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वीरजिणिवचरित सुर-तरु-पल्लव-तोरण-वारहि । वण्ण-विचित्त-सत्त-पायाहि ।। धूय-धूम-कज्जलिय-गवक्खहि । भूमि-मयारंजिय-साहसक्ख हि ।। उज्झा-णयरिहि पय-पाय-सुरवइ । होतउ रिसणाहु चिरु णरवइ ।। पविमल-णाण-धारि सुह-संकर। पदम-परिंटु पढम-वित्थंकर ।। आइ-बंभु मइएवु महामहु । भुषण-त्तय गुरु पुण्ण-मणोरहु ।। तदु पहिलारहु सुख भरसरु । जो छक्लंड-धरणि-परमेसरु ।। मागहु वर-तणु अण पहासु वि । जित्ता सुरु वेयडूढ-णिवासु वि ॥ विज्जाहर-बइ भय-काविय ।
णमि-विणमीस वि सेव कराविय ॥ घता-जो सिसु-हरिणच्छिा सेविउ लच्छिइ
गंगइ सिंधुइ सिंचिः। णच-कमल-दलक्खहि उबवण-जक्खहि
णाणा-कुसुमहि अंचि ॥४॥
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ता कंकेल्ली-दल-कोमल कर। वीणा-वंस-हंस-कोइल-सर ।। तासु देवि उत्तुंग-पयोहर। णाम अणंतमइ त्ति मणोहर | सो सुर-सुंदरि चालिय-धामह । ताहि गलिभ जायउ सबरामरु ॥ सुज णामें मरीइ विक्खायड । बहु-लक्खण-समलंकिय-कायउ ।। देष-देउ अच्चंत-विवेइउ । णीलंजस मरणें उज्वेइ उ ।।