________________
९. ३. २६ ]
हिन्दी अनुवाद
१०५
7
उनसे कहा -- यदि ऐसा है तो मैंने यदि समस्त दुष्कर्मो को जीतने वाले जिनेन्द्र भगवान की मुद्रा धारण करनेवाले, धीवर मुनिको भी गुरुविनयपूर्वक, घृणा छोड़कर, नमस्कार किया तो तुम लोग किस कारण मेरा उपहास करते हो ? राजा के इस दृष्टान्तसे उन सभी सामन्तोंने धर्मके मर्म की बात समझ ली। उन्होंने राजाको प्रणाम किया और समताभाव सहित अपने स्वामीको मना लिया। उन्होंने कहा- हे राजराजेश्वर हे पापविद्वेषी, आप ही एक धन्य हैं, जिनका मन धर्ममें इस प्रकार अचल है । यह जिनधर्म ही निर्दोष और सर्वोपरि जगत्-पूज्य है। जो कोई दोषों में अनासक्त है उसके लिए वह गम्य क्यों नहीं होगा ? यह सब देख सुनकर वह देव वहाँ आया, और समस्त जनसमूहके मध्य राजासे बोला – हे भावी तीर्थकर, तुम्हारा जिस प्रकार वर्णन देवराजने किया था, उससे भी कहीं स्पष्टतः, कहीं अधिक तुम्हारा धर्मानुराग है । ऐसा कहकर, राजा की पुजाकर तथा अपना पूर्व वृत्तान्त सुनाकर वह देव राजाको एक सुन्दर हार देकर देवलोकको चला गया। इस वृत्तान्तको देखकर सब लोग मिथ्यात्वसे विरक्त तथा जैनधर्म में अनुरक्त हो गये । अन्य जो कोई भी धर्मावलम्बी शाश्वत सुखरूप मोक्षके लिए उत्कण्ठित हो उसे भी सदा इसी प्रकार उपगूहुन अंगका पालन करना चाहिए ॥ ३॥
१४
इति श्रेणिक - धर्म - परीक्षा विषयक नवम सन्धि समाप्त ॥ सन्धि ९ ॥