Book Title: Sanskruti ke Do Pravah
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रकार युवाचार्य महाप्रज्ञ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह युवाचार्य महाप्रज्ञ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादक मुनि दुलहराज IS B No. 81-7195-022-1 पहला संस्करण : सितम्बर, १९६१ VEvvBT मूल्य 400-15 VB EUR 1 रुपये प्रकाशक : जैन विश्व भारती, लाडनूं, नागौर [राजस्थान]/ मुद्रक : मित्र परिषद्, कलकत्ता के आर्थिक सौजन्य से स्थापित जैन विश्व भारती प्रेस, लाडनूं-३४१३०६ । SANSKRITI KE DO PRAVAH Yavacharya Mahaprajna मूल्य 34DAN - Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुति आज से तीन हजार वर्ष पहले भारतीय संस्कृति और धर्म का क्या स्वरूप था. यह जानना कठिन है। पांच हजार वर्ष पूर्व का इतिहास जानना और अधिक कठिन है । दस हजार वर्ष पूर्व के इतिहास के स्रोत नगण्य हैं । अतीत की यात्रा के लिए जो स्रोत चाहिए वे बहुत कम शेष हैं । कुछ हैं, उनकी व्याख्या करना भी सरल नहीं है । शब्दों के अर्थ बदल गए । उनका मूल अर्थ पकड़ पाना वर्तमान अवधारणा पर निर्भर है । अवशेषों, प्रतीकों और पुरातत्व सामग्री के आधार पर भी शत-प्रतिशत सही निर्णय हो सकता है, यह नहीं कहा जा सकता । अनुमान और कल्पना ने कुछ धागों को जोड़कर इतिहास का वस्त्र बुना है । उसकी प्राणशक्ति पर भरोसा किया भी जा सकता है और नहीं भी किया जा सकता । भारत में द्रविड़ और आर्य- इन दो संस्कृतियों का संगम हुआ है । द्रविड़ संस्कृति का उत्तरकालीन स्वरूप है श्रमण संस्कृति और आर्य संस्कृति का उत्तरकालीन स्वरूप है वैदिक संस्कृति । कभी दोनों में संघर्ष रहा । फिर दोनों घुल मिल गईं, विनियम का क्रम शुरु हो गया । अब दोनों के बीच भेदरेखा खींचना सरल नहीं है । चौबीस तीर्थंकरों में ऋषभ पहले तीर्थंकर हैं, जैन धर्म के आदि प्रवर्तक हैं । चौबीस अवतारों में ऋषभ एक अवतार हैं । श्रीमद् भागवत में उनका जीवन-वृत्त विस्तार के साथ उल्लिखित है । आधुनिक विद्वान् ऋषभ और शिव के व्यक्तित्व में एकता स्थापित कर रहे हैं । अध्यात्म विद्या सब विद्याओं में श्रेष्ठ है, उपनिषद् और गीता का यह स्वर कैसे मुखर हुआ, और किस प्रकार आत्मविद्या क्षत्रियों से ब्राह्मणों में संक्रात हुई, यह दार्शनिक इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है । इस पहलू पर उपनिषद् सबसे अच्छा प्रकाश डालते हैं । धर्म की व्यापक धारणा के लिए इन सब पहलुओं को जानना अत्यन्त अपेक्षित है । प्रस्तुत पुस्तक में इनकी पल्लवस्पर्शी चर्चा की गई है। जैन योग और धर्म के स्वरूप को समझने का अवसर भी इसके अध्ययन से मिल सकता है । एक संदर्भ में अनेक विषयों को देखने का यह प्रयत्न दृष्टिकोण के विकास में सहायक बन सकेगा । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार आचार्यश्री तुलसी प्रेरणा-स्रोत और ज्योति स्तंभ हैं। उनकी प्रेरणा ने सदा मेरा पथ आलोकित किया है । प्रस्तुत पुस्तक के सम्पादन में मुनि दुलहराजजी ने निष्ठापूर्ण श्रम किया है। वे इस कार्य में दक्ष हैं। दक्षता और श्रम-इन दोनों के योग से स्वयं सौष्ठव आ जाता है। युवाचार्य महाप्रज्ञ ३ सितम्बर ६१ जैन विश्व भारती लाडनूं (राज.) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम १०५ १०६ १२४ १. श्रमण और वैदिक परम्परा का पौर्वापर्य २. श्रमण संस्कृति का प्राग्-ऐतिहासिक अस्तित्व ३. श्रमण संस्कृति के मतवाद ४. श्रमण परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु ५. श्रमण और वैदिक परम्परा की पृष्ठभूमि ६. आत्मविद्या : क्षत्रियों की देन ७. धर्म की धारणा के हेतु ८. धर्म-श्रद्धा और बाह्यसंग-त्याग ६. श्रामण्य और कायक्लेश १०. तत्त्वविद्या ११. कर्मवाद और लेश्या १२. महावीरकालीन मतवाद १३. जैन धर्म और क्षत्रिय १४. भगवान महावीर का विहारक्षेत्र १५. विदेशों में जैन धर्म १६. जैन धर्म : हिन्दुस्तान के विविध अंचलों में १७. जैन धर्म का ह्रासकाल १८. जैन धर्म और वैश्य १६. महावीर तीर्थंकर थे पर जैन धर्म के प्रवर्तक नहीं २०. पार्श्व और महावीर का शासन-भेद २१. साधना-पद्धति २२. योग २३. बाह्य जगत् और हम २४. सामाचारी २५. चर्या २६. आवश्यक कर्म परिशिष्ट प्रयुक्त ग्रंथ सूच १३६ १४० १४२ १४४ १४८ १६२ १६५ १७० १७३ १८६ २४८ २५० २५२ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. श्रमण और वैदिक परम्परा का पौर्वापर्य हिन्दुस्तान में श्रमण और वैदिक — ये दो परम्पराएं बहुत प्राचीनकाल से चली आ रही हैं । इनका अस्तित्व ऐतिहासिक काल से आगे प्राग्ऐतिहासिक काल में भी जाता है । इनमें कौन पहले थी और कौन पीछे हुई, यह प्रश्न बहुत चर्चनीय और विवादास्पद है । यह प्रश्न विवादास्पद इसलिए बना कि श्रमण परम्परा के समर्थक श्रमण परम्परा को प्राचीन प्रमाणित करते हैं और वैदिक परम्परा के समर्थक वैदिक परम्परा को । श्रमण साहित्य की ध्वनि है कि वैदिक परम्परा श्रमण परम्परा से उद्भूत हुई है और वैदिक वाङ्मय की ध्वनि है कि श्रमण परम्परा वैदिक परम्परा से उद्भूत हुई है । भ्रमण साहित्य भगवान् ऋषभ प्राग्-ऐतिहासिक काल में हुए। वे जैन परम्परा के आदि-तीर्थंकर थे और धर्म-परम्परा के भी प्रथम प्रवर्तक थे । उनके पुत्र सम्राट् भरत ने एक स्वाध्यायशील श्रावक - मण्डल की स्थापना की । एक दिन उन श्रावकों को आमंत्रित कर भरत ने कहा - 'आप प्रतिदिन मेरे घर पर भोजन किया करें, खेती - व्यापार आदि न करें। अधिक समय स्वाध्याय में लगाएं । प्रतिदिन मुझे यह चेतावनी दिया करें - आप पराजित हो रहे हैं, भय बढ़ रहा है, इसलिए 'मा हन, मा हन. ' - हिंसा न करें, हिंसा न करें ।' , उन्होंने वैसा ही काम करना शुरू किया । भरत चक्रवर्ती था। वह राज्य - चिन्ता और भोगों में कभी प्रमत्त हो जाता । उनकी चेतावनी सुनकर सोचता- 'मैं किनसे पराजित हो रहा हूं ? भय किस ओर से बढ़ रहा है ?' इस चिन्तन से वह तत्काल समझ जाता - 'मैं कषाय से पराजित हो रहा हूं और कषाय से भय बढ़ रहा है ।' वह तत्काल अप्रमत्त हो जाता । वे श्रावक चक्रवर्ती की रसोई में ही भोजन करते थे। उनके साथसाथ और भी बहुत लोग आने लगे । रसोइयों के सामने एक समस्या खड़ी हो गई। वे भोजन करने वालों की बाढ़ से घबड़ा गए । उन्होंने चक्रवर्ती से Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह निवेदन किया- 'पता नहीं कौन श्रावक है और कौन श्रावक नहीं है ? भोजन के लिए इतने लोग आने लगे हैं कि उन सबको भोजन कराने में हम असमर्थ हैं ।' २ सम्राट् ने कहा - 'कल जो भोजन करने आएं उन्हें पूछ-पूछ कर भोजन कराना और जो श्रावक हों, उन्हें मेरे पास ले आना ।' दूसरे दिन भोजन करने वाले आए । तब रसोइयों ने पूछा- 'आप कौन हैं ? ' 'श्रावक ।' 'श्रावक के कितने व्रत होते हैं ?' 'पांच ।' 'शिक्षाव्रत कितने हैं ? ' 'सात ।' जिन्होंने यह उत्तर दिया उन सबको वे रसोइए सम्राट् के पास ले गए । सम्राट् ने अपने काकणी रत्न से उनके वक्ष पर तीन रेखाएं खींच दीं। वे 'मान' 'माहन' कहते थे इसलिए 'भान' या 'ब्राह्मण' कहलाने लगे । भरत के पुत्र आदित्ययशा ने ब्राह्मणों के लिए सोने के यज्ञोपवीत बनवाए । महायशा आदि उत्तरवर्ती राजाओं ने चांदी, सूत आदि के यज्ञोपवीत बनवाए। ब्राह्मण भरत द्वारा पूजित थे इसलिए दूसरे लोग भी उन्हें दान देने लगे । भरत ने उनके स्वाध्याय के लिए वेदों की रचना की । उन वेदों में श्रावक-धर्म का प्रतिपादन था । नवें तीर्थङ्कर सुविधिनाथ का निर्वाण होने के कुछ समय पश्चात् साधु-संघ का विच्छेद हो गया । उन ब्राह्मणों और उन वेदों का भी विच्छेद हो गया । वर्तमान के ब्राह्मण और वेद उनके बाद की सृष्टि हैं । ' इस प्रकार आवश्यकनिर्युक्तिकार ( ई० सन् १००-२०० ) की कल्पना के अनुसार भरत द्वारा चिह्नित श्रावक मूल ब्राह्मण हैं और भरत द्वारा निर्मित वेद ही मूल वेद हैं । इन सबकी उत्पत्ति का आदि स्रोत जैन परम्परा है । इस विषय में श्रीमद् भागवत के स्कंध ५, अध्याय ४ तथा स्कंध ११, अध्याय २ द्रष्टव्य हैं । वैदिक वाङ्मय डा० लक्ष्मणशास्त्री ने वैदिक संस्कृति को श्रमण संस्कृति का मूल माना है । उनका अभिमत है -- 'जैन तथा बौद्ध धर्म भी वैदिक संस्कृति की १. आवश्यक निर्युक्ति, गा० ३६१-३६६; वृत्ति पत्र २३५, २३६ । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमण और वैदिक परम्परा का पौर्वापर्य ही शाखाएं हैं। यद्यपि सामान्य मनुष्य इन्हें वैदिक नहीं मानता। सामान्य मनुष्य की इस भ्रान्त धारणा का कारण है मूलतः इन शाखाओं के वेदविरोध की कल्पना। सच तो यह है कि जैनों और बौद्धों की तीनों अन्तिम कल्पनाएं-कर्म-विपाक, संसार का बन्धन और मोक्ष या मुक्तिअन्ततोगत्वा वैदिक ही हैं।" उन्होंने आगे लिखा है-'जैन तथा बौद्ध धर्म वेदान्त की यानी उपनिषदों की विचारधाराओं के विकसित रूप हैं।'' कविवर दिनकर ने लिखा है- 'वैदिक धर्म पूर्ण नहीं है, इसका प्रमाण उपनिषदों में ही मिलने लगा था और यद्यपि वैदिकों की प्रामाणिकता में उपनिषदों ने संदेह नहीं किया, किन्तु वैदिक धर्म के काम्य स्वर्ग को अयथेष्ट बताकर वेदों की एक प्रकार की आलोचना उपनिषदों ने ही शुरू कर दी थी। वेद सबसे अधिक महत्त्व यज्ञ को देते थे। यज्ञों की प्रधानता के कारण समाज में ब्राह्मणों का स्थान बहुत प्रमुख हो गया था। इन सारी बातों की समाज में आलोचना चलने लगी और लोगों को यह संदेह होने लगा कि मनुष्य और उसकी मुक्ति के बीच में ब्राह्मण का आना सचमुच ही ठीक नहीं है। आलोचना की इस प्रवृत्ति ने बढ़ते-बढ़ते, आखिर ईसा से ६०० वर्ष पूर्व तक आकर वैदिक धर्म के खिलाफ खुले विद्रोह को जन्म दिया जिसका सुसंगठित रूप जैन और बौद्ध धर्मों में प्रगट हुआ।" __ डा० सत्यकेतु विद्यालंकार ने जैन और बौद्ध धर्म का नई धार्मिक सुधारणा के रूप में अंकन किया है। उनके शब्दों में-'इस नई धार्मिक सुधारणा ने यज्ञों के रूढिवाद व समाज में ऊंच-नीच के भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाकर प्राचीन आर्यधर्म का पुनरुद्धार करने का प्रयत्न किया।" भमण साहित्य के अभिमत पर एक दृष्टि नियुक्ति तथा पुराण ग्रन्थों में ब्राह्मण और वेदों की उत्पत्ति जैनस्रोत से बतलाई गई है। आवश्यकनियुक्ति की व्याख्या को हम एक रूपक मानें तो उसका अर्थ जैन परम्परा का वैदिक परम्परा के साथ सामंजस्य स्थापित करना होगा और यदि उसे यथार्थ मानें तो उसका अर्थ यह होगा कि जैन परम्परा में भी ब्राह्मण, वेद और यज्ञोपवीत का स्थान रहा है। १. वैदिक संस्कृति का विकास, पृ० १५ । २. वही, पृ० १६ । ३. संस्कृति के चार अध्याय (द्वितीय संस्करण), पृ० १०२ । ४. पाटलीपुत्र की कथा पृ. ६७-६८ । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैदिक वाङ् मय के अभिमत पर एक दृष्टि " संस्कृति के दो प्रवाह डा० लक्ष्मणशास्त्री ने कर्म विपाक, संसार का बंधन और मोक्ष या मुक्ति- इन तीनों कल्पनाओं को वैदिक मानकर जैन और बौद्धों को वैदिकसंस्कृति की शाखा मानने का साहस किया, किन्तु सच तो यह है कि कर्मबन्धन और मुक्ति की कल्पना सर्वथा अवैदिक है । उपनिषदों के ऋषि श्रमण संस्कृति से कितने प्रभावित थे या वे स्वयं श्रमण ही थे, इस पर हमें आगे विचार करना है । जैन धर्म वैदिक धर्म के क्रियाकाण्डों के प्रति विद्रोह करने के लिए समुत्पन्न धर्म नहीं है और आर्य-धर्म के पुनरुद्धार के रूप में भी उसका उदय नहीं हुआ है । ये सारी धारणाएं सामयिक दृष्टिकोण से बनी हुई हैं । सच तो यह है कि श्रमण और वैदिक- दोनों परम्पराएं स्वतंत्र रूप से उद्भुत हैं । दोनों एक साथ रहने के कारण एक दूसरे को प्रभावित करती रही हैं, इसीलिए किसी ने यह कल्पना की कि श्रमण परम्परा वैदिक परम्परा से उद्भूत है और किसी ने यह कल्पना की कि वैदिक परम्परा श्रमण परम्परा से उद्भुत है । किन्तु ये दोनों परिकल्पनाएं वस्तु-स्थिति से दूर हैं । जैन और बौद्ध श्रमण परम्परा में अनेक सम्प्रदाय थे, किन्तु काल के अविरल प्रवाह में जैन और बौद्ध - ये दो बचे, शेष सब विलीन हो गए कुछ मिट गए, कुछ जैन परम्परा में मिल गए और कुछ वैदिक परम्परा में सिमट गए । दो शताब्दी पूर्व जब पश्चिमी विद्वानों ने भारतीय इतिहास की खोज प्रारम्भ की तो उन्होंने बौद्ध और जैन परम्परा में अपूर्व साम्य पाया । बौद्ध धर्म अनेक देशों में फैला हुआ था । उसका साहित्य सुलभ था । विद्वानों ने उसका अध्ययन शुरू किया और बौद्ध दर्शन पर प्रचुर मात्रा में लिखा । जैन धर्म उस समय भारत से बाहर कहीं भी प्राप्त नहीं था । उसका साहित्य भी दुर्लभ था । उसका अध्ययन पर्याप्त रूप से नहीं किया जा सका। एक सीमित अध्ययन के आधार पर कुछ पश्चिमी विद्वान् त्रुटिपूर्ण faonर्षो पर पहुंचे । बुद्ध और महावीर के जीवन-दर्शन की समानता देखकर कुछ विद्व न् मानने लगे कि बुद्ध और महावीर एक ही व्यक्ति हैं । प्रो० वेबर ने उक्त मान्यता का खण्डन किया किन्तु वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जैन धर्म Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण और वैदिक परम्परा का पौर्वापर्य बोद्ध धर्म की शाखा है।' डा० हर्मन जेकोबी ने इन दोनों मान्यताओं का खण्डन कर यह प्रमाणित किया कि जैन धर्म बौद्ध धर्म से स्वतंत्र ही नहीं, किन्तु उससे बहुत प्राचीन है। भगवान् पावं डा० हर्मन जेकोबी ने भगवान् पार्श्व को ऐतिहासिक व्यक्ति प्रमाणित किया। फिर इस विषय की पुष्टि अनेक विद्वानों ने की। डा० बासम का अभिमत है : 'भगवान् महावीर बौद्ध-पिटकों में बुद्ध के प्रतिस्पर्धी के रूप में अंकित किए गए हैं इसलिए उनकी ऐतिहासिकता असंदिग्ध है। भगवान् पार्श्व चौबीस तीर्थङ्करों में से तेईसवें तीर्थङ्कर के रूप में प्रख्यात डा. विमलाचरण ला के अनुसार भगवान् पार्श्व के धर्म का प्रचार भारत के उत्तरवर्ती क्षत्रियों में था। वैशाली उसका मुख्य केन्द्र था। वृज्जिगण के प्रमुख महाराज चेटक भगवान पार्श्व के अनुयायी थे। भगवान महावीर के माता-पिता भी भगवान् पाव के धर्म का पालन करते 1. Indische Studien, XVI, p. 210. 2. The Sacred Books of the East, Vol. XXII, Introduction pp. 18-22. 3. The Sacred Books of the East, Vol. XLV, Introduction p. 21 : “That Pārsva was a historical person, is now admitted by all as very probable ;...” 4. The Wonder That Was India (A. L. Basham, B.A., Ph. D., F.R.A.S), Reprinted 1956, pp. 287-88. “As he (Vardhamāna Mahāvīra) is referred to in the Buddhist scriptures as one of the Buddha's chief opponents, his historicity is beyond doubt. ......Parswa was remembered as the twenty-third of the twenty-four great teachers Or Tirthan karas "ford-makers" of the Jaina faith.'' . 5. Kshatriya clans in Buddhist India, p. 82. ६. उपदेशमाला, श्लोक ६२ : वेसालीए पुरीए सिरिपासजिणेससासणसणाहो । हेहयकुलसभूओ चेडगनामा निवो आसि ॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह थे। कपिलवस्तु में भी पाश्वं का धर्म फैला हुआ था । वहां न्यग्रोधाराम में शाक्य निर्ग्रन्थ श्रावक 'वप्प' के साथ बुद्ध का संवाद हुआ था। भगवान् महावीर से पूर्व जैन धर्म के सिद्धांत स्थिर हो चुके थे। डा० चाल सरपेंटियर ने लिखा है- हमें इन दो बातों का भी स्मरण रखना चाहिए कि जैन धर्म निश्चितरूपेण महावीर से प्राचीन है; उनके प्रख्यात पूर्वगामी पार्श्व प्रायः निश्चितरूपेण एक वास्तविक व्यक्ति के रूप में विद्यमान रह चुके हैं एवं परिणाम स्वरूप मूल सिद्धान्तों की मुख्य बातें महावीर से बहुत पहले सूत्ररूप धारण कर चुकी होंगी।' __ गौतम बुद्ध और वर्द्धमान महावीर से पूर्ववर्ती पुरुष के रूप में पार्श्व का उल्लेख करते हुए बताया गया है.---'नातपुस (श्री महावीर वर्द्धमान) के पूर्वगामी उन्हीं की मान्यता वाले अनेक तीर्थङ्करों में उनका (जैनों का) विश्वास है और इनमें से अंतिम पार्श्व या पार्श्वनाथ के प्रति वे विशेष श्रद्धा व्यक्त करते हैं । उनकी यह मान्यता ठीक भी है क्योंकि अंतिम व्यक्ति पौराणिक से अधिक है । गौतम के समय में पार्श्व द्वारा स्थापित 'निग्गन्थ' नाम से प्रसिद्ध धार्मिक संघ एक पूर्व संस्थापित सम्प्रदाय था और बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार उसने बौद्ध धर्म के उत्थान में अनेक बाधाएं डालीं।" १. आयारचूला, १५।२५ । २. अंगुत्तर निकाय, चतुष्कनिपात, महावग्ग वप्पसुत्त, भाग २, पृ० २१०-२१३ । 3. The Uttarădhyayana Sūtra, Introduction p. 21 : “We ought also to remember both that the Jain religion is certainly older than Mahāvīra, his reputed predecessor Pārsva having almost certainly existed as a real person, and that, consequently, the main points of the original doctrine may have been codified long before Mahāvira." 4. Harmsworth, History of the world, Vol. II, p. 1198 : “They, thu Jain as believe in a great number of prophets of their faith anterior of Nätaputta (Mahävira Vardhmäna) and pay special reverence to the last of these, Pārswa or PārswaNatha. Herein they are correct, in so far as the latter personality is more than mythical. ... ... ...As early as the time of Gotama, the religious confraternity founded by Pārswa, and known as the Nirgrantha, was a formally established sect, and according to the Buddhist chronicles, threw numerous difficulties in the way of the rising Buddhism". Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण और वैदिक परम्परा का पौर्वापर्यं भगवान् पार्श्व का व्यक्तित्व ऐतिहासिक प्रमाणित होने पर यह प्रश्न उठा - क्या पार्श्व ही जैन धर्म के प्रवर्तक थे ? इसके उत्तर में डॉ० हर्मन कोबी ने लिखा है किन्तु यह प्रमाणित करने के लिए कोई आधार नहीं है कि पार्श्व जैन धर्म के संस्थापक थे । जैन परम्परा ऋषभ को प्रथम तीर्थङ्कर (आद्य संस्थापक ) बताने में सर्वसम्मत है । परम्परा में कुछ ऐतिहासिकता भी हो सकती है जो उन्हें प्रथम तीर्थङ्कर मान्य करती है ।" डा० राधाकृष्णन ने भी इसी अभिमत की पुष्टि की है । उन्होंने लिखा है- 'जैन परम्परा के अनुसार जैन धर्म का प्रवर्तन ऋषभदेव ने किया था । वे अनेक शताब्दियों पहले हो चुके हैं । यह असंदिग्ध रूप से कहा जा सकता है कि जैन धर्म का अस्तित्व वर्द्धमान और पार्श्व से पहले भी था । " अरिष्टनेमि अरिष्टनेमि बाईसवें तीर्थंकर थे । उन्हें अभी तक पूर्णतः ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं माना गया है, किन्तु वासुदेव कृष्ण को यदि ऐतिहासिक व्यक्ति माना जाए तो अरिष्टनेमि को ऐतिहासिक न मानने का कोई कारण नहीं है । कौरव, पाण्डव, जरासंध, द्वारका, यदुवंश, अन्धक, वृष्णि आदि का अस्तित्व नहीं मानने का कोई कारण नहीं है । पौराणिक विस्तार व कल्पना को स्वीकार न करें, फिर भी ये कुछ मूलभूत तथ्य शेष रह जाते हैं । ऋषिभाषित (इसिभासिय) में ४५ प्रत्येक बुद्धों के द्वारा निरूपित ४५ अध्ययन हैं। उनमें २० प्रत्येक बुद्ध भगवान् अरिष्टनेमि के तीर्थंकाल में हुए थे । उनके द्वारा निरूपित अध्ययन अरिष्टनेमि के अस्तित्व के स्वयंभू प्रमाण हैं । ऋग्वेद में 'अरिष्टनेमि' शब्द चार बार आया है ।" 'स्वस्ति 1. Indian Antiquary, Vol. IX, p. 163. "But there is nothing to prove that Pārśwa was the founder of Jainism. Jaina tradition is unanimous in making Rṣabha, the first Tirthankara, as its founder. There may be something historical in the tradition which makes him the first Tirthankara". 2. Indian Philosophy, Vol. I, p. 287. ३. इसि भासियाई, पृ० २६७, परिशिष्ट १, गाथा १ : पत्तेयबुद्धमिसिणो वीसं तित्थ अरिट्ठमिस्स । ४. ऋग्वेद, ११४८६६; ११२४ | १८०।१० ३|४|५३ | १७; १०।१२।१७८।१ । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह नस्ताक्ष्यो अरिष्टनेमिः' (ऋग्वेद, १११४१८६६) में अरिष्टनेमि शब्द भगवान अरिष्टनेमि का वाचक होना चाहिए। महाभारत में 'तार्क्ष्य' शब्द अरिष्टनेमि के पर्यायवाची नाम के रूप में प्रयुक्त हुआ है ।' तार्क्ष्य अरिष्टनेमि ने राजा सगर को जो मोक्ष विषयक उपदेश दिया उसकी तुलना जैन धर्म के मोक्ष सम्बन्धी सिद्धांतों से होती है। वह उपदेश इस प्रकार है : _ 'सगर ! संसार में मोक्ष का सुख ही वास्तविक सुख है, परन्तु जो धन-धान्य के उपार्जन में व्यग्र तथा पुत्र और पशुओं में आसक्त है, उस मूढ़ मनुष्य को उसका यथार्थज्ञान नहीं होता। जिसकी बुद्धि विषयों में आसक्त है, जिसका मन अशान्त रहता है, ऐसे मनुष्य की चिकित्सा करनी कठिन है, क्योंकि जो स्नेह के बंधन में बंधा हुआ है, वह मूढ़ मोक्ष पाने के लिए योग्य नहीं होता। इस समूचे अध्याय में संसार की असारता, मोक्ष की महत्ता, उसके लिए प्रयत्नशील होने और मुक्त के स्वरूप का निरूपण है। सगर के काल में वैदिक लोग मोक्ष में विश्वास नहीं करते थे, इसलिए यह उपदेश किसी वैदिक ऋषि का नहीं हो सकता। यहां 'तार्क्ष्य अरिष्टनेमि' का प्रयोग भगवान् अरिष्टनेमि के लिए ही होना चाहिए। लगता है कि ऋग्वेद के व्याख्याकारों ने उसका अर्थ-परिवर्तन किया है। अरिष्टनेमि विशेषण ही नहीं है। प्राचीन काल में यह नाम होता था। महाभारत में मरीचि के पुत्र के दो नाम बतलाए गए हैं-अरिष्टनेमि और कश्यप । कुछ लोग उसे अरिष्टनेमि कहते और कुछ लोग कश्यप ।' ऋग्वेद में भी तार्क्ष्य अरिष्टनेमि की स्तुति की गई है। अरिष्टनेमि का नाम महावीर और बुद्ध-काल में महापुरुषों की सूची में प्रचलित था। लंकावतार के तृतीय परिवर्तन में बुद्ध के अनेक नामों में अरिष्टनेमि का भी १. महाभारत, शान्तिपर्व, २८८।४ : एवमुक्तस्तदा तायः, सर्वशास्त्रविदां वरः । विबुध्य सम्पदं चाग्र्यां, सद्वाक्यमिदमब्रवीत् ।। २. महाभारत, शान्तिपर्व, २८८।५,६ । ३. महाभारत, शान्तिपर्व, २०८१८ : मरीचेः कश्यपः पुत्रस्तस्य द्वे नामनी स्मृते । अरिष्टनेमिरित्येके, कश्यपेत्यपरे विदुः ॥ ४. ऋग्वेद, १०।१२।१७८।१ : त्यमू षु वाजिनं देवजूतं सहावानं तरुतारं रथानाम् । अरिष्टनेमि पृतनाजमाशुं स्वस्तये ता_मिहा हुवेम ।। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण और वैदिक परम्परा का पौर्वापर्य नाम है । वहां लिखा है-“जिस प्रकार एक ही वस्तु के अनेक नाम प्रयुक्त होते हैं, उसी प्रकार बुद्ध के असंख्य नाम हैं। कोई उन्हें तथागत कहते हैं तो कोई उन्हें स्वयंभू, नायक, विनायक, परिणायक, बुद्ध, ऋषि, वृषभ, ब्राह्मण, विष्णु, ईश्वर, प्रधान, कपिल, भूतानत, भ्राष्कर, अरिष्टनेमि, राम, व्यास, शुक, इन्द्र, बलि, वरुण आदि नामों से पुकारते हैं। प्रभासपुराण में अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण का सम्बन्धित उल्लेख है। अरिष्टनेमि का रेवत (गिरनार) पर्वत से भी सम्बन्ध बताया गया है और वहां उल्लिखित है कि वामन ने नेमिनाथ को शिव के नाम से पुकारा था। वामन ने गिरनार पर बलि को बांधने का सामर्थ्य पाने के लिए भगवान नेमिनाथ के आगे तप तपा था। इन उद्धरणों से श्रीकृष्ण और अरिष्टनेमि के पारिवारिक तथा धार्मिक सम्बन्ध की पुष्टि होती है। उत्तराध्ययन के बाईसवें अध्ययन से भी यही प्रमाणित होता है।' __ प्रोफेसर प्राणनाथ ने प्रभास पाटण से प्राप्त ताम्रपत्र को इस प्रकार पढ़ा है-रेवा नगर के राज्य के स्वामि सु-जाति के देव नेबुशर नेजर आए हैं। वह वदुराज के स्थान (द्वारिका) आए हैं। उन्होंने मंदिर बनवाया है। सूर्य-देवनेमि कि जो स्वर्ग समान रेवत पर्वत के देव हैं (उन्हें) सदैव के लिए अर्पण किया।' बावल के सम्राटों में नेवुशर और नेजर नामक दो सम्राट् हुए हैं। पहले का समय ई० सन् से लगभग दो हजार वर्ष पहले है और दूसरे ई० सन् पूर्व छठी या ७ शती में हुए हैं। इन दोनों में से एक ने द्वारिका आकर रेवत (गिरनार) पर्वत पर भगवान् नेमिनाथ का मन्दिर बनवाया था। - इस प्रकार साहित्य व ताम्रपत्र-लेख–दोनों से अरिष्टनेमि का अस्तित्व प्रमाणित होता है। १. बौद्ध धर्म-दर्शन, पृ० १६२ । २. विशेष जानकारी के लिए देखें-- "अर्हत् अरिष्टनेमि और वासुदेव कृष्ण,' लेख क--श्रीचन्द रामपुरिया । ३. गुजराती 'जैन', भाग ३५, पृ० २ । ४. संक्षिप्त जैन इतिहास, भाग १, पृ० ६ । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. श्रमण संस्कृति का प्राग्- ऐतिहासिक अस्तित्व आर्य लोग हिन्दुस्तान में आए उससे पहले यहां एक ऊंची सभ्यता, संस्कृति और धर्म-चेतना विद्यमान थी । वह वैदिक परम्परा नहीं थी । यह मोहनजोदड़ों और हड़प्पा की खुदाई से प्राप्त ध्वंसावशेषों से प्रमाणित हो चुका है । पुरातत्त्वविदों के अनुसार जो अवशेष मिले हैं, उनसे वैदिक धर्म का कोई सम्बन्ध नहीं है । उनका सम्बन्ध श्रमण संस्कृति से है । अतः यह प्रमाणित होता है कि आर्यों के आगमन से पूर्व यहां श्रमण संस्कृति विकसित अवस्था में थी । C इस तथ्य की संपुष्टि के लिए हम साहित्य और पुरातत्त्व - दोनों का अवलम्बन लेंगे । भारतीय साहित्य में वेद बहुत प्राचीन माने जाते हैं । उनमें तथा उनके पार्श्ववर्ती ग्रन्थों में आए हुए कुछ शब्द - वातरशन मुनि, वातरशन श्रमण, केशी, व्रात्य और अर्हन्-श्रमण संस्कृति की प्रागऐतिहासिकता के प्रमाण हैं । बातरशन सुनि : वातरशन श्रमण ऋग्वेद में वातरशन मुनि का प्रयोग मिलता है-' मुनयो बातरशनाः पिशंगा बसते मला । वातस्यानु धाजिम् यन्ति यद्देवासो अविक्षत || इस प्रकरण में 'मौनेय' शब्द भी प्रयुक्त हुआ है । वातरशन मुनि अपनी 'मौनेय' की अनुभूति में कहता है - 'मुनिभाव से प्रमुदित होकर हम वायु में स्थित हो गए हैं । मर्त्यो ! तुम हमारा शरीर मात्र देखते हो ।” तैत्तिरीयारण्यक में श्रमणों को 'वातरशन ऋषि' और 'ऊर्ध्व मन्यी' कहा गया है - वातरशना हवा ऋषयः श्रमणा ऊर्ध्व मन्थितो बभूवुः । ' ये श्रमण भगवान् ऋषभ के ही शिष्य हैं । श्रीमद् भागवत में ऋषभ को जिन श्रमणों के धर्म का प्रवर्तक बताया गया है, उनके लिए ये ही १. ऋग्वेद १०।११।१३६२ । २ . वही, १०।११।१३६।३ : उन्मदिता मौनेयन वातां आ तस्थिमा वयम् । शरीरेदस्माकं यूयं मर्तासो अभि पश्यथ ॥ ३. तैत्तिरीयारण्यक, २|७|१, पृ० १३७ । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण संस्कृति का प्राग-ऐतिहासिक अस्तित्व विशेषण प्रयुक्त किए गए हैं' 'धर्मान् दिर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूर्वमन्थिनां शुक्लया तनुनावततार'-भगवान् ऋषभ श्रमणों, ऋषियों तथा ब्रह्मचारियों (ऊर्ध्वमन्थिनः) का धर्म प्रकट करने के लिए शुक्ल-सत्त्वमय विग्रह से प्रकट वैदिक साहित्य में मुनि का उल्लेख विरल है, किन्तु इसका कारण यह नहीं कि उस समय मुनि नहीं थे । वे थे, अपने ध्यान में मग्न थे। पुरोहितों के भौतिक जगत से परे वे अपने चिन्तन में लीन रहते थे और पुत्रोत्पादन या दक्षिणा-ग्रहण के कार्यों से भी दूर रहते थे।' मुनि के इस विवरण से स्पष्ट है कि वे किसी वैदिकेतर परम्परा के थे। वैदिक जगत् में यज्ञ-संस्था हो सब कुछ थी। वहां संन्यास या मुनि-पद को स्थान नहीं मिला था। वातरशन शब्द भी श्रमणों का सूचक है। तैत्तिरीयारण्यक और श्रीमद्भागवत द्वारा इस तथ्य की पुष्टि होती रही है। श्रमण का उल्लेख बृहदारण्यक उपनिषद्' और रामायण आदि में भी होता रहा है। केशी ऋग्वेद के जिस प्रकरण में वातरशन मुनि का उल्लेख है, उसी में केशी की स्तुति की गई है--- केश्यग्नि केशी विष केशी वित्ति रोदसी। केशी विश्वं स्वशे केशोदं ज्योतिरुच्यते ॥ यह 'केशी'भगवान् ऋषभ का वाचक है। वातरशन के संदर्भ में यह कल्पना करना कोई साहस का काम नहीं है। भगवान ऋषभ के केशी होने की परम्परा जैन साहित्य में आज भी उपलब्ध है। भगवान ऋषभ जब मुनि बने तब उन्होंने चार मुष्टि केशलोच किय जबकि सामान्य परम्परा पांच-मुष्टि केशलोच करने की है। भगवान् केश लोच कर रहे थे, दोनों पार्श्व-भागों का केशलोच करना बाकी था। तब १. श्रीमद्भागवत, ५।३।२० । २. वैदिककोश, पृ० ३८३ । ३. बृहदारण्यकोपनिषद्, ४।३।२२ । ४. रामायण, बालकाण्ड, सर्ग १४, श्लोक २२ : तपसा भुंजते चापि, श्रमणा भुज तथा । ५. ऋग्वेद, १०१११११३६।१ । - Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह - देवराज शक्रेन्द्र ने भगवान् से प्रार्थना की-'इतनी रमणीय केशराशि को इसी प्रकार रहने दें। भगवान ने उसकी बात मानी और उसे वैसे ही रहने दिया। इसीलिए भगवान् ऋषभ की मूर्ति के कंधों पर आज भी केशों की वल्लरिका की जाती है । धुंघराले और कंधों तक लटकते हुए बाल उनकी प्रतिमा के प्रतीक हैं।' भगवान् ऋषभ की प्रतिमाओं को जटा-शेखर युक्त कहा गया है।' केशी वषभ प्राग-वैदिक थे और श्रमण संस्कृति के आदि-स्रोत--यह इस केशी-स्तुति से स्पष्ट है। __ ऋग्वेद में केशी और वृषभ का एक साथ उल्लेख मिलता है। मुद्गल ऋषि की गाएं (इन्द्रियां) चुराई जा रही थीं, तब ऋषि के सारथी केशी वृषभ के वचन से वे अपने स्थान पर लौट आईं अर्थात् ऋषभ के उपदेश से वे अन्तर्मुखी हो गईं।' वात्य अथर्ववेद के व्रात्यकाण्ड का सम्बन्ध किसी ब्राह्मणेतर परम्परा से है । आचार्य सायण ने व्रात्य को विद्वत्तम, महाधिकार, पुण्यशील, विश्व१. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, वक्षस्कार २, सू० ६५ : चउहिं अट्टाहिं लोअं करेइ। वृत्ति-तीर्थकृतां पंचमुष्टिलोचसम्भवेऽपि अस्य भगवतश्चतुर्मुष्टिकलोचगोचरः। श्रीहेमाचार्यकृतऋषभचरित्राद्यभिप्रायोऽयं'प्रथममेकया मुष्ट्या स्मश्रुकूर्चयोर्लोचे तिसृभिश्च शिरोलोचे कृते एका मुष्टिमवशिष्यमाणां पवनान्दोलितां कनकावदातयोः प्रभुस्कन्धयोरुपरि लुठन्ती मरकतोपमानमाबिभ्रतीं परमरमणीयां केशवल्लरिकां वीक्ष्य प्रमोदमानेन शक्रेण भगवन् ! मय्यनुग्रहं विधाय ध्रियतामिय मित्थमेवेति विज्ञप्ते भगवतापि सा तथैव रक्षितेति, 'न ह्य कांतभक्तानां याञ्चामनुग्रहीतारः खण्डयन्ती' ति, अत एवेदानीमपि श्रीऋषभमूत्तौं स्कन्धोपरि वल्लरिकाः क्रियन्ते । २. (क) तिलोयपन्नत्ती, ४।२३० : आदिजिणप्पडिमाओ, ताओ जडमउडसेहरिल्लाओ। पडिमोवरिम्मि गंगा, अभिसित्तुमणा व सा पदि ।। (ख) तिलोयसार, ५६० : सिरिगिहसीसट्टियंबुअकण्णियसिंहासणं जडामउलं । जिणनाभिसित्तुमणा वा, ओदिण्णा मत्थए गंगा । ३. ऋग्वेद, १०६।१०२।६ : ककर्दवे वृषभो युक्त आसीदवावचीत्सारथिरस्य केशी । दुधेर्युक्तस्य द्रवतः सहानस ऋच्छन्तिष्मा निष्पदो मुद्गलानीम् ।। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण संस्कृति का प्राग-ऐतिहासिक अस्तित्व सम्मान्य और ब्राह्मण-विशिष्ट कहा है।' तथा व्रात्यकाण्ड की भूमिका के प्रसंग में उन्होंने लिखा है-'इसमें व्रात्य की स्तुति की गई है । उपनयनादि से हीन मनुष्य व्रात्य कहलाता है। ऐसे मनुष्य को लोग वैदिक कृत्यों के लिए अनधिकारी और सामान्यतः पतित मानते हैं। परन्तु यदि कोई व्रात्य ऐसा हो जो विद्वान् और तपस्वी हो तो ब्राह्मण उससे भले ही द्वेष करे परन्तु वह सर्वपूज्य होगा और देवाधिदेव परमात्मा के तुल्य होगा। व्रात्य ने अपने पर्यटन में प्रजापति को प्रेरणा दी थी। ____ डा० सम्पूर्णानन्दजी ने व्रात्य का अर्थ परमात्मा किया है।' डा० बलदेव उपाध्याय भी इसी मत का अनुसरण करते हैं। किन्तु समूचे व्रात्यकाण्ड का परिशीलन करने पर यह अर्थ संगत नहीं लगता। व्रात्यकाण्ड के कुछ सूत्र वह संवत्सर तक खड़ा रहा। उससे देवों ने पूछा-वात्य ! तू क्यों खड़ा है ? वह अनावृत्ता दिशा में चला। इससे (उसने) सोचा न लौटूंगा . अर्थात् जिस दिशा में चलने वाले का आवर्तन (लौटना) नहीं होता वह अनावृत्ता दिशा है । इसलिए उसने सोचा कि मैं अब न लौटूंगा। मुक्त पुरुष का ही प्रत्यावर्तन नहीं होता । तब जिस राजा के घरों पर ऐसा विद्वान् राजा व्रात्य अतिथि (होकर) आए। (इसको) (वह राजा) इस (विद्वान् के आगमन) को अपने लिए कल्याणकारी माने । ऐसा (करने से) क्षेत्र तथा राष्ट्र के प्रति १. अथर्ववेद, १५।१।१११ सायण भाष्य : कञ्चिद् विद्वत्तमं महाधिकारं पुण्यशीलं विश्वसंमान्यं ब्राह्मणविशिष्ट व्रात्य मनुलक्ष्य वचन मिति मंतव्यम् । २. वही, १५।१।११। ३. वही, १५।१।१।१ : व्रात्य आसीदीयमान एव स प्रजापति समरयत् ॥ ४. अथर्ववेदीयं व्रात्यकाण्ड, पृ० १ । ५. वैदिक साहित्य और संस्कृति, पृ० २२६ । ६. अथर्ववेद, १५।१।३।१ । ७. वही, १५।१।६।१६ । सोऽनावृत्तां दिशमनुव्यऽचलत्ततो नावस्य॑न्नमन्थत । ८. अथर्ववेदीयं व्रात्यकाण्ड, पृ० ३६ । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ अपराध नहीं करता ।' यदि किसी के घर ऐसा विद्वान् व्रात्य अतिथि आ जाए (तो) स्वयं उसके सामने जाकर कहे, व्रात्य, आप कहां रहते हैं ? व्रात्य (यह ) जल ( ग्रहण कीजिए ) व्रात्य (मेरे घर के लोग आपको भोजनादि से) तृप्त करें। जैसा आपको प्रिय हो, जैसी आपकी इच्छा हो, जैसी आपकी अभिलाषा हो, वैसा ही हो अर्थात् हम लोग वैसा ही करें। ( व्रात्य से ) यह जो प्रश्न है कि व्रात्य आप कहां रहते हैं, इस ( प्रश्न ) से ( ही ) वह देवयान मार्ग को ( जिससे पुण्यात्मा स्वर्ग को जाते हैं) अपने वश में कर लेता है ।' संस्कृति के दो प्रवाह इससे जो यह कहता है व्रात्य यह जल ग्रहण कीजिए इससे अप् ( जल या कर्म्म) अपने वश में कर लेता है । यह कहने से व्रात्य (मेरे घर के लोग आपको भोजनादि से ) तृप्त करें, अपने आपको चिरस्थायी ( अर्थात् दीर्घजीवी) बना लेता है । जिसके घर में विद्वान् व्रात्य एक रात अतिथि जितने पुण्यलोक हैं उन सबको वश में कर लेता है । रहे, वह पृथ्वी में जिसके घर में विद्वान् व्रात्य दूसरी रात अतिथि रहे, वह अन्तरिक्ष में जो पुण्यलोक हैं, उन सबको वश में कर लेता है । जिसके घर में विद्वान् व्रात्य तीसरी रात अतिथि रहे, वह जो युलोक में पुण्यलोक हैं उन सबको वश में कर लेता है । जिसके घर में विद्वान् व्रात्य चौथी रात अतिथि रहे, वह पुण्यलोकों में श्रेष्ठ पुण्यलोकों को वश में कर लेता है । १. अथर्ववेद, १५२।३।१,२ : तद् यस्यैवं विद्वान् व्रात्यो राज्ञोऽतिथिगृहानागच्छेत् । श्र यांसमेनमात्मनो मानयेत् तथा क्षत्राय ना वृश्चते तथा राष्ट्राय ना वृश्चते । २. वही, १५/२/४ ११,२ : यद् तस्यैवं विद्वान् व्रात्योऽतिविर्गृहानाच्छेत् । स्वयमेनमभ्युपेत्य ब्रूयाद् व्रात्य क्यावात्सीः व्रात्योदकं व्रात्य तर्पयन्तु व्रात्य यथा ते प्रियं तथास्तु व्रात्य ययाते वशस्तथास्तु व्रात्य यथा ते निकामस्तथा स्त्विति । ३. वही, १५/२०४१३ : माह व्रात्य क्वाडवात्सीरिति पथ एव तेन देवयानानवरुद्ध । ४. वही, १५२२२४१४,५ : यदेनमाह व्रात्योदकमित्यप एव तेनाव रुन्द्ध । यदेनमाह व्रात्य तपयन्त्विति प्राणमेव तेन वर्षीयांसं कुरुते ॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण संस्कृति का प्राग्-ऐतिहासिक अस्तित्व जिसके घर में विद्वान् वात्य अपरिमित (बहुधा) अतिथि रहे, वह अपरिमित पुण्यलोकों को अपने वश में कर लेता है। व्रात्यकाण्ड में प्रतिपादित विषय की भगवान ऋषभ के जीवनव्रत से तुलना होती है। वे दीक्षित होने के बाद एक वर्ष तक तपस्या में स्थिर रहे थे। एक वर्ष तक भोजन न करने पर भी शरीर में पुष्टि और दीप्ति को धारण कर रहे थे। मुनियों की चर्या को धारण करने वाले भगवान जिस-जिस ओर कदम रखते थे अर्थात् जहां-जहां जाते थे, वहीं-वहीं के लोग प्रसन्न होकर और बड़े संभ्रम के साथ आकर उन्हें प्रणाम करते थे। उनमें से कितने ही लोग कहने लगते थे-हे देव ! प्रसन्न होइए और कहिए कि क्या काम कितने ही लोग भगवान् से ऐसी प्रार्थना करते थे कि भगवन ! हम पर प्रसन्न होइए। हमें अनुगृहीत कीजिए।' भगवान् ऋषभ अन्त में अपुनरावृत्ति स्थान को प्राप्त हुए, जहां जाने के पश्चात् कोई लौट कर नहीं आता।" यह बहुत सम्भव है कि व्रात्यकाण्ड में भगवान् ऋषभ का जीवन रूपक की भाषा में चित्रित है। ऋषभ के प्रति कुछ वैदिक ऋषि श्रद्धा१. अथर्ववेद, १५।२।६।१-१० । तद् यस्यवं विद्वान् व्रात्य एकां रात्रिमतिथिर्गहे वसति ।। ये पृथिव्यां पुण्या लोकास्तानेव तेनावरुन्द्धे ॥ तद् यस्यैव विद्वान् ब्रात्यो द्वितीयां रात्रिमतिथिगैहे वसति । येऽन्तरिक्षे पुण्या लोका स्तानेव तेनावरुन्द्धे ॥ तद् यस्यैवं विद्वान् व्रात्यस्तृतीयां रात्रिमतिथिर्गहे वसति । ये दिवि पुण्या लोकास्तानेव तेनावरुन्द्धे ॥ तद् यस्यैवं विद्वान् व्रात्यश्चतुर्थी रात्रिमतिथिर्गुहे वसति । ये पुण्यानां पुण्या लोकास्तानेव तेनावरुन्छ । तद् यस्यवं विद्वान् व्रात्योऽपरिमिता रात्रिरतिथिर्गृहे वसति । य एवापरिमिता: पुण्या लोकास्तानेव तेनावरुन्छे । २. महापुराण, २०६५ : हायनानशनेऽप्यने, पुष्टि दीप्तिञ्च बिभ्रते । ३. वही, २०११४,१५। ४. वही, २०१२२ । ५. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति वृत्ति, पत्र १५८ : समुज्जाए-तत्र सम्यग-अपुनरावृत्या __ ऊर्ध्व लोकाग्रलक्षणं वात:-प्राप्तः । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ बान् थे और वे उन्हें देवाधिदेव के रूप में मान्य करते थे । अर्हन् संस्कृति के दो प्रवाह ऋग्वेद में भगवान् ऋषभ के अनेक उल्लेख हैं ।' किन्तु उनका अर्थपरिवर्तन कर देने के कारण वे विवादास्पद हो जाते हैं । अर्हन् शब्द श्रमण संस्कृति का बहुत प्रिय शब्द है | श्रमण लोग अपने तीर्थंङ्करों या वीतराग आत्माओं को अर्हन् कहते हैं । जैन और बौद्ध साहित्य में अर्हन् शब्द का प्रयोग हजारों बार हुआ है । जैन लोग आर्हत नाम से भी प्रसिद्ध रहे हैं । ऋग्वेद में अर्हन् शब्द का प्रयोग श्रमण नेता के लिए ही हुआ है— अर्हन् बिर्भाष सायकानि धन्वार्हन्निष्कं यजतं विश्वरूपम् । अर्हन्निवं दयसे विश्वमभ्वं न वा ओजीयो रुद्रत्वदस्ति || आचार्य विनोबा भावे ने इसी मंत्र के एक वाक्य 'अर्हन्निदं दयसे विश्वमभ्वं' को उद्धृत करते हुए लिखा है- 'हे अर्हन् ! तुम जिस तुच्छ दुनिया पर दया करते हो । इसमें 'अर्हन्' और 'दया' दोनों जैनों के प्रिय शब्द हैं । मेरी तो मान्यता है कि हिन्दू धर्म प्राचीन है, शायद उतना ही जैन धर्म भी प्राचीन है ।" 1 अर्हन् शब्द का प्रयोग वैदिक विद्वान् भी श्रमणों के लिए करते रहे हैं। हनुमन्नाटक में लिखा है-"अर्हन्नित्यथ जैनशासनरताः ।" ऋग्वेद के अर्हन् शब्द से यह प्रमाणित होता है कि श्रमण संस्कृति ऋग्वैदिक काल से पूर्ववर्ती है । श्री जयचन्द्र विद्यालंकार ने व्रात्यों को अर्हतों का अनुयायी माना - 'वैदिक से भिन्न मार्ग बुद्ध और महावीर से पहले भी भारतवर्ष में थे । अर्हत् लोग बुद्ध से पहले भी थे और अनेक चैत्य भी बुद्ध से पहले थे । उन अर्हतों और चैत्यों के अनुयायी 'व्रात्य' कहलाते थे, जिनका उल्लेख अथर्ववेद में भी है ।" १. ऋग्वेद १।२४११६०।१; २|४ | ३३ | १५; ५|२|२८|४ ६|१|१८ ६|२|१६| ११; १०।१२।१६६।१ ; आदि-आदि २. वही, २।४।३३।१० । ३. हरिजन सेवक, ३० मई १९४८ । ४. भारतीय इतिहास की रूपरेखा, प्रथम जिल्द, पृ० ४०२ । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण संस्कृति का प्राग-ऐतिहासिक अस्तित्व असुर और अर्हत् वैदिक आर्यों के आगमन से पूर्व भारतवर्ष में दो प्रकार की जातियां थीं - सभ्य और असभ्य । सभ्य जाति के लोग गांवों और नगरों में रहते थे और असभ्य जाति के लोग जंगलों में । असुर, नाग, द्रविड़ - ये सभ्य जातियां थीं । दास जाति असभ्य थी । असुरों की सभ्यता और संस्कृति बहुत उन्नत थी । उसके पराक्रम से वैदिक आर्यों को प्रारम्भ में उठानी पड़ी । बहुत क्षति असुर लोग आर्हत धर्म के उपासक थे । बहुत आश्चर्य की बात है कि जैन साहित्य में इसकी स्पष्ट चर्चा नहीं मिलती, किन्तु पुराण और महाभारत में इस प्राचीन परम्परा के उल्लेख सुरक्षित हैं । विष्णुपुराण, पद्मपुराण, मत्स्यपुराण' और देवीभागवत' में असुरों को आर्हत या जैन धर्म का अनुयायी बनाने का उल्लेख है । विष्णुपुराण के अनुसार मायामोह ने असुरों को आर्हत धर्म में दीक्षित किया । त्रयी ( ऋग्, यजुः और साम) में उनका विश्वास नहीं रहा ।' उनका यज्ञ और पशु बलि से भी विश्वास उठ गया ।" वे अहिंसा धर्म में विश्वास करने लगे । उन्होंने श्राद्ध आदि कर्मकाण्डों का भी विरोध करना प्रारम्भ कर दिया । " विष्णुपुराण का मायामोह किसी अहंत का शिष्य था । उसने असुरों से कहा—'यह धर्म- युक्त है और यह धर्म - विरुद्ध है; यह सत् है और यह असत् है; यह मुक्तिकारक है और इससे मुक्ति नहीं होती; यह आत्यन्तिक परमार्थ है और यह परमार्थ नहीं है, यह कर्त्तव्य है और यह अकर्त्तव्य है; यह ऐसा नहीं है और यह स्पष्ट ऐसा ही है; यह दिगम्बरों का धर्म है और यह साम्बरों का धर्म है । " १. विष्णुपुराण, ३।१७।१८ : २. पद्मपुराण, सृष्टि खंड, अध्याय १३, श्लोक १७०-४१३ । ३. मत्स्यपुराण, २४।४३-४ε। ४. देवीभागवत, ४।१३।५४-५७ । ५. विष्णुपुराण ३।१८।१२ : अर्हतैतं महाधमं मायामोहेन ते यतः । प्रोक्तास्तमाश्रिता धर्ममार्हतास्तेन तेऽभवन् ॥ ६. वही, ३।१८।१३,१४ । ७. वही, ३।१८।२७ । ८. वही, ३।१८।२५ । ६. वही, ३।१८।२८-२६ । १०. वही ३।१८१८ -११ । १७ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह पुराणकार ने इस कथानक में अर्हत् के धर्म की न्यूनता दिखलाने का यत्न किया है, फिर भी इस रूपक में से जैन-धर्म की प्राचीनता, उसके अहिंसा और अनेकान्तवादी सिद्धान्त और असुरों की जैन धर्म-परायणताफलित निकल आते हैं । १८. विष्णुपुराण में असुरों को वैदिक रंग में रंगने का प्रयत्न किया गया है, किन्तु ऋग्वेद द्वारा यह स्वीकृत नहीं है । वहां उन्हें वैदिक आर्यों का शत्रु कहा गया है ।" असुर और वैदिक आर्य वेदों और पुराणों में वर्णित देव-दानव युद्ध वैदिक आर्यों और आर्यपूर्व जातियों के प्रतीक का युद्ध है । वैदिक आर्यों के आगमन के साथ-साथ असुरों से उनका युद्ध छिड़ा और वह ३०० वर्षों तक चलता रहा ।' आर्यों का इन्द्र पहले बहुत शक्तिशाली नहीं था । इसलिए प्रारम्भ में आर्य लोग पराजित हुए । भारतवर्ष में असुर राजाओं की एक लम्बी परम्परा रही है ।' वे सभी व्रत-परायण, बहुश्रुत और लोकेश्वर थे । असुर प्रथम आक्रमण में ही वैदिक आर्यों से पराजित नहीं हुए थे। जब तक वे सदाचार-परायण और संगठित थे तब तक आर्य लोग उन्हें पराजित नहीं सके । किन्तु जब असुरों के आचरण में शिथिलता आई तब आर्यों ने उन्हें परास्त कर डाला । इस तथ्य का चित्रण इन्द्र और लक्ष्मी के संवाद में हुआ है । इन्द्र के पूछने पर लक्ष्मी ने कहा - 'सत्य और धर्म से बंध कर पहले मैं असुरों के यहां रहती थी, अब उन्हें धर्म के विपरीत देख कर मैंने तुम्हारे यहां रहना पसन्द किया है । मैं उत्तम गुणों वाले दानवों के पास सृष्टि- काल से लेकर अब १. ऋग्वेद १।२३।१७४।२-३ | २. मत्स्यपुराण, २४।३७ : अथ देवासुरं युद्धमभूद् वर्षशतत्रयम् । ३. महाभारत, शान्तिपर्व, २२७।२२ । अशक्तः पूर्वमासीस्त्वं कथंचिच्छक्ततां गतः । कस्त्वदन्य इमां वाचं, सुक्रूरां वक्तुमर्हति ॥ ४. विष्णुपुराण, ३११७६ : देवासुरमभूद् युद्ध ं दिव्यमब्दशतं पुरा । तस्मिन् पराजिता देवा, दैत्यं ह्रदिपुरोगमैः ॥ ५. महाभारत, शान्तिपर्व, २२७।४६ - ५४ । ६. वही, २२७१५६-६० । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण संस्कृति का प्राग्-ऐतिहासिक अस्तित्व तक अनेकों युगों से रहती आई हूं। किन्तु अब वे काम-क्रोध के वशीभूत हो गए हैं, उनमें धर्म नहीं रह गया है इसलिए मैंने उनका साथ छोड़ दिया। इससे स्पष्ट है कि दानवों की राज्य-सत्ता सुदीर्घ-काल तक यहां रही और उसके पश्चात् वह इन्द्र के नेतृत्व में संगठित आर्यों के हाथ में चली गई। . वैदिक-आर्यों का प्रभुत्व उत्तर भारत पर अधिक हुआ था । दक्षिण भारत में उनका प्रवेश बहत विलम्ब से हआ या विशेष प्रभावशाली रूप में नहीं हुआ। जब दैत्यराज बलि की राज्यश्री ने इन्द्र का वरण किया तब इन्द्र ने दैत्यराज बलि से कहा-'ब्रह्मा ने मुझे आज्ञा दी है कि मैं तुम्हारा वध न करूं। इसीलिए मैं तुम्हारे सिर पर वज्र नहीं छोड़ रहा हूं। दैत्यराज ! तुम्हारी जहां इच्छा हो चले जाओ।' इन्द्र की यह बात सुन दैत्यराज बलि दक्षिण दिशा में चले गए और इन्द्र उत्तर दिशा में। पद्मपुराण में भी बताया गया है कि असुर लोग जैन-धर्म को स्वीकार करने के बाद नर्मदा के तट पर निवास करने लगे। इससे स्पष्ट है कि अर्हत का धर्म, उत्तर भारत में आर्यों का प्रभुत्व बढ़ जाने के बाद, दक्षिण भारत में विशेष बलशाली बन गया। असुरों का उत्तर से दक्षिण की ओर जाना भी उनकी तथा द्रविडों की सभ्यता और संस्कृति की समानता का सूचक है। असुर और आत्मविद्या __आर्यपूर्व असुर राजाओं की पराजय होने के बाद आर्यनेता इन्द्र ने वैरोचन, नमुचि और प्रह्लाद से कहा---'तुम्हारा राज्य छीन लिया गया है; तुम शत्रु के हाथ में पड़ गए हो फिर भी तुम्हारी आकृति पर कोई शोक की रेखा नहीं, यह कैसे ?" १. महाभारत, शान्तिपर्व, २२८।४६-५० । २. महाभारत, शान्तिपर्व, २२॥३७ : एवमुक्तस्तु दैत्येन्द्रो बलिरिन्द्रेण भारत । जगाम दक्षिणामाशामुदीची तु पुरन्दरः । ३. पद्मपुराण, १३।४१२ : नर्मदासरितं प्राप्य, स्थिता दानवसत्तमाः । ४. (क) महाभारत, शान्तिपर्व, २२७।१५ : शत्रुभिवर्शमानीतो, हीनः स्थानादनुत्तमात् । वैरोचने ! किमाश्रित्य, शोचितव्ये न शोचसि ॥ (ख) वही, २२६।३ : बद्धः पाशैश्च्युतः स्थानाद्, द्विषतां वशमागतः । श्रिया विहीनो नमुचे ! शोचस्याहो न शोचसि ? ॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० संस्कृति के दो प्रवाह इस प्रश्न के उत्तर में असुर राजाओं ने जो कहा वह उनकी आत्मविद्या का ही फलित था। विरोचनकुमार बलि ने इन्द्र को इस प्रकार फटकारा कि उसका गर्व चूर हो गया। बलि ने इन्द्र से कहा---'देवराज ! तुम्हारी मूर्खता मेरे लिए आश्चर्यजनक है। इस समय तुम समृद्धिशाली हो और मेरी समद्धि छिन्न हो गई है। ऐसी अवस्था में तुम मेरे सामने अपनी प्रशंसा के गीत गाना चाहते हो, यह तुम्हारे कुल और यश के अनुरूप नहीं है।' नमुचि और बलि राज्यहीन होने पर भी जिस प्रकार शोकमुक्त रहे, वह उनकी अध्यात्म-विद्या का ही फल था। इन्द्र उनके धैर्य और अशोक-भाव को देख कर आश्चर्यचकित रह गया।' ___महाभारत में असुरों पर वैदिक विचारों की छाप लगाई गई है फिर भी उनकी अशोक, शान्त व समभावी वत्ति से जो आत्म-विद्या की झलक मिलती है, निश्चित रूप से उन्हें श्रमण-धर्मानुयायी सिद्ध करती है। सांस्कृतिक विरोध असुरों और वैदिक-आर्यों का विरोध केवल भौगोलिक और राजनीतिक ही नहीं, किन्तु सांस्कृतिक भी था। आर्यों ने असुरों की अहिंसा का विरोध किया तो असुरों ने आर्यों की हिंसा और यज्ञ-पद्धति का विरोध किया। भारतवर्ष में वैदिक-आर्यों का अस्तित्व सुदढ़ होने के साथ-साथ यह विरोध की धारा प्रबल हो उठी थी। एम. विन्टरनिटज ने लिखा है'वेदों के विरुद्ध प्रतिक्रिया बुद्ध से सदियों पूर्व शुरू हो चकी थी। कम-सेकम जैनों की परम्परा में इस प्रतिक्रिया के स्पष्ट निर्देश मिलते हैं और जैन-धर्म की संस्थापना ७५० ई० पू० में हो चुकी थी। इस विषय में जैनों की अन्यथा विश्वसनीय काल-बुद्धि और काल-गणना को यहां (और यहीं पर ?) झुठलाने की आवश्यकता नहीं। व्यूलर का तो यह विश्वास था कि वेदों (और ब्राह्मण धर्म) की प्रगति तथा वेद-विरोध की प्रगति, दोनों प्रायः समानान्तर ही होती रही हैं । दुर्भाग्यवश, एक निश्चित सिद्धान्त के रूप में यह साबित करने से पूर्व ही व्यूलर की मृत्यु हो गई। श्रमण संस्कृति का अस्तित्व पूर्ववर्ती था इसलिए वैदिक यज्ञ-संस्था (ग) महाभारत, शांतिपर्व, २२२।११ : बद्धः पाशैश्च्युतः स्थानाद्, द्विषतां वशमागतः । श्रिया विहीनः प्रह्लाद !, शोचितव्ये न शोचसि ?॥ १. महाभारत, शान्तिपर्व, २२७।१३ । २. प्राचीन भारतीय इतिहास, प्रथम भाग, प्रथम खंड, पृ० २३३ । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण संस्कृति का प्राग्-ऐतिहासिक अस्तित्व का प्रारम्भ से ही विरोध हुआ। यदि वह न होती तो उसका विरोध कैसे होता? __आचार्य क्षितिमोहन सेन के अनुसार तीर्थ, पूजा, भक्ति, नदी की पवित्रता, तुलसी, अश्वत्थ आदि वृक्षों से सम्बन्धित देव और सिन्दूर आदि उपकरण-ये सब वेद-बाह्य वस्तुएं हैं । आर्यों ने इन्हें आर्य-पूर्व जातियों से ग्रहण किया था।' श्रमण परम्परा में धर्मसंघ के लिए 'तीर्थ' शब्द का प्रयोग होता था और उसके प्रवर्तक तीर्थङ्कर कहलाते थे। दीघनिकाय में पूरणकश्यप, मश्करी गोशाल, अजितकेशकम्बल, पकुद्धकात्यायन, संजयवेलट्ठीपुत्र और निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र-इन छहों को तीर्थङ्कर कहा है।' नाग-पूजा भगवान् ऋषभ के पुत्र भरत के समय में प्रचलित हई थी। भक्ति का मूल उद्गम द्रविड़ प्रदेश है, अतः वह भी आर्य-पूर्व हो सकती है। गंगा-यमुना आदि नदियों का वेदों में उल्लेख नहीं है और ब्राह्मण ग्रंथों में वे बहुत पवित्र और देवता रूप मानी गई हैं । जैन-सूत्रों में भवनवासी देवों के दस चैत्यवृक्ष बतलाए गए है'असुरकुमार अश्वत्थ नागकुमार सप्तपर्ण-सात पत्तों वाला पलाश सुपर्णकुमार शाल्मली-सेमल विद्युत्कुमार उदुम्बर अग्निकुमार सिरीस दीपकुमार दधिपर्ण उदधिकुमार -- वंजुल-अशोक दिशाकुमार पलाश-तीन पत्तों वाला पलाश वायुकुमार वप्र स्तनितकुमार- कर्णिकार--कणेर १. भारतवर्ष में जाति-भेद, पृ० ७५-७७ । २. भगवती, २०७४ : अरहा ताव नियमं तित्थकरे, तित्यं पुण चाउवण्णे समणसंघ । ३. दीघनिकाय (सामञफलसुत्त), प्रथम भाग, पृ० ५६-६७ । ४. आवश्यकनियुक्ति, गाथा २१८ । ५. पद्मपुराण, उत्तरखंड, ५०१५१ : उत्पन्ना द्राविडे चाहम् । ६. स्थानांग, १०८१-८२ । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ संस्कृति के दो प्रवाह चंपक इसी प्रकार व्यन्तर देवों के भी आठ चैत्यवृक्ष बतलाए गए हैंपिशाच कदम्ब भूत-~ तुलसी यक्ष बरगद राक्षस--- खट्वांग किन्नर अशोक किंपुरुषनाग या महोरग- नाग गन्धर्व तिन्दुक महात्मा बुद्ध के बोधि-वृक्ष का महत्त्व आरम्भ से हो रहा है। जनों के २४ तीर्थङ्करों के २४ ज्ञान-वृक्ष माने गए हैं तीर्थकर ज्ञान-वृक्ष तीर्थकर मान-वृक्ष १. वृषभ- न्यग्रोध १३. विमल-- जम्बू २. अजित-- सप्तपर्ण १४. अनन्त-- अश्वत्थ ३. संभव- शाल १५. धर्म- दधिपर्ण ४. अभिनन्दन -प्रियाल १६. शांति-- नंदि ५. सुमति- प्रियंगु १७. कुन्थु- तिलक ६. पद्मप्रभ- छत्राम १८. अर आम्र ७. सुपार्श्व- सिरीस १६. मल्ली अशोक ८. चन्द्रप्रभ- नाग २०. मुनिसुव्रत- चंपक ६. सुविधि- मल्ली २१. नमि बकुल १०. शीतल-- प्लक्ष २२. नेमि-- वेतस ११. श्रेयांस- तिदुक २३. पाश्व-- धातकी १२. वासुपूज्य-पाटल २४. महावीर- शाल सिन्दूर भी आर्य-पूर्व नाग जाति की वस्तु है। श्रमण साहित्य में नदी, वक्ष आदि का उत्सव मनाने के अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य क्षितिमोहन सेन ने जिन वस्तुओं को वेदबाह्य या अवैदिक कहा है. उनका महत्त्व या महत्त्वपूर्ण उल्लेख श्रमण परम्परा के साहित्य में मिलता है। उनके आधार पर इस निष्कर्ष पर १. स्थानांग, ८.११७ । २. समवायांग, समवाय १५७ । ३. राजप्रश्नीय, पृ० २८४ । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण संस्कृति का प्राग्-ऐतिहासिक अस्तित्व पहुंचना कठिन नहीं है कि जिसे आर्य-पूर्व संस्कृति या अवैदिक परम्परा कहा जाता है, वह श्रमण परम्परा ही होनी चाहिए। पुरातत्व मोहनजोदड़ो की खुदाई से जो अवशेष प्राप्त हुए हैं, उनका सम्बन्ध श्रमण या जैन परम्परा से है, ऐसा कुछ विद्वान् मानते हैं। यद्यपि एक मत से यह तथ्य स्वीकृत नहीं हुआ है फिर भी सारे परिकर का सूक्ष्म अवलोकन करने पर उनका सम्बन्ध श्रमण परम्परा से ही जुड़ता है। इसके लिए सर जान मार्शल की "मोहनजोदड़ो एण्ड इट्स सिविलिजेशन" के प्रथम भाग की बारहवीं प्लेट की १३, १४, १५, १८, १६ और २० वीं कोष्ठिका के मूर्ति-चित्र दर्शनीय हैं। - सिन्धु-घाटी से प्राप्त मूर्तियों और कुषाणकालीन जैन मूर्तियों में अपूर्व साम्य है। कायोत्सर्ग-मुद्रा जैन परम्परा की ही देन है। प्राचीन जैन मूर्तियां अधिकांशतः इसी मुद्रा में प्राप्त होती हैं । मोहनजोदड़ो की खुदाई से प्राप्त मूर्तियों की विशेषता यह है कि वे कायोत्सर्ग अर्थात खडी मद्रा में हैं, ध्यान-लीन हैं और नग्न हैं। खड़े रह कर कायोत्सर्ग करने की पद्धति जैन परम्परा में बहुत प्रचलित है। इस मद्रा को 'स्थान' या 'ऊध्र्वस्थान' कहा जाता है । पतञ्जलि ने जिसे आसन कहा है, जैन आचार्य उसे 'स्थान' कहते हैं। स्थान का अर्थ है 'गति-निवृत्ति' । उसके तीन प्रकार हैं (१) ऊर्ध्व स्थान-खड़े होकर कायोत्सर्ग करना । (२) निषीदन स्थान-बैठकर कायोत्सर्ग करना। (३) शयन स्थान-सोकर कायोत्सर्ग करना । पर्यङ्कासन या पद्मासन जैन मूर्तियों की विशेषता है। धर्म परम्पराओं में योगमुद्राओं का भेद होता था, उसी के सन्दर्भ में आचार्य हेमचंद्र ने लिखा है ___ 'प्रभो! आपकी पर्यत आसन और नासाग्रदृष्टि वाली योगमुद्रा को भी परतीथिक नहीं सीख पाए हैं तो भला वे और क्या सीखेंगे ?'२ प्रोफेसर प्राणनाथ ने मोहनजोदड़ो की एक मुद्रा पर 'जिनेश्वर' शब्द पढ़ा डेल्फी से प्राप्त प्राचीन आगिव मूर्ति, जो कायोत्सर्ग मुद्रा में है, १. आवश्यकनियुक्ति, गाथा १४६५; आवश्यक हारिभद्रीयवृत्ति, पत्र ७७३ । २. अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका, श्लोक २० । ३. इण्डियन हिस्टोरिकल क्वाटर्ली, ८, परिशिष्ट पृ० ३० ।। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ संस्कृति के दो प्रवाह ध्यानलीन है और उसके दोनों कंधों पर ऋषभ की भांति केशराशि लटकी हुई है । डा० क लिदास नाग ने उसे जैन-मूर्ति के अनुरूप बताया है। वह लगभग दस हजार वर्ष पुरानी है।' अपोलो रेशफ (यूनान) की धड़मूर्ति भी वैसी ही है । ये भी श्रमण संस्कृति की सुदीर्घ प्राचीनता के प्रमाण मोहनजोदड़ो से प्राप्त मूर्तियों या उनके उपासकों के सिर पर नागफण का अंकन है। वह नागवंश के सम्बन्ध का सूचक है । सातवें तीर्थङ्कर भगवान् सुपार्श्व के सिर पर सर्प-मण्डल का छत्र था।' नागजाति वैदिककाल से पूर्ववर्ती भारतीय जाति थी। यक्ष, गन्धर्व, किन्नर और द्राविड जातियां भी मूलतः भारतीय और श्रमणों की उपासक थीं। उनकी सभ्यता और संस्कृति ऋग्वैदिक सभ्यता और संस्कृति से पूर्ववर्ती और स्वतन्त्र थी। उनके उपास्य ऋषभ, सुपार्श्व आदि तीर्थङ्कर भी प्राग्-वैदिककाल में हुए थे। पूर्वोक्त दोनों साधनों (साहित्य और पुरातत्त्व) से हम इस निष्कर्ष पर पहुचते हैं कि श्रमणपरम्परा वैदिककाल से पूर्ववर्ती है। १. Discovery of Asia, plate No. 5. २. (क) आदि तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभदेव, पृ० १४० के बाद । (ख) R. G. Marse-The historic importance of bronze statue of Reshief, discovered in Syprus. (Bulletin of the Deccan College Research Institute, Poona, Vol. XIV, pp 230-236). ३. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व ३, सर्ग ५, श्लोक ७८-८० : तीर्थाय नमः इत्युक्त्वा तत्र सिंहासनोत्तमे । उपाविशज्जगन्नाथोऽतिशयरुपशोभितः ॥ पृथ्वीदेव्या तदा स्वप्ने दृष्टं तादग्महोरगम् । शको विचक्रे भगवन्मूलिच्छवमिवापरम् ।। तदादि चाभूत्समवसरणेष्वपरेष्वपि । नाग एकफणः पञ्चफणो नवफणोऽथवा ॥ ४. सर जॉन मार्शल : 'मोहनजोदड़ो', भाग १, अंक ८, पृ० ११०-११२ । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. श्रमण संस्कृति के मतवाद श्रमण संस्कृति की आधारशिला प्राग-ऐतिहासिक काल में ही रखी जा चुकी थी। बुद्ध और महावीर के काल में तो वह अनेक तीर्थों में विभक्त हो चुकी थी। विभाग का क्रम भगवान् ऋषभ से ही प्रारम्भ हो चुका था। उसका प्रारम्भ भगवान ऋषभ के शिष्य मरीचि से हुआ था। एक दिन गर्मी से व्याकुल होकर उसने सोचा-यह श्रमण जीवन बहुत कठिन है। मैं इसकी आराधना के लिए अपने आपको असमर्थ पाता हूं। यह सोच कर वह त्रिदण्डो तपस्वी बन गया। उसने परिकल्पना की-श्रमण मन, वचन और काया-इन तीनों का दमन करते हैं। मैं इन तीनों दण्डों का दमन करने में असमर्थ हूं, इसलिए मैं त्रिदण्ड चिह्न को धारण करूंगा। श्रमण इन्द्रिय मुण्ड हैं। मैं इंद्रियों पर विजय पाने में असमर्थ हूं, इसलिए सिर को मुण्डाऊंगा, केवल चोटी रखूगा। श्रमण अकिंचन हैं। मैं अकिंचन रहने में असमर्थ हूं, इसलिए कुछ परिग्रह रखूगा । श्रमण शील से सुगन्धित हैं। मैं शील से सुगन्धित नहीं हूं, इसलिए चंदन आदि सुगन्धित द्रव्यों का लेप करूंगा। श्रमण मोह से रहित हैं । मैं मोह से आच्छन्न हूं, इसलिए छत्र धारण करूंगा। श्रमण पादुका नहीं पहनते, किन्तु मैं नंगे पैर चलने में असमर्थ हूं, इसलिए पादुका धारण करूंगा । श्रमण कषाय से अकलुषित हैं, इसलिए वे दिगम्बर या श्वेताम्बर हैं। मैं कषाय से कलुषित हूं, इसलिए गेरुवे वस्त्र धारणा करूंगा । श्रमण हिंसा-भीरु हैं। मैं पूर्ण हिंसा का वर्जन करने में असमर्थ हूं, इसलिए परिमित जल से स्नान भी करूंगा और कच्चा जल भी पीऊंगा। इस परिकल्पना के अनुसार वह परिव्राजक हो गया।' १. आवश्यकनियुक्ति, गाथा ३४७, ३५०,३५६ । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह जैन साहित्य में श्रमणों के पांच प्रकार बतलाए गए हैंनिर्ग्रन्थ- जैन मुनि, शाक्य- बौद्ध भिक्ष, तापस- जटाधारी वनवासी तपस्वी, गेरुक- त्रिदण्डी परिव्राजक, आजीवक- गोशालक के शिष्य । निशीथणि में अन्यतीर्थिक श्रमणों के ३० गणों का उल्लेख मिलता है। बौद्ध-साहित्य में बुद्ध के अतिरिक्त छह श्रमण-संघ के तीर्थङ्करों का उल्लेख मिलता है।' दशवकालिक नियुक्ति में श्रमण के अनेक पर्यायवाची नाम बतलाए गए हैं--प्रवजित, अनगार, पाषण्ड, चरक, तापस, भिक्ष, परिव्राजक, श्रमण, निर्ग्रन्थ, संयत, मुक्त, तीर्ण, वायी, द्रव्य, मुनि, क्षान्त, दान्त, विरत, रूक्ष और तीरस्थ। इन नामों में चरक, तापस, परिव्राजक आदि शब्द निर्ग्रन्थों से भिन्न श्रमण सम्प्रदाय के सूचक हैं। श्रमण के एकार्थवाची शब्दों में उन सबका संकलन किया गया है। १. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ७३१-७३३ : निग्गंथ सक्क तावस गेरुय, आजीव पंचहा समणा । तम्मि निग्गंथा ते जे, जिणसासणभवा मुणिणो ॥ सक्का य सुगयसीसा, जे जडिला ते उ तावसा गीया । जे धाउरत्तवत्था, तिदंडिणो गेरुया ते उ॥ जे गोसालगमयमणुसरंति, भन्नति ते उ आजीवा । समणत्तणेण भुवणे, पंचवि पत्ता पसिद्धिमिमे ।। २. निशीथच णि, भाग २, पृ० ११८-२०० । ३. दीघनिकाय, सामञफलसुत्त, पृ० १६-२२ । ४. दशवैकालिक नियुक्ति, गाथा १५८-१५६ । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. श्रमण परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु जितने श्रमण सम्प्रदाय थे, उनमें अनेक मतवाद थे। पूरणकश्यप अक्रियावादी था । मस्करी गोशालक संसार-शुद्धिवादी या नियतिवादी था । अजित केशकम्बल उच्छेदवादी था । पकुद्धकात्यायन अन्योन्यवादी था । संजयवेलटिठपुत्र विक्षेपवादी था । " बौद्ध दर्शन क्षणिकवादी और जैन दर्शन स्याद्वादी था। इतने विरोधी विचारों के होते हुए भी वे सब श्रमण थे, अवैदिक थे । इसका हेतु क्या था ? कौन सा ऐसा समता का धागा था, जो सबको एक माला में पिरोए हुए था । इस प्रश्न की मीमांसा अब तक प्राप्त नहीं है । किन्तु श्रमणों की मान्यता और जीवन-चर्या का अध्ययन करने पर हम उनकी एकसूत्रता के कुछेक मूलभूत हेतुओं पर पहुंच सकते हैं : वेद का अप्रामाण्य १. परम्परागत एकता २. व्रत ३. संन्यास या श्रामण्य ४. यज्ञ-प्रतिरोध :-- ५. ६. जाति की अतात्त्विकता ७. समत्व की भावना व अहिंसा उत्तराध्ययन में इन विषयों पर बहुत व्यवस्थित विवेचन किया गया है । वह आध्यात्मिक होने के साथ-साथ ऐतिहासिक भी है । १. परम्परागत एकता श्रमण परम्परा का मूल उद्गम एक है, इसलिए अनेक सम्प्रदाय होने पर भी मूलतः वह अविभक्त है । श्रमण परम्परा का उद्गम भगवान् ऋषभ से हुआ है । जयघोष ब्राह्मण ने निर्ग्रन्थ विजयघोष से पूछा -धर्म १. दीघनिकाय, सामञ्ञफलसुत्त, पृ० १६ । २. ( क ) भगवती, १५ । (ख) उपासकदशा, ७ । (ग) दीघनिकाय, सामञ्ञफलसुत्त, पृ० २० । ३. ( क ) दशाश्रुतस्कंध, छट्ठी दशा । ( ख ) दीघनिकाय, सामञ्ञफलसुत्त, पृ० २०-२१ । ४. ( क ) सूत्रकृतांग, १|१२|७ ( ख ) दीघनिकाय, सामञ्ञफलसुत्त, पृ० २१ । ५. दीघनिकाय, सामञ्ञफलसुत्त, पृ० २२ । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह २८ का मुख क्या है ? विजयघोष ने उत्तर दिया- धर्म का मुख काश्यप ऋषभ हैं ।' श्रीमद्भागवत के अनुसार वे श्रमणों का धर्म प्रकट करने के लिए अवतरित हुए ।' उन्होंने राजा नमि की पुत्री सुदेवी के गर्भ से ऋषभदेव के रूप में जन्म लिया । इस अवतार ने समस्त आसक्तियों से रहित रहकर अपनी इंद्रियों और मन को अत्यन्त शान्त करके एवं अपने स्वरूप में स्थिर होकर समदर्शी के रूप में जड़ों की भांति योगचर्या का आचरण किया । इस स्थिति को महर्षि लोग परमहंस पद कहते हैं । निरन्तर विषय-भोगों की अभिलाषा के कारण अपने वास्तविक श्रेय से चिरकाल तक बेसुध हुए लोगों को जिन्होंने करुणावश निर्भय आत्मलोक का उपदेश दिया और जो स्वयं निरन्तर अनुभव होने वाले आत्मस्वरूप की प्राप्ति से सब प्रकार की तृष्णाओं से मुक्त थे, उन भगवान् ऋषभदेव को नमस्कार है ।" ब्रह्माण्डपुराण के अनुसार महादेव ऋषभ ने दस प्रकार के धर्म का स्वयं आचरण किया और केवलज्ञान की प्राप्ति होने पर भगवान् ने जो महर्षि परमेष्ठी, वीतराग, स्नातक, निर्ग्रन्थ, नैष्ठिक थे- उन्हें उसका उपदेश दिया । जैन साहित्य में तो यह स्पष्ट है ही कि श्रमण धर्म के आदि-प्रवर्तक भगवान् ऋषभ थे ।" इस प्रकार जैन और वैदिक- दोनों प्रकार के साहित्य से यह प्रमाणित होता है कि श्रमण धर्म का आदि स्रोत भगवान् ऋषभ हैं । १. उत्तराध्ययन, २५।१४,१६ । २. श्रीमद्भागवत, ५।३।२० : धर्मान्दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूर्व मन्थिनां शुक्लया तनुवावततार | ३. वही, २१७११० : नाभेरसावृषभ आस सुदेविसूनुर्योवचचार समदृग् जडयोगचर्याम् । यत् पारमहंस्यमृषयः पदमामनन्ति स्वस्थः प्रशान्तकरणः परिमुक्तसङ्गः ॥ ४. वही, ५।६।१६ : नित्यानुभूतनिजलाभनिवृत्ततृष्णः श्रेयस्यतद्रचनया चिरसुप्तबुद्ध: । लोकस्य यः करुणयाभयमात्मलोकमाख्यान्नमो भगवते ऋषभाय तस्मै ॥ ५. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, २१६३, पत्र १३५ : उसहे णामं अरहा कोसलिए पढमराया पढमजिणे पढमकेवली पढमतित्थकरे पढमधम्मवरचक्कवट्टी समुपज्जत्थे | Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण परम्परा की एकसूत्रता और उसकेहे तु ऋषभ का धर्म प्राग-ऐतिहासिक काल की सीमा का अतिक्रमण कर जब इतिहास की सीमा में आता है तब भी उसका मूल-स्रोत बहुत विभक्त नहीं मिलता। . भगवान महावीर के तीर्थकाल में जो श्रमण संघ उपलब्ध थे, वे अधिकांश पार्श्वनाथ की परम्परा से सम्बन्धित थे। दीघनिकाय में जिन छह तीर्थङ्करों का वर्णन है, उन सबको 'संघी' और, 'गणी' कहा गया है।' धर्म सम्प्रदायों में 'संघ' की परम्परा श्रमणों की देन है । ऐतिहासिक काल में श्रमण संघ का सबसे पहला उदाहरण भगवान पार्श्व के तीर्थ का है। धर्मानन्द कोशाम्बी ने लिखा है ___ 'पार्श्व मुनि ने तीसरी बात यह की कि अपने नवीन धर्म के प्रचार के लिए उन्होंने संघ बनाए। बौद्ध साहित्य से इस बात का पता लगता है कि बुद्ध के समय जो संघ विद्यमान थे, उन सघों में जैन साध और साध्वियों का संघ सबसे बड़ा था। ___ 'पार्श्व के पहले ब्राह्मणों के बड़े-बड़े समूह थे, पर वे सिर्फ यज्ञयाज्ञ का प्रचार करने के लिए ही थे। यज्ञ-याज्ञ का तिरस्कार कर उसका त्याग करके जंगलों में तपस्या करने वालों के संघ भी थे। तपस्या का एक अंग समझ कर ही वे अहिंसा-धर्म का पालन करते थे, पर समाज में उसका उपदेश नहीं देते थे। वे लोगों से बहत कम मिलते-जुलते थे। __ 'बुद्ध के पहले यज्ञ-याज्ञ को धर्म मानने वाले ब्राह्मण थे और उसके बाद यज्ञ-याज्ञ से ऊबकर जंगलों में जाने वाले तपस्वी थे। बुद्ध के समय ऐसे ब्राह्मण और तपस्वी न थे--ऐसी बात नहीं है। पर इन दो प्रकार के दोषों को देखने वाले तीसरे प्रकार के भी संन्यासी थे और उन लोगों में पार्श्व मुनि के शिष्यों को पहला स्थान देना चाहिए।" भगवान् पाश्र्व और महात्मा बुद्ध देवसेनाचार्य (आठवीं सदी) के अनुसार महात्मा बुद्ध आरम्भ में जैन थे। जैनाचार्य पिहितास्रव ने सरयू नदी पर स्थित पलाश नामक ग्राम में पार्श्व के संघ में उन्हें दीक्षा दी और मुनि 'बुद्धकीति' नाम रखा। ___श्रीमती राइस डेविड्स का भी मत है कि बुद्ध पहले गुरु की खोज १. दीघनिकाय, सामफलसुत्त, प्रथम भाग, पृ० ४१-४२ : संघी चेव गणी चेव । २. भारतीय संस्कृति और अहिंसा, पृ० ४१,४३ । ३. दर्शनसार, ६ : सिरिपासणाहतित्थे, सरयूतीरे पलासणयरत्थो । पिहियासवस्स सिस्सो, महासुदो वुड्ढकित्ति मुणी ॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह ३० में वैशाली पहुंचे। वहां आचार और उदक से उनकी भेंट हुई, फिर बाद में उन्होंने जैन धर्म की तप - विधि का अभ्यास किया । डा० राधाकुमुद मुखर्जी अभिमत में बुद्ध ने पहले आत्मानुभव के लिए उस काल में प्रचलित दोनों साधनाओं का अभ्यास किया । आलार और उद्रक के निर्देशानुसार ब्राह्मण - मार्ग का और तब जैन-मार्ग का और बाद में अपने स्वतंत्र साधनामार्ग का विकास किया । महात्मा बुद्ध पार्श्व की परम्परा में दीक्षित हुए या नहीं -- इन दोनों प्रश्नों को गौण कर हम इस रेखा पर पहुंचते हैं कि उन्होंने अहिंसा आदि तत्त्वों का जो निरूपण किया, उसका बहुत बड़ा आधार भगवान् पार्श्व की परम्परा है । उनके शब्द प्रयोग भी पार्श्व की परम्परा के जितने निकट हैं, उतने अन्य किसी परम्परा के निकट नहीं हैं । आज भो त्रिपिटक और द्वादशांगी का तुलनात्मक अध्ययन करने वाले सहज ही इस कल्पना पर पहुंच जाते हैं कि उन दोनों का मूल एक है । विचार-भेद की स्थिति में सम्प्रदाय - परिवर्तन की रीति उस समय बहुत प्रचलित थी । पिटकों व आगमों के अभ्यासी के लिए यह अपरिचित विषय नहीं है । महात्मा बुद्ध के प्रमुख शिष्य मोद्गल्यायन भी पहले पार्श्वनाथ की शिष्य - परम्परा में थे । वे भगवान् महावीर की किसी प्रवृत्ति से रुष्ट होकर बुद्ध के शिष्य बन गए।" गोशालक और पूरणकश्यप आजीवक सम्प्रदाय के आचार्य गोशालक के विषय में दो मान्यताएं प्रचलित हैं । श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार वह भगवान् महावीर का शिष्य था और दिगम्बर मान्यता के अनुसार वह पार्श्व की शिष्य परम्परा में था । मंखलीपुत्र गोशालक ने सर्वानुभूति और सुनक्षत्र- इन दोनों निग्रंथों को अपनी तेजोलेश्या से जला डाला, तब भगवान् महावीर ने कहा'गोशालक ! मैंने तुम्हें प्रव्रजित किया, बहुश्रुत किया और तुम आज मेरे ही साथ इस प्रकार का मिथ्या आचरण कर रहे हो, यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है । इसका आशय स्पष्ट है कि गोशालक भगवान् महावीर १४ १. Gautma, the man, 22/5. २. हिन्दू सभ्यता, पृ० २३६ । ३. धर्म परीक्षा, अध्याय, १८ । ४. भगवती, १५।१११ : तुमं मए चेव पव्वाविए जाव मए चेव बहुस्सुई कए, ममं देव मिच्छं विपडिवन्ने तं मा एवं गोसाल ? Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु के पास प्रवजित हुआ था। छह वर्ष तक भगवान् के साथ रहा और उसके बाद वह आजीवक संघ का आचार्य बन गया। उस समय उसके साथ भगवान पार्श्व के छह शिष्य सम्मिलित हुए। दिगम्बर मान्यता के अनुसार मश्करी गोशालक और पूरणकश्यप भगवान् महावीर के प्रथम समवसरण (धर्म-परिषद्) में विद्यमान थे। वे दोनों पार्श्वनाथ के प्रशिष्य थे। उस परिषद् में इंद्रभूति गौतम आए। भगवान् महावीर की ध्वनि का क्षरण हुआ। मश्करी गोशालक रुष्ट होकर चला गया। उसने सोचा-बहुत आश्चर्य की बात है, ग्यारह अंगों (शास्त्रों) को धारण करने वाला मैं परिषद में विद्यमान था फिर भी भगवान् की ध्वनि का क्षरण नहीं हुआ। मुझे उसके योग्य नहीं समझा गया। यह इंद्रभूति गौतम वेदपाठी है। अंगों को नहीं जानता, फिर भी उसके आने पर भगवान की ध्वनि का क्षरण हुआ। उसे उसके योग्य समझा गया। इससे लगता है कि ज्ञान का कोई मूल्य नहीं है। अज्ञान ही श्रेष्ठ है। उसीसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस प्रकार वह अज्ञानवादी बन गया । ___ श्वेताम्बर और दिगम्बर मान्यताओं में भेद होने पर भी इसमें कोई मतभेद नहीं है कि गोशालक का सम्बन्ध श्रमण परम्परा के मूल उद्गम से था। आजीवक सम्प्रदाय गोशालक से पहले भी था। वह उसका प्रवर्तक नहीं था। उस सम्प्रदाय का मूल-स्रोत भी प्राचीन श्रमण परम्परा से भिन्न नहीं है। जैन श्रमणों और आजीवकों की तपस्या पद्धति और सिद्धान्तनिरूपणा में कुछ भेद था तो बहुत समानता भी थी, किन्तु उसमें मुख्य भेद आजीविका की वत्ति का था। आजीवक श्रमण विद्या आदि के प्रयोग द्वारा आजीविका करते थे। जैन श्रमणों को यह सर्वथा अमान्य था। जो श्रमण लक्षण, स्वप्न और अंगविद्या का प्रयोग करते थे, उन्हें जैन श्रमण कहने को भी वे तैयार नहीं थे। आजीवक लोग मूलतः पार्श्व की परम्परा से उदभूत थे, यह मानना निराधार नहीं है। सूत्रकृतांग (शश।५) में नियतिवादियों को पार्श्वस्थ कहा है१. भगवती, १५७७ । २. दर्शनसार, १७६-१७६ । ३. History and Doctrines of the Ajivikas, p. 98. ४. उत्तराध्ययन, ८।१३; १५७,१६ । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह एवमेगेहु पासत्था, ते भुज्जो विप्पगम्मिमा । एवं उद्विआ संता, गते दुक्खविमोक्खया ।। वत्तिकार ने पार्श्वस्थ का अर्थ 'यक्ति से बाहर ठहरने वाला' या 'पाश-बन्धन में स्थित' किया है, किन्तु ये सारे अर्थ कल्पना से अधिक मूल्य नहीं रखते । वस्तुतः पार्श्वस्थ का अर्थ 'पार्श्वनाथ की परम्परा से सम्बन्धित' होना चाहिए। __ भगवान महावीर ने तीर्थ की स्थापना की और वे चौबीसवें तीर्थङ्कर हुए। उसके पश्चात भगवान पार्श्व के अनेक शिष्य भगवान् महावीर के तीर्थ में प्रवजित हो गए और अनेक प्रवजित नहीं भी हुए। हमारा ऐसा अनुमान है कि भगवान् पार्श्व के जो शिष्य भगवान् महावीर के शासन में सम्मिलित नहीं हुए उसके लिए पार्श्वस्थ' शब्द प्रयुक्त हुआ है तथा भगवान् महावीर से पहले ही कुछ साधु भगवान् पार्ट्स की मान्यता का अतिक्रमण कर अपने स्वतंत्र विचारों का प्रचार कर रहे थे उनके लिए भी 'पार्श्वस्थ' शब्द का प्रयोग किया गया है। पहली श्रेणी वालों को 'देशतः पार्श्वस्थ' कहा गया है, एवं दूसरी श्रेणी वालों को 'सर्वतः पार्श्वस्थ' कहा गया है । भगवान् महावीर के तीर्थ-प्रवर्तन के बाद भी पार्श्व की परम्परा के जो श्रमण जैन धर्म की रत्नत्रयी-ज्ञान, दर्शन और चारित्र--से सर्वथा विमुख होकर मिथ्यादृष्टि का प्रचार करने में रत थे, उन्हें 'सर्वतः पार्श्वस्थ' कहा गया है। जो श्रमण शय्यातर-पिण्ड, अभिहत-पिण्ड, राज-पिण्ड, नित्य-पिण्ड, अग्र-पिण्ड आदि आहार का उपभोग करते थे, उन्हें 'देशतः पार्श्वस्थ' कहा गया।" आजीवक 'सर्वतः पार्श्वस्थ' थे । गोशालक आजीवक-सम्प्रदाय के १. सूत्रकृतांग, १११।३२ वृत्ति । युक्तिकदम्बकाबहिस्तिष्ठन्तीति पार्श्वस्था: परलोकक्रियापार्श्वस्था वा, नियतिपक्षसमाश्रयणात्परलोकक्रियावयथ्यं, यदि वा---पाश इव पाश:--कर्म बन्धनं, तच्चेह युक्तिविकल नियतिवादप्ररूपणं तत्र स्थिताः पाशस्थाः । २. प्रवचनसारोद्धार, गाथा १०४-१०५ : सो पासत्थो दुविहो, सव्वे देसे य होइ नायव्वो। सव्वंमि नाणदंसणचरणाणं जो उ पासंमि ।। देसंमि य पासत्थो, सेज्जायरऽभिहडरायपिण्डं च । नीयं च अग्गपिण्डं भुंजइ निक्कारणे चेव ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु आचार्य थे, प्रवर्तक नहीं । वह गोशालक से पहले ही प्रचलित था । श्वेताम्बर साहित्य के अनुसार गोशालक भगवान् महावीर के शिष्य थे और दिगम्बर साहित्य के अनुसार वे भगवान् महावीर की प्रथम प्रवचनपरिषद् में उपस्थित थे । महावीर से उनका सम्पर्क था, इसमें दोनों सहमत हैं । दिगम्बर साहित्य के अनुसार गोशालक पार्श्व - परम्परा में थे और श्वेताम्बर साहित्य में नियतिवादियों को पार्श्वस्थ' कहा है । इस प्रकार उनके पार्श्व की परम्परा से संबंधित होने में भी दोनों सहमत हैं । इन दो अभिमतों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि गोशालक प्रारम्भ में पार्श्व की परम्परा में दीक्षित हुए और बाद में महावीर के साथ रहे । दिगम्बरों ने पहली स्थिति को प्रमुखता दी और गोशालक को पार्श्व की परम्परा का श्रमण माना । श्वेताम्बरों ने दूसरी स्थिति को प्रमुखता दी और गोशालक को महावीर का शिष्य माना। किन्तु इतना निश्चित है कि भगवान् पार्श्व की परम्परा तथा भगवान् महावीर से उनका पूर्व संबंध रहा था । दर्शनसार में मस्करी गोशालक और पूरणकश्यप का एक साथ उल्लेख है । इससे उनके घनिष्ट सम्बन्ध की भी सूचना मिलती है । एक परम्परा में दीक्षित होने के कारण उनका परस्पर सम्बन्ध रहा हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं । अंगुत्तरनिकाय में मस्करी गोशालक के छह अभिजाति के सिद्धांत को पूरणकश्यप का बतलाया गया है । इस प्रकार बुद्ध, मस्करी गोशालक और पूरणकश्यप का श्रमण परम्परा के मूल स्रोत भगवान् पार्श्व या महावीर से सम्बन्ध था, इसका स्पष्ट उल्लेख मिलता है । संजय, अजितकेशकम्बल और पकुद्धकात्यायन के विषय में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती, फिर भी उनकी परम्परा सर्वथा मौलिक रही हो, ऐसा प्रतिभासित नहीं होता । व्रत ३३ श्रमण परम्परा में व्रत का बहुत महत्त्व रहा है। उसके आधार पर सभी मनुष्य तीन भागों में विभक्त किए गए हैं - बाल, पंडित और बालपंडित । जिसके कोई व्रत नहीं होता, वह 'बाल' कहलाता है । जो महाव्रतों को स्वीकार करता है, वह 'पंडित' कहलाता है और जो अणुव्रतों को १. History and Doctrines of the ājivikās, p. 97. २. अंगुत्तरनिकाय, भाग ३, पृ० ३८३ । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ संस्कृति के दो प्रवाह स्वीकार करता है अर्थात् व्रती भी होता है और अव्रती भी, वह 'बालपंडित' कहलाता है। भगवान् महावीर ने साधु के लिए पांच महाव्रत और रात्रिभोजनविरमणव्रत का विधान किया। पांच महाव्रत ये हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । श्रावक के लिए बारह व्रतों की व्यवस्था की।' उनमें पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत हैं--- १. स्थल प्राणातिपात-विरति । १. दिग्-व्रत। २. स्थूल मृषावाद-विरति । २. उपभोग-परिभोग परिमाण । ३. स्थूल अदत्तादान-विरति । ३. अनर्थदण्ड-विरति । ४. स्वदार-संतोष। ४. सामायिक। ५. इच्छा-परिमाण। ५. देशावकाशिक । ६. पौषध । ७. अतिथिसंविभाग। महात्मा बुद्ध ने भिक्षुओं के लिए दस शीलों और उपासकों के लिए पांच शीलों का विधान किया थादस शील' पांच शील' १. प्राणातिपात-विरति । १. प्राणातिपात-विरति । २. अदत्तादान-विरति । २. अदत्तादान-विरति। ३. अब्रह्मचर्य-विरति । ३. काम-मिथ्याचार-विरति। ४. मृषावाद-विरति । ४. मृषावाद-विरति । ५. सुरा-मद्य-मैरेय-विरति । ५. सुरा-मैरेय-प्रमाद-स्थान-विरति ६. अकाल-भोजन-विरति । ७. नृत्य-गीत-वादित्र-विरति । ८. माल्य-गंध-विलेपन-विरति । ६. उच्चासन-शपन-विरति । १०. जातरूप-रजत-प्रतिग्रह-विरति । आजीवक-उपासक बैलों को नपुंसक नहीं करते थे; उनकी नाक भी. १. सूत्रकृताङ्ग, २।२।७५ । २. उपासकदशा, १११२ । ३. बौद्धधर्मदर्शन, पृ० १९ । ४. वही, पृ० २४ । - Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ श्रमण परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु नहीं बधते थे; आजीविका के लिए त्रस जीवों का वध नहीं करते थे। उदुम्बर और बरगद के फल तथा प्याज-लहसुन और कन्द-मूल आदि नह खाते थे । ' इस प्रकार जैन, बौद्ध और आजीवक - इन तीनों में व्रतों की व्यवस्थ मिलती है । शेष श्रमण सम्प्रदायों में भी व्रतों की व्यवस्था होनी चाहिए जहां श्रामण्य या प्रव्रज्या की व्यवस्था है, वहां व्रतों की व्यवस्था न हो, ऐस सम्भव नहीं लगता । जैन धर्म और व्रत-परम्परा sro हर्मन जेकोबी ने ऐसी संभावना की है कि जैनों ने अपने व्रत ब्राह्मणों से उधार लिए हैं । ब्राह्मण संन्यासी मुख्यतया अहिंसा, सत्य अचौर्य, संतोष और मुक्तता - इन पांच व्रतों का पालन करते थे । डा० कोबी का अभिमत है कि जैन- महाव्रतों की व्यवस्था के आधार उक्त पांच व्रत बने हैं । यह संभावना केवल कल्पना पर आधारित है । इसका कोई वास्तविक आधार नहीं है । यदि हम व्रतों की परम्परा का ऐतिहासिक अध्ययन करें तो अहिंसा आदि व्रतों का मूल ब्राह्मण - परम्परा में नहीं पाएंगे । Mero जेकोबी ने बौधायन में उल्लिखित व्रतों के आधार पर यह संभावना की, किन्तु प्रश्न यह है कि उसमें व्रत कहां से आए ? इस प्रश्न पर विचार करने से पूर्व संन्यास आश्रम पर विचार करना आवश्यक है । क्योंकि व्रत और संन्यास का अविच्छिन्न सम्बन्ध है । वैदिक साहित्य में सर्वं प्राचीन ग्रन्थ वेद हैं । उनमें 'आश्रम' शब्द का उल्लेख नहीं है । ब्राह्मण और आरण्यक ग्रन्थों में भी आश्रमों की चर्चा नहीं है । उपनिषद् - काल में आश्रमों की चर्चा प्रारम्भ होती है। बृहदारण्यक में संन्यास को 'आत्म-जिज्ञासा के बाद होने वाली स्थिति' कहा है। वहां लिखा है'इस आत्मा को ब्राह्मण वेदों के स्वाध्याय, यज्ञ, दान और निष्काम-तप के द्वारा जानने की इच्छा करते हैं । इसी को जानकर मुनि होते हैं । इस आत्मलोक की ही इच्छा करते हुए त्यागी पुरुष सब कुछ त्याग कर चले जाते हैं, संन्यासी हो जाते हैं । इस संन्यास में कारण यह है- पूर्ववर्ती १. भगवती, ८।२४२ । २. The Sacred Books of the East, Vol. XXII, Introduction p. 24. "It therefore probable that the Jains have borrowed their own vows from the Brahmans, not from the Buddhists. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह विद्वान् सन्तान (तथा सकाम कर्म आदि) की इच्छा नहीं करते थे। (वे सोचते थे) हमें प्रजा से क्या लेना है, जिन हमको कि यह आत्मालोक अभीष्ट है। अतः वे पुत्रषणा, वित्तषणा और लोकेषणा से व्युत्थान कर फिर भिक्षाचर्या करते थे।" इस उद्धरण में पूर्ववर्ती विद्वान् सन्तान की इच्छा नहीं करते थे और लोकषणा से व्युत्थान कर फिर भिक्षाचर्या करते थे'-ये वाक्य निवर्तक परम्परा की ओर संकेत करते हैं। वैदिक परम्परा लोकषणा से विमुख नहीं रही है। उसमें पुत्रैषणा की प्रधानता रही है और यहां बताया है कि जो भी पुत्रैषणा है, वह वित्तषणा है और जो वित्तषणा है, वही लोकैषणा है।' __श्रमण परम्परा का मुख्य सूत्र है-'लोकषणा मत करो'--'नो लोगस्सेसणं चरे।" भृगु पुरोहित ने अपने पुत्रों से कहा---'पहले पुत्रों को उत्पन्न करो, फिर आरण्यक मुनि हो जाना।" उन्होंने उत्तर की भाषा में कहा-'पिता ! पुत्र त्राण नहीं होते, इसलिए उन्हें उत्पन्न करना अनिवार्य धर्म नहीं है । वैदिक धारणा ठीक इस धारणा के विपरीत है। तैत्तिरीय संहिता में कहा गया है-'जन्म प्राप्त करने वाला ब्राह्मण तीन ऋणों के साथ ही जन्म लेता है। वे तीन ऋण हैं-ऋषिऋण, देवऋण और पितृऋण । ऋषियों का ऋण ब्रह्मचर्य से, देवों का ऋण यज्ञ से तथा पितरों का ऋण प्रजोत्पादन से चुकाया जा सकता है। पूत्रवान, यजनशील तथा ब्रह्मचर्य को पूर्ण करने वाला मानव उऋण होता है। इसी प्रकार ऐतरेय ब्राह्मण में बताया है.--'इक्ष्वाकुवंश के वेधस राजा का पुत्र राजा हरिश्चंद्र निःसंतान था। उसके सौ पत्नियां थीं। परन्तु उसके कोई पुत्र न हुआ। उसके घर में पर्वत और नारद दो ऋषि रहते थे। उसने नारद से पूछा"सभी पुत्र की इच्छा करते हैं, ज्ञानी हो या अज्ञानी । हे नारद ! बताओ, पूत्र से क्या लाभ होता है ?' नारद ने इस एक प्रश्न का दस श्लोकों में उत्तर दिया। उनमें पहला १. बृहदारण्यक, ४।४।२२ । २. वही, ४।४।२२। ३. आयारो ४१७ ॥ ४. उत्तराध्ययन, १४।६। ५. वही, १४।१२। ६. तैत्तिरीय संहिता, ६।३।१०।५ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण परम्परा को एकसूत्रता और उसके हेतु श्लोक इस प्रकार है ऋणमस्मिन् सनयत्यमृतत्वं च गच्छति । पिता पुत्रस्य जातस्य पश्येच्वेज्जीवतोमुखम् ॥ -अगर पिता जीते हुए पुत्र का मुख देख ले तो उसका ऋण छूट जाता है और वह अमर हो जाता है।' उक्त उद्धरणों से यह स्पष्ट है कि श्रमण-परम्परा में संन्यास की प्रधानता रही है और वैदिक-परम्परा में पुत्र उत्पन्न करने की। उस स्थिति में इस उपनिषद् का यह वाक्य - तत्पूर्वे विद्वांसः प्रजां न कामयंते'---बहुत ही अर्थ-सूचक है। जैन दर्शन का संन्यास नितान्त आत्मवाद पर आधारित है। आचार की आराधना वही कर पाता है, जो आत्मवादी, - लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी होता है। आत्म-जिज्ञासा के बिना संन्यास का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। इस धारणा के आलोक में हम सहज ही यह देख पाते हैं कि आत्म-जिज्ञासा पर आधारित संन्यास (जिसका संकेत बृहदारण्यक उपनिषद् देता है) श्रमणों की दीर्घकालीन परम्परा है। भगवान् पार्श्व के समय श्रमण संघ बहुत सुसंगठित या। उपनिषद् का रचनाकाल उनसे पहले नहीं जाता। भगवान् पार्श्व का अस्तित्व-काल ई० पू० दसवीं शताब्दी है' और उपनिषदों का रचना-काल प्रायः ई० पूर्व १. ऐतरेय ब्राह्मण, ७ वीं पंचिका, अध्याय ३ । २. आचारांग, ११११११५ । ३. भगवान् महावीर का निर्वाण-काल ई० पू० ५२८ में हुआ था । भगवान् महावीर का जीवन-काल ७२ वर्ष था। (देखि ए---जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृ० २६) : भगवान् पार्श्व भगवान् महावीर से २५० वर्ष पहले हुए थे। पासजिणाओ य होइ वीरजिणो । अट्ठाइज्जसएहिं गएहिं चरिमो समुप्पन्नो ॥ उनका १०० वर्ष का जीवन-काल था। इस प्रकार भगवान् पार्श्व का अस्तित्वकाल ई० पू० दसवीं शताब्दी होता है। आचार्य गुणभद्र के अनुसार भगवान् पार्श्व के निर्वाण के २५० वर्ष बाद भगवान् महावीर का निर्वाण हुआ था----- पार्वेशतीर्थे सन्ताने, पंचाश द्विशताब्दके । तदभ्यन्तरवायुर्म हावीरोऽत्र जातवान् ।। -----महापुराण (उत्तरपुराण), पर्व ७४, पृ० ४६२ । अर्थात् श्री पार्श्वनाथ तीर्थङ्कर के बाद दो सौ पचास वर्ष बीत जाने पर श्री Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ संस्कृति के दो प्रवाह ८०० से ३०० के बीच का है। महावीर स्वामी उत्पन्न हुए थे, उनकी आयु (७२ वर्ष) भी इसी में शामिल है। आचार्य गुणभद्र के उक्त अभिमत से भगवान पार्श्व का अस्तित्व-काल ई० पू० नौवीं शताब्दी होता है। १. (क) History of the Sanskrit Literature, p. 226. आर्थर ए० मैकडॉनल के अभिमत में प्राचीनतम वर्ग बृहदारण्यक, छान्दोग्य, तैत्तिरीय, एतरेय और कौशीतकी उपनिषद् का रचना-काल ईसा पूर्व ६०० है। (ख) A. B. Kieth : the Religion and Philosophy of the Veda and Upanišads, P. 20. इसके अनुसार वैदिक-साहित्य का काल-मान इस प्रकार है-- १. उपनिषद् - ई० पू० ५ वीं शताब्दी। २. ब्राह्मण ---- ई० पू० ६ वीं शताब्दी। ३. बाद की संहिताएं --- ई० पू० ८-७ वीं शताब्दी। इन्होंने जैन तीर्थङ्कर पार्श्व का काल ईसा पूर्व ७४० निर्धारित किया है और प्राचीनतम उपनिषदों का काल पार्श्व के बाद माना है। (ग) एफ० मेक्समूलर-दी वेदाज, पृ० १४६-१४८ : इनकी मान्यता है कि उपनिषदों में प्रतिपादित वेदान्त दर्शन का काल मान ईसा पूर्व पांचवीं शताब्दी है । (घ) एच० सी० रायचौधरी-पोलिटिकल हिस्ट्री ऑफ एन्सियन्ट इण्डिया, पृ० ५२ : ये मानते हैं विदेह का महाराज जनक याज्ञवल्क्य के समकालीन थे। याज्ञवल्क्य बृहदारण्यक और छान्दोग्य उपनिषद् के मुख्य पात्र हैं। उनका कालमान ईसा पूर्व सातवीं शताब्दी है। वही, पृ० ६७-जैन तीर्थङ्कर पार्श्व का जन्म ईसा पूर्व ८७७ और निर्वाण-काल ईसा पूर्व ७७७ है। इससे भी यह सिद्ध होता है कि प्राचीनतम उपनिषद् पार्श्व के बाद के हैं। (घ) राधाकृष्णन-इण्डियन फिलोसफी, भाग १, पृ० १४२ : (१) इनकी मान्यता है कि ऐतरेय, कौशीतकी, तैत्तिरीय, छान्दोग्य और बृहदारण्यक—ये सभी उपनिषद् प्राचीनतम हैं। ये बुद्ध से पूर्व के हैं। इनका कालमान ईसा पूर्व दसवीं शताब्दी से तीसरी शताब्दी तक माना जा सकता है। (२) राधाकृष्णन-दी प्रिंसिपल उपनिषदाज, पृ० २२ : बुद्धपूर्व के प्राचीनतम उपनिषदों का कालमान ईसा पूर्व आठवीं शताब्दी से ईसा की तीसरी शताब्दी तक का है। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण परम्परा की एकसूत्रता और उनके हेतु ३६ इस स्थिति में यह मान लेना कोई कठिन बात नहीं कि संन्यास और व्रतों की व्यवस्था के लिए श्रमण धर्म वैदिक धर्म का ऋणी नहीं है । 1 वेद, ब्राह्मण और आरण्यक साहित्य में महाव्रतों का उल्लेख नहीं है । जिन उपनिषदों, पुराणों और स्मृतियों में उनका उल्लेख है, वे सभी ग्रन्थ भगवान् पार्श्व के उत्तरकालीन हैं । अतः पूर्वकालीन व्रत - व्यवस्था को उत्तरवर्ती व्रत-व्यवस्था ने प्रभावित किया - यह मानना स्वाभाविक नहीं है । भगवान् महावीर भगवान् पार्श्व के उत्तरवर्ती तीर्थंकर हैं । उन्होंने भगवान् पार्श्व के व्रतों का ही विकास किया था । उन्होंने इस विषय में किसी अन्य परम्परा का अनुसरण नहीं किया । उनके उत्तरकाल में महाव्रत इतने व्यापक हो गए कि उनका मूल स्रोत ढूंढना एक पहेली बन गया । इस दिशा में कभी-कभी प्रयत्न हुआ है। उनके अभिमत इस प्रकार हैंपार्श्वनाथ का धर्म महावीर के पंच महाव्रतों में परिणत हुआ है । वही धर्म बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग में और योग के यम-नियमों में प्रकट हुआ। गांधीजी के आश्रम धर्म में भी प्रधानतया चातुर्याम धर्म दृष्टिगोचर होता है ।' हिन्दुत्व और जैन धर्म आपस में घुलमिलकर अब इतने एकाकार हो गए हैं कि आज का साधारण हिन्दू यह जानता भी नहीं कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - ये जैन धर्म के उपदेश थे, हिम्दुत्व के नहीं ।" ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह महावत भगवान् पार्श्व के चातुर्याम धर्म में ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह जैसे शब्दों की व्यवस्था नहीं थी । उनकी व्यवस्था में बाह्य वस्तुओं की अनासत्ति का सूचक शब्द था 'बहिस्तात् - आदान- विरमण' । भगवान् महावीर ने इ‍ व्यवस्था में परिवर्तन किया और 'बहिस्तात् आदान -विरमण' को 'ब्रह्मचर्य और 'अपरिग्रह' इन दों शब्दों में विभक्त कर डाला । ब्रह्मचर्य शब्द वैदिव साहित्य में प्रचलित था । किन्तु भगवान् महावीर ने एक महाव्रत के रूप ब्रह्मचर्य का प्रयोग किया। उस रूप में वह वैदिक साहित्य में प्रयुक्त नह था। अपरिग्रह शब्द का भी महाव्रत के रूप में सर्व प्रथम भगवान् महावी ने ही प्रयोग किया था । जाबालोपनिषद् ( ५ ), नारदपरिव्राजकोपनिष ( ३.८.६ ), तेजोबिन्दूपनिषद् (१.३), याज्यवल्क्योपनिषद् (२.१) आरुणिकोपनिषद् ( ३ ), गीता ( ६.१०), योगसूत्र ( २.३० ) में अपरिग्रह १. पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म, भूमिका पृ० ६ । २. संस्कृति के चार अध्याय, पृ० १२५ । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० संस्कृति के दो प्रवाह शब्द मिलता है, किन्तु ये सभी ग्रंथ भगवान् महावीर के उत्तरवर्ती हैं। उनके पूर्ववर्ती किसी भी ग्रंथ में अपरिग्रह शब्द का एक महान् व्रत के रूप में प्रयोग नहीं हुआ है। जैन धर्म का बहुत बड़ा भाग व्रत और अवत की मीमांसा है। सम्भवतः अन्य किसी भी दर्शन में व्रतों की इतनी मीमांसा नहीं हुई। चौदह गुणस्थानों-विशुद्धि की भूमिकाओं में अव्रती चौथे, अणुव्रती पांचवें और महाव्रती छठे गुणस्थान का अधिकारी होता है। यह विकास किसी दीर्घकालीन परम्परा का है, तत्काल गृहीत परम्परा का नहीं। संन्यास और भामण्य ___ संन्यास श्रमण परम्परा का बहुत ही महत्त्वपूर्ण तत्त्व रहा है। अजितकेशकम्बल जैसे उच्छेदवादी श्रमण भी संन्यासी थे। वैदिक परम्परा में संन्यास की व्यवस्था उपनिषद्काल में मान्य हुई है। वैदिककाल में ब्रह्मचर्य और गहस्थ-ये दो ही व्यवस्था-क्रम थे। आरण्यक-काल में 'न्यास' (संन्यास) को मोक्ष का हेतु कहा गया है और वह सत्य, तप, दम, शम, दान, धर्म, पुत्रोत्पादन, अग्निहोत्र, यज्ञ और मानसिक उपासना-इन सबसे उत्कृष्ट बतलाया गया है। किन्तु वह किन लोगों द्वारा स्वीकृत था, इसका उल्लेख नहीं है। आश्रम-व्यवस्था का अस्पष्ट वर्णन छान्दोग्य उपनिषद् में मिलता है। वहां लिखा है-धर्म के तीन स्कन्ध (आधार-स्तम्भ) हैं-यज्ञ, अध्ययन और दान । यज्ञ पहला स्कन्ध है। तप दूसरा स्कन्ध है । आचार्य कुल में अपने शरीर को अत्यन्त क्षीण कर देना तीसरा स्कन्ध है। ये सभी पुण्यलोक के भागी होते हैं । ब्रह्म में सम्यक प्रकार से स्थित संन्यासी अमृतत्व को प्राप्त होता है।' - बृहदारण्यक में संन्यास का उल्लेख है ।' जाबालोपनिषद् में चार आश्रमों की स्पष्ट व्यवस्था प्राप्त होती है। वहां बताया है कि ब्रह्मचर्य को समाप्त कर गृहस्थ, उसके बाद वानप्रस्थ और उसके बाद प्रवजित होना चाहिए। यह समुच्चय पक्ष है। यदि वैराग्य उत्कट हो तो ब्रह्मचर्य, गृहस्थ या वानप्रस्थ किसी भी आश्रम से संन्यास स्वीकार किया जा सकता है। १. तैत्तिरीयारण्यक १, अनुवाक् ६२, पृ० ७६६ : न्यास इति ब्रह्मा ब्रह्मा हि परः परो हि ब्रह्मा तानि वा एतान्यवराणि तपांसि न्यास एवात्यरेचयत् इति । २. छान्दोग्योपनिषद्, २१२३।१ । ३. बृहदारण्यकोपनिषद्, ४।४।२२ । - Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण परम्परा को एकसूत्रता और उसके हेतु जिस समा वैराग्य उत्पन्न हो, उसी समय प्रवजित हो जाना चाहिए । यह विकल्प पक्ष है। ____ चार आश्रमों की व्यवस्था हो जाने पर भी धर्मशास्त्र और कल्पसूत्रकार गृहस्थाश्रम को ही महत्त्व देते रहे हैं। वशिष्ठ ने लिखा है'आश्रम चार हैं-ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और परिव्राजक । गृहस्थ ही यजन करता है, तप तपता है । इसलिए चारों आश्रमों में वही विशिष्ट है। जैसे सब नदी और नद समुद्र में आकर स्थित होते हैं, वैसे ही सभी आश्रमी गृहस्थ आश्रम में स्थित होते हैं।' वैदिक परंपरा के मूल में यह मान्यता स्थिर रही है कि वस्तुतः आश्रम एक ही है, वह है गहस्थाश्रम । बौधायन ने लिखा है-'प्रह्लाद के पूत्र कपिल ने देवों के प्रति स्पर्धा के कारण आश्रम-भेदों की व्यवस्था की है, इसलिए मनीषी वर्ग को उसका स्वीकार नहीं करना चाहिए।" _ इसी भूमिका के सन्दर्भ में ब्राह्मण वेषधारी इन्द्र ने नमि राजर्षि से कहा था-'राजर्षे ! गृहवास घोर आश्रम है। तुम इसे छोड़ दूसरे आश्रम में जाना चाहते हो, यह उचित नहीं। तुम यहीं रहो और यहीं धर्म-पोषक कार्य करो।' इसके उत्तर में नेमि राषि ने जो कहा वह श्रमण परंपरा का पक्ष है। उन्होंने कहा-'ब्राह्मण ! मास-मास का उपवास करने वाला और पारण में कुश की नोक पर टिके उतना स्वल्प आहार खाने वाला गृहस्थ मुनि-धर्म की सोलहवीं कला की तुलना में भी नहीं जाता। ___श्रमण परंपरा में जीवन के दो ही विकल्प मान्य रहे हैं-गृहस्थ १. जाबालोपनिषद्, ४। २. वाशिष्ठ धर्मशास्त्र, ७१।२ । ३. वही, ८।१४-१५ गृहस्थ एव यजते, गृहस्थस्तप्यते तपः चतुर्णामाश्रमाणां तु, गृहस्थश्च विशिष्यते । यथा नदी नदाः सर्वे, समुद्रे यान्ति संस्थितिम् । एवमाश्रमिणः सर्वे, गृहस्थे यान्ति संस्थितिम् ।। ४. बौधायन धर्मसूत्र, २।६।३० : प्रह्लादिहवै कपिलो नामासुर आस स ऐतान्भेदांश्चकार देवः सह स्पर्धमान स्तान् मनीषी नाद्रियेत । ५. उत्तराध्ययन, ६।४२-४४ । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह और श्रमण । श्रमण कोई गृहस्थ ही बनता है। अतः जीवन का प्रारम्भिक रूप गृहस्थ ही है । श्रामण्य विवेक द्वारा लक्ष्य-पूर्ति के लिए स्वीकृत पक्ष है। वाशिष्ठ का यह अभिमत-'सभी आश्रमी गहस्थ आश्रम में स्थित होते हैं'-यदि इस आशय पर आधारित हो कि सब आश्रमों का मूल गृहस्थाश्रम है तो वह श्रमण परंपरा में भी अमान्य नहीं है। वाशिष्ठ ने स्वयं आगे लिखा है--'जैसे माता के सहारे सब जीव जीते हैं, वैसे ही गृहस्थ के सहारे सब भिक्ष जीते हैं।" यह तथ्य उत्तराध्ययन में याचना परीषह के रूप में स्वीकृत है : 'अरे ! अनगार-भिक्षु की यह दैनिकचर्या कितनी कठिन है कि उसे सब कुछ याचना से मिलता है। उसके पास अयाचित कुछ भी नहीं होता.२ ___ किन्तु श्रमण परंपरा वैदिक परंपरा के इस अभिमत से सहमत नहीं कि गहस्थ आश्रम संन्यास की तुलना में श्रेष्ठ है । इसीलिए कहा है--- . 'गोचराग्र में प्रविष्ट मुनि के लिए गृहस्थों के सामने हाथ पसारना सरल नहीं है । अतः गृहवास ही श्रेय है-मुनि ऐसा चिन्तन न करे।" जैन धर्म की मूल मान्यता यह है कि अव्रत प्रेय है-बन्धन है और व्रत श्रेय है-मुक्ति है । सुव्रती मनुष्य स्वर्ग को प्राप्त होता है, भले फिर वह भिक्षु हो या गृहस्थ ।' . 'श्रद्धालु श्रावक गृहस्थ-सामायिक के अंगों का आचरण करे। दोनों पक्षों में किए जाने वाले पौषध को एक दिन-रात के लिए भी न छोड़े। ___ 'इस प्रकार शिक्षा से समापन्न सुव्रती मनुष्य गृहवास में रहता हुआ भी औदारिक शरीर से मुक्त होकर देवलोक में जाता है। 'जो संवत भिक्षु होता है, वह दोनों में से एक होता है--सब दुःखों से मुक्त या महान ऋद्धि वाला देव । इन श्लोकों की स्पष्ट ध्वनि है कि सुव्रती गृहस्थ व व्रत-संपन्न भिक्षु की श्रेष्ठ गति होती है। जब तक व्रत का पूर्ण उत्कर्ष नहीं होता, तब तक १. वाशिष्ठ धर्मशास्त्र, ८।१६ : यथा मातरमाश्रित्य, सर्वे जीवन्ति जन्तवः । ऐवं गृहस्थमाश्रित्य, सर्वे जीवन्ति भिक्षुकाः ।। २. उत्तराध्ययन, २०२८ । ३. उत्तराध्ययन, २।२६ । ४. वही, ५२२ । ५. बही, ५२२३-२५। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण परम्परा को एकसूत्रता और उसके हेतु ४३ वह मरने के बाद स्वर्ग में जाता है और जब व्रत का पूर्ण उत्कर्ष हो जाता है, तब मृत्यु के बाद मोक्ष प्राप्त होता है । भिक्षु की श्रेष्ठता जन्मना तो है ही नहीं, किन्तु वेग से भी नहीं है। उसकी श्रेष्ठता का एक मात्र हेतु व्रत या संयम है। इसी दृष्टि से कहा है कुछ भिक्षुओं से गृहस्थों का संयम प्रधान होता है, किन्तु साधुओं का संयम सब गृहस्थों से प्रधान होता है । 'चीवर, चर्म, नग्नत्व, जटाधारीपन, संघाटी (उत्तरीय वस्त्र) और सिर मुंडाना-ये सब दुष्टशील वाले साध की रक्षा नहीं करते। 'भिक्षा से जीवन चलाने वाला भी यदि दुःशील हो तो वह नरक से नहीं छूटता।" भिक्षु का अर्थ ही व्रती है। अपूर्ण व्रती या व्रत की परिपूर्ण आराधना तक न पहुंचने वाले को स्वर्ग ही प्राप्त होता है, मोक्ष नहीं। मोक्ष उसी को प्राप्त होता है, जो व्रत की चरम आराधना तक पहुंच जाता है। ऐसा गृहस्थ के वेश में भी हो सकता है। वेश भले ही गृहस्थ का हो, आत्मिक-शुद्धि से जो इस स्थिति तक पहुंच जाता है, वह वास्तविक अर्थ में भिक्षु ही होता है। इसीलिए 'सब दुःखों से मुक्त या महान् ऋद्धि वाला देव'-ये दो विकल्प केवल भिक्षु के लिए ही हैं। गृहस्थ वही होता है, जो महाव्रत या उसके उत्कर्ष तक नहीं पहुंच पाता। श्रमण-परम्परा में श्रमण होने से पूर्व गृहवास करना आवश्यक नहीं माना गया। कोई व्यक्ति बाल्य अवस्था में भी 'श्रमण' हो सकता है, यौवन या बुढ़ापे में भी हो सकता है।' भृगु पुरोहित ने अपने पुत्रो से कहा---'पुत्रो ! पहले हम सब एक साथ रह कर सम्यक्त्व और व्रतों का पालन करें, फिर तुम्हारा यौवन बीत जाने के बाद घर-घर से भिक्षा लेते हुए विहार करेंगे।" ___ तब पुत्र बोले-पिता ! कल की इच्छा वही कर सकता है, जिसके मृत्यु के साथ मैत्री हो, जो मौत के मुंह से बच कर पलायन कर सके और जो जानता हो-मैं नहीं मरूंगा।" - बौद्ध संघ में भिक्षु-जीवन की दो अवस्थाएं मान्य हैं--श्रामणे १. उत्तराध्ययन, ५।२०-२२ । २. नंदी, सूत्र २१ । ३. स्थानांग, ३११७५॥ ४. उत्तराध्ययन, १४।२६ । ५. वही, १४।२७। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह अवस्था तथा उपसम्पन्न अवस्था । श्रामणेर अवस्था में केवल दस नियमों का पालन करना पड़ता है । उपसम्पन्न भिक्षु को प्रातिमोक्ष के अन्तर्गत दो सौ सत्ताईस नियमों का पालन करना पड़ता है । बीस वर्ष की आयु के बाद ही कोई उपसम्पन्न हो सकता है ।' इस प्रकार की मीमांसा का सारभाग यह है १. श्रमण परम्परा में गृहस्थ जीवन की अपेक्षा श्रमण जीवन श्रेष्ठ माना गया । ४४ २. श्रमण होने के नाते तीन अवस्थाएं योग्य मानी गईं । ३. श्रमण जीवन से ही मोक्ष की प्राप्ति मानी गई । ४,५. यज्ञ-प्रतिरोध ओर वेद का अप्रामाण्य हमारे सांस्कृतिक अध्ययन की यह सहज उपलब्धि है कि वैदिक संस्कृति का केन्द्र यज्ञ और श्रमण संस्कृति का केन्द्र श्रामण्य रहा है । वैदिक धारणा है-यज्ञ की उत्पत्ति का मूल है - विश्व का आधार । पापों का नाश, शत्रुओं का संहार, विपत्तियों का निवारण, राक्षसों का विध्वंस, व्याधियों का परिहार सब यज्ञ से ही सम्पन्न होता है । दीर्घायु, समृद्धि और अमरत्व - सबका साधन यज्ञ ही माना गया है । वास्तव में वैदिकों के जीवन का सम्पूर्ण दर्शन यज्ञ में सुरक्षित है। यज्ञ के इस तत्त्व का स्वरूप ॠग्देव में यों व्यक्त हुआ है-यज्ञ इस भुवन की, उत्पन्न होने वाले संसार की नाभि है, उत्पत्ति प्रधान है । देव तथा ऋषि यज्ञ से ही उत्पन्न हुए; यज्ञ से ही ग्राम और अरण्य के पशुओं की भेड़ें, वेद आदि का निर्माण भी यज्ञ के ही प्रथम धर्म था । सृष्टि हुई; अश्व, गाएं, अज, कारण हुआ । यज्ञ ही देवों का आर्यपूर्व जातियों (जो श्रमण परंपरा का अनुगमन करती थीं) का प्रथम धर्म था अहिंसा । इसीलिए वे यज्ञ-संस्था से कभी प्रभावित नहीं हुईं। जैन और बौद्ध साहित्य में यज्ञ के प्रति जो अनादर का भाव मिलता है, वह उनकी चिरकालीन यज्ञ विरोधी धारणा का परिणाम है । ब्राह्मण वेषधारी इन्द्र ने नमि राजर्षि से कहा - 'राजर्षे ! पहले तुम विपुल यज्ञ करो, फिर श्रमण बन जाना । इस पर राजर्षि ने कहा- 'जो मनुष्य प्रतिमास दस लाख गाएं देता है, उसके लिए भी संयम श्रेय है, भले फिर वह १. सुत्तनिपात, पृ० २४४ । २. वैदिक संस्कृति का विकास, पृ० ४० । ३. उत्तराध्ययन, ६३८ । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु ४५ कुछ भी न दे। यज्ञ-संस्था का प्रतिरोध प्रारंभ से ही होता रहा है। अग्नि-हीन व्यक्तियों का उल्लेख ऋग्देव में मिलता है। उन्हें देव-विरोधी और यज्ञविरोधी भी कहा गया है। यतिवर्ग यज्ञ-विरोधी था। इन्द्र ने उसे सालावकों को समर्पित किया था। इस प्रकार के और भी अनेक वर्ग थे । उन्होंने वैदिक धारा को प्रभावित किया था। लक्ष्मणशास्त्री के अनुसार-'इस अवैदिक और यज्ञ को न मानने वाली प्रवृत्ति ने वैदिक विचार पद्धति को भी प्रभावित किया। बाह्य कर्मकाण्ड के बदले मानसिक कर्मरूप उपासना को प्रधानता देने वाली विचारधारा यजुर्वेद में प्रकट हुई है। उसमें कहा गया है कि जिस तरह अश्वमेध के बल पर पाप और ब्रह्महत्या से मुक्त होना संभव है उसी तरह अश्वमेध की चिन्तात्मक उपासना के बल पर भी इन्हीं दोषों से मुक्त होना संभव है (तैत्तिरीय संहिता ५/३/१२)। इस तरह की शुद्ध मानसिक उपासना का विधान करने वाले अनेकों वैदिक उल्लेख प्राप्त हैं।' यज्ञ-संस्थान का प्रतिरोध श्रमण ही नहीं कर रहे थे किन्तु उनसे प्रभावित आरण्यक और औपनिषदिक ऋषि भी करने लगे थे। प्रतिरोध की थोड़ी रेखाएं ब्राह्मण-काल में भी खिच चुकी थीं। शतपथ ब्राह्मणकार ने कहा- 'जिस स्थान पर कामनाएं पूर्ण होती हैं, वहां पहुंचना विद्या की सहायता से ही संभव है। वहां न दक्षिणा पहुंच पाती है और न विद्याहीन तपस्वी ।" ऋषि कावषेय कहते है-'हम वेदों का अध्ययन किसलिए करें और यज्ञ भी किसलिए करें ? क्योंकि वाणी का उपरम होने पर प्राणवृत्ति का विलय होता है और प्राण का उपरम होने पर वाणी की वत्ति का उदभव होता है, प्राण की प्रवृत्ति होने पर वाणी की वृत्ति विलीन हो जाती है। १. उत्तराध्ययन, ६।४० । २. ताण्ड्य महाब्राह्मण, १३।४ : इन्द्रो यतीन् सालावृकेभ्यः प्रायच्छत् । ३. वैदिक संस्कृति का विकास, पृ० १६६ । ४. शतपथ ब्राह्मण, १०१५।४।१६ । ५. ऐतरेय आरण्यक, ३।२।६, पृ० २६६ : एतद्ध स्म वै तदविद्वांस आहु ऋषयः कावषेयाः किमर्था वयमध्येण्यामहे किमर्था वयं यज्ञयामहे वाचि हि प्राणं जुहुमः प्राणे वा वाचं यो ह्य व प्रभवः स एवाप्ययः इति । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह उपनिषद्कार ने कहा - 'यज्ञ के अट्ठारह ( सोलह ऋत्विक्, यजमान और पत्नी) साधन, जो ज्ञान रहित कर्म के आश्रय होते हैं, विनाशी और अस्थिर हैं । जो मूढ 'यही श्रेय है' इस प्रकार इनका अभिनन्दन करते हैं, वे बार- बार जरा-मरण को प्राप्त होते रहते हैं ।" इस विचारधारा के उपरान्त भी यज्ञ-संस्था निर्वीर्य नहीं हुई थी । भगवान् महावीर के काल में भी उसका प्रवाह चालू था । उत्तराध्ययन के चार अध्ययनों (६, १२, १४,२५) में उसकी चर्चा हुई है । भृगुपुत्रों ने जो कहा, वह लगभग वही है जो ऋषि कावषेय ने कहा था । भृगु ने कहा - 'पुत्रो ! पहले वेदों का अध्ययन करो, फिर आरण्यक मुनि हो जाना तब वे बोले-'पिता ! वेद पढ़ लेने पर भी वे त्राण नहीं होते ।" इस उत्तर के पीछे जो भावना है, उसका सम्बन्ध कामना और यज्ञ से है । वेद कामना पूर्ति और यज्ञों के प्रतिपादक हैं, इसीलिए वे त्राण नहीं हैं । इस अत्राणता का विशद वर्णन प्रजापति मनु और वृहस्पति के संवाद में मिलता है । मनु ने कहा- 'वेद में जो कर्मों के प्रयोग बताए गए हैं, वे प्राय: सकामभाव से युक्त हैं । जो इन कामनाओं से मुक्त होता है, वही परमात्मा को पा सकता है। नाना प्रकार के कर्म-मार्ग में सुख की इच्छा रख कर प्रवृत्त होने वाला मनुष्य परमात्मा को प्राप्त नहीं होता ।" । उत्तराध्ययन से यह भी पता चलता है कि उस समय निर्ग्रन्थ श्रमण यज्ञ के बाडों में भिक्षा के लिए जाते थे और यज्ञ की व्यर्थता और आत्मिकयज्ञ की सफलता का प्रतिपादन करते थे । ' ४६ महात्मा बुद्ध ने भी अल्प सामग्री के महान् यज्ञ का प्रतिपादन किया था और वे भिक्षु संघ के साथ भोजन के लिए यज्ञ-मण्डल में भी गए थे । कूटदंत ब्राह्मण के प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने पांच महाफलदायी यज्ञों का उल्लेख किया था - १. दानयज्ञ, २. त्रिशरणयज्ञ, ३. शिक्षापदयज्ञ, ४. शीलयज्ञ और ५. समाधियज्ञ । ' १२ सांख्य दर्शन को अवैदिक परम्परा या श्रमण परम्परा की श्रेणी में मानने का यह एक बहुत बड़ा आधार है कि वह यज्ञ का प्रतिरोधी था । यज्ञ का प्रतिरोधक वैदिकमार्ग नहीं हो सकता । अतः उपनिषद् की धारा में जो यज्ञ-प्रतिरोध हुआ, उसे अवैदिक परम्परा के विचारों की परिणति १. मुण्डकोपनिषद्, १२७ । २. उत्तराध्ययन, १४।६ | ३. वही, १४।१२ । ४. महाभारत, शान्तिपर्व २०१।१२ । ५. उत्तराध्ययन, १२।३८-४४; २५।५-१६ । ६. दीघनिकाय, ११५, पृ० ५३-५५ । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु कहना अधिक संगत है। ६. जाति की अतात्त्विकता वैदिक लोग जाति को तात्त्विक मानते थे। ऋग्वेद के अनुसार ब्राह्मण प्रजापति के मुख से उत्पन्न हुआ, राजन्य उसकी बाह से उत्पन्न हुआ, वैश्य उसके उरु से उत्पन्न हआ और शूद्र उसके पैरों से उत्पन्न हुआ। श्रमण परम्परा जाति को अतात्त्विक मानती थी। ब्राह्मण जन्मना जाति के समर्थक थे। उस स्थिति में श्रमण इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करते कि जाति कर्मणा होती है। महात्मा बुद्ध मनुष्य जाति की एकता का प्रतिपादन बहुत प्रभावशाली पद्धति से करते थे। वासेट्ठ और भारद्वाज के विवाद का परिसमापन करते हुए उन्होंने कहा 'मैं क्रमशः यथार्थ रूप से प्राणियों के जाति-भेद को बताता हूं, जिससे भिन्न-भिन्न जातियां होती हैं। तृण वृक्षों को जानो, यद्यपि वे इस बात का दावा नहीं करते, फिर भी उनमें जातिमय लक्षण हैं, जिससे भिन्न-भिन्न जातियां होती हैं। कीटों, पतंगों और चींटियों तक में जातिमय लक्षण हैं, जिससे उनमें भिन्न-भिन्न जातियां होती हैं। छोटे, बड़े जानवरों को भी जानो, उनमें भी जातिमय लक्षण हैं (जिससे) भिन्न-भिन्न जातियां होती हैं। फिर पानी में रहने वाली जलचर मछलियों को भी जानो, उनमें भी जातिमय लक्षण हैं, (जिनसे) भिन्न-भिन्न जातियां होती हैं। आकाश में पंखों द्वारा उड़ने वाले पक्षियों को भी जानो, उनमें भी जातिमय लक्षण हैं, (जिससे) भिन्न-भिन्न जातियां होती हैं। जिस प्रकार इन जातियों में भिन्न-भिन्न जातिमय लक्षण हैं, उस प्रकार मनुष्यों में भिन्न-भिन्न जातिमय लक्षण नहीं हैं। दूसरी जातियों की तरह न तो मनुष्यों के केशों में, न शिर में, न कानों में, न आंखों में, न नाक में, न ओठों में, न भौंहों में, न गले में, न अंगों में, न पेट में, न पीठ में, न पादों में, न अंगुलियों में, न नखों में, न जंघों में, न उरुओं में, न श्रेणि में, न उर में, न योनि में, न मैथुन में, न हाथों में, न वर्ण में और न स्वर में जातिमय लक्षण हैं। (प्राणियों की) भिन्नता शरीरों में है, मनुष्य में वैसा नहीं है। मनुष्यों में भिन्नता नाम मात्र की है। १. ऋग्वेद, मं० १०, अ० ७, सू० ६१, मं० १२ । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह वासेट्ठ ! मनुष्यों में जो कोई गौ-रक्षा से जीविका करता है, उसे कृषक जानो न कि ब्राह्मण । वासेठ ! मनुष्यों में जो कोई नाना शिल्पों से जीविका करता है, उसे शिल्पी जानो न कि ब्राह्मण । ४८ वासेठ ! मनुष्यों में जो कोई व्यापार से जीविका करता है, उसे बनिया जानो न कि ब्राह्मण । वासेट्ठ ! मनुष्यों में जो कोई धनुविद्या से जीविका करता है, उसे योद्धा जानो न कि ब्राह्मण । वाट्ठ ! ममुष्यों में जो कोई चोरी से जीविका करता है, उसे चोर जानो न कि ब्राह्मण । वाट्ठ ! मनुष्यों में जो कोई पुरोहिताई से जीविका करता है, उसे पुरोहित जानो न कि ब्राह्मण । वासेट्ठ ! मनुष्यों में जो कोई ग्राम या राष्ट्र का उपभोग करता है, उसे राजा जानो न कि ब्राह्मण । ब्राह्मणी माता की योनि से उत्पन्न होने से ही मैं (किसी को) ब्राह्मण नहीं कहता । जो सम्पत्तिशाली है ( वह) धनी कहलाता है, जो. अकिंचन है, तृष्णा रहित है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं । जो रस्सी रूपी क्रोध को, प्रग्रह रूपी तृष्णा को, मुंह पर के जाल रूपी मिथ्या धारणाओं को और जुआ रूपी अविद्या को तोड़ कर बुद्ध हुआ है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ । जो कटुवचन, वध और बन्धन को बिना द्वेष के सह लेता है, क्षमाशील -क्षमा ही जिसकी सेना और बल है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं । पानी में लिप्त न होने वाले कमल की तरह और आरे की नोक पर न टिकने वाले सरसों के दाने की तरह जो विषयों में लिप्त नहीं होता, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं । जो गृहस्थ, प्रब्रजित दोनों से अलग है, जो बेघर हो विहरण करता है, जिसकी आवश्यकताएं थोड़ी हैं, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं । जो स्थावर और जंगम सब प्राणियों के प्रति दण्ड का त्याग कर न तो स्वयं उनका वध करता है और न दूसरों से (वध) कराता है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं । जो विरोधियों में अविरोध रहता है, हिंसकों में शान्त रहता है और आसक्तों में अनासक्त रहता है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु आरे की नोक पर न टिकने वाले सरसों के दाने की तरह जिसके राग, द्वेष, अभिमान आदि छूट गए हैं, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं। जो अकर्कश, ज्ञानकारी-सत्य बात बोलता है, जिससे किसी को चोट नहीं पहुंचती, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं। जो संसार में लम्बी या छोटी, पतली या मोटी, अच्छी या बुरी किसी चीज की चोरी नहीं करता, उसे मैं ब्राह्मण कहता हैं। जिसे इस लोक या परलोक के विषय में कृष्णा नहीं रहती, जो तृष्णा-रहित, आसक्ति-रहित है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं। जो आसक्ति-रहित है, ज्ञान के कारण संशय-रहित हो गया है और अमृत (निर्वाण) को प्राप्त है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं। . जो दोनों-पुण्य और पाप की आसक्तियों से परे है, शोक-रहित, रज-रहित है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं। _ जो इस संकटमय, दुर्गम संसार रूपी मोह से परे हो गया है, जो उसे तैर कर पार कर गया है, जो ध्यानी है, पाप-रहित है, संशय-रहित है, तृष्णा-रहित हो शान्त हो गया है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं। . जो विषयों को त्याग बेघर हो प्रवृजित हुआ है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं। जो तृष्णा को त्याग बेघर हो प्रवजित हुआ है, जो तृष्णा-क्षीण है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं। जो रति और अरति को त्याग, शान्त और बन्धन-रहित हो गया है, जो सारे संसार का विजेता और वीर है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं। जिसने सर्व प्रकार से प्राणियों की मृत्यु और जन्म को जान लिया है, जो अनासक्त है, सुगत है और बुद्ध है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं। जिसकी गति को देवता, गन्धर्व और मनुष्य नहीं जानते, जो वासना-क्षीण और अर्हन्त है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं। जिसको भूत, वर्तमान या भविष्य में किसी प्रकार की आसक्ति नहीं रहती, जो परिग्रह और आसक्ति-रहित है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं। 