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वीरजिणिवरित [५. २.७अज्ज घिणिव दिज्जति ण कासु यि । एक कण सहई खल-तम-रवि ।। ते वयणेण भयाण-सर-वणियउ। दाँ तु तिहिं सुइ दिन हा हा हे कुमार तुह तायडें । बढ३ कामायस्थ सरायडु ।। चेडय-धीयहि अइ-आसत्तउ । सूरु व दिद्विनाम्मु अइमत्तड ।। ससुरु ण देश् जुण्ण-वयवंतह। वट्टइ अवसरू मइ-दिहिवंतहु ।। ता कुमरे तुह रूवे किउ पडु । तं णिवासु लेविष्णु गउ भडु पडु ॥ पंडिउ वीर-णिय-कय-वेसउ । आयउ कण्ण उणय-यय-वेसउ || पुच्छिउ ताहि लिहिउ ते भाणि । किंण मुणह मगहाहिउ सेणिउ ।। ता दोह मि कण्णहूँ मय-मत्तई। पेम्म कुसुभई रत्तई गेत्तई।। कुडिलाइ चेलिणीइ सर-रुद्धद । कपडे इट्ट जेट्ट रइ-लुद्धइ । भणिय जाहि आहरण लएप्पिणु । आवहि लहु वच्चहुँ ल्हि कपिणु ।। लम्गहुँ गलकंदलि मगहेसहु ।
अलि-जल णील-णिद्ध-मउ-केसहु ।। घत्ता-आहरणाई लावि जा पडिआवइ बाली।
ता तहिं ताश णं दिट्ट चेलिणि मयणमयाली ।।२।।
बहिणि-विओय सोय-संतत्ती । खंतिहि जसमईहि उपसंती ।। पाय-मूलि तवचरणु लएप्पिा । थक जेट इंदियाई जिणेप्पिगु॥