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३.४.१८ ] हिन्दी अनुवाद रसोंसे जटित पद्धडिया छन्दमें महामन्त्रि भरतने लिखवाया । उसे पढ़कर, सुनकर व कानोंमें देकर मामैया द्वारा वही निर्मल महीतल पर प्रकट किया गया । गणधरों द्वारा उपदिष्ट यह पुराण कर्मक्षयका कारण है। इसी दृष्टि से मैंने इस महापुराणको सृष्टि की है । इस जिनेन्द्र मार्गके कथनमें मुझ बुद्धिहीन द्वारा जो कुछ कम या अधिक कहा गया हो उसे त्रैलोक्यको सारभूत अरहंत भगवान द्वारा प्रादुर्भूत पूज्य ध्रुतदेवी क्षमा .. करें ! ने नौबीसों तीर्थकर, जो मात्र पागोंकाक्षा करनेवाले हैं, मुझे समाधि और बोधि प्रदान करें। यह अनुपम कर्ण-रसोयनरूप रचना भुवनतल पर दुःखों का नाश करे और आनन्द उत्पन्न करे, तथा लोग उसे तब तक श्रवण और मनन करें जबतक आकाशमें चन्द्र और तारागण विद्यमान हैं ।।३॥
कविकी लोक-कल्याण भावना
मेघ-समूह यथासमय संपत्तिधाराओसे वर्षा करें । पृथ्वी प्रचुर धन-धान्यसे भरी रहे। वीर जिनेन्द्रका शासन जीवोंको आनन्ददायी हो। राजा श्रेणिक अपने नरक-निवाससे बाहर निकले और आगामी तीर्थकरके रूपमें देवेन्द्र उनकी अभिषेक-विधिमें लग जावें। समस्त प्रजा सुखसे आनन्द करे और शासकगण भी प्रसन्न रहें । देशभरमें आनन्द हो और सुभिक्ष फैला रहे । लोग अपने मिथ्यात्व और दुश्चिन्तनका विनाश करें । अपनी प्रतिज्ञाके परिपालनमें शुरवीर श्रेष्ठ सुभट भरतको शान्ति प्राप्त हो। नाना गुण-समूहोंके धारी दयावान् सन्त और मनियोंको भी शान्ति प्राप्त हो। मज्जन, दंगय्या और सूजन संतैयाको भी शान्ति मिले। शेष उन समस्त भव्योंको भी शान्ति मिले जिनका गर्व व अभिमान जिनेन्द्र भगवान्के चरणोंमें प्रणाम करनेसे दूर हो गया है। इस दिव्य काव्यको रचनाका फल जिनेन्द्र भगवान् मुझे शीघ्र प्रदान करें तथा मुझ पुष्पदन्त कविका गमन भी वहीं हो जहाँ श्री भरत और भगवान् अरहंत गये हैं ॥४॥