'जो श्रेष्ठ, उत्तम, वीर, महर्षि, विजेता, स्थिर, स्नातक और बुद्ध है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं। "जिसने पूर्व जन्म के विषय में जान लिया है, जो स्वर्ग और नरक दोनों को देखता है और जो जन्म-क्षय को प्राप्त है, उसे मैं ब्राह्मण कहता __ संसार के नाम-गोत्र कल्पित हैं और व्यवहार मात्र हैं। एक-एक के Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० संस्कृति के दो प्रवाह लिए कल्पित ये नाम-गोत्र व्यवहार से चले आए हैं। मिथ्याधारणा वाले अज्ञों (के मन) में ये (नाम) घर कर गए हैं। (इसीलिए) अज्ञ लोग हमें कहते हैं कि ब्राह्मण जन्म से होता है। न (कोई) जन्म से ब्राह्मण होता है और न जन्म से अब्राह्मण । ब्राह्मण कर्म से होता है और अब्राह्मण भी कर्म से। कृषक कर्म से होता है, शिल्पी भी कर्म से होता है, वणिक् कर्म से होता है (और) सेवक भी कर्म से । चोर भी कर्म से होता है, योद्धा भी कर्म से होता है, याजक भी कर्म से होता है (और) राजा भी कर्म से होता है। उत्तराध्ययन में हरिकेशबल और जयघोष के जो ये दो प्रसंग हैं वे भगवान् महावीर के जातिवाद सम्वन्धी दृष्टिकोण पर पूरा प्रकाश डालते हैं। हरिकेशबल जन्मना चाण्डाल जाति के थे और जयघोष जन्मना ब्राह्मण थे। वे दोनों यज्ञ-मण्डप में गए और उन्होंने जातिवाद की बहुत स्पष्ट आलोचना की। वे दोनों प्रसंग वाराणसी में ही घटित हुए। (१) हरिकेशबल को यज्ञ-मण्डप में आते देख जातिमद से मत्त, हिंसक, अजितेन्द्रिय, अब्रह्मचारी और अज्ञानी ब्राह्मणों ने परस्पर इस प्रकार कहा-'बीभत्स रूप वाला, काला, विकराल और बड़ी नाक वाला, अधनंगा, पांशु-पिशाच (चुडैल)-सा, गले में शंकरदूष्य (उकुरडी से उठाया हुआ चिथड़ा) डाले हुए वह कौन आ रहा है ?' 'ओ अदर्शनीय मूर्ति ! तुम कौन हो? किस आशा से यहां आए हो ? अधनंगे तुम पांशु-पिशाच (चुडैल) से लग रहे हो । जाओ, आंखों से परे चले जाओ। यहां क्यों खड़े हो?' ___ उस समय महामुनि हरिकेशबल की अनुकम्पा करने वाला तिंदुक वृक्षवासी यक्ष अपने शरीर का गोपन कर, मुनि के शरीर में प्रवेश कर, इस प्रकार बोला-'आपके यहां पर बहुत-सा भोजन दिया जा रहा है, खाया जा रहा है और भोगा जा रहा है। मैं भिक्षाजीवी हूं, यह आपको ज्ञात होना चाहिए। अच्छा ही है, कुछ बचा भोजन इस तपस्वी को मिल जाए।' . (सोमदेव)-'यहां जो ब्राह्मणों के लिए भोजन बना है, वह केवल उन्हीं के लिए बना है । वह एक-पाक्षिक है-अब्राह्मण को अदेय है। ऐसा अन्न-पान हम तुम्हें नहीं देंगे, फिर यहां क्यों खडे हो ?' १. सुत्तनिपात, वासेट्ठसुत्त । - Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु ५१ ( यक्ष ) - ' अच्छी उपज की आशा से किसान जैसे स्थल ( ऊंची भूमि) में बीज बोते हैं, वैसे ही नीची भूमि में बीज बोते हैं । इसी श्रद्धा से ( अपने आपको निम्न भूमि और मुझे स्थल तुल्य मानते हुए भी तुम ) मुझे दान दो । पुण्य की आराधना करो। यह क्षेत्र है, बीज खाली नहीं जाएगा ।' ( सोमदेव ) -- ' जहां बोए हुए सारे के सारे बीज उग जाते हैं, वे क्षेत्र इस लोक में हमें ज्ञात हैं। जो ब्राह्मण जाति और विद्या से युक्त हैं, वे ही पुण्य-क्षेत्र हैं ।' ( यक्ष ) - ' जिनके क्रोध है, मान है, हिंसा है, झूठ है, चोरी है और परिग्रह है - वे ब्राह्मण जाति-विहीन, विद्या - हीन और पाप-क्षेत्र हैं । 'हे ब्राह्मणो ! इस संसार में केवल तुम वाणी का भार ढो रहे हो । वेदों को पढ़ कर भी उनका अर्थ नहीं जानते । जो मुनि उच्च और नीच घरों में भिक्षा के लिए जाते हैं, वे ही पुण्य-क्षेत्र हैं ।' ( सोमदेव ) - 'ओ ! अध्यापकों के प्रतिकूल बोलने वाले साधु ! हमारे समक्ष तू क्या अधिक बोल रहा है ? हे निर्ग्रन्थ ! यह अन्न-पान भले ही सड़ कर नष्ट हो जाए, किन्तु तुझे नहीं देंगे ।' ( यक्ष ) - 'मैं समितियों से समाहित, गुप्तियों से गुप्त और जितेन्द्रिय हूं। यह एषणीय ( विशुद्ध) आहार यदि तुम मुझे नहीं दोगे, तो इन यज्ञों का आज तुम्हें क्या लाभ होगा ?' ( सोमदेव ) - ' यहां कौन है क्षत्रिय, रसोइया, अध्यापक या छात्र, जो डण्डे और फल से पीट कर गल- हत्था देकर इस निर्ग्रन्थ को यहां से बाहर निकाले ।' अध्यापकों के विचार सुन कर बहुत कुमार उधर दौड़े और डण्डों, बेंतों और चाबुकों से उस ऋषि को पीटने लगे । कोशल के राजा की भद्रा नामक सुन्दर पुत्री यज्ञ मण्डप में मुनि को प्रताड़ित हुए देख क्रुद्ध कुमारों को शान्त करने लगी । उसने कहा'राजाओं और इन्द्रों से पूजित यह वह ऋषि है जिसने मेरा त्याग किया । देवता के अभियोग से प्रेरित होकर राजा द्वारा मैं दी गई, किन्तु जिसने मुझे मन से भी नहीं चाहा । यह वही उग्र तपस्वी, महात्मा, जितेन्द्रिय, संयमी और ब्रह्मचारी है, जिसने मुझे मेरे पिता राजा कौशलिक द्वारा दिये जाने पर भी नहीं चाहा । 'यह महान् यशस्वी है । महान् अनुभाग (अचित्य - शक्ति) से सम्पन्न Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ . संस्कृति के दो प्रवाह है। घोरखती है, घोरपराक्रमी है। इसकी अवहेलना मत करो, यह अवहेलनीय नहीं है । कहीं यह अपने तेज से तुम्हें भस्मसात् न कर डाले।' . - सोमदेव पुरोहित की पत्नी भद्रा के सुभाषित वचनों को सुन कर यक्षों ने ऋषि का वैयावृत्त्य (परिचर्या) करने के लिए कुमारों को भूमि पर गिरा दिया। वे घोर रूप वाले यक्ष आकाश में स्थिर होकर उन छात्रों को मारने लगे। उनके शरीर को क्षत-विक्षत और उन्हें रुधिर का वमन करते देख भद्रा फिर कहने लगी_ 'जो इस भिक्षु का अपमान कर रहे हैं, वे नखों से पर्वत को खोद रहे हैं, दांतों से लोहे को चबा रहे हैं, पैरों से अग्नि को प्रताडित कर रहे हैं। - 'यह महर्षि आशीविष-लब्धि से सम्पन्न है। उग्र तपस्वी है। घोरपराक्रमी है। भिक्षा के समय जो भिक्ष का वध कर रहे हैं, वे पतंग-सेना की भांति अग्नि में झंपापात कर रहे हैं । _ 'यदि तुम जीवन और धन चाहते हो तो सब मिल कर, सिर झुका कर इस मुनि की शरण में आओ। कुपित होने पर यह समूचे संसार को भस्म कर सकता है।' . उन छात्रों के सिर पीठ की ओर झुक गए। भुजाएं फैल गई। वे निष्क्रिय हो गए। उनकी आंखें खुली की खुली रह गईं। उनके मुंह से रुधिर निकलने लगा। उनके मुंह ऊपर को हो गए । उनकी जीभे और नेत्र बाहिर निकल आए। उन छात्रों को काठ की तरह निश्चेष्ट देख कर वह सोमदेव ब्राह्मण उदास और घबराया हुआ अपनी पत्नी-सहित मुनि के पास आ उन्हें प्रसन्न करने लगा 'भन्ते ! हमने जो अवहेलना और निन्दा की उसे क्षमा करें। 'भन्ते ! मूढ़ बालकों ने अज्ञानवश जो आपकी अवहेलना की, उसे आप क्षमा करे । ऋषि महान् प्रसन्नचित्त होते हैं। मुनि कोप नहीं किया करते।' मुनि ने कहा-'मेरे मन मे प्रद्वेष न पहले था, न अभी है और न आगे भी होगा। किन्तु यक्ष मेरा वैयावृत्त्य कर रहे हैं । इसीलिए ये कुमार प्रताडित हुए।' .. (सोमदेव)-'अर्थ और धर्म को जानने वाले भूतिप्रज्ञ (मंगलप्रज्ञा युक्त) आप कोप नहीं करते। इसलिए हम सब मिल कर आपके चरणों की शरण ले रहे हैं। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु 'महाभाग ! हम आपकी अर्चा करते हैं । आपका कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसकी हम अर्चा न करें। आप नाना व्यंजनों से युक्त चावल-निष्पन्न भोजन लेकर खाइए। _ 'मेरे यहां यह प्रचुर भोजन पड़ा है। हमें अनुगृहीत करने के लिए आप कुछ खाएं। महात्मा हरिकेशबल ने हां भर ली और एक मास की तपस्या का पारण करने के लिए भक्त-पान लिया। देवों ने वहां सुगन्धित जल, पुष्प और दिव्य-धन की वर्षा की। आकाश से दुंदुभि बजाई और 'अहो दानं' (आश्चर्यकारी दान)-इस प्रकार का घोष किया। यह प्रत्यक्ष ही तप की महिमा दीख रही है, जाति की कोई महिमा नहीं है। जिसकी ऋद्धि ऐसी महान् (अचिन्त्य शक्ति-सम्पन्न) है, वह हरिकेश मुनि चाण्डाल का पुत्र है।' (२) निर्ग्रन्थ जयघोष अपने भाई विजयघोष के यज्ञ-मण्डप में गए। यज्ञ-कर्ता ने वहां उपस्थित हुए मुनि को निषेध की भाषा में कहा'भिक्षो! तुम्हें भिक्षा नहीं दूंगा, और कहीं याचना करो। हे भिक्षो! यह सबके लिए अभिलषित भोजन उन्हीं को देना है, जो वेदों को जानने वाले विप्र हैं, यज्ञ के लिए जो द्विज हैं, जो वेद के ज्योतिष आदि छहों अंगों को जानने वाले हैं, जो धर्मशास्त्रों के पारगामी हैं, जो अपना और पराया उद्धार करने में समर्थ हैं।' वह उत्तम अर्थ को गवेषणा करने वाला महामुनि वहां यज्ञ-कर्ता के द्वारा प्रतिषेध किए जाने पर न रुष्ट ही हुआ और न तुष्ट ही। न अन्न के लिए, न जल के लिए और न किसी जीवन-निर्वाह के साधन के लिए किन्तु उनकी विमुक्ति के लिए मुनि ने इस प्रकार कहा 'तू वेद के मुख को नहीं जानता है। यज्ञ का जो मुख है उसे नहीं जानता है । नक्षत्र का जो मुख है और धर्म का जो मुख है, उसे भी नहीं जानता है । जो अपना और पराया उद्धार करने में समर्थ है, उसे तू नहीं जानता । यदि तू जानता है तो बता।' . मुनि के प्रश्न का उत्तर देने में अपने को असमर्थ पाते हुए द्विज ने परिषद् सहित हाथ जोड़ कर उस महामुनि से पूछा-'तुम कहो, वेदों का मुख क्या है ? यज्ञ का जो मुख है, वह तुम्हीं बतलाओ। तुम कहो, नक्षत्रों १. उत्तराध्ययन, २५॥६-३८ । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૫૪ का मुख क्या है ? धर्मों का मुख क्या है, तुम्हीं बताओ । 'जो अपना और पराया उद्धार करने में समर्थ हैं तुम्हीं कहो ) । हे साधु ! यह मुझे सारा संशय है, तुम समाधान दो । संस्कृति के दो प्रवाह ( उनके विषय में मेरे प्रश्नों का 'वेदों का मुख अग्निहोत्र है । यज्ञों का मुख यज्ञार्थी है । नक्षत्रों का मुख चन्द्रमा है और धर्मों का मुख काश्यप ऋषभदेव हैं ।' 'जिस प्रकार चन्द्रमा के सम्मुख ग्रह आदि हाथ जोड़े हुए, वंदनानमस्कार करते हुए और विनीत भाव से मन का हरण करते हुए रहते हैं उसी प्रकार भगवान् ऋषभ के सम्मुख सब लोग रहते थे ।' 'जो यज्ञवादी हैं, ने ब्राह्मण की सम्पदा से अनभिज्ञ हैं । वे बाहर में स्वाध्याय और तपस्या से उसी प्रकार ढंके हुए हैं, जिस प्रकार अग्नि राख से ढंकी हुई होती है ।' 'जिसे कुशल पुरुषों ने ब्राह्मण कहा है, लोक में पूजित हैं, उन्हें हम कुशल पुरुष द्वारा हैं ।' जो अग्नि की भांति सदा कहा हुआ ब्राह्मण कहते जो आने पर आसक्त नहीं होता, जाने के जो आर्य-वचन में रमण करता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं । समय शोक नहीं करता, 'अग्नि में तपा कर शुद्ध किए हुए और घिसे हुए सोने की तरह जो विशुद्ध है तथा राग-द्वेष और भय से रहित है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।' 'जो त्रस और स्थावर जीवों को भली-भांति जान कर, मन, वाणी और शरीर से उनकी हिंसा नहीं करता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।' 'जो क्रोध, हास्य, लोभ या भय के कारण असत्य नहीं बोलता उसे हम ब्राह्मण कहते हैं । 'जो सचित्त या अचित्त — कोई भी पदार्थ, थोड़ा या अधिक, कितना ही क्यों न हो, उसके अधिकारी के दिए बिना नहीं लेता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।' 'जो देव, मनुष्य और तिर्यंच सम्बन्धी मैथुन का मन, वचन और शरीर से सेवन नहीं करता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।' ' जिस प्रकार जल में उत्पन्न हुआ कमल जल से लिप्त नहीं होता, इसी प्रकार कामभोग के वातावरण में उत्पन्न हुआ जो मनुष्य उनसे लिप्त नहीं होता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।' Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु ५५ 'जो लोलुप नहीं है, जो निर्दोष भिक्षा से जीवन का निर्वाह करता है, जो गृहत्यागी है, जो अकिंचन है, जो गृहस्थों में अनासक्त है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।' 'जिनके शिक्षा - पद, पशुओं को बलि के लिए यज्ञ के खम्भे में बांधे जाने के हेतु बनते हैं, वे सब वेद और पशु बलि आदि पाप कर्म के द्वारा किए जाने वाले यज्ञ दुराचार - सम्पन्न उस यज्ञकर्त्ता को त्राण नहीं देते, क्योंकि कर्म बलवान् होते हैं ।' 'केवल सिर- मूंड लेने से कोई श्रमण नहीं होता, 'ओम्' का जप करने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता, केवल अरण्य में रहने से कोई मुनि नहीं होता और कुश का चीवर पहनने मात्र से कोई तापस नहीं होता ।' 'समभाव की साधना करने से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य के पालन से ब्राह्मण होता है, ज्ञान की आराधना - मनन करने से मुनि होता है, तप का आचरण करने से तापस होता है ।' 'मनुष्य कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य होता है और कर्म से ही शूद्र होता है ।' 'इन तत्त्वों को अर्हत् ने प्रकट किया है। इनके द्वारा जो मनुष्य स्नातक होता है, जो सब कर्मों से मुक्त होता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं । इस प्रकार जो गुण सम्पन्न द्विजोत्तम होते हैं, वे ही अपना और पराया उद्धार करने में समर्थ हैं ।' इस प्रकार संशय दूर होने पर विजयघोष ब्राह्मण ने जयघोष की वाणी को भलीभांति समझा और सन्तुष्ट हो, हाथ जोड़ कर उसने महामुनि जयघोष से इस प्रकार कहा 'तुमने मुझे यथार्थ ब्राह्मणत्व का बहुत ही अच्छा अर्थ समझाया है । 'तुम यज्ञों के यज्ञकर्त्ता हो, तुम वेदों को जानने वाले विद्वान् हो, तुम वेद के ज्योतिष आदि छहों अंगों के विद्वान् हो, तुम धर्मों के पारगामी हो ।' 'तुम अपना और पराया उद्धार करने में समर्थ हो, इसलिए हे भिक्षुश्रेष्ठ ! तुम हम पर भिक्षा लेने का अनुग्रह करो ।' ( मुनि ) -- 'मुझे भिक्षा से कोई प्रयोजन नहीं है । हे द्विज ! तू तुरन्त ही निष्क्रमण कर मुनि जीवन को स्वीकार कर, जिससे भय के आवर्ती से आकीर्ण इस बोर संसार-सागर में तुझे चक्कर लगाना न पड़े । ' १. उत्तराध्ययन, १२१५-३७ । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह श्रमण संस्कृति के कर्मणा - जाति के सिद्धान्त ने वैदिक ऋषियों को भी प्रभावित किया और महाभारत एवं पुराण काल में कर्मणा - जाति के सिद्धान्त का प्रतिपादन होने लगा। महाभारत में ब्राह्मण के लक्षण इस प्रकार बताए गए हैं 'जो सदा अपने सर्वव्यापी रूप से स्थित होने के कारण अकेले ही सम्पूर्ण आकाश में परिपूर्ण-सा हो रहा है तथा जो असंग होने के कारण लोगों से भरे हुए स्थान को भी सूना समझता है, उसे ही देवता लोग ब्राह्मण (ब्रह्मज्ञानी) मानते हैं । ५६ 'जो सब प्रकार की आसक्तियों से छूट कर मुनि वृत्ति से रहता है; आकाश की भांति निर्लेप और स्थिर है, किसी भी वस्तु को अपनी नहीं मानता, एकाकी विचरता और शान्तभाव से रहता है, उसे देवता ब्रह्मवेत्ता मानते हैं ।' 'जिसका जीवन धर्म के लिए और धर्म भगवान् श्रीहरि के लिए होता है, जिसके दिन और रात धर्मपालन में ही व्यतीत होते हैं, उसे देवता ब्रह्मज्ञ मानते हैं ।' 'जो कामनाओं से रहित तथा सब प्रकार के आरंभों से रहित है, नमस्कार और स्तुति से दूर रहता तथा सब प्रकार के बंधनों से मुक्त होता है, उसे ही देवता ब्रह्मज्ञानी मानते हैं ।" ब्रह्मपुराण के अनुसार शुद्र ब्राह्मण बन जाता है हो जाता है ।' वज्रसूचिकोपनिषद् एवं भविष्यपुराण में आलोचना मिलती है, किन्तु यह दृष्टिकोण वैदिक संस्कृति की आत्मा में परिपूर्ण रूप से व्याप्त नहीं हो सका । ७. समश्व की भावना व अहिंसा समत्व श्रमण परम्परा की एकता का मौलिक हेतु है । श्रमण शब्द बहुत प्रचलित रहा है, इसीलिए इस समताप्रधान संस्कृति को 'श्रमण संस्कृति' कहा जाता है । हमने भी स्थान-स्थान पर श्रमण शब्द का प्रयोग किया है । किन्तु वास्तविक दृष्टि से इसका नाम 'समण संस्कृति' है। 'समण' शब्द 'सम' शब्द से व्युत्पन्न है - 'सममणई तेण सो समणी' - जो सब जीवों को तुल्य मानता है, वह 'समण' है । 'जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं, उसी प्रकार सब जीवों को दुःख प्रिय नहीं है - इस समता की दृष्टि से जो किसी १. महाभारत, शान्तिपर्व, २४५।११-१४, २२-२४ ॥ २. ब्रह्मपुराण, २२३।३२ । और वैश्य क्षत्रिय भी जातिवाद की Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण परम्परा को एकसूत्रता और उसके हेतु भी प्राणी का वध न करता है, न करवाता है, वह अपनी समगति के कारण 'समण' कहलाता है जह मम न पियं बुलं जाणिय एमेव सत्यजीवाणं । न हणइ न हणावेद य सममगई तेण सो समणो॥' जिसका मन सम होता है, वह समण है। जिसके लिए कोई भी जीव न द्वेषी होता है और न प्रिय, वह अपनी सम मनःस्थिति के कारण 'समण' कहलाता है नस्थिय सि कोहरेसो पिलो व सम्बेसुद जीवेस । एएण होइ समणो एसो भन्मोऽवि पज्जामो ॥' जो विभिन्न विशेषताओं की दृष्टि से सर्प, पर्वत, अग्नि, समुद्र, आकाश, वृक्ष, भ्रमर, हरिण, भूमि, कमल, सूर्य और पवन के समान होता है, वह 'समण' है। ___समण वह होता है, जो स्वजन वर्ग और अन्य लोगों में तथा मान और अपमान में सम होता है रगगिरिजलणसागरनहयलतरुगणसमो यो होई। ममरमिगधरणिजलबहरविपवणसमो जओ समणो । तो समणो नइ सुमणो भावेण य जान होई पावमणो। सयणे य जणे य समो समो य माणापमाणेतु ॥' इस समत्व के आधार पर ही यह कहा गया कि सिर मुण्डा लेने मात्र से कोई समण नहीं होता, किन्तु समण समता से होता है । श्रमण शब्द का अर्थ तपस्वी भी होता है। सूत्रकृतांग के एक ही श्लोक में समण और तपस्वी का एक साथ प्रयोग है। यदि समण का अर्थ तपस्वी ही होता तो समण और तपस्वी-इन दोनों का एक साथ प्रयोग आवश्यक नहीं होता। उसी सूत्र में समण के समभाव की विभिन्न रूपों में व्याख्या हुई है। विषमता का एक रूप मद है। इसीलिए कहा है--- मुनि गोत्र, कुल आदि का मद न करे, दूसरों से घृणा न करे, किन्तु सम रहे। १. दशवकालिकनियुक्ति, गाथा १५४ । ४. उत्तराध्ययन, २०२६-३० । २. वही, गाथा १५५ । ५. सूत्रकृतांग, ११२।१६ । ३. वही, गाया १५६-१५७ । ६. वही, शरा२३ । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ संस्कृति के दो प्रह जो दूसरों का तिरस्कार करता है, वह चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता है, इसीलिए मुनि मद न करे, किन्तु सम रहे। चक्रवर्ती भी दीक्षित होने पर पूर्व-दीक्षित अपने सेवक के सेवक को भी वंदना करने में संकोच न करे, किन्तु समता का आचरण करे। प्रज्ञा-सम्पन्न मुनि क्रोध आदि कषायों पर विजय प्राप्त करे और समता धर्म का निरूपण करे ।' इस प्रकार अनेक स्थलों में समण के साथ समता का सम्बन्ध जूडा हुआ है। बौद्ध साहित्य में समता को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है । किन्तु समण शब्द उससे व्युत्पन्न है, ऐसा कोई स्थल हमें उपलब्ध नहीं हुआ। फिर भी श्रमण शब्द की जो व्याख्या है, उससे उसकी समभावपूर्ण स्थिति का ही बोध होता है। सभिय परिव्राजक के प्रश्न पर भगवान् बुद्ध ने कहा समितावि पहाय पुचपापं, विरजो अरवा इमं परं च लोकं । जातिमरणं उपातिवत्तो, समणो तादि पबच्चते तथता ॥' -जो पुण्य और पाप को दूर कर शान्त हो गया है, इस लोक और परलोक को जान कर रज-रहित हो गया है, जो जन्म और मरण के परे हो गया है, स्थिर, स्थितात्मा वह 'श्रमण' कहलाता है। समण का सम्बन्ध शम (उपशम) से भी है। जो छोटे-बड़े पापों का सर्वथा शमन करने वाला है, वह पाप के शमित होने के कारण श्रमण कहा जाता है। समता के आधार पर ही भिक्षु संघ में सब वर्गों के मनुष्य दीक्षित होते थे। भगवान् बुद्ध ने श्रमण की उत्पत्ति बतलाते हुए कहा था वाशिष्ठ ! एक समय था जब क्षत्रिय भी-'मैं श्रमण होऊंगा' (सोच) अपने धर्म को निंदते घर से बेघर हो प्रवजित हो जाता था। १. सूत्रकृतांग, १।२।२४ । २. वही, श२।२५। ३. वही, ११२।२८ । ४. सुत्तनिपात, ३२१११ । ५. धम्मपद, धम्मनग्ग १६ : यो च समेति पापानि, अणुं थूलानि सम्बसो। समितत्ता हि पापानं, वमणो ति पवुच्चति ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु ब्राह्मण भी० । वैश्य भी० । शुद्र भी । 'वाशिष्ठ ! इन्हीं चार मण्डलों से उन्हीं प्राणियों का दूसरों का नहीं, धर्म से श्रेष्ठ है, इस जन्म में भी और पर जन्म में भी ।" । उत्तराध्ययन के प्रमुख पात्रों में चारों वर्णों से दीक्षित मुनि थे । नमि राजर्षि, संजय, मृगापुत्र आदि क्षत्रिय थे । कपिल, जयघोष, विजयघोष, भृगु आदि ब्राह्मण थे । अनाथी, समुद्रपाल आदि वैश्य थे । हरिकेशबल, चित्रसंभूत आदि चाण्डाल थे । १. दीघनिकाय, ३१३, पृ० २४५ । ५६ श्रमण- मण्डल की उत्पत्ति हुई । अधर्म नहीं । धर्म ही मनुष्यों में श्रमणों की यह समता अहिंसा पर आधारित थी । इस प्रकार समता और अहिंसा ये दोनों तत्त्व समण ( या श्रमण ) संस्कृति के मूल बीज थे । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. श्रमण और वैदिक परम्परा की पृष्ठभूमि पहले हम श्रमण और वैदिक परम्परा के स्वतंत्र अस्तित्व, उनके विचार-भेद और श्रमण परंपरा की एकता के हेतुभूत सूत्रों का अध्ययन कर चके हैं। हम कुछ ऐसे तथ्यों का अध्ययन करेंगे, जो श्रमण और वैदिक परंपरा को विभक्त तो करते हैं, किन्तु सर्वथा नहीं। वे श्रमणों की एकसूत्रता के हेतु तो हैं, किन्तु सर्वथा नहीं। पूर्व में निर्दिष्ट सात हेतु श्रमण और वैदिक परंपग के विभाजन में तथा श्रमणों की एक सूत्रता में जैसे पूर्णरूपेण व्याप्त हैं, वैसे इस प्रकरण में बताए जाने वाले हेतु पूर्णतः व्याप्त नहीं हैं। फिर भी उनके द्वारा श्रमण तथा वैदिक परंपरा की पृष्ठभूमि को समझने में पर्याप्त सहायता मिलती है. इसलिए उनके विषय में चर्चा करना आवश्यक है। हमारे सामने आलोच्य विषय हैं--१. दान, २. स्नान, ३. कतवाद, ४. आत्मा और परलोक, ५. स्वर्ग और नरक तथा ६. निर्वाण । तैत्तिरीयारण्यक' का एक प्रसंग है कि एक बार प्राजापत्य आरुणी अपने पिता प्रजापति के पास गया और उसने प्रजापति से पूछा कि महर्षि लोग मोक्ष-साधन के विषय में किस साधन को परम बतलाते हैं ? प्रजापति ने कहा--- (१) सत्य से पवन चलता है, सत्य से सूर्य प्रकाश करता है, सत्य वाणी की प्रतिष्ठा है, सत्य में सर्व प्रतिष्ठित हैं, इसलिए कुछ ऋषि सत्य (सत्य वचन) को परम मोक्ष-साधन बतलाते हैं । (२) जो अग्नि आदि देवता हैं, वे तप से बने हैं। वाशिष्ठ आदि महर्षियों ने भी तप तपा और देवत्व को प्राप्त किया। हम लोग भी तप के द्वारा शत्रुओं को परास्त कर रहे हैं। तप में सर्व प्रतिष्ठित हैं, इसलिए कुछ ऋषि तप को परम मोक्ष-साधन बतलाते हैं। (३) दान्त पुरुष दम से अपने पापों का विनाश करते हैं। दम से १. तैत्तिरीयारण्यक, १०६३, पृ० ७६७-७७१ । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण और वैदिक परम्परा की पृष्ठभूमि ब्रह्मचारी स्वर्ग में गए। दम जीवों के लिए दुर्धर्ष-अपराजेय है । दम में सर्व प्रतिष्ठित हैं, इसलिए कुछ ऋषि दम को परम मोक्ष-साधन बतलाते - (४) शान्त पुरुष शम के द्वारा शिव (मंगल पुरुषार्थ) का आचरण करते हैं। नारद आदि मुनि शम के द्वारा स्वर्ग में गए। शम जीवों के लिए दुर्धर्ष है। शम में सर्व प्रतिष्ठित हैं, इसलिए कुछ ऋषि शम को परम मोक्ष-साधन बतलाते हैं। (५) दान (गौ हिरण्य आदि का दान) यज्ञ की दक्षिणा होने के कारण श्रेष्ठ है। लोक में भी सब आदमी दाता के उपजीवी होते हैं। धनदान से योद्धा शत्रुओं को परास्त करते हैं। द्वेष करने वाले भी दान से मित्र बन जाते हैं । दान में सर्व प्रतिष्ठित हैं, इसलिए कुछ ऋषि दान को परम मोक्ष-साधन बतलाते हैं। (६) धर्म (तालाब, प्याऊ आदि बनाने रूप) सर्व प्राणीजात की प्रतिष्ठा (आधार) है। लोक में भी धर्मिष्ठ पुरुष के पास जनता जाती है-धर्म. अधर्म का निर्णय लेती है। धर्म से पाप का विनाश होता है। धर्म में सर्व प्रतिष्ठित हैं, इसलिए कुछ ऋषि धर्म को परम मोक्ष-साधन बतलाते हैं। (७) प्रजनन (पुत्रोत्पादन) ही गृहस्थ की प्रतिष्ठा है। लोक में पुत्र रूपी धागे को विस्तृत बनाने वाला अपना पितृ-ऋण चुका पाता है। पुत्रोत्पादन ही उऋण होने का प्रमुख साधन है। इसलिए कुछ ऋषि प्रजनन को परम मोक्ष-साधन बतलाते हैं। .. (८) अग्नित्रय' ही त्रयी-विद्या (वेद-त्रयी) है। वही देवत्व प्राप्ति का मार्ग है। गार्हपत्य नामक अग्नि ऋग्वेदात्मक है। वह पृथ्वी-लोक स्वरूप और रथन्तर सामरूप है । दक्षिणाग्नि से आहार का पाक होता है। वह यजुर्वेदात्मक, अन्तरिक्ष-लोक रूप और वामदेव्य सामरूप है। आह्वनीय अग्नि सामवेदात्मक स्वर्गलोक रूप और बृहत् सामरूप है, इसलिए कुछ ऋषि अग्नि को परम मोक्ष-साधन बतलाते हैं। १. वैदिक कोश, पृ० १२६ : वैदिक-यज्ञ के प्रमुख तीन अग्नियों में एक गार्हपत्य है । अथर्ववेद (६।६।३०) के अनुसार “योऽतिथीनां स आहवनीयो, यो वेश्मनि स गार्हपत्य यस्मिन् पचति स दक्षिणाग्नि”...अर्थात् अतिथियों के लिए प्रयुक्त अग्नि आहवनीय, गृह-यज्ञों में प्रयुक्त गार्ह पत्य और पकाने की अग्नि दक्षिणाग्नि है । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह (१) अग्निहोत्र सायंकाल और प्रातःकाल में घरों का मूल्य है । अग्निहोत्र के अभाव में क्षुधित अग्नि घरों को जला डालती है, इसलिए वह घरों का मूल्य है । अग्निहोत्र अच्छा याज्ञ और अच्छा होना है । वह यज्ञऋतु' का प्रारम्भ है । स्वर्गलोक की ज्योति है, इसलिए कुछ ऋषि अग्निहोत्र को परम मोक्ष-साधन बतलाते हैं । ६२ (१०) यज्ञ देवों को प्रिय है । देवता पूर्वानुष्ठित यज्ञ के द्वारा स्वर्ग को प्राप्त हुए हैं । वे यज्ञ के द्वारा ही असुरों का विनाश कर पाए हैं। ज्योतिष्टोम यज्ञ के द्वारा द्वेष करने वाले शत्रु भी मित्र बन जाते हैं । यज्ञ में सर्व प्रतिष्ठित हैं, इसलिए कुछ ऋषि यज्ञ को परम मोक्ष-साधन बतलाते हैं । (११) मानसिक उपासना ही प्रजापति के पद की प्राप्ति का साधन है । इसीलिए वह चित्तशुद्धि का कारण है । मानसिक उपासना से युक्त एकाग्र मन से योगी लोग अतीत, अनागत और व्यवहृत वस्तुओं का साक्षात्कार करते हैं। मानसिक उपासना से युक्त एकाग्र मन वाले विश्वामित्र आदि ऋषियों ने संकल्प मात्र से प्रजा का सृजन किया था । मानसिक उपासना में सर्व प्रतिष्ठित हैं, इसलिए कुछ ऋषि मानसिक उपासना को परम मोक्ष-साधन बतलाते हैं । (१२) कुछ मनीषी लोग संन्यास को परम मोक्ष-साधन बतलाते हैं । यह तिरसठवें अनुवाक् का वर्णन है । बासठवें अनुवाक् में भी इन बारह पर्वों का निरूपण हुआ है । उनके भाष्य में आचार्य सायण ने कुछ महत्त्वपूर्ण सूचनाएं दी हैं- नैष्ठिक ब्रह्मचारी 'दम' को परम मान उसमें रमण करते हैं । आरण्यक मुनि वानप्रस्थ 'शम' को परम मान उसमें रमण करते हैं । वापी, कूप, तड़ाग आदि के निर्माणात्मक धर्म को राजा, मंत्री आदि परम मानते हैं । कुछ वेदार्थवादी अग्नि को परम मानते हैं । कुछ वेदार्थवादी अग्निहोत्र को परम मानते हैं । कुछ वेदार्थवादी यज्ञ को परम मानते हैं । कुछ वेदार्थवादी अग्निहोत्र को परम मानते हैं। कुछ वेदार्थवादी १. तैत्तिरीयारण्यक, १०1६३, सायण भाव्य, पृ० ७७० : अग्न्याधेयमग्निहोत्रं दर्शपूर्ण मासावाग्रयणं चातुर्मास्यानि निरूढपशुबन्धः सौत्रामणीति सप्त हविर्यज्ञाः । ऋतुशब्दो यूपवत्सु सोमयागेषु रूढः । अग्निष्टोमोऽत्यग्निष्टोम उक्थ्यः पोडशी वाजपेयोऽतिरात्रोऽप्तोर्यामश्चेति सप्त सोमसंस्था: ऋतवः । तेषां सर्वेषां यज्ञऋतूनां प्रारम्भकमग्निहोत्रम् । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण और वैदिक परम्परा की पृष्ठभूमि यज्ञ को परम मानते हैं । सगुण ब्रह्मवादी मानसिक उपासना को परम मानते हैं। संन्यास हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के द्वारा परम रूप में अभिमत है। भाष्यकार ने आगे लिखा है कि ब्रह्मा पूवोक्त मतानुयायी लोगों की तरह जीव नहीं है। यद्यपि हिरण्यगर्भ देहधारी है, फिर भी वह परमात्मा, ब्रह्म कहलाएगा। क्योंकि परमात्मा का शिष्य होने के कारण वह उसी के समान ज्ञानी है। ये सब साधन वैदिक नहीं हैं, किन्तु यह आरण्यक-काल में प्रचलित साधनों का संग्रह है। ___ इन बारह साधनों में आठवां,नौवां और दसवां भाष्यकर के अनुसार निश्चित ही बैदिक है । छट्ठा लौकिक है, पांचवां और सातवां लौकिक भी है और बैदिक भी। पहला,दूसरा,तीसरा, चौथा और ग्यारहवां आरण्यक सम्मत भी है और श्रामणिक (श्रमणों का) भी है।' इन बारह साधनों में संन्याप सबसे उत्कृष्ट है।' आचार्य सायण ने लिखा है कि पूर्वोक्त सत्य से लेकर मानस-उपासना तक के साधन तप हैं, फिर भी संन्यास की अपेक्षा वे अवर हैं-निकृष्ट हैं। यही बात तिरसठवें अनुवाक में कही गई है-- तस्मान्न्यासमेषां तपसामतिरिक्तमाहुः' । आचार्य सायण ने लिखा है-- 'संन्यास परम पुरुषार्थ का अन्तरंग साधन है। इसलिए वह सत्य आदि तपों से अत्युत्कृष्ट है ।" प्रजनन (सातवां), अग्नि (आठवां), अग्निहोत्र (नौवां) और यज्ञ (दसवां)-ये श्रमणों द्वारा सम्मत नहीं हैं, इसकी संक्षिप्त चर्चा हम पहले कर चुके हैं। संन्यास श्रमणों का सर्वोत्कृष्ट साधन है, यह भी बताया जा चुका है। घर में कौन रहे'--यह १. तैत्तिरीयारण्यक, १०।