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सन्धि
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मणपज्जय-संजुत्तम देवदेउ थिर-चित्तः । तार-हार-पंडुर-घरि कूल-गाम-णामह पुरि ।।धुवक।।
भिक्खहि परमेसरु पइसरइ। घरि घरि सुसमंजसु संचरइ ।। मणपज्जय-गयणे परियरिउ । कूलहु घर-पंगणि अवयरिउ ॥ रायहु पियंगु-वण्णुज्जलहु । पणवतहु मालय-करयलहु ! थिउ भुवण-णाहु दिण्णउ असणु । णव-कोडि-सुधु मुणि-दिव्वसणु ।। तं लेप्पिणु किर जा णीसरिउ । ता भूमि-भाउ रयणहिं भरिउ ॥ देवहि जयतूर, ताडियई। गयणयलहु फुल्लई पाडियई ।। मो चारु दाणु उन्घोसियर। अइ-सुरहिउ पाणिउ वरसियउ ॥ मंदाणिटु यूढट सीयलउ । णिउ णर-वंदिउ बहु-गुण-णिलउ ।। एत्तहि. दुकम्मई णिद्ववइ । भीसणि णिजणि वणि दिणु गमइ ।। जिणु जिण-कप्पेण जि चकमइ ।
जो पाण-हारि तासु वि खमइ ॥ घत्ता-सुणह-सीह-सीयालहँ, ओरसियह सदूलहूँ ।
वणि अच्छइ उन्भुन्भज रणिहि णं थिरु खंभउ ॥१॥