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सन्धि ११ श्रेणिक-पुत्र गजकुमारकी दीक्षा
श्रेणिक-पत्नी धनश्रोका गर्भधारण, दोहला
तथा गजकुमारका जन्म जैनधर्मके इस प्रभावको देखिए कि एक तिर्यंच भी सहस्त्रार स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ अपनी अठारह सागरोपम आयुके पश्चात् वह मगध देशके राजगह नगरमें श्रेणिक राजाकी नवयौवना पत्नी धनश्चीके उदरमें अवतीर्ण हुआ। रानीने अपने स्वप्न में एवा नाग ( हस्ती ) देखा और तदनुसार ही गर्भके पांचवें मासमें उसे एक दोहला उत्पन्न हुआ। उसकी इच्छा हई कि पूरीके परिजनों सहित शोभायमान ब भ्रमरसमूहोंसे युक्त हाथी. पर आरूढ़ होकर जब आकाश मेघाच्छादित हो और शुद्ध जलवृष्टि हो रही हो, तब महात् उत्सबके साथ वनमें जाकर क्रीडा की जाये। अपनी प्रियपत्नीकी यह इच्छा जानकर प्रियानुरागी राजा श्रेणिक चिन्तित हो उठे। किन्तु इस दोहलेकी पूर्ति अभयकुमारने अपने सदभावपूर्ण विद्याधर मित्रके स्मरणसे की। तत्पश्चात् एक शुभ दिन वह धन्य पुण्यशाली पुरुष उत्पन्न हुआ, जिसने सब लोगोंकी मनःस्थितिमें हर्ष उत्पन्न कर दिया। देवीने अपने स्वप्नमें एक गजको देखा था, अतएव उनके उस पुत्रका नाम गजकुमार रखा गया। बढ़ते-बढ़ते गजपुत्र यौवनको प्राप्त हो गये। वे समस्त कलाओंमें कुशल, मदनके समान सुरूप तथा जिनेश्वरके चरणकमलोंके भ्रमर समान सेवक हुए ॥१॥