६२, सायण भाष्य, पृ० ७६६ : सच ब्रह्मा परो हि परमात्मरूप हि । न तु पूर्वोक्तमतानुसारिण इव जीवः । यद्यप्यसौ हिरण्यगर्भो देहधारी तथापि परो सि परमात्मैव ब्रह्मा हिरण्यगर्भ इति वक्तुं शक्यते, तच्छिष्यत्वेन तत्समानज्ञानत्वात् । २. देखिये चौथा प्रकरण 'आत्म-विद्या क्षत्रियों की देन' शीर्षक । ३. तैत्तिरीयारण्यक, १०॥६२, पृ० ७६६ । ४. वही, १०६२, पृ०. ७६६ : यानि पूर्वोक्तसत्यादीनि मानसान्तानि तान्येतानि तपांसि भवन्त्येव तथापि संन्यासमपेक्ष्यावराणि निकृष्टानि । ५. वही, १०।६३, पृ० ७७४ । ६. वही, १०१६३, पृ० ७७४ : यस्मात् परमपुरुषार्थस्यान्तरंगं साधनं तस्मादेषां सत्यादीनां तपसां मध्ये संन्यासमतिरिक्तमत्युकृष्टं साधनं मनीषिण आहुः । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ संस्कृति के दो प्रवाह घोष वहीं हो सकता है, जहां संन्यास को सर्वोच्च साधन माना जाए । अब हम शेष साधनों पर विचार करना चाहेंगे । छद्म वेषधारी इन्द्र ने नमि राजर्षि से कहा - 'राजर्षे ! पहले तुम विपुल यज्ञ करो, श्रमण-ब्राह्मणों को भोजन कराओ, दान दो, फिर मुनि हो जाना ।' नमि राजर्षि ने इसके उत्तर में कहा- जो मनुष्य प्रतिमास दस लाख गाएं देता है, उसके लिए भी संयम ही श्रेय है, भले फिर वह कुछ भी न दे ।" 1 इन्द्र ने तीन बातें कहीं और राजर्षि ने उनमें से सिर्फ एक ही बात (दान) का उत्तर दिया । शेष दो बातों का उत्तर उसी में समाहित कर दिया । उसकी ध्वनि यह है- "जो मनुष्य प्रतिदिन यज्ञ करता है, उसके लिए भी संयम श्रेय है, भले फिर वह कभी यज्ञ न करे । इसी प्रकार जो मनुष्य प्रतिदिन श्रमणों-ब्राह्मणों को भोजन कराता है, उसके लिए भी संयम ही श्रेय है, भले फिर वह श्रमण-ब्राह्मणों को कभी भोजन न कराए । इन तीनों प्रसंगों का फलित यही है कि संयम सर्वोत्कृष्ट है । यज्ञ सभी श्रमण-संघों के लिए इष्ट नहीं रहा है । गायों व स्वर्ण आदि का दान भी उनमें परम मोक्ष-साधन के रूप में स्वीकृत नहीं रहा है । निर्ग्रन्थ श्रमणों ने तो उस पर तीव्र प्रहार किया था। 'ब्रह्मणों को भोजन कराने पर वे रौरव (नरक) में ले जाते हैं" -भृगु पुत्रों ने यह जो कहा उसका तात्पर्य ब्राह्मणों की निन्दा करना नहीं, किन्तु उस सिद्धान्त की तीखी समालोचना करना है जो जन्मना जाति के आधार पर विकसित हुआ था । जैन साहित्य में उक्त दान और धर्म एक दान शब्द के द्वारा ही निरूपित हैं । सूत्रकृतांग में कहा है- 'जो दान की प्रशंसा करता है, वह प्राणियों का वध चाहता है और जो उसका निषेध करता है, वह दान को प्राप्त करने वालों की वृत्ति का छेद करता है । इसलिए मुमुक्षु को 'पुण्य है' और नहीं है' -- इन दोनों से बच कर मध्यस्थभाव का आलम्बन लेना चाहिए ।" १. उत्तराध्ययन, ६।३८-४० । २. (क) हरिवंश पुराण, ६०।१३-१४ (ख) अमितगति श्रावकाचार, ८।४६; ६ ५४-५५ । ३. उत्तराध्ययन, १४।१२ । ४. सूत्रकृतांग, ११११।२०- २१ । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण और वैदिक परम्परा की पृष्ठभूमि वृत्तिकार ने लिखा है-राजा या अन्य कोई ईश्वर व्यक्ति कूप, तडाग, दानशाला आदि कराना चाहे और मुमुक्षु से पूछे-इस कार्य में मुझे पुण्य होगा या नहीं, तब मुमुक्षु मुनि मौन रखे, किन्तु 'पुण्य होगा या नहीं होगा' ऐसा न कहे । उपयुक्त समझे तो उतना-सा कहे कि यह मेरे अधिकार से परे की बात है।' ___ 'राजा या अन्य कोई ईश्वर कृप, तडाग, दानशाला आदि बनाना चाहे'-शीलांकसूरि का यह प्रतिपादन, 'वापी, कूप, तडाग आदि निर्माण को राजा, अमात्य आदि प्रभु-वर्ग उत्तम मोक्ष-हेतु मानता है"-आचार्य सायण के इस उल्लेख से बहुत सम्बन्धित है। यह धर्म भी निर्ग्रन्थों को परम मोक्ष-साधन के रूप में मान्य नहीं रहा, इसीलिए भगुपुत्रों ने कहा था कि धन और धर्म का कोई सम्बन्ध नहीं है-'धणेण किं धम्मधुराहिगारे ?'३ (१) सत्य, (२) तप, (३) दम, (४) शम और (५) मानसउपासना-ये पांचों साधन श्रमण-परम्परा में स्वीकृत हैं, किन्तु सब श्रमणसंघों में समानरूप से स्वीकृत हैं, यह नहीं कहा जा सकता। निर्ग्रन्थ श्रमण सत्य को मोक्ष का साधन मानते हैं, किन्तु सत्य ही परम मोक्ष-साधन है, ऐसा ऐकान्तिक पक्ष उन्हें मान्य नहीं है। तप को भी वे मोक्ष का साधन मानते हैं. किन्तु अनशन से उत्कृष्ट तप नहीं है या तप ही परम मोक्ष-साधन है, ऐसा वे नहीं मानते। उनके अभिमत में तप के १२ प्रकार हैं। अनशन बाह्य-तप है, ध्यान अन्तरंग-तप है । वह अनशन से उत्कृष्ट है। इसी प्रकार दम, शम और मानस-उपासना भी ऐकान्तिक रूप से मान्य नहीं है, किन्तु वे समुदित रूप से मान्य हैं। इनका विशद विवेचन 'साधना-पद्धति' शीर्षक में देखें। १. सूत्रकृतांग, १।११।२०-२१ वृत्ति : अस्ति नास्ति वा पुण्यमित्येवं 'ते' मुमुक्षवः साधवः पुनर्न भाषन्ते । किन्तु पृष्टः सद्भिर्मानमेव समाश्रयणीयम् । एवं विधविषये मुमुक्षूणामधिकार एव नास्ति । २. तैत्तिरीयारण्यक, १०॥६२, सायण भाष्य, पृ० ७६५ : स्मृतिपुराणप्रतिपाद्यो वापीकू पतडागाति निर्माण रूपोत्र धर्मो विवक्षितः । स एवोत्तमो मोक्षहेतुरिदि राजामात्यादयः प्रभवो मन्यन्ते । ३. उत्तराध्ययन, १४।१७ । ४. तैत्तिरीयारण्यक, १०।६२, पृ० ७६५ : तपो नानशनात् परम् । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह २. स्नान .. - निर्ग्रन्थ-श्रमण स्नान को आत्म-शुद्धि का साधन नहीं मानते। बौद्धश्रमणों का अभिमत भी यही रहा है। उस समय सुन्दरिक भारद्वाज ब्राह्मण ने भगवान् से यह कहा'क्या आप गौतम ! स्नान के लिए बाहुका नदी चलेंगे ?' 'ब्राह्मण ! बाहुका नदी से क्या (लेना) है ? बाहुका नदी क्या करेगी ?' 'हे गौतम ! बाहुका नदी लोकमान्य ( --लोक सम्मत) है, बाहुका नदी बहुत जनों द्वारा पवित्र (पुण्य) मानी जाती है। बहुत से लोग बाहुका नदी में (अपने) किए पापों को बहाते हैं।' तब भगवान् ने सुन्दरिक भारद्वाज ब्राह्मण को गाथाओं में कहा "बाहुका, अविकक्क, गया और सुन्दरिका में, सरस्वती और प्रयाग तथा बाहुमती नदी में, काले कर्मों वाला मूढ़ चाहे नित्य नहाए, (किन्तु) शुद्ध नहीं होगा । क्या करेगी सुन्दरिका क्या प्रयाग और क्या बाहुलिका नदी? (वह) पापकर्मी कृतकिल्विष दुष्ट नर को नहीं शुद्ध कर सकते। शुद्ध (नर) के लिए सदा ही फल्गू है, शुद्ध के लिए सदा ही उपोसथ है। शुद्ध और शुचिकर्मा के व्रत सदा ही पूरे होते रहते हैं। 'ब्राह्मण ! यहीं नहा, सारे प्राणियों का क्षेम कर । यदि तू झूठ नहीं बोलता, यदि प्राण नहीं मारता, यदि बिना दिया नहीं लेता, (और) श्रद्धावान् मत्सर-रहित है (तो) गया जाकर क्या करेगा, क्षुद्र जलाशय (उदपान) भी तेरे लिए गया है।'' धर्मकीर्ति का प्रसिद्ध श्लोक है वेदप्रामाण्यं कस्यचित् कर्तवादः, स्नाने धर्मेच्छा जातिवावावलेपः । संतापारम्भः पापहानाय चेति, स्वस्तप्रज्ञानां पंचलिंगामि जाइये । निर्ग्रन्थ हरिकेशबल ने ब्राह्मणों से कहा-'जल से आत्म-शुद्धि नही होती। तब उनके मन में जिज्ञासा गत्पन्न हुई और उन्होंने हरिकेशबल से पूछा-'आपका नद (जलाशय) कौन सा है ? आपका शान्ति-ती कौन सा है ? आप कहां नहा कर कर्म-रज धोते हैं ? हे यक्षपूजित संयते ! हम आपसे जानना चाहते हैं, आप बताइए।" उस समय निर्ग्रन्थ हरि १. मज्झिमनिकाय, ११११७ पृ० २६ । ३. वही, १२।४५ । २. उत्तराध्ययन, १२।३८ । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण और वैदिक परम्परा की पृष्ठभूमि केशबल ने उन्हें आत्म-शुद्धि के स्नान का उपदेश दिया। उन्होंने कहा'अकलुषित एवं आत्मा का प्रसन्न-लेश्या वाला धर्म मेरा नद (जलाशय) है। ब्रह्मचर्य मेरा शान्ति-तीर्थ है, जहां नहा कर मैं विमल, और सुशीतल होकर कर्म रजों का त्याग करता है। यह स्नान कुशल पुरुषों द्वारा दष्ट है । यह महास्नान है, अतः ऋषियों के लिए प्रशस्त है । इस धर्म-नद में नहाए हुए महर्षि विमल और विशुद्ध होकर उत्तम-अर्थ (मुक्ति) को प्राप्त - इस प्रकार बौद्ध और निर्ग्रन्थ स्नान से आत्म-शुद्धि नहीं मानते। किन्तु कुछ श्रमण स्नान को आत्म-शुद्धि का साधन मानते थे। एकदण्डी और त्रिदण्डी परिव्राजक स्नानशील और शुचिवादी थे। त्रिदण्डी परिव्राजक श्रमण थे-यह निशीथ भाष्य की चणि में उल्लिखित है। सूत्रकृतांग (१।१।३।८) की वृत्ति से भी उनके श्रमण होने की पुष्टि होती है । मूलाचार में भी तापस, परिव्राजक, एकदण्डी, त्रिदण्डी आदि को 'श्रमण' कहा गया है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि 'स्नान आत्म-शुद्धि का साधन नहीं'-- इस विषय में सब श्रमण-संघ एक मत नहीं थे। ३. कत्तं वाद जैन और बौद्ध जगत् को किसी सर्वशक्तिसम्पन्न सत्ता के द्वारा निर्मित नहीं मानते। भगवान् महावीर ने कहा- 'जो लोग जगत् को कृत बतलाते हैं, वे तत्त्व को नहीं जानते । यह जगत् अविनाशी है-पहला था, है और होगा। बौद्ध सिद्धांत में किसी मूल कारण की व्यवस्था नहीं है। बौद्ध नहीं मानते कि ईश्वर, महादेव या वासुदेव, पुरुष, प्रधानादिक किसी एक कारण से सर्व जगत् की प्रवृत्ति होती है। यदि भावों की उत्पत्ति एक कारण से होती तो सर्व जगत् की उत्पत्ति युगपत् होती, किन्तु हम देखते हैं कि भावों का क्रम संभव है। -- -- १. उत्तराध्ययन, १२।४६-४७ । २. मूलाचार, पंचाचाराधिकार, ६२, वृत्ति : परिव्राजका एकदण्डीत्रिदण्ड्यादयः स्नानशीलाः शुचिवादिनः । ३. निशीथ भाष्यचूर्णि, भाग २, पृ० २,३,३३२ । ४. मूलाचार, पंचाचाराधिकार, ६२ । ५. सूत्रकृतांग, १।१।६८ । ६. बौद्ध धर्म-दर्शन, पृ० २२३ । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह कुछ श्रमख जगत् को अण्डकृत मानते थे । उनके अभिमतानुसार जब यह जगत् पदार्थ - शून्य था तब ब्रह्मा ने जल में अण्डा उत्पन्न किया । वह अण्डा बढ़ते-बढ़ते जब फट गया तब ऊर्ध्व लोक और अधोलोक - ये दो भाग हो गए। उनमें सब प्रजा उत्पन्न हुई । इस प्रकार पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश आदि की उत्पत्ति हुई ६८ माहणा समणा एगे, आह अंडकडे जगे । असो तत्तमकासी य, अयाणंता मुसं वए । ' वृत्तिकार के अनुसार त्रिदण्डी आदि श्रमण ऐसा मानते थे । ४. आत्मा और परलोक 'आत्मा' शब्द ऋग्वेद' - काल से ही प्रचलित रहा है । किन्तु इसके अर्थं का क्रमशः विकास हुआ है और तब अन्त में उपनिषदों में यह ब्रह्म के समकक्ष परम तत्त्व के रूप में व्याख्यात हुआ है । उदाहरणार्थं बृहदारण्यकोपनिषद् (१.१,१ ) में इसका अर्थ 'शरीर' है । वहीं ( ३।२,१३ ) पर यह वैयक्तिक आत्मा को उद्दिष्ट करता है, फिर परम तत्त्व के अर्थ में तो यह प्रायः आता रहा है । * ए० ए० मैकडोनल ने लिखा है - " ऐसा विश्वास किया जाता है कि अग्नि अथवा 'शवगर्त ' ( कब्र ) केवल मृत शरीर को ही विनष्ट करते हैं, क्योंकि मृत व्यक्ति के वास्तविक व्यक्तित्व को अनश्वर ही माना गया है । यह वैदिक धारणा उस पुरातन विश्वास पर आधारित है कि आत्मा में शरीर से अपने को अचेतनावस्था तक में अलग कर लेने की शक्ति होती है और व्यक्ति की मृत्यु के बाद भी आत्मा का अस्तित्व बना रहता है । इसीलिए एक सम्पूर्ण सूक्त (१०, ५८ ) में प्रत्यक्षतः मृतवत् पड़े सुप्त व्यक्ति की आत्मा (मनस् ) से बाहर भ्रमण कर रहे स्थानों से पुनः शरीर में लौट आने की स्तुति की गई है । बाद में विकसित पुनर्जन्म के सिद्धान्त का वेदों में कोई संकेत नहीं मिलता, किन्तु एक ब्राह्मण में यह उक्ति मिलती है कि जो लोग विधिवत् संस्कारादि नहीं करते, वे मृत्यु के बाद पुनः जन्म लेते हैं और बार-बार मृत्यु का ग्रास बनते रहते है (शतपथ ब्राह्मण, १०, ४, ३)।५ १. सूत्रकृतांग, १।११६७ । २ . वही, ११६७, वृत्ति: श्रमणाः - त्रिदण्डिप्रभृतय एके केचन पौराणिका: न सर्वे । ३. ऋग्वेद, १|१|१५|१; १०।१०७ ७ । ४. वैदिक कोश, पृ० ३६ । ५. वैदिक माइथोलॉजी ( हिन्दी अनुवाद), पृ० ३१६ | Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण और वैदिक परम्परा की पृष्ठभूमि ६६ उपनिषदों से पूर्ववर्ती वैदिक साहित्य में आत्मा और परलोक के विषय में बहुत विशद चर्चा नहीं है । निर्ग्रन्थ आदि श्रमण संघ आत्मा को त्रिकालवर्ती मानते थे । पुनर्जन्म के विषय में भी उनकी धारणा बहुत स्पष्ट थी । भृगु पुरोहित ने अपने पुत्रों से कहा - 'पुत्रो ! जिस प्रकार अरणी में अविद्यमान अग्नि उत्पन्न होती है, दूध में घी और तिलों में तैल पैदा होता है, उसी प्रकार शरीर में जीव उत्पन्न होते हैं और नष्ट हो जाते हैं । शरीर का नाश हो जाने पर उनका अस्तित्व नहीं रहा । " तब पुत्र बोले- 'पिता ! आत्मा अमूर्त है, द्वारा नहीं जाना जा सकता । यह अमूर्त है, इसलिए है कि आत्मा के आन्तरिक दोष ही उसके बन्धन के संसार का हेतु है - ऐसा कहा है ।" बहुत सारे कामासक्त लोक परलोक को नहीं मानते थे । वे कहते थे— 'परलोक तो हमने देखा नहीं, यह रति (आनन्द) तो चक्षु दृष्ट है— आंखों के सामने है। ये कामभोग हाथ में आए हुए हैं । भविष्य में होने वाले संदिग्ध हैं । कौन जानता है- परलोक है या नहीं ? हम लोक-समुदाय के साथ रहेंगे । ऐसा मान कर बाल- मनुष्य धृष्ट बन जाता है । वह कामभोग के अनुराग से क्लेश पाता है । 'फिर वह त्रस तथा स्थावर जीवों के प्रति दण्ड का प्रयोग करता है और प्रयोजनवश अथवा बिना प्रयोजन ही प्राणी समूह की हिंसा करता है । हिंसा करने वाला, झूठ बोलने वाला, छल-कपट करने वाला, चुगली खाने वाला, वेश-परिवर्तन कर अपने आपको दूसरे रूप में प्रकट करने वाला अज्ञानी मनुष्य मद्य और मांस का भोग करता है, यह श्रेय है - ऐसा मानता है । इसलिए यह इन्द्रियों के नित्य है । यह निश्चय हेतु हैं और बन्धन ही 'वह शरीर और वाणी से मत्त होता है, धन और स्त्रियों में गृद्ध होता है । वह राग और द्वेष-- दोनों से उसी प्रकार कर्म - मल का संचय करता है, जैसे शिशुनाग ( अलस या केंचुआ) मुख और शरीर — दोनों से मिट्टी का ।" १. उत्तराध्ययन, १४।१८ । २. वही, १४।१६ | ३. वही, ५।५ - १० । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह ये लोग सम्भवतः भौतिकवादी या सुखवादी विचारधारा अथवा संजयवेलटिठ पुत्त के संदेहवादी दृष्टिकोण से प्रभावित थे। कुछ श्रमण भी आत्मा ओर परलोक का अस्तित्व नहीं मानते थे। ____ अजातशत्रु ने भगवान् बुद्ध से कहा- "भन्ते ! एक दिन मैं जहां अजितकेशकम्बल था वहां गया और उससे परलोक, दान, धर्म आदि के विषय में प्रश्न पूछा । तब उसने कहा-'महाराज ! न दान है, न यज्ञ है, न होम है, न पुण्य या पाप का अच्छा बुरा फल होता है, न यह लोक है, न परलोक है, न माता है, न पिता है, न आयोनिज ( औपपातिक, देव) सत्व हैं और न इस लोक में वैसे ज्ञानी और समर्थ श्रमण या ब्राह्मण हैं जो इस लोक और परलोक को स्वयं जानकर या साक्षात् कर (कुछ) कहेंगे। मनुष्य चार महाभूतों से मिलकर बना है। मनुष्य जब मरता है तब पृथ्वी महापथ्वी में लीन हो जाती है, जल०, तेज, वायु० और इन्द्रियां आकाश में लीन हो जाती हैं। मनुष्य लोग मरे हुए को खाट पर रख कर ले जाते हैं, उसकी निन्दा, प्रशंसा करते हैं। हड्डियां कबूतर की तरह उजली हो (बिखर) जाती हैं और सब कुछ भस्म हो जाता है । मूर्ख लोग जो दान देते हैं, उसका कोई फल नहीं होता। अस्तिकवाद ( . आत्मा) झूठ है। मूर्ख और पण्डित सभी शरीर के नष्ट होते ही उच्छेद को प्राप्त हो जाते हैं। मरने के बाद कोई नहीं रहता।" __संजयवेलटिठपत्त भी परलोक के विषय में कोई निश्चय मत नहीं रखते थे । उसी बैठक में अजातशत्रु ने भगवान बुद्ध से कहा था-"भंते ! एक दिन मैं संजयवेलटिठ के पास गया और परलोक आदि के विषय में पूछा । तब संजयवेलटिठपत्त ने कहा-"महाराज ! यदि आप पूछे, क्या परलोक है और यदि मैं समझं कि परलोक है, तो आपको बतलाऊं कि परलोक है । मैं ऐसा तो नहीं कहता, मैं वैसा भी नहीं कहता, मैं दूसरी तरह से भी नहीं कहता, मैं यह भी नहीं कहता कि यह नहीं है, परलोक नहीं है । 'आयोनिज प्राणी नहीं हैं, हैं भी और नहीं भी, न हैं और नहीं हैं । अच्छे बुरे काम के फल हैं, नहीं हैं, हैं भी और नहीं भी, न हैं और न नहीं हैं ? ०। तथागत मरने के बाद होते हैं, नहीं होते हैं ? यदि मुझे ऐसा पूछे और मैं ऐसा समझं कि मरने के बाद तथागत न रहते हैं और न नहीं रहते हैं, तो मैं ऐसा आपको कहूं। मैं ऐसा भी नहीं कहता, मैं वैसा भी नहीं कहता०' ।" १. दीघनिकाय, ११२, पृ० २०-२१ । २. वही, ११२, पृ० २२ । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१ प्रमण और वैदिक परम्परा की पृष्ठभूमि यह बहुत आश्चर्य की बात है कि महात्मा बुद्ध परलोकवादी होते हुए भी अनात्मवादी थे। बौद्धों के अनुसार आत्मा प्रज्ञप्तिमात्र है। जिस प्रकार रथ' नाम का कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं है, वह शब्दमात्र है, परमार्थ में अंग-संभार है, उसी प्रकार आत्मा, जीव, सत्त्व, नाम रूपमात्र (स्कन्धपंचक) है। यह कोई अविपरिणामी शाश्वत पदार्थ नहीं है । बौद्ध अनीश्वर वादी और अनात्मवादी हैं । वे सर्वास्तिवादी, सस्वभाववादी, तथा बहुधर्मवादी हैं, किन्तु वे कोई शाश्वत पदार्थ नहीं मानते। उनकी मान्यता में द्रव्य सत् हैं, किन्तु क्षणिक हैं।' महात्मा बुद्ध ने कहा था "भिक्षुओ ! यदि कोई कहे कि मैं तब तक भगवान् (बुद्ध) के उपदेश के अनुसार नही चलूंगा, जब तक कि भगवान् मुझे यह न बता देंगे कि संसार शाश्वत है वा आशाश्वत; संसार सान्त है वा अनन्त; जीव वही है जो शरीर में है वा जीव दूसरा है, शरीर दूसरा है; मृत्यु के बाद तयागत रहते हैं वा मृत्यु के बाद तथागत नहीं रहते-तो भिक्षुओ, यह बातें तो तथागत के द्वारा बे-कही ही रहेंगी और वह मनुष्य यों ही मर जाएगा। ___भिक्षुओ, जैसे किसी आदमी के जहर में बुझा हुआ तीर लगा हो। उसके मित्र, रिस्तेदार उसे तीर निकालने वाले वैद्य के पास ले जावें। लेकिन वह कहे-'मैं तब तक यह तीर नहीं निकलवाऊंगा, जब तक यह न जान लं कि जिस आदमी ने मुझे यह तीर मारा है वह क्षत्रिय है, ब्राह्मण है, वैश्य है या शूद्र हैं'; अथवा वह कहे-'मैं तब तक यह तीर नहीं निकलवाऊंगा, जब तक यह न जान लं कि जिस आदमी ने मुझे यह तीर मारा है, उसका अमुक नाम है, अमुक गोत्र है'; अथवा वह कहे-'मैं तब तक यह तीर नहीं निकलवाऊंगा, जब तक यह न जान लं कि जिस आदमी ने मुझे यह तीर मारा है, वह लम्बा है, छोटा है, वा मझले कद का है'; तो हे भिक्षुओ, उस आदमी को इन बातों का पता लगेगा ही नहीं, और वह यों ही मर जाएगा। 'भिक्षुओ, 'संसार शाश्वत है'-ऐसा मत रहने पर भी, 'संसार अशाश्वत है'-ऐसा मत रहने पर भी, 'संसार सान्त है'-ऐसा मत रहने पर भी, संसार अनन्त है'-ऐसा मत रहने पर भी 'जीव वही है जो शरीर है'-ऐसा मत रहने पर भी, 'जीव दूसरा है, शरीर दूसरा है'-ऐसा मत १. बौद्ध धर्म-दर्शन, पृ० ५१३ । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ संस्कृति के दो प्रवाह रहने पर भी जन्म, बुढ़ापा, मृत्यु, शोक, रोना-पीटना, पीड़ित होना, चिन्तित होना, परेशान होना तो (हर हालत में) है ही और मैं इसी जन्म में-जीते जी-इन्हीं सबके नाश का उपदेश देता हूं।' भगवान् महावीर आत्मा और परलोक, पूर्वजन्म और पुनर्जन्म के प्रबल समर्थक थे। उनका युग आत्म-विद्या की जिज्ञासाओं का युग था। उस समय 'आत्मा है या नही ?' 'परलोक है या नहीं' ?, 'जिन या तथागत होंगे या नहीं ?-ऐसे प्रश्न पूछे जाते थे। कुछ अल्पमति श्रमण इन प्रश्नों के जाल में उलझ भी जाते थे। इसीलिए भगवान महावीर ने उस मानसिक उलझन को 'दर्शन परीषह' कहा। उन्होंने बताया-'निश्चय ही परलोक नहीं है, तपस्वी की ऋद्धि भी नहीं है अथवा मैं ठगा गया हूं'-भिक्षु ऐसा चिन्तन न करे। 'जिन हुए थे, जिन हैं और जिन होंगे-ऐसा जो कहते हैं, वे झूठ बोलते हैं'-भिक्षु ऐसा चिन्तन न करे ।' उत्तराध्ययन में 'परलोक' शब्द का पांच बार (५/११; १६/६२; २२/१६; २६/५०; ३४/६०) तथा 'पूर्व-जन्म की स्मृति (... जातिस्मृति)' का तीन बार (६/१,२; १४/५; १६/७,८) उल्लेख हुआ है। प्रकारान्तर से ये विषय बहुत बार चचित हुए हैं। ५. स्वर्ग और नरक स्वर्ग और नरक की चर्चा वैदिक साहित्य में भी रही है। ए० ए० मैकडोनल ने लिखा है-- 'यद्यपि परलोक-जीवन के सर्वाधिक स्पष्ट और प्रमुख सन्दर्भ ऋग्वेद के नवम और दशम मण्डल में मिलते हैं तथापि कभी-कभी इसका प्रथम में भी उल्लेख है। जो कठिन तपस्या (तपस्) करते हैं, जो युद्ध में अपने जीवन का मोह त्याग देते हैं (१०, १५४.५ अथवा इनसे भी अधिक, जो प्रचुर दक्षिणा देते हैं, (वही,३; १,१२५५; १०.१०७१) उन्हें ही पुरस्कार स्वरूप मार्ग प्राप्त होता है। अथर्ववेद इस अन्तिम प्रकार के लोगों को प्राप्त होने वाले पुण्य-फलों के विवरण से भरा है। 'स्वर्ग में पहुंच कर मृत व्यक्ति ऐसा सुखकर जीवन व्यतीत करते हैं (१०,१४'. १५". १६.५), जिसमें सभी कामनाएं तृप्त रहती हैं (९.११३.११), और जो देवों के बीच (१०-१४") प्रमुखतः यम और वरुण, इन दो राजाओं की उपस्थिति में व्यतीत होता है (१०.१४) । १. संयुक्तनिकाय, २११५; बुद्धवचन, पृ० २२-२३ । २. उत्तराध्ययन, २०४४-४५ । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण और वैदिक परम्परा की पृष्ठभूमि यहां वह जरावस्था से सर्वथा मुक्त होते हैं (१०, २७" । तेजस्वी शरीर से युक्त होकर वह देवों के प्रियपात्र बन जाते हैं (१०, १४*. १६. ५६')। यहां वह पिता, माता और पुत्रों को देखते हैं (अथर्ववेद ६. १२०') और अपनी पत्नियों तथा सन्तान पुनः मिल जाते हैं (अथर्ववेद १२, ३")। यहां का जीवन अपूर्णताओं और शारीरिक कष्टों से सर्वथा मुक्त होता है (१०, १४'; अथर्ववेद ६, १२०), व्याधियां पीछे छूट जाती हैं और हाथपैर लूले या लंगड़े नहीं होते (अथर्ववेद ३, २८)। अथर्ववेद और शतपथ ब्राह्मण में अक्सर यह कहा गया है कि परलोक में मृत व्यक्ति शरीर तथा अन्य अवयवों की दृष्टि से सम्पूर्ण होता है। ___'ऋग्वेद में मृतकों के आनन्दप्रद जीवन को 'मदन्ति' अथवा 'मादयन्ते' जैसे सामान्य आशय के शब्दों से व्यक्त किया गया है (१०, १४. १५", इत्यादि) । स्वर्गलोक के आनन्दप्रद जीवन का सर्वाधिक विस्तृत विवरण ऋग्वेद (६,११३-१) में मिलता है। वहां चिरन्तन प्रकाश और तीव्रगति से प्रवाहित होने वाले ऐसे जल हैं, जिनकी गति निर्बाध होती है (तु० की० तैत्तिरीय ब्राह्मण ३,१२,२'); वहां पुष्टिकर भोजन और तृप्ति है; वहां आनन्द, सुख, आह्लाद और सभी कामनाओं की सन्तुष्टि है। यहां अनिश्चित रूप से वर्णित आनन्द की, बाद में प्रेम के रूप में व्याख्या की गई है (तैत्तिरीय ब्राह्मण २, ४,६; तु० की० शतपथ ब्राह्मण १०, ४ ४.) और अथर्ववेद (४.३४२) यह व्यक्त करता है कि स्वर्गलोक में लैंगिक मन्तुष्टि के प्रचुर साधन उपलब्ध हैं। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार वहां पहुंचने वाले भाग्यशालियों को प्राप्त सुख पृथ्वी के श्रेष्ठतम व्यक्तियों की अपेक्षा सौ गुने अधिक हैं (१४, ७, १२२) । ऋग्वेद भी यह कहता है कि भाग्यशालियों के स्वर्ग में वीणा का स्वर और संगीत सुनाई पड़ता रहता है (१०,१३५'); वहां के लोगों के लिए सोम, घृत और मधु प्रवाहित होता रहता है (१०, १५४')। वहां घृत से भरे सरोवर तथा दुग्ध, मधु और मदिरा की नदियां बहती हैं (अथर्ववेद ४,३४,५-'; शतपथ ब्राह्मण ११, ५, ६) । वहां उज्ज्वल, विविधि रंगों वाली गायें हैं जो सभी कामनाओं को पूर्ण करती हैं (कामुदुधाः-अथर्ववेद ४/३४")। वहां न तो निर्धन हैं और न धनवान्, न शक्तिशाली हैं, न शोषित (अथर्ववेद ३,२६')।" ___'ऋग्वेद के रचयिताओं के विचार से यदि पुण्यात्मा लोग परलोक १. वैदिक माइथोलॉजी 'हिन्दी अनुवाद' पृ० ३१६-३२० । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह में अपना पुस्कार प्राप्त करते हैं, तो दुष्टों के लिए भी परलोक में दण्ड मिलने का न सही, किन्तु कम से कम किसी न किसी प्रकार के आवास की कल्पना कर लेना भी, जैसा कि 'अवेस्ता' में है, स्वाभाविक ही है। जहां तक अथर्ववेद और कठ उपनिषद् का सम्बन्ध है, इनमें नरक की कल्पना निश्चित रूप से मिलती है। अथर्ववेद (२,१४: ५, १६') यम के क्षेत्र (१२-३") 'स्वर्ग-लोक के विपरीत, 'नारक-लोक' नामक राक्षसियों और अभिचारिणियों के आवास के रूप में एक अधो-गह (पाताल-लोक) की चर्चा करता है । हत्यारे लोग इसी नरक में भेजे जाते हैं (वाजसनेयि संहिता ३०,५) । इसे अथर्ववेद में अनेक बार 'अधम अन्धकार' (८,२" इत्यादि) और साथ ही साथ, 'काला अन्धकार' (५,३०१) और 'अन्ध अन्धकार' (१८, ३') कहा गया है । नारकीय यातनाओं का भी एक बार ही अथर्ववेद (५,१६) में और अपेक्षाकत अधिक विस्तृत रूप से शतपथ ब्राह्मण (११, ६, १) में वर्णन किया गया है; क्योंकि परलोक के दण्ड की धारणा अपने स्पष्ट रूप में ब्राह्मण-काल और उसके बाद से ही विकसित हुई है।" उत्तराध्ययन में 'देव' शब्द का प्रयोग इकतीस बार हुआ है। चार बार 'देवलोक' (देवलोग या देवलोय) का प्रयोग हुआ है। ___ उसमें तीसरे अध्ययन में बताया गया है- 'कर्म के हेतु को दूर कर । क्षमा से यश (संयम) का संचय कर। ऐसा करने वाला पार्थिव शरीर को छोड़ कर ऊर्ध्व दिशा (स्वर्ग या मोक्ष) को प्राप्त होता है। ___"विविध प्रकार के शीलों की आराधना करके जो देवकल्पों व उसके ऊपर के देवलोकों की आयु का भोग करते हैं, वे उत्तरोत्तर महाशुक्ल (चन्द्र-सूर्य) की तरह दीप्तिमान होते हैं। 'स्वर्ग से पुनः च्यवन नहीं होता'-ऐसा मानते हैं, वे दैवी भोगों के लिए अपने आपको अर्पित किए हुए रहते हैं । इच्छानुसार रूप बनाने में समर्थ होते हैं तथा सैकड़ों पूर्ववर्षों-असंख्य-काल तक वहां रहते हैं।" "जो संवृत भिक्षु होता है, वह दोनों में से एक होता है-सब दुःखों से मुक्त या महान् ऋद्धि वाला देव । _"देवताओं के आवास क्रमशः उत्तम, मोह-रहित, द्युतिमान् और १. वैदिक माइथोलॉजी 'हिन्दी अनुवाद', पृ० ३२१-३२२ । २. देखिए-दसवेआलियं तह उत्तरज्झयणाणि, शब्द-सूची, पृ० १९८ । ३. वही, शब्द-सूची पृ० १९८ । ४. उत्तराध्ययन, ३।१३-१५ । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण और वैदिक परम्परा की पृष्ठभूमि ७५ देवों से आकीर्ण होते हैं। उनमें रहने वाले देव यशस्वी, दीर्घायु, ऋद्धिमान्, दीप्तिमान्, इच्छानुसार रूप धारण करने वाले, अभी उत्पन्न हुए हों-ऐसी क्रान्ति वाले और सूर्य के समान अति-तेजस्वी होते हैं।' ___ 'देव और नरक-योनि में उत्पन्न हुआ जीव अधिक से अधिक एकएक जन्म-ग्रहण तक वहां रह जाता है, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर ।