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वीरजिणिवधरित
[३. ५.१
सिद्धि-षिलासिणि-मणहर-दूएं । मुद्धापवी-तणु-संभूएं। णिद्धण-सधण-लोय-समचित्ते । सब-जीव-णिकारण-मित्ते ।। सह-सलिल-परिवढिय-सोतें। केसव-पुत्ते कासव-गोनें । विमल-सरासइ-जणिय-विलासें। सुष्ण-भषण-देवलय-णिवासें ।। कलिमल-पबल-पडल-परिचत्ते । घिरेण गिप्पुत्त-कलते॥
इ-वावी-तलाय कय हाणें । जर-चावर-वकाल-परिहाणे ।। धीरे धूली-धूसरियगें। दूरयरुझिय दुजण-संगे। महि-सयणयले कर-पंगुरणें । मग्गिय-पंडिय-पडिय-मरणे ।। मण्णखेड-पुरवरि णिवसंते । मणि अरहंत-धम्मु झायते॥ मरह-मण्णणिज्ज पाय-णिलएं । कन्व-पबंध-जणिय-जण-पुलए ।। पुष्फयंत-कइणा चुय-पके । जह अहिमाणमेर-णामंके ।। कयउ कन्चु भत्ति परमत्थे । जिण-पय-पंकय-मलिय-इत्थें ।। कोहण-संवच्छरि आसाढइ ।
दहमइ दियहि चंद-सह-पढइ । घत्ता-णिह गिरहहु मरहहु बहुगुणहु कइकुलतिलएं भणियउ ।।
सुपहाणु पुराणु तिसहिहिं मि परिसह चरिउ समाणियउ ॥५॥ इय वीरजिणिदचरिए जिम्बाणगमणो णाम तहलो सन्धी ॥३॥
( महापुराण सन्धि १७२ से संकलित )