवल दृढ़-सम्यमत्वी, किन्तु धर्मका अच्छा ज्ञाता बन गया था। यहांतक कि स्वयं राजा श्रेणिकने उससे भी धर्मका स्वरूप समझनेका प्रयत्न किया था। अन्ततः अभयकुमारने भी मुनि-दीक्षा ग्रहण कर ली, और वे मोशगामी हुए । ( उत्तरपुराण ७४, ५२६-२७ आदि )
(घ) श्रेणिक-सुत वारिषेण जैसा कि पहले कहा जा चुका है, राजा श्रेणिकका चेलनादेदीसे विवाह उनकी ढलती हुई अवस्थामें उनके ज्येष्ठ पुत्र अभयकुमारके प्रयत्नसे ही हुआ था। पेलनाने वारिषेण नामक पुत्र का जन्म दिया। वह बाल्यावस्था से ही घामिक प्रवृत्तिया था, और उत्तम भावकोंके नियमानुसार श्मशानमें जाकर प्रतिमायोग किया करता था। एक बार विद्यापचर' नामक अंजनसिद्ध घोरने अपनी प्रेयसी गणिकासुन्दरीको प्रसन्न करने के लिए राजभवन में प्रविष्ट होकर चेलनादेवी के हारका अपहरण किया। किन्तु उसे वह अपनी प्रियाके पास तक नहीं ले जा राका । राजपुरुष उस चन्द्रहास हारको चमकको देखते हुए उसका पीछा करने लगे। यह बात उस चोरने जान ली, और वह श्मशानमें ध्यानारूढ़ वारिषेण कुमारके चरणों में उस हारको फेंककर भाग गया। राज-सेवकोंने इसकी सूचना राजाको दी। राजाने वारिषेणको ही चोर जानकर क्रोधवश उसे मार डालनेकी आज्ञा दे दी । किन्तु वारिषेणके धर्म-प्रभायसे उसपर राजपुरुषोंके अस्त्रशस्त्र नहीं चले । उसका वह दिव्य प्रभाव देखकर राजाने उन्हें मनाकर राज