२ छत्तीसवें अध्ययन में देव-जाति के प्रकारों का निरूपण है।' नरक ( नरग या नरय या निरय) का प्रयोग सतरह बार हुआ है। उन्नीसवें अध्ययन में नारकीय वेदनाओं का विशद वर्णन है। नारकीय जीवों का निरूपण छत्तीसवें अध्ययन में हुआ है। कुछ श्रमण स्वर्ग और नरक में विश्वास नहीं करते थे। इस प्रसंग में अजितकेशकम्बल का उच्छेदवाद उल्लेखनीय है। संजयवेलठ्ठिपुत्त भी इस विषय में कोई निश्चित मत नहीं रखता था।' ६-निर्वाण ___ वैदिक यज्ञ-संस्था में पारलौकिक जीवन का महत्त्वपूर्ण संस्थान स्वर्ग है । निर्वाण का सिद्धान्त उन्हें मान्य नहीं था। उपनिषदों में वह स्थिर हुआ है। श्रमण परम्परा आरम्भ से ही निर्वाणवादी रही है। श्रीमद्भागवत में भगवान ऋषभ को मोक्ष धर्म की अपेक्षा से ही वासुदेव का अवतार कहा गया है। भगवान् बुद्ध ने वैदिक परम्परा से अपने उद्देश्य की पृथक्ता बतलाते हुए कहा-'पंचशिख ! हां मुझे स्मरण है। मैं ही उस समय महागोविन्द था। मैंने ही उन श्रावकों को ब्रह्मलोक का मार्ग बतलाया था। पंचशिख ! मेरा वह ब्रह्मचर्य न निर्वेद के लिए ( न विराग के लिए), न उपशम १. उत्तराध्ययन, ५५२५-२७ । २. वही, १०।१४। ३. वही, ३६।२०४-२४७ । ४. देखिए, दसवेआलियं तह उत्तरज्झयणाणि, शब्द-सूची-पृ० २०४,२१० । ५. उत्तराध्ययन, १६।४७-७३ । ६. वही, ३६।१५६-१६६ । ७. दीघनिकाय, १२, पृ० २०-२१ । ८. वही, ११२, पृ० २२ । ६. श्रीमद्भागवत, स्कन्ध ११, अध्याय २, खण्ड २, पृ० ७१०: तमाहुर्वासुदेवांशं, मोक्षधर्मविवक्षया। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ संस्कृति के दो प्रवाह ( = परम शान्ति ) के लिए, न ज्ञान प्राप्ति के लिए, न सम्बोधि के लिए और न निर्वाण के लिए था । वह केवल ब्रह्मलोक प्राप्ति के लिए था । पंचशिख ! मेरा यह ब्रह्मचर्य एकान्त ( बिलकुल ) निर्वेद के लिए, विराग, और निर्वाण के लिए है । "" सूत्रकृतांग में भगवान् महावीर को निर्वाणवादियों में श्रेष्ठ कहा गया है ।' भगवान् महावीर के काल में अनेक निर्वाणवादी धारएं थीं, किंतु महावीर जिस धारा में थे, वह धारा बहुत प्राचीन और बहुत परिष्कृत थी । इसीलिए उन्हें निर्वाणवादियों में श्रेष्ठ कहा गया । भगवान् बुद्ध ने निर्वाण का स्वरूप 'अस्त होना' या 'बुझ जाना' बतलाया - “भिक्षुओ ! यह जो रूप का निरोध है, उपशमन है, अस्त होना है, यही दुःख का निषेध है, रोगों का उपशमन है, जरा-मरण का अस्त होना है । यह जो वेदना का निरोध है, संज्ञा का निरोध है, उपशमन है, अस्त होना है, यही दुःख का निरोध है, रोगों का उपशमन है, जरा-मरण का अस्त होना है ।"" "यही शान्ति है, यही श्रेष्ठता है, यह जो सभी संस्कारों का शमन, सभी चित्त-मलों का त्याग, तृष्णा का क्षय, विराग-स्वरूप, निरोध स्वरूप निर्वाण है ।"" किन्तु उन्होंने यह नहीं बताया कि निर्वाण के पश्चात् आत्मा की क्या स्थिति होती है ? भगवान् महावीर ने निर्वाण की उत्तरकालीन स्थिति पर पूर्ण प्रकाश डाला । इसीलिये उन्हें निर्वाणवादियों में श्रेष्ठ कहा जा सकता है । उत्तराध्ययन में छह बार 'निर्वाण' शब्द का प्रयोग हुआ है और अनेक बार 'मोक्ष' शब्द भी अन्यान्य अर्थों के साथ निर्वाण के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है । ' 14 मोक्ष का वर्णन छत्तीसवें अध्ययन में है ।' अनेक समाप्ति में सिद्धगति, निर्वाण या मोक्ष प्राप्त होने का १. दीघनिकाय, २६, पृ० १७६ । २. सूत्रकृतांग, १।६।२१ । ३. संयुक्तनिकाय, २१॥३ ॥ ४. अंगुत्तरनिकाय, ३१३२ । ५. देखिए - दसवेआलियं तह उत्तरज्झ यणाणि, शब्द सूची, पृ० २११, २६८ । ६. उत्तराध्ययन, ३६।४८-६७ | ७. वही, ११४८; ३।२० ; १०।३७ ; ११।३२; १४ । ५३; १६।१७; १८।५३; २१।२४; २४।२७; ३०।३७; ३१।२१; ३२।१११ ; ३५/२१; ३६।२६८ । अध्ययनों की परिउल्लेख है । कुछ १२।४७ ; २५|४३; १३।३५; २६।५२; Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण और वैदिक परम्परा की पृष्ठभूमि श्रमण निर्वाण को नहीं मानते थे । ' इस प्रकार हम देखते हैं कि (१) दान, (२) स्नान, (३) कर्तृवाद, ( ४ ) आत्मा और परलोक ( ५ ) स्वर्ग और नरक तथा (६) निर्वाण - ये सभी विषय श्रमण परम्परा की एकसूत्रता के व्याप्त लक्षण नहीं हैं । इनमें से कुछ विषय श्रमण और वैदिक परम्पराओं में भी समान हैं । इसीलिए इन विषयों को श्रमण और वैदिक धारा की विभाजनरेखा तथा श्रमण परपम्परा की एकसूत्रता की व्याप्ति के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता । १. दीघनिकाय, ११२, पृ० २२ । ७७ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. आत्मविद्या : क्षत्रियों को देन आत्मविद्या की परम्परा ब्रह्मविद्या या आत्मविद्या अवैदिक शब्द है। मुण्डकोपनिषद् के अनुसार सम्पूर्ण देवताओं में पहले ब्रह्मा उत्पन्न हुआ। वह विश्व का कत्त और भुवन का पालक था। उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को समस्त विद्याओं की आधारभूत ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया। अथर्वा ने अंगिर को अंगिर ने भारद्वाज सत्यवह को. भारद्वाज सत्यवह ने अपने से कनिष्ठ ऋषि को उसका उपदेश दिया। इस प्रकार गुरु-शिष्य के क्रम से वह विद्या अंगिर ऋषि को प्राप्त हुई। बृहदारण्यक में दो बार ब्रह्मविद्या की वंश-परम्परा बताई गई है।' उसके अनुसार पौतिमाष्य ने गौपवन से ब्रह्मविद्या प्राप्त की। गुरु-शिष्य क' क्रम चलते-चलते अन्त में बताया गया है कि परमेष्ठी ने वह विद्या ब्रह्म से प्राप्त की। ब्रह्मा स्वयंभू हैं। शंकराचार्य ने ब्रह्मा का अर्थ 'हिरण्यगर्भ किया है। उससे आगे आचार्य-परम्परा नहीं है, क्योंकि वह स्वयंभू है।' मुण्डक और बृहदारण्यक का क्रम एक नहीं है। मुण्डक के अनुसार ब्रह्मविद्या की प्राप्ति ब्रह्मा से अथर्वा को होती है और बृहदारण्यक के अनुसार वह ब्रह्मा से परमेष्ठी को प्राप्त होती है। ब्रह्मा स्वयंभू है । इस विषय में दोनों एक मत हैं। जैन दर्शन के अनुसार आत्मविद्या के प्रथम प्रवर्तक भगवान ऋषभ हैं। वे प्रथम राजा, प्रथम जिन (अर्हत्), प्रथम केवली, प्रथम तीर्थंकर और प्रथम धर्म-चक्रवर्ती थे। उनके 'प्रथम जिन' होने की बात इतनी विश्रुत १. मुण्डकोपनिषद्, १११, १२ । २. बृहदारण्यकोपनिषद्, २।६।१; ४।६।१-२ । ३. वही, भाष्य, २।३।६, पृ० ६१८ : परमेष्ठी विराट् ब्रह्मणो हिरण्यगर्भात् । ततः परं आचार्य परम्परा नास्ति । ४. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, २१६३ : उसहे णामं अरहा कोसलिए पढमराया पढमजिणं पढमकेवली पढमतित्थकरे पढमधम्मवरचक्कवट्टी समुप्पज्जित्थे । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मविद्या : क्षत्रियों की देन हुई कि आगे चलकर 'प्रथम जिन' उनका एक नाम बन गया ।' श्रीमद्भागवत से भी इसी बात की पुष्टि होती है। वहां बताया गया है कि वासुदेव ने आठवां अवतार नाभि और मेरुदेवी के वहां धारण किया । वे ऋषभ रूप में अवतरित हुए और उन्होंने सब आश्रमों द्वारा नमस्कृत मार्ग दिखलाया । ' इसीलिए ऋषभ को मोक्षधर्म की विवक्षा से 'वासुदेवांश' कहा गया । " 1 ऋषभ के सौ पुत्र थे । वे सब के सब ब्रह्मविद्या के पारगामी थे । ' उनके नौ पुत्रों को 'आत्मविद्या विशारद' भी कहा गया है ।" उनका ज्येष्ठ पुत्र भरत महायोगी था । ' जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति, कल्पसूत्र और श्रीमद्भागवत के संदर्भ में हम आत्मविद्या के प्रथम पुरुष भगवान् ऋषभ को पाते हैं । कोई आश्चर्य नहीं कि उपनिषद्कारों ने ऋषभ को ही ब्रह्मा कहा हो । ब्रह्मा का दूसरा नाम हिरण्यगर्भ है । महाभारत के अनुसार हिरण्यगर्भ ही योग का पुरातन विद्वान् है, कोई दूसरा नहीं । श्रीमद्भागवत में ऋषभ को योगेश्वर कहा गया है ।' उन्होंने नाना योग-चर्याओं का चरण किया था । हठयोग प्रदीपिका में भगवान् ऋषभ को हठयोग-विद्या के उपदेष्टा के रूप में नमस्कार किया गया है ।" जैन आचार्य भी उन्हें योग विद्या के १. कल्पसूत्र, सू० १९४ : उसभेणं कोसलिए कासवगुत्ते णं, तस्स णं पंच नामधिज्जा जहा --- उसमे इ वा पढमराया इ वा पढमभिक्खाचरे इ वा पढमतित्थकरे इ वा । २. श्रीमद्भागवत, १।३।१३ : अष्टमे मेरुदेव्यां तु नाभेजति उरुक्रमः । दर्शयन् वर्त्म धीराणां सर्वाश्रमनमस्कृतम् ॥ ३. वही, ११।२।१६; तमाहुर्वासुदेवांशं, मोक्षधर्मविवक्षया । ४. वही, ११।२।१६; अवतीर्णः सुतशतं तस्यासीद् ब्रह्मपारगम् । ५. वही, ११।५।२० : ७६ नवाभवन् महाभागा, मुनयो ह्यर्थशंसिनः । श्रमणा वातरशनाः, आत्मविद्याविशारदाः ॥ ६. वही, ५।४।६; येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठः श्रेष्ठगुणः आसीत् । ७. महाभारत, शान्तिपर्व, ३४९।६५; हिरण्यगर्भो योगस्य, वेत्ता नान्यः पुरातनः । ८. श्रीमद्भागवत, ५।४।३ : भगवान् ऋषभदेवो योगेश्वरः । ६. श्रीमद्भागत, ५।५।२५ : नानायोगचर्याचरणो भगवान् कैवल्यपतिॠषभः । हठयोग प्रदीपिका : श्री आदिनाथय नमोस्तु तस्मै, येनोपदिष्टा हठयोगविद्या | १०. एवमाहिज्जंति, तं पढमजिणे इ वा Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह प्रणेता मानते हैं । ' इस दृष्टि से भगवान् ऋषभ 'आदिनाथ' 'हिरण्यगर्भ' और 'ब्रह्मा' – इन नामों से अभिहित हुए हैं । ऋग्वेद के अनुसार हिरण्यगर्भ भूत-जगत् का एकमात्र पति है । ' किन्तु उससे यह स्पष्ट नहीं होता कि वह 'परमात्मा' है या 'देहधारी' ? शंकराचार्य ने बृहदारण्यकोपनिषद् में ऐसी ही विप्रतिपत्ति उपस्थित की है - किन्हीं विद्वानों का कहना है कि परमात्मा ही हिरण्यगर्भ है और कई विद्वान् कहते हैं कि वह संसारी है ।" यह संदेह हिरण्यगर्भ के मूल स्वरूप की जानकारी के अभाव में प्रचलित था । भाष्यकार सायण के अनुसार हिरण्यगर्भ देहधारी है ।" आत्मविद्या, संन्यास आदि के प्रथम प्रवर्तक होने के कारण इस प्रकरण में हिरण्यगर्भ का अर्थ 'ऋषभ' ही होना चाहिए । हिरण्यगर्भ उनका एक नाम भी रहा है । ऋषभ जब गर्भ में थे, तब कुबेर ने हिरण्य की वृष्टि की थी, इसलिए उन्हें 'हिरण्यगर्भ' भी कहा गया । " कर्मविद्या और आत्मविद्या ८० कर्मविद्या और आत्मविद्या- ये दो धाराएं प्रारम्भ से ही विभक्त रही हैं । मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु और वशिष्ठ - सात ऋषि ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं । ये प्रधान वेदवेत्ता और प्रवृत्ति-धर्मावलम्बी हैं । इन्हें ब्रह्मा द्वारा प्रजापति के पद पर प्रतिष्ठित किया गया । यह कर्मपरायण पुरुषों के लिए शाश्वत मार्ग प्रकट हुआ । ' १. ज्ञानार्णव, १२ : योगिकल्पतरुं नौमि देवदेवं वृषध्वजम् । २. ऋग्वेद १०।१०।१२१।१ : हिरण्यगर्भः ? समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् । स सदाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ३. बृहदारण्यकोपनिषद्, १।४।६, भाष्य पृ० १८५ : अत्र विप्रतिपद्यन्ते --- पर एव हिरण्यगर्भ इत्येके । संसारीत्यपरे । ४. तैत्तिरीयारण्यक, प्रपाठक १०, अनुवाक् ६२, सायण भाष्य । ५. महापुराण, १२।६५ : संषा हिरण्यमयी वृष्टिः धनेशेन निपातिता विभोहिरण्यगर्भत्वमिव बोधयितुं जगत् ६. महाभारत, शान्तिपर्व, ३४० ६६-७१ : मरीचिरङ्गिराश्चात्रि:, पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः । वसिष्ठ इति सप्तैते, मानसा निर्मिता हि ते ।। एते वेदविदो मुख्या, वेदाचार्याश्च कल्पिताः । प्रवृत्तिधर्मिणश्चैव प्राजापत्ये प्रतिष्ठिता ॥ अयं क्रियावतां पन्था, व्यक्तीभूतः सनातनः । अनिरुद्ध इति प्रोक्तो, लोकसर्गकरः प्रभुः ॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मविद्या : क्षत्रियों की देन ८१ सन, सनत्, सुजात, सनक, ससनंदन, सनत्कुमार, कपिल और सनातन - ये सात ऋषि भी ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं । इन्हें स्वयं विज्ञान प्राप्त है और ये निवृत्ति-धर्मावलम्बी हैं । ये प्रमुख योगवेत्ता, सांख्य-ज्ञान-विशारद धर्म-शास्त्रों के आचार्य और मोक्ष-धर्म के प्रवर्तक हैं । सप्ततिशतस्थान में बतलाया गया है कि जैन, शैव और सांख्य- ये तीन धर्म-दर्शन भगवान् ऋषभ के तीर्थ में प्रवृत्त हुए थे । इससे महाभारत के उक्त तथ्यांश का समर्थन होता है । श्रीमद्भागवत में लिखा है - भगवान् ऋषभ के कुशावर्त आदि नौ पुत्र नौ द्वीपों के अधिपति बने, कवि आदि नौ पुत्र आत्म-विद्या- विशारद श्रमण बने और भरत को छोड़कर शेष ८१ पुत्र महाश्रोत्रिय, यज्ञशील और कर्मशुद्ध ब्राह्मण बने । उन्होंने कर्मतन्त्र का प्रणयन किया । भगवान् ऋषभ ने आत्म-तंत्र का प्रवर्तन किया और उनके ८१ पुत्र कर्म-तन्त्र के प्रवर्तक हुए। ये दोनों धाराएं लगभग एक साथ ही प्रवृत्त हुईं । यज्ञ का अर्थ यदि आत्म-यज्ञ किया जाए तो थोड़ी भेदरेखाओं के साथ उक्त विवरण का संवादक प्रमाण जैन साहित्य में भी मिलता है और यदि यज्ञ का अर्थ वेद-विहित यज्ञ किया जाए तो यह कहना होगा कि भागवतकार ने ऋषभ के पुत्रों को यज्ञशील बता यज्ञ को जैन परम्परा से सम्बन्धित करने का प्रयत्न किया है । आत्मविद्या भगवान् ऋषभ द्वारा प्रवर्तित हुई । उनके पुत्रों १. महाभारत, शान्तिपर्व, ३४०।७२-७४ : सनः सनत्सुजातश्च सनकः ससनन्दनः । सनत्कुमारः कपिलः, सप्तमश्च सनातनः ॥ सप्तैते मानसाः प्रोक्ता, ऋषयो ब्रह्मणः सुताः । स्वयमागतविज्ञाना, निवृत्ति धर्ममास्थिताः ॥ एते योगविदो मुख्याः, सांख्यज्ञानविशारदाः । आचार्या धर्मशास्त्रषु, मोक्षधर्म प्रवर्तकाः ॥ २. सप्ततिशतस्थान, ३४०-३४१ : जइणं सइवं संखं, वेअंतियनाहिआण बुद्धाणं । इसे सियाण वि मयं, इमाई सग दरिसणाई कम ॥ तिन्नि उसहस्स तित्थे, जायाइ सीअलस्स ते दुन्नि । दरिसण मेगं पासस्स, सत्तमं वीरतित्थमि ॥ ३. श्रीमद्भागवत, ५।४।६ - १३; ११।२।१६-२१ । ४. आवश्यक निर्युक्ति, पृ० २३५-२३६ । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह वातरशन श्रमणों द्वारा वह परम्परा के रूप में प्रचलित रही । श्रमण और वैदिक धारा का संगम हुआ तब प्रवृत्तिवादी वैदिक आर्य उससे प्रभावित नहीं हुए किन्तु श्रमण परम्परा के अनुयायी असुरों की धृति, आत्मलीनता और अशोक-भाव को देखा तो वे उससे सहसा प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके । वेदोत्तर युग में आत्मविद्या और उसके परिपार्श्व में विकसित होने वाले अहिंसा, मोक्ष आदि तत्त्व दोनों धाराओं के संगम स्थल हो गए । वैदिक साहित्य में श्रमण संस्कृति के और श्रमण साहित्य में वैदिक संस्कृति के अनेक संगम स्थल हैं। यहां हम मुख्यतः आत्मविद्या और उसके रिपार्श्व में अहिंसा की चर्चा करेंगे । 1 आत्मविद्या और वेद ८२ 3 महाभारत का एक प्रसंग है । महर्षि बृहस्पति ने प्रजापति मनु से पूछा - " भगवन् ! जो इस जगत् का कारण है, जिसके लिए वैदिक कर्मों का अनुष्ठान किया जाता है, ब्राह्मण लोग जिसे ज्ञान का अन्तिम फल बतलाते हैं तथा वेद के मंत्र - वाक्यों द्वारा जिसका तत्त्व पूर्ण रूप से प्रकाश में नहीं आता, उस नित्य वस्तु का आप मेरे लिए यथार्थ वर्णन करें ।' "मनुष्य को जिस वस्तु का ज्ञान होता है, उसी को वह पाना चाहता है और पाने की इच्छा होने पर उसके लिए वह प्रयत्न आरम्भ करता है, परन्तु मैं तो उस पुरातन परमोत्कृष्ट वस्तु के विषय में कुछ जानता ही नहीं हूं, फिर पाने के लिए झूठा प्रयत्न कैसे करूं ? मैंने ऋक्, साम और यजुर्वेद का तथा छन्द का अर्थात् अथर्ववेद का एवं नक्षत्रों की गति, निरुक्त व्याकरण, कल्प और शिक्षा का भी अध्ययन किया है तो भी मैं आकाश आदि पांचों महाभूतों के उपादान कारण को न जान सका । तत्त्वज्ञान होने पर कौन - सा फल प्राप्त होता है ? कर्म करने पर किस फल की उपलब्धि होती है ? देहाभिमानी जीव देह से किस प्रकार निकलता है और फिर दूसरे शरीर में प्रवेश कैसे करता है ? ये मारी बातें भी मुझे बतलाएं ।"" इसी प्रकार नारद सनत्कुमार से कहता है- "भगवन् ! मुझे उपदेश दें ।” तब सनत्कुमार ने कहा - "तुम जो जानते हो वह मुझे बतलाओ, फिर उपदेश दूंगा ।" तब नारद ने कहा- "भगवन् ! मुझे ऋग्वेद, सामवेद और अथर्ववेद याद हैं । इतिहास, वेदों के वेद (व्याकरण), श्रद्धा- कल्प, गणित, उत्पाद - ज्ञान, निधिशास्त्र, तर्कशास्त्र, नीति, देव-विद्या, ब्रह्म-विद्या, भूतविद्या, क्षत्र-विद्या, सर्प - विद्या और देवजन-विद्या ( नृत्य, संगीत आदि) को १. महाभारत, शान्तिपर्व, २०११४ । २ . वही, शान्तिपर्व, २०१७, ८,६ । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मविद्या : क्षत्रियों की देन मैं जानता हूं।"" सब वेदों को जान लेने पर भी आत्मविद्या का ज्ञान नहीं होता था, उसका कारण मुण्डकोपनिषद् से स्पष्ट होता है । शौनक ने अंगिरा के पास विधिपूर्वक जाकर पूछा - "भगवन् ! किसे जान लेने पर सब कुछ जान लिया जाता है ?" अंगिरा ने कहा - " दो विद्याएं हैं - एक 'परा' और दूसरी 'अपरा' | ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष --- यह 'अपरा' विद्या है तथा जिससे उस अक्षर परमात्मा का ज्ञान होता है, वह 'परा' विद्या है ।' इस 'परा' विद्या को वेदों से पृथक् बतलाने का तात्पर्य यही हो सकता है कि वैदिक ऋषि इसे महत्त्व नहीं देते थे । १२ श्रमण परम्परा और क्षत्रिय श्रमण परम्परा में क्षत्रियों की प्रमुखता रही है और वैदिक परम्परा में ब्राह्मणों की । भगवान् महावीर का देवानन्दा की कोख से त्रिशला क्षत्रियाणी की कोख में संक्रमण किया गया, यह तथ्य श्रमण परम्परा सम्मत क्षत्रिय जाति की श्रेष्ठता का सूचक है ।" महात्मा बुद्ध ने कहा था— " वाशिष्ठ ! ब्रह्मा सनत्कुमार ने भी गाथा कही है 1 'गोत्र लेकर चलने वाले जनों में क्षत्रिय श्रेष्ठ हैं । जो विद्या और आचरण से युक्त हैं, वह देव मनुष्यों में श्रेष्ठ हैं ।' " वाशिष्ठ ! यह गाथा ब्रह्मा सनत्कुमार ने ठीक ही कही है, बे-ठीक नहीं कही। सार्थक कही, अनर्थक नहीं। इसका मैं भी अनुमोदन करता हूं।" ८३ क्षत्रिय की उत्कृष्टता का उल्लेख बृहदारण्यकोपनिषद् में भी मिलता है । वह इतिहास की उस भूमिका पर अंकित हुआ जान पड़ता है जब क्षत्रिय और ब्राह्मण एक दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी हो रहे थे । वहां लिखा है - " आरम्भ में यह एक ब्रह्म ही था । अकेले होने के कारण वह विभूतियुक्त कर्म करने में समर्थ नहीं हुआ । उसने अतिशयता से 'क्षत्र' - इस प्रशस्त रूप की रचना की अर्थात् देवताओं में जो क्षत्रिय, इंद्र, १. छान्दोग्योपनिषद्, ७।१।१,२ । २. मुण्डकोपनिषद्, १११।३-५ । ३. कल्पसूत्र, २०-२५ । ४. दीघनिकाय, ३४, पृ० २४५ । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह वरुण, सोम, रुद्र, मेघ, यम, मृत्यु और ईशान आदि हैं, उन्हें उत्पन्न किया। अतः क्षत्रिय से उत्कृष्ट कोई नहीं है। उसी से राजसूय यज्ञ में ब्राह्मण नीचे बैठकर क्षत्रिय की उपासनः करता है। वह क्षत्रिय में ही अपने यश को स्थापित करता है।" मात्मविद्या के लिए ब्राह्मणों द्वारा अत्रियों की उपासना क्षत्रियों की श्रेष्ठता उनकी रक्षात्मक शक्ति के कारण नहीं, किन्तु आत्मविद्या की उपलब्धि के कारण थी। यह आश्चर्यपूर्ण नहीं, किन्तु बहुत यथार्थ बात है कि ब्राह्मणों को आत्मविद्या क्षत्रियों से प्राप्त हुई है। आरुणि का पुत्र श्वेतकेतु पंचालदेशीय लोगों की सभा में आया। प्रवाहण ने कहा-कुमार ! क्या पिता ने तुम्हें शिक्षा दी है ? श्वेतकेतु-हां भगवन् ! प्रवाहण-क्या तुझे मालूम है कि इस लोक से (जाने पर) प्रजा कहां जाती है ? __ श्वेतकेतु-नहीं, भगवन् ! प्रवाहण--क्या तू जानता है कि वह फिर इस लोक में कैसे आती है ? श्वेतकेतु-नहीं भगवन् ! प्रवाहण-देवयान और पितृयान -इन दोनों मार्गों का एक दूसरे से विलग होने का स्थान तुझे मालूम है ? श्वेतकेतु-नहीं, भगवन् ! प्रवाहण-तुझे मालूम है, यह पितृलोक मरता क्यों नहीं है ? श्वेतकेतु-भगवन् ! नहीं। प्रवाहण-क्या तू जानता है कि पांचवीं आहुति के हवन कर दिए जाने पर आप (सौम, घृतादि रस) पुरुष संज्ञा को कैसे प्राप्त होते हैं ? श्वेतकेतु-नहीं, भगवन् ! नहीं। तो फिर तू अपने को 'मुझे शिक्षा दी गई है ऐसा क्यों बोलता था ? जो इन बातों को नहीं जानता, वह अपने को शिक्षित कैसे कह सकता है ? तब वह त्रस्त होकर अपने पिता के स्थान पर आया और उससे बोला-"श्रीमान् ने मुझे शिक्षा दिए बिना ही कह दिया कि मैंने तुम्हें शिक्षा दे दी है। उस क्षत्रिय बन्धु ने मुझ से पांच प्रश्न पूछे थे, किन्तु मैं उनमें से एक का भी विवेचन नहीं कर सका।' १. बृहदारण्यक, १।४।११, पृ० २८६ । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मविद्या : क्षत्रियों की देन उसने कहा - " तुमने उस समय सुनाएं हैं, उनमें से मैं एक को भी नहीं तो तुम्हें क्यों नहीं बतलाता ? ' ६५ ( आते ही ) जैसे ये प्रश्न मुझे जानता । यदि मैं इन्हें जानता तब वह गौतम राजा के स्थान पर आया और उसने अपनी जिज्ञासाएं राजा के सामने प्रस्तुत कीं । राजा ने उसे चिरकाल तक अपने पास रहने का अनुरोध किया और कहा - " गौतम ! जिस प्रकार तुमने मुझ से कहा है, पूर्वकाल में तुमसे पहले यह विद्या ब्राह्मणों के पास नहीं गई । इसी से सम्पूर्ण लोकों क्षत्रियों का ही (शिष्यों के प्रति ) अनुशासन होता रहा है ।" बृहदारण्यक उपनिषद् में भी राजा प्रवाहण आरुणि से कहता है - " इससे पूर्व यह विद्या (अध्यात्म-विद्या) किसी ब्राह्मण के पास नहीं रही । वह मैं तुम्हें बताऊंगा । " उपमन्यु का पुत्र प्राचीनशाल, पुलुष का पुत्र सत्ययज्ञ, मल्लवि के पुत्र का पुत्र इन्द्रद्युम्न, शर्करक्ष का पुत्र जन और अश्वतराश्व का पुत्र वुडल -- ये महागृहस्थ और परमश्रोत्रिय एकत्रित होकर परस्पर विचार करने लगे कि हमारा आत्मा कौन है और हम क्या हैं ? उन्होंने निश्चय किया कि अरुण का पुत्र उद्दालक इस समय वैश्वानर आत्मा को जानता है, अतः हम उसके पास चलें । ऐसा निश्चय कर वे उसके पास आए । उसने निश्चय किया कि ये परम श्रोत्रिय महागृहस्थ मुझ से प्रश्न करेंगे, किन्तु मैं इन्हें पूरी तरह से बतला नहीं सकूंगा । अतः मैं इन्हें दूसरा उपदेष्टा बतला दूं । उसने कहा - 'इस समय केकयकुमार अश्वपति इस वैश्वानर संज्ञक आत्मा को अच्छी तरह से जानता है । आइए, हम उसी के पास चलें ।” ऐसा कहकर वे उसके पास चले गए । उन्होंने केकयकुमार अश्वपति से कहा - " इस समय आप वैश्वानर आत्मा को अच्छी तरह जानते हैं, इसलिए उसका ज्ञान हमें दें ।' दूसरे दिन केकयकुमार अश्वपति ने उन्हें आत्मविद्या का उपदेश दिया । " १. छान्दोग्योपनिषद्, ५।३।१-७०, पृ० ४७२-४७६ । २. बृहदारण्यकोपनिषद्, ६।२८ : यथेयंविद्येतः पूर्वं न कश्मिश्चन ब्राह्मण उवाच तां त्वहं तुभ्यं वक्ष्यामि । ३. छान्दोग्योपनिषद्, ५।११।१-७ । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवास ब्राह्मणों के ब्रह्मत्व पर तीखा व्यंग करते हुए अजातशत्रु ने गाग्र से कहा था-"ब्राह्मण क्षत्रिय की शरण में इस आशा से जाएं कि या मुझे ब्रह्म का उपदेश करेगा, यह तो विपरीत है । तो भी मैं तुम्हें उसक ज्ञान कराऊंगा ही। प्रायः सभी मैथिल नरेश आत्मविद्या को आश्रय देते थे। एम० विन्टरनिटज ने इस विषय पर बहत विवेचना की है उन्होंने लिखा है-“भारत के इन प्रथम दार्शनिकों को उस युग वे पुरोहितों में खोजना उचित न होगा, क्योंकि पुरोहित तो यज्ञ को एक शास्त्रीय ढांचा देने में दिलोजान से लगे हुए थे जबकि इन दार्शनिकों क ध्येय वेद के अनेकेश्वरवाद को उन्मूलित करना ही था। जो ब्राह्मण यज्ञ के आडम्बर द्वारा ही अपनी रोटी कमाते हैं, उन्हीं के घर में ही कोई ऐसा व्यक्ति जन्म ले ले, जो इन्द्र तक की सत्ता में विश्वास न करे देवताओं के नाम से आहुतियां देना जिसे व्यर्थ नजर आए, बुद्धि नही मानती । सो अधिक संभव नहीं प्रतीत होता है कि यह दार्शनिक चिन्तन उन्हीं लोगों का क्षेत्र था जिन्हें वेदों में पुरोहितों का शत्रु अर्थात् अरि कंजूस, 'ब्राह्मणों को दक्षिणा देने से जी चुराने वाला' कहा गया है। 'उपनिषदों में तो और कभी-कभी ब्राह्मणों में भी, ऐसे कितने ही स्थल आते हैं, जहां दर्शन अनुचिन्तन के उस यूग-प्रवाह में क्षत्रियों की भारतीय संस्कृति को देन स्वतः सिद्ध हो जाती है। ___ 'कौशीतकी ब्राह्मण (२६,५) में प्राचीन भारत की साहित्यिक गतिविधि की निदर्शक एक कथा, राजा प्रतर्दन के सम्बन्ध में आती है कि किस प्रकार वह मानी ब्राह्मणों से यज्ञ-विद्या के विषय में जूझता है । शतपथ की ११ वीं कण्डिका में राजा जनक सभी पुरोहितों का मुंह बंद कर देते हैं, और तो और ब्राह्मणों को जनक के प्रश्न समझ में ही नहीं आते ? एक एक और प्रसंग में श्वेतकेतु, सोमशुष्म और याज्ञवल्क्य सरीखे माने हुए ब्राह्मणों से प्रश्न करते हैं कि अग्निहोत्र करने का सच्चा तरीका क्या है, और किसी से इसका सन्तोषजनक उत्तर नहीं बन पाता। यज्ञ की दक्षिणा अर्थात् १०० गाएं, याज्ञवल्क्य के हाथ लगती हैं, किन्तु जनक साफ-साफ कहे जाता है कि अग्निहोत्री की भावना अभी स्वयं याज्ञवल्क्य को स्पष्ट नहीं हुई और सूत्र के अनन्तर जब महाराज अन्दर चले जाते हैं, तो ब्राह्मणों में कानाफूसी चल पड़ती है 'यह क्षत्रिय होकर हमारी ऐसी की तैसी कर १. बृहदारण्यकोपनिषद्, २२११५ । २. विष्णुपुराण, ४१५॥३४ : प्रायेणैते आत्मविद्याश्रयिणो भूपाला भवन्ति । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मविद्या : क्षत्रियों की देन गया; खैर हम भी तो इसे सबक दे सकते हैं-ब्रह्मोद (के विवाद) में इसे नीचा दिखा सकते हैं।' तब याज्ञवल्क्य उन्हें मना करता है-देखो, हम ब्राह्मण हैं और वह सिर्फ एक क्षत्रिय है, हम उसे जीत भी लें तो हमारा उससे कुछ बढ़ नहीं जाता और अगर उसने हमें हरा दिया तो लोग हमारी मखौल उड़ाएंगे-'देखो, एक छोटे से क्षत्रिय ने ही इनका अभिमान चूर्ण कर डाला' । और उनसे (अपने साथियों से) छुट्टी पाकर याज्ञवल्क्य स्वयं जनक के चरणों में हाजिर होता है; भगवन् ! मुझे भी ब्रह्म-विद्या सम्बन्धी अपने स्वानुभव का कुछ प्रसाद दीजिए।" और भी ऐसे अनेक प्रसंग मिलते हैं जिनसे आत्म-विद्या पर क्षत्रियों का प्रभुत्व प्रमाणित होता है। आत्मविद्या के पुरस्कर्ता एम० विन्टरनिट्ज ने लिखा है--'जहां ब्राह्मण यज्ञ, याग आदि की नीरस प्रक्रिया से लिपटे हुए थे, अध्यात्म-विद्या के चरम प्रश्नों पर और लोग स्वतंत्र चिन्तन कर रहे थे । इन्हीं ब्राह्मणेतर मण्डलों में ऐसे वानप्रस्थों तथा रमते परिव्राजकों का सम्प्रदाय उठा-जिन्होंने न केवल संसार और सांसारिक सुख-वैभव से अपित यज्ञादि की नीरसता से भी अपना नाता तोड़ लिया था। आगे चल कर बौद्ध, जैन आदि विभिन्न ब्राह्मण-विरोधी मत-मतान्तरों का जन्म इन्हीं स्वतंत्र-चिन्तकों तथाकथित नास्तिकों की बदौलत सम्भव हो सका, यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है । प्राचीन यज्ञादि सिद्धान्तों के भष्मशेष से इन स्वतंत्र विचारों की परम्परा रही, यह भी एक (और) ऐतिहासिक तथ्य है । याज्ञिकों में 'जिद' कुछ घर कर आती, और न यह नई दृष्टि कुछ संभव हो सकती। 'इन सबका यह मतलब न समझा जाए कि ब्राह्मणों का उपनिषदों के दार्शनिक चिन्तन में कोई भाग था ही नहीं, क्योंकि प्राचीन गुरुकुलों में एक ही आचार्य की छत्र-छाया में ब्राह्मण-पुत्रों, क्षत्रिय-पुत्रों की शिक्षा-दीक्षा का तब प्रबन्ध था और यह सब स्वाभाविक ही प्रतीत होता है कि विभिन्न समस्याओं पर समय-समय पर उन दिनों विचार-विनिमय भी बिना किसी भेदभाव के हुआ करते थे।" बौद्ध, जैन आदि विभिन्न ब्राह्मण विरोधी मत-मतान्तरों का जन्म इन्हीं स्वतंत्र चिन्तकों तथाकथित नास्तिकों की बदौलत ही सम्भव हो १. प्राचीन भारतीय साहित्य, प्रथम भाग, प्रथम खण्ड, पृ० १८३ । २. वही पृ० १८५। