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१२. ७. १० ] हिन्दी अनुवार ३७. आदेय, ३८. अनादेय, ३९. यशस्कीति, ४०, अयशस्कीति, ४१. निर्वाण, और ४२, तीर्थकरत्व । ये बयालीस प्रकारके नामकर्म हैं, जिनके द्वारा शरीरके, उनके नामानुसार, विविध प्रकारके गुण-धर्म उत्पन्न होते हैं । इनमें से अनेकके कुछ उपभेद भी हैं, जैसे-गतिनाम कर्म, नरक, तिर्यक, मनुष्य और देव, इन गतियोंके अनुसार चार प्रकारका है । एकेन्द्रिय आदि पाँच इन्द्रियों तकके भेदानुसार जातिनाम कर्मके पांच भेद हैं ॥६॥
नाम, आयु, गोत्र व अन्तराय कर्मोके भेद औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस और कार्मणके भेदसे शरीर नामकर्म पाँच प्रकारका है। इन पांचों शरीरोंके अलग-अलग बन्धन होते हैं, जो शरीर बन्धन नामकर्मसे उत्पन्न होते हैं। उन्हींके अनुसार उन शरीरोंके पांच संघात होते हैं। शरीर-संस्थानके छह प्रकार हैं-समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमण्डल, स्वाति, कुब्ज, वामन और हुण्ड । शरीरांगोपांगके औदारिक, वैक्रियिक और आहारक ये तीन भेद हैं। शरीर-संहननके छह भेद हैं-वज-वृषभ-नाराच, नाराच नाराच, नाराच, अर्ध-नाराच, कीलित और असंप्राप्तासृपाटिका। वर्ण पाँच हैं, कृष्ण, नील, रक्त, हरित और शुक्ल । सुगन्ध और दुर्गन्धके भेदसे गन्ध नामकर्म दो प्रकारका है। रस पाँच हैं--तिक्त, कटु, कषाय, अम्ल और मधुर । स्पर्शनामकर्मके आठ भेद हैं-कठोर, मृदु, गुरु, लघु, स्निग्ध, रूक्ष, शीत और उष्ण । नरक आदि चारों गतियोंके अनुसार आनुपूर्वी नामकर्म चार प्रकारका है। विहायोगतिके दो भेद हैं—प्रशस्त और अप्रशस्त । इन सब उपभेदोंको मिलाकर नामकर्म के तिरानबे भेद हो जाते हैं, जिनके अनुसार समस्त संसारी जीवोंके शरीरमें दिखाई देनेवाले नाना भेदोंका निर्माण होता है।
गोत्रकर्म दो प्रकारका होता है। समल अर्थात् पाप-प्रवृत्ति करानेवाला और अमल अर्थात् शुद्ध प्रवृत्ति करानेवाला। इन दोनोंको भी सिद्धात्माएँ दूर कर देती हैं । अन्तराय कर्मके पांच भेद हैं-दानान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय, वीर्यान्तराय और लाभान्तराय, जो उन-उन गुणोंकी प्राप्तिमें बाधक होते हैं। उक्त आठों कर्मोकी उत्तर प्रकृतियोंको मिलानेसे वे सब एक सौ अड़तालीस हो जाती हैं। इन सबका
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