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१२. ८. १४ ]
हिन्दी अनुवाद
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विनाश करके जीव शुद्ध होता और निर्वाण प्राप्त करता है । इन कर्मप्रकृतियों सहित अपने मानवशरीरको छोड़ तथा आत्माके स्वयं शुद्ध स्वभावको प्राप्त कर जो जीव दुख-रहित, शाश्वत स्थान स्वरूप परम निर्वाणको प्राप्त करते हैं वे अपने अन्तिम मानव शरीरके प्रमाणसे कुछ छोट होते हैं, उनके रोग-शोक नहीं होता तथा वे कभी मृत्युको प्राप्त नहीं होते । वे सदैव निर्मल, निरुपम, निरहंकार, जीव द्रव्यसे सघन और ज्ञानशरीरी होते हैं, वे मध्यलोकसे स्वभावतः ऊर्ध्वगमन करते हैं और समस्त ऊर्ध्वलोकका उल्लंघन कर सर्वोपरि अष्टम पृथ्वीके पृष्ठपर निविष्ट हो जाते हैं, उनका पुनर्जन्म नहीं होता ऐसा इन मुक्त जीवोंका स्वरूप जिनेन्द्र भगवान्ने कहा है । ये मुक्त जीव अपनी इस मुक्तावस्था की दृष्टिसे सादि और अनन्त हैं तथा उनके जीवद्रव्यकी दृष्टिसे अनादि और अनन्त है, क्योंकि वे अब पुनः मरण नहीं करते और न विविध दुखोंसे पूर्ण संसार के मुख में पड़ते ||७||
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सिद्ध जीवोंका स्वरूप
वे सिद्ध जीवन बालक होते न वृद्ध, न मूर्ख और न चतुर । वे न किसीको शाप देते न ताप, न गर्व रखते और न पाप करते। वे ज्ञानशरीरी होते हैं, किन्तु उनके मेधा अर्थात् मस्तिष्क व इन्द्रिय-जन्य बोध नहीं होता । न उनके स्नेह है और न देह ही है। वे क्रोधरहित, लोभरहित, मानरहित और मोहरहित होते हैं। उनके न स्त्री, पुरुष आदि लिंगभेद है और न मन, वचन, कायरूप योगोंका भेद है । न उनके राग हैं, न भोग, न रमण है, न काम। वे इन्द्रिय सुखसे व जन्म-मरणसे रहित हैं । वे निर्वाध हैं, और निर्धाम हैं । न उनके द्वेष है, न लेश्या है । वे महानुभाव गन्ध, स्पर्श, रस, शब्द और रूप इन इन्द्रिय विषयोंसे रहित हैं। वे अव्यक्त हैं, चिन्मात्र हैं, निश्चिन्त और निवृत्त है । वे न तो क्षुधाके वशीभूत होते, और न तृषासे आतुर होते; न रोगोंसे क्षीण होते, और न रतिसे पीड़ित होते । न वे आहार - भोजन करते और न औषधिका उपयोग करते । न वे मलसे लिप्त होते और न
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