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वीरजिणिवचरिउ शोध-संस्थान की स्थापना भी की है तब समस्त जैन समाजको इस स्थानकी उपेक्षा नहीं करना चाहिए और अपना पूरा योगदान देकर उसे उसके ऐतिहासिक महत्वके अनुरूप गौरवशाली बनाना चाहिए।
९, महावीर-तप-कल्याणक क्षेत्र भगवान्ने तपश्चरण' कहाँ प्रारम्भ किया था इसका उल्लेख प्रस्तुत ग्रन्थ (१,११ ) में इस प्रकार पाया जाता है।
चंदप्पह-सिविहिं पहु चडिण्णु । तहिं णाह-संडवाणि गवर दिण्णु || मरगसिर-कसण-समी-दिति । संजायइ तियसुच्छवि महति ।। धोलीणइ चरियावरण पंकि । हत्युत्तरमअझासिद ससंकि ।। . छट्टोववामु किउ मलहरेण ।
तत्रचरणुलइन परमेसरेण ।। इसी प्रकार संस्कृत उत्तरपुराण (७५, ३०२-३०४) में भगवान् के तपग्रहणका उल्लेख इस प्रकार पाया जाता है :
नाथः (नाथ-) पण्डवनं प्राप्य स्वयानादवरुद्ध सः । श्रेष्ठः षष्ठोपवासेन स्वप्रभापटलावृते ॥३०२॥ निविश्योदमुखो वोरो रून्द्ररत्नशिलातले । दशम्यां मार्गशीर्षस्य कृष्णायां शशिनि चिते ॥ हस्तोत्तरक्षयोमध्यं मागं चापास्तलक्ष्मणि । दिवसावसितो धीरः संयमाभिमुखोऽभवत् ॥
सौधर्माद्यैः सुरैरेत्म कृताभिषवपूजनः ।। हरिवंशपुराण ( २,५०५२ ) के अनुसार :
आरुह्य शिविका दिव्यामुह्यमानां सुरेश्वरैः ॥ उत्तराफाल्गुनीष्वेव वर्तमाने निशाफरे । कृष्णस्य मार्गशीर्षस्य देशम्यामगमद् वनम् ॥
१. हानले : उपासक-दशा, मस्तावना व टिप्पण । फेम्बिज हिस्ट्री ऑफ इण्डिया, प3 t४।
भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ० २२ आदि ।