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह सका'-'इस वाक्य की अपेक्षा यह वाक्य अधिक उपयुक्त हो सकता है कि 'बौद्ध जैन आदि विभिन्न ब्राह्मण विरोधी मत-मतान्तरों का विकास आत्मवेत्ता क्षत्रियों की बदौलत ही संभव हो सका। क्योंकि अध्यात्म-विद्या की परम्परा बहुत प्राचीन रही है, सभवतः वेद-रचना से पहले भी रही है। उसके पुरस्कर्ता क्षत्रिय थे। ब्राह्मण-पुराण भी इस बात का समर्थन करते हैं कि भगवान् ऋषभ क्षत्रियों के पूर्वज हैं।' उन्होंने सुदूर क्षितिज में अध्यात्म-विद्या का उपदेश दिया था। ब्राह्मणों की उदारता - ब्राह्मणों ने भगवान् ऋषभ और उनकी अध्यात्म-विद्या को जिस प्रकार अपनाया, वह उनकी अपूर्व उदारता का ज्वलन्त उदाहरण है। एम० विन्टरनिट्ज के शब्दों में हम यह भी न भूल जाएं कि (भारत के इतिहास में) ब्राह्मणों में ही यह प्रतिभा पाई जाती है कि अपनी घिसी-पिटी उपेक्षित विद्या में भी नए-विरोधी भी क्यों न हों-विचारों की संगति बिठा सकते हैं। आश्रम-व्यवस्था को, इसी विशिष्टता के साथ, चुपचाप उन्होंने अपने (ब्राह्मण) धर्म का अंग बना लिया-वानप्रस्थ और संन्यासी लोग भी उन्हीं की प्राचीन व्यवस्था में समा गए। आरण्यकों और उपनिषदों में विकसित होने वाले अध्यात्म-विद्या को विचार-संगम की संज्ञा देकर हम अतीत के प्रति अन्याय नहीं करते । डा० भगवतशरण उपाध्याय का मत है कि ऋग्वैदिक-काल के बाद जब उपनिषदों का समय आया तब तक क्षत्रिय-ब्राह्मण संघर्ष उत्पन्न हो गया था और क्षत्रिय ब्राह्मणों से वह पद छीन लेने को उद्यत हो गए थे जिसका उपभोग ब्राह्मण वैदिक-काल से किए आ रहे थे।' पाजिटर का अभिमत इससे भिन्न है। उन्होंने लिखा है-"राजाओं व ऋषियों की परम्पराएं भिन्न-भिन्न रहीं । सुदूर अतीत में दो भिन्न परम्पाएं थीं-क्षत्रिय परम्परा और ब्राह्मण परम्परा । यह मानना विचारपूर्ण नहीं कि विशुद्ध क्षत्रिय१. (क) वायुपुराण, पूर्वार्द्ध, ३३१५० : नाभिस्त्वजनयत पुत्रं, मरुदेव्यां महाद्युतिः । ऋषभं पार्थिवश्रेष्ठ, सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम् ॥ (ख) ब्रह्माण्डपुराण, पूर्वार्द्ध, अनुषंगपाद, १४।६० : ऋषभं पार्थिवश्रेष्ठ, सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम् । ऋषभाद् भरतो जज्ञे, वीरः पुत्रशताग्रजः ॥ २. प्राचीन भारतीय साहित्य, प्रथम भाग, प्रथम खण्ड, पृ० १५६ । १. संस्कृति के चार अध्याय, पृ० ११० । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मविद्या : क्षत्रियों की देन परम्परा पूर्णतः विलीन हो गई थी या अत्यधिक भ्रष्ट हो गई या जो वर्तमान में है, वह मौलिक नहीं। ब्राह्मण अपने धार्मिक व्याख्याओं को सुरक्षित रख सके व उनका पालन कर सके हैं तो क्षत्रियों के सम्बन्ध में इससे विपरीत मानना अविचारपूर्ण है। क्षत्रिय परम्परा में भी ऐसे व्यक्ति थे, जिनका मुख्य कार्य ही परम्परा को सुरक्षित रखना था। 'क्षत्रिय व ब्राह्मण परम्परा का अन्तर महत्त्वपूर्ण है और स्वाभाविक भी। यदि क्षत्रिय परम्परा का अस्तित्व नहीं होता तो वह आश्चर्यजनक स्थिति होती। ब्राह्मण व क्षत्रिय-परम्परा की भिन्नता प्राचीनतम काल से पुराणों के संकलन व पौराणिक ब्राह्मणों का उन पर अधिकार होने तक रही। __ वस्तुतः क्षत्रिय परम्परा ऋग्वेद-काल से पूर्ववर्ती है । उपनिषद्-काल में क्षत्रिय ब्राह्मणों का पद छीन लेने को उद्यत नहीं थे; प्रत्युत ब्राह्मणों को आत्मविद्या का ज्ञान दे रहे थे। जैसा कि डा० उपाध्याय ने लिखा है-"ब्राह्मणों के यज्ञानुष्ठान आदि के विरुद्ध क्रान्ति कर क्षत्रियों ने उपनिषद् विद्या की प्रतिष्ठा की और ब्राह्मणों ने अपने दर्शनों की नींव डाली। इस संघर्ष का काल-प्रसार काफी लम्बा रहा जो अन्ततः द्वितीय शती ई०प० में ब्राह्मणों के राजनीतिक उत्कर्ष का कारण हुआ। इसमें एक ओर तो वशिष्ठ, परशुराम, तुरकावपेय, कात्यायन, राक्षस, पतंजलि और पुष्यमित्र शुंग की परम्परा रही और दूसरी ओर विश्वमित्र, देवापि, जनमेजय, अश्वपति, कैकेय, प्रवहण, जैबलिअजातशत्रु, कौशेय, जनक, विदेह, पाव, महावीर, बुद्ध और वृहद्रथ की। आत्मविद्या और अहिंसा ___अहिंसा का आधार आत्मविद्या है। उसके बिना अहिंसा कोरी नैतिक बन जाती है, उसका आध्यात्मिक मूल्य नहीं रहता। ___ अहिंसा और हिंसा कभी ब्राह्मण और क्षत्रिय परम्परा की विभाजनरेखा थी । अहिंसा प्रिय होने के कारण क्षत्रिय जाति बहुत जनप्रिय हो गई थी जैसा कि दिनकर ने लिखा है-"अवतारों में वामन और परशुराम, ये दो ही हैं जिनका जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था। बाकी सभी अवतार क्षत्रियों के वंश में हुए हैं। वह आकस्मिक घटना हो सकती है, किन्तु इससे यह अनुमान आसानी से निकल आता है कि यज्ञों पर पलने के कारण ब्राह्मण इतने हिंसा-प्रिय हो गये थे कि समाज उनसे घणा करने लगा और ब्राह्मणों १. Ancient Indian Historical Tradition, p. 5, 6, २. संस्कृति के चार अध्याय, पृ० ११० । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० संस्कृति के दो प्रवाह का पद उन्होंने क्षत्रियों को दे दिया। प्रतिक्रिया केवल ब्राह्मण धर्म (यज्ञ) के प्रति ही नहीं, ब्राह्मणों के गढ़ कुरु पंचाल के खिलाफ भी जगी और वैदिक सभ्यता के बाद वह समय आ गया जब इज्जत कूरु पंचाल की नहीं बल्कि मगध और विदेह की होने लगी। कपिलवस्तु में जन्म लेने के ठीक पूर्व जब तथागत स्वर्ग में देवयोनि में विराज रहे थे, तब की कथा है कि देवताओं ने उनसे कहा कि अब आपका अवतार होना चाहिए. अतएव आप सोच लीजिए कि किस देश और किस कुल में जन्म-ग्रहण कीजिएगा। तथागत ने सोच समझ कर बताया कि महाबुद्ध के अवतार के योग्य तो मगध देश और क्षत्रिय वंश ही हो सकता है। इसी प्रकार भगवान् महावीर वर्धमान भी पहले एक ब्राह्मणी के गर्भ में आए थे। लेकिन इन्द्र ने सोचा कि इतने बड़े महापुरुष का जन्म ब्राह्मण-वंश में कैसे हो सकता है ? अतएव उसने ब्राह्मणी का गर्भ चुरा कर उसे एक क्षत्राणी की कुक्षी में डाल दिया। इन कहानियों से यह निष्कर्ष निकलता है कि उन दिनों यह अनुभव किया जाने लगा था कि अहिंसा धर्म का महाप्रचारक ब्राह्मण नहीं हो सकता, इसलिए बुद्ध और महावीर के क्षत्रिय-वंश में उत्पन्न होने की कल्पना लोगों को बहुत अच्छी लगने लगी।"५ उक्त अवतरणों व अभिमतों से ये निष्कर्ष हमें सहज उपलब्ध होते (१) आत्मविद्या के आदि-स्रोत तीर्थङ्कर ऋषभ थे। (२) वे क्षत्रिय थे। (३) उनकी परम्परा क्षत्रियों में बराबर समादृत रही। (४) अहिंसा का विकास भी आत्मविद्या के आधार पर हुआ। (५) यज्ञ-संस्था के समर्थक ब्राह्माणों ने वैदिककाल में आत्मविद्या को प्रमुखता नहीं दी। (६) आरण्यक व उपनिषद्-काल में वे आत्मविद्या की ओर आकृष्ट हुए। (७) क्षत्रियों के द्वारा उन्हें वह (आत्मविद्या) प्राप्त हुई। HPAN १. संस्कृति के चार अध्याय, प० १०६-११० । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. धर्म की धारणा के हेतु संसार के मूल बिन्दु दो हैं-(१) जन्म और (२) मृत्यु । ये दोनों प्रत्यक्ष हैं । किन्तु इनके हेतु हमारे प्रत्यक्ष नहीं हैं। इसीलिए इनकी एषणा के लिए हमारे मन में जिज्ञासा उत्पन्न होती है। धर्म की विचारणा का आदि-बिन्दु यही है। ___ जैसे अण्डा बगुली से उत्पन्न होता है और बगुली अण्डे से उत्पन्न होती है, उसी प्रकार तृष्णा मोह से उत्पन्न होती है और मोह तृष्णा से उत्पन्न होता है। राग और द्वेष-ये दोनों कर्म-बीज हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है । वह जन्म और मृत्यु का मूल हेतु है और यह जन्म-मरण की परम्परा ही दुःख है।' दुःखवादी दृष्टिकोण धर्म की धारणा के अनेक हेतु हैं। उनमें एक मुख्य हेतु रहा हैदुःखवाद। अनात्मवाद के चौराहे पर खड़े होकर जिन्होंने देखा, उन्होंने कहा-संसार सुखमय है। जिन्होंने अध्यात्म की खिड़की से झांका, उन्होंने कहा-संसार दु:खमय है । जन्म दुःख है, जरा दुःख है, रोग दुःख है, मृत्यु दुःख है, और क्या, यह समूचा संसार ही दुःख है। यह अभिमत केवल भगवान् महावीर व उनके पूर्ववर्ती तीर्थङ्करों का ही नहीं रहा, महावीर के समकालीन अन्य धर्माचार्यों का अभिमत भी यही था। महात्मा बुद्ध ने इन्हीं स्वरों में कहा था---'पैदा होना दुःख है, बूढ़ा होना दुःख है, व्याधि दुखः है, मरना दुःख है। महावीर और बुद्ध-ये दोनों श्रमण परम्परा के प्रधान शास्ता थे। उन्होंने जो कहा, वह महर्षि कपिल के सांख्य दर्शन' और पतञ्जलि' के १. उत्तराध्ययन, ३२।६-७ । २. वही, १६।१५। ३. महावग्ग, ११६।१५। ४. सांख्य दर्शन, १११ : अत्र त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः । ५. पातंजल योगसूत्र, २०१४-१५: ते ह्लादपरितापफलाः पुण्यापुण्यहेतुत्वात् ।। परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्व विवेकिनः ।। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ संस्कृति के दो प्रवाह योगसूत्र में भी प्राप्त है। कुछ विद्वानों का अभिमत है कि उपनिषद्परम्परा सुखवादी है और श्रमण-परम्परा दुःखवादी। यदि यह सही है तो सांख्य और योगदर्शन सहज ही श्रमण-परम्परा की परिधि में आ जाते हैं। प्रस्तुत विषय का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया जाए तो यह फलित होता है कि कोई भी मोक्षवादी परम्परा सुखवादी नहीं हो सकती। जो संसार को सुखमय मानता है, उसके मन में दुःख-मुक्ति की आकांक्षा कैसे उत्पन्न होगी ? दुःख-मुक्ति वही चाहेगा, जो संसार को दुःखमय मानता है । इस विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि दुःखवाद और मुक्तिवाद एक ही विचारधारा के दो छोर हैं। उपनिषदों में सुख और आनन्द की धारणा ब्रह्म के साथ जुड़ी हुई है, संसार के साथ नहीं। नारद ने पूछा---'भगवन् ! मैं सुख को जानना चाहता हूं।' तब सनत्कुमार ने कहा-'जो भूमा है, वह सुख है, अल्प में सुख नहीं है।' नारद ने फिर पूछा-'भगवन् ! भूमा क्या है ?' सनत्कुमार ने कहा-'जहां दूसरा नहीं देखता, दूसरा नहीं सुनता, दूसरा नहीं जानता, वह भूमा है। जहां दूसरा देखता है, दूसरा सुनता है और दूसरा जानता है, वह अल्प है। तैत्तिरीय में ब्रह्म और आनन्द की एकात्मकता बतलाई गई है। जरा, मृत्यु, जन्म, रोग और शोक-ये जहां नहीं हैं, वही मोक्ष है और वही आनन्दमय आस्पद है।' यह धारणा श्रमण परम्परा से भिन्न नहीं है। श्रमणों ने मोक्ष को सुखमय माना है। इस अभिमत के अभाव में उनका दृष्टिकोण एकान्ततः निराशावादी हो जाता है । कुमारश्रमण केशी ने गौतम से पूछा-'गौतम ! शारीरिक और मानसिक दुःखों से पीड़ित होते हुए प्राणियों के लिए क्षेम, शिव और अनाबाध स्थान किसे मानते हो?' गौतम ने उत्तर दिया-'मुने ! लोक के शिखर में एक वैसा शाश्वत स्थान है, जहां पहुंच पाना बहुत कठिन है और जहां नहीं है जरा, मृत्यु, व्याधि और वेदना।' _ 'स्थान किसे कहा गया है'-केशी ने गौतम से पूछा ? गौतम बोले-'जो निर्वाण है, जो अबाघ है, जो क्षेम, शिव और अनाबाध है, १. छान्दोग्य उपनिषद्, ७॥२२॥१;७।२४।१ । २. तैत्तिरोय, ३२६.१ : आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात् । ३. (क) छान्दोग्य उपनिषद्, ४८१८१३ : न जरा न मृत्युनं शोकः । (ख) श्वेताश्वतर, २।१२ : न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः - Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म की धारणा के हेतु १३ जिसे महान की एषणा करने वाले प्राप्त करते हैं, भव-प्रवाह का अन्त करने वाले मनि जिसे प्राप्त कर शोक से मक्त हो जाते हैं, जो लोक के शिखर में शाश्वत रूप से अवस्थित हैं, जहां पहुंच पाना कठिन है, उसे मैं 'स्थान' कहता हूँ।" __ इसी भावना के संदर्भ में मृगापुत्र ने अपने माता-पिता से कहा था—'मैंने चार अन्त वाले और भय के आकर जन्म-मरण रूपी जंगल में भयंकर जन्म-मरणों को सहा है। ___'मनुष्य जीवन असार है, व्याधि और रोगों का घर है, जरा और मरण से ग्रस्त है । इसमें मुझे एक क्षण भी आनन्द नहीं मिल रहा है । _ 'मैंने सभी जन्मों में दुःखमय वेदना का अनुभव किया है। वहां एक निमेष का अन्तर पड़े उतनी भी सुखमय वेदना नहीं है।' उसका मन संसार में इसीलिए नहीं रम रहा था कि उसकी दृष्टि में यहां क्षणभर के लिए भी सुख का दर्शन नहीं हो रहा था। बन्धन-मुक्ति की अवस्था में उसे सुख का अविरल स्रोत प्रवाहित होता दीख रहा था। महामनि कपिल ने चोरों के सामने एक प्रश्न उपस्थित किया था--- इस दुःखमय संसार में ऐसा कौन-सा कर्म है, जिससे मैं दुर्गति में न जाऊं।' यह प्रश्न निराशा की ओर संकेत नहीं करता, किन्तु इसका इंगित एकान्त सुख की ओर है । भगवान् ने कहा था-पूर्ण ज्ञान का प्रकाश, अज्ञान और मोह का नाश तथा राग और द्वेष का क्षय होने से आत्मा एकान्त सुखमय मोक्ष को प्राप्त होता है। धर्म का आलम्बन उन्हीं व्यक्तियों ने लिया, जो दुःखों का पार पाना चाहते थे। उक्त विश्लेषण से यह फलित होता है कि सर्व-दुःख-मुक्ति धर्म करने का प्रमुख उद्देश्य रहा है। परलोकवादी दृष्टिकोण धर्म की धारणा का मुख्य हेतु रहा है-परलोकवादी दृष्टिकोण । परलोकवाद आत्मा की अमरता का सिद्धान्त है। अनात्मवादी आत्मा को अमर नहीं मानते। अतः उनकी धारणा में इहलोक और परलोक-यह विभाग वास्तविक नहीं है। उनके अभिमत में वर्तमान जीवन अतीत और अनागत की शृङ्खला से मुक्त है । आत्मवादी धारणा इससे भिन्न है । उसके १. उत्तराध्ययन, २३१८०-८४ । ४. वही, ३२।२। २. वही, १९४४६,१४,७४ । ५. वही, १४१५१-५२ । ३. वही, ८।१। ६. वही, ३२।११०-१११ । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह अनुसार आत्मा शाश्वत है । मृत्यु के पश्चात् उसका अस्तित्व समाप्त नहीं होता, केवल उसका रूपान्तरण होता है । वर्तमान जीवन अतीत और अनागत श्रृङ्खला की एक कड़ी मात्र है । अतः इहलोक जितना सत्य है, उतना ही सत्य है परलोक । भावी जीवन वर्तमान जीवन का प्रतिबिम्ब होता है । इस धारणा से प्रेरित हो यह कहा गया 'जो मनुष्य लम्बा मार्ग लेता है और साथ में सम्बल नहीं लेता, वह भूख और प्यास से पीड़ित चलता हुआ दुःखी होता है ।' 'इसी प्रकार जो मनुष्य धर्म किए बिना परभव में जाता है, वह व्याधि और रोग से पीड़ित होकर जीवन-यापन करता हुआ दुःखी होता है ।' ६४ 'जो मनुष्य लम्बा मार्ग लेता है, किन्तु सम्बल के साथ । वह भूखप्यास से रहित होकर चलता हुआ सुखी होता है ।' 'इसी प्रकार को मनुष्य धर्म की आराधना कर परभव में जाता है, वह अल्पकर्म वाला और वेदना रहित होकर जीवन-यापन करता हुआ सुखी होता है ।" आचार्य गद्दभालि ने राजा संजय से कहा था - ' - 'राजन् ! तू जहां मोह कर रहा है, वह जीवन और सौन्दर्य बिजली की चमक के समान चञ्चल है | तू परलोक के हित को क्यों नहीं समझ रहा है ?" धर्म केवल परलोक के लिए ही नहीं, इहलोक के लिए भी है । किन्तु इहलोक की पवित्रता से परलोक पवित्र बनता है, अतः परिणाम की दृष्टि से कहा जाता है कि धर्म से परलोक सुधरता है । इहलोक और परलोक के कल्याण में परस्पर व्याप्ति है । परलोक का कल्याण इहलोक का कल्याण होने पर ही निर्भर है। सचाई तो यह है कि धर्म से आत्मा शुद्ध होती है, उससे इहलोक और परलोक सुधरते हैं, यह व्यवहार की भाषा है । कुछ धार्मिक लोग ऐहिक और पारलौकिक सिद्धियों के लिए धर्म का विधान करते थे, उसका भगवान् महावीर ने विरोध किया और यह स्थापना की कि धर्म केवल आत्म शुद्धि के लिए किया जाए ।' महर्षि कणाद के अभिमत में धर्म से अभ्युदय और निःश्रेयस् - दोनों १. उत्तराध्ययन, १६।१८-२१ । २ . वही, १८ ।१३ । ३. दशवेकालिक, ६४ सूत्र ६ । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ धर्म की धारणा के हेतु सधते हैं ।' जैन आचार्य भी इस मान्यता का समय-समय पर समर्थन करते रहे हैं प्राज्यं राज्यं सुभग दयिता नन्दना नन्दनानां । रम्यं रूपं सरसकविताचातुरी सुस्वरत्वम् ॥ नीरोगत्वं गुणपरिचयः सज्जनत्वं सुबुद्धिः । किन्तु ब्रूमः फलपरिणति धर्मकल्पद्रुमस्य ॥ ' किंतु वास्तविक दृष्टि से धर्म अभ्युदय का प्रत्यक्ष हेतु नहीं ह । वह प्रत्यक्ष हेतु निःश्रेयस् का ही है । अभ्युदय उसका प्रासंगिक परिणाम है । धर्म ऐहिक या पारलौकिक अभ्युदय के लिए नहीं है । उसका मुख्य परिणाम है- आत्मा की पवित्रता । पवित्रता की दृष्टि से धर्म ऐहिक भो है और पारलौकिक भी । पूर्व चर्चित विषय को निष्कर्ष की भाषा में इस प्रकार प्रस्तुत कर सकते हैं कि पौद्गलिक अभ्युदय की दृष्टि से धर्म इहलौकिक भी नहीं है और पारलौकिक भी नहीं है । आत्मोदय की दृष्टि से वह इहलौकिक भी है और पारलौकिक भी । धर्म के परिणाम की चर्चा के प्रसंग में परलोक शब्द भविष्य के अर्थ में रूढ़ हो गया है । धर्म से वर्तमान शुद्ध होता है और वह शुद्धि भविष्य को प्रभावित करती है । अधर्म से वर्तमान अशुद्ध बनता है और वह अशुद्धि भविष्य को प्रभावित करती है । जब अरिष्टनेमि को पता चला कि मेरे लिए निरीह पशुओं का वध किया जा रहा है, तब उन्होंने कहा - 'यह कार्यं मेरे परलोक में कल्याणकर नहीं होगा ।" इस प्रकरण में परलोक शब्द भविष्य के अर्थ में रूढ़ है । १. वैशेषिक दर्शन, अध्याय १, आह्निक १, सूत्र २ : यतोऽभ्युदयनिः श्रेयससिद्धिः स धर्मः । २. शान्तसुधारस, १०७ । ३. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, २२०-२२१ : रत्नत्रयमिह हेतुर्निर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य । आस्रवति यत्तु पुण्यं, शुभोपयोगोऽयमपराधः ॥ एकस्मिन् समवायाद्, अत्यन्त विकार्य योरपि हि । इह दहति घृतमिति यथा व्यवहारस्तादृशोऽपि रूढिमितिः ॥ ४. उत्तराध्ययन, ८ २०; १७।२१ । ५. वही, २५।१६ : जइ मज्झ कारणा एए, हम्मिहिति बहू जिया । न मे एयं तु निस्सेसं, परलोगे भविस्सई ।। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्यु संस्कृति के दो प्रवाह मृत्यु के बाद होने वाला जीवन अज्ञात होता है। उसके प्रति सहज ही विशेष आकर्षण रहता है। यद्यपि धर्म से ऐहिक जीवन विशुद्ध' बनता है, फिर भी उसके पारलौकिक फल का निरूपण करने की सामान्य पद्धति रही है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विशेष आकर्षण भी रहा है। इसी आकर्षण की भाषा में मृगापुत्र ने कहा था-'जो मनुष्य धर्म की आराधना कर परभव में जाता है, वह सुखी होता है।" कुछ विद्वान् धर्म को समाज-धारणा की संस्था के रूप में स्वीकार करते हैं।' उनका अभिमत है कि परलोकवादी दृष्टिकोण धर्म की श्रद्धाप्रधान मीमांसा है। उसकी बुद्धिवादी मीमांसा करने पर यही फलित होता है कि वह समाज-धारणा के लिए स्थापित किया गया था। महाभारत में भी एक ऐसा उल्लेख मिलता है-'धर्म का विधान लोकयात्रा परिचालन के लिए किया गया।" यह त्रिवर्गवादी चिन्तनधारा है। चतुर्वर्गवादी इससे सहमत नहीं हैं । काम, अर्थ और धर्म को मानने वालों के सामने मोक्ष प्रयोज्य नहीं होता। अतः उसकी उपलब्धि के लिए धर्म को प्रयोजन के रूप में मानना उनके लिए अपेक्षित नहीं होता। चतुर्वर्गवादी अन्तिम प्रयोज्य मोक्ष मानते हैं। अतः वे धर्म को समाज-धारणा का हेतू न मान कर मोक्ष की उपलब्धि का हेतु मानते हैं। भगवान् महावीर इसी धारा के समर्थक थे। त्रिवर्ग और चतुर्वर्ग त्रिवर्ग अथवा पुरुषार्थ का स्पष्ट निर्देश वैदिक वाङ्मय में नहीं पाया जाता। सबसे प्राचीन उल्लेख आपस्तम्ब-धर्म-सूत्रों में मिलता है। पहले मोक्ष नाम के चतुर्थ पुरुषार्थ की स्वतंत्र गणना नहीं की जाती थी। त्रिवर्ग की परिभाषा ही पहले रूढ़ हुई। वस्तुतः त्रिवर्ग की मान्यता वैदिक नहीं है। वह लौकिक है । स्थानांग में इहलौकिक व्यवसाय के तीन प्रकार बतलाए गए हैं- (१) लौकिक, (२) वैदिक और (३) सामयिक ।' १. उत्तराध्ययन, १६।२१ । २. हिन्दू धर्म समीक्षा, पृ० ४४ : ३. महाभारत, शान्तिपर्व २५६॥ ४ : लोकयात्रार्थमेवेह धर्मस्य नियमः कृतः । ४. उत्तराध्ययन, ३।१२। ५. वैदिक संस्कृति का विकास, पृ० १०२ । ६. स्थानांग, ३।३६६ । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म की धारणा के हेतु ६७ लौकिक व्यवसाय के तीन प्रकार हैं१. अर्थ, २. धर्म और ३. काम। वैदिक व्यवसाय के तीन प्रकार हैं१. ऋग्वेद, २. यजुर्वेद और २. सामवेद। सामयिक व्यवसाय के तीन प्रकार हैं१. ज्ञान, २. दर्शन और ३. चारित्र। त्रिवर्ग के लिए यहां त्रिविध व्यवसाय का प्रयोग किया गया है । धर्म को लौकिक व्यवसाय माना गया है । इससे स्पष्ट है कि त्रिवर्ग के साथ जो धर्म है, वह मोक्ष-धर्म नहीं किंतु परंपरागत आचार-धर्म या सामाजिक विधि-विधान है। इस आशय का समर्थन महाभारत के एक पद्यांश से भी होता है-'लोकयात्रार्थमेवेह, धर्मस्य नियमः कृतः ।। __ कुछ विद्वान् महाभारत के उक्त पद्यांश के आधार पर यह स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं कि धर्म समाज धारणा का तत्त्व है। किन्तु यह सही नहीं है। उक्त पद्यांश का हृदय स्थानांग के लौकिक व्यवसाय के संदर्भ में ही समझा जा सकता है। महाभारत में धर्म को लोकायात्रार्थ कहा गया है और स्थानांग में लौकिक । यह धर्म समाज-धारणा के लिए है यह मानने में किसी को भी कोई आपत्ति नहीं हो सकती। विचार-भेद वहीं है, जहां मोक्ष-धर्म को समाज-धारणा का तत्त्व कहा जाता है तथा उसी उद्देश्य से मोक्ष-धर्म की उत्पत्ति बतलाई जाती है। लगता तो यह है कि त्रिवर्ग में जो धर्म है, वह चतुर्विध पुरुषार्थ की मान्यता के पश्चात् मोक्ष-धर्म के अर्थ में समझा जाने लगा है। धर्म से अर्थ और काम प्राप्त होते हैं-यहां धर्म का अर्थ परम्परागत आचार, व्यवस्था व विधि-विधान ही होना चाहिए। निर्वाणवाद के उत्कर्षकाल में जब त्रिवर्ग के साथ मोक्ष जुड़ा, चतुर्विध पुरुषार्थ की स्थापना हुई, तब धर्म का अर्थ व्यापक हो गया। वह सामाजिक विधि-विधान व मोक्ष-धर्म-ये १. महाभारत, शान्तिपर्व, २५६।४। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ संस्कृति के दो प्रवाह दोनों अर्थ देने लगा। मनुस्मृति में त्रिवर्ग के विषय में अनेक धारणाएं बतलाई गई हैं। कुछ आचार्य मानते थे कि धर्म और अर्थ श्रेय है । कुछ मानते थे कि काम और अर्थ श्रेय है । एक मत था धर्म ही श्रेय है। कुछ अर्थ को ही श्रेय मानते थे। मन ने त्रिवर्ग को श्रेय माना।' यह अभिमत समाजशास्त्र की दृष्टि से परिपूर्ण है। कौटिल्य ने अर्थ को प्रधान माना। धर्म और काम का मूल, उनकी दृष्टि में, अर्थ ही था। इससे भी धर्म का अर्थ लौकिक आचार ही प्रतीत होता है। महाभारत के अनुसार सन्तनार्थी व्यक्तियों का प्रवृत्ति-धर्म मुमुक्ष लोगों के लिए नहीं है।' इसका फलित स्पष्ट है-संतानोत्पत्ति का धर्म मोक्ष-धर्म नहीं है। अर्थ से धर्म और काम सिद्ध होते हैं और धर्म धन से प्रवृत्त होता है-यह मान्यता भी धर्म के उस अर्थ पर आधारित है, जिसका संबंध मोक्ष से नहीं है। जैन दर्शन प्रारम्भ से ही निर्वाणवादी रहा है। अतः आध्यात्मिक मूल्यों की दृष्टि से वहां धर्म और मोक्ष-ये दो ही पुरुषार्थ मान्य रहे हैं। गृहस्थ सामाजिक मर्यादा से मुक्त नहीं हो सकते, अतः उनके लिए सामाजिक मूल्यों की दृष्टि से अर्थ और काम-ये दोनों पुरुषार्थ मान्य रहे हैं । किन्तु उनकी व्यवस्था तात्कालिक समाज-शास्त्रों द्वारा की गई। जैन आचार्यों ने लौकिक मान्यता प्राप्त त्रिवर्ग को लौकिक-शास्त्र का ही विषय बतलाया। उन्होंने उसकी व्यवस्था नहीं दी। उन्होंने केवल आध्यात्मिक मूल्यों की चर्चा की और एक मोक्ष-दर्शन के लिए यही अधिकृत १. मनुस्मृति, २१२२४ : धर्मार्थावुच्यते श्रेयः, कामाथों धर्म एव च । अर्थ एवेह वा श्रेयः, त्रिवर्ग इति तु स्थितिः ॥ २. कौटिल्य अर्थशास्त्र, ११७।३ : अर्थ एव प्रधानः इति कोटल्य:-अर्थमूली हि धर्मकामाविति । ३. महाभारत, अनुशासनपर्व, ११५२४७ : प्रवृत्तिलक्षणो धर्मः प्रजाथिभिरुदाहृतः । यथोक्तं राजशार्दूल ! न तु तन्मोक्षकाङक्षिणाम् ।। ४. (क) महाभारत, शान्तिपर्व, ८।१७ : अर्थाद्धर्मश्च कामश्च, स्वर्गश्चैव नराधिपः । प्राणयात्रापि लोकस्य, बिना ह्यर्थ न सिद्धयति ।। (ख) महाभारत, शान्तिपर्व, ८।१२ : यं विमं धममित्याहुर्धनादेष प्रवर्तते । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म की धारणा के हेतु बात हो सकती है। एक समाजशास्त्री के लिए मोक्ष की चर्चा प्रासंगिक हो सकती है, अधिकृत नहीं । इसी प्रकार एक मोक्षशास्त्री के लिए सामाजिक तत्त्व-अर्थ और काम की चर्चा प्रासंगिक हो सकती है, अधिकृत नहीं। अर्थ और काम-ये दोनों समाज-धारणा के मूल अंग हैं। अतः उनको आध्यात्मिक शृंखला की कड़ी के रूप में मान्यता नहीं दी गई। वे समाज के लिए उपयोगी नहीं हैं, ऐसा नहीं माना गया। उन्हीं व्यक्तियों ने उन्हें हेय बतलाया, जो अध्यात्म की भूमिका पर आरूढ़ हुए। समग्र उत्तराध्ययन या समग्र अध्यात्म-शास्त्र में काम और अर्थ की भर्त्सना इसी दृष्टि से की गई । भगवान् ने कहा ___'जो काम से निवृत्त नहीं होता, उसका आत्मार्थ नष्ट हो जाता है। जो काम से निवृत्त होता है, उसका आत्मार्थ सध जाता है " 'जैसे किम्पाक फल खाने पर उसका परिणाम सुन्दर नहीं होता, उसी प्रकार मुक्त-भोगों का परिणाम सुन्दर नहीं होता। भृगुपुत्रों ने अपने माता-पिता से कहा-'यह सही है कि काम-भोग क्षणिक और अल्प सुख देते हैं, किन्तु परिणाम काल में वे चिरकाल तक बहुत दुःख देते हैं और संसार-मुक्ति के विरोधी हैं। इसीलिए हम उन्हें अनर्थों की खान मान कर छोड़ रहे हैं।" काम और धर्म का यह विरोध आध्यात्मिक जगत् में ही मान्य हो सकता है। इन्द्र ने नमि राजर्षि से कहा हे पार्थिव ! आश्चर्य है कि तुम इस अभ्युदय-काल में सहज प्राप्त भोगों को त्याग रहे हो और अप्राप्त काम-भोगों की इच्छा कर रहे होइस प्रकार तुम अपने संकल्प से ही प्रताड़ित हो रहे हो।" यह अर्थ सुन कर हेतु और कारण से प्रेरित हुए नमि राजर्षि ने देवेन्द्र से इस प्रकार कहा ___ 'काम-भोग शल्य हैं, विष हैं और आशीविष सर्प के तुल्य हैं। कामभोग की इच्छा करने वाले उनका सेवन न करते हुए भी दुर्गति को प्राप्त होते हैं। इस संवाद से यह स्पष्ट है कि धर्म काम की उपलब्धि के लिए नहीं, किन्तु उसका अर्थ है-काम-वासनाओं का त्याग । १. उत्तराध्ययन, ७।२५,२६ । २. वही, १६।१७। ३. वही, १४।१३। ४. वही, ६५१ । ५. वही, ६।५३ । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० संस्कृति के दो प्रवाह काम की भांति अर्थ भी धर्म से सम्बन्धित नहीं है। भगवान् ने कहा-'धन से कोई व्यक्ति इहलोक या परलोक में त्राण नहीं पा सकता।' भृगु पुरोहित ने अपने पुत्रों से कहा-'जिसके लिए लोग तप किया करते हैं वह सब कुछ–प्रचुर धन, स्त्रियां, स्वजन और इन्द्रियों के विषय-तुम्हें यहीं प्राप्त हैं, फिर किसलिए तुम श्रमण होना चाहते हो?' पुत्र बोले--'पिता! जहां धर्म की धरा को वहन करने का अधिकार है, वहां धन, स्वजन और इन्द्रिय-विषय का क्या प्रयोजन है ? कुछ भी नहीं। हम गुण-समूह सम्पन्न श्रमण होंगे, प्रतिबन्ध-मुक्त होकर गांवों और नगरों में विहार करने वाले और भिक्षा लेकर जीवन चलाने वाले होंगे। _ इस संदर्भ से यह फलित होता है कि अर्थ के लिए धर्म नहीं करना चाहिए। वस्तुतः वह काम और अर्थ की प्राप्ति के लिए नहीं है और उनसे संश्लिष्ट भी नहीं है। जहां काम और अर्थ से धर्म का संश्लेष किया जाता है, वहां वह घातक बन जाता है। अनाथी मुनि ने सम्राट श्रेणिक से यही कहा था-'पिया हुआ काल-कूट विष, अविधि से पकड़ा हुआ शस्त्र और नियंत्रण में नहीं लाया हुआ वेताल जैसे विनाशकारी होता है, वैसे ही यह विषयों से युक्त धर्म भी विनाशकारी होता है।' यदि धर्म (मोक्ष-धर्म) समाज-धारणा के लिए होता तो उसका दृष्टिकोण सामाजिक जीवन के महत्त्वपूर्ण अंग--काम और अर्थ के प्रति इतना विरोधी नहीं होता। और वह है, इससे यह स्वयं प्रमाणित होता है कि मोक्ष-धर्म समाज-धारणा के लिए नहीं है । परिणामवादी दृष्टिकोण धर्म की धारणा का तीसरा हेतु रहा है—परिणामवादी दृष्टिकोण। प्रत्येक प्रवृत्ति का निश्चित परिणाम होता है और प्रत्येक क्रिया की निश्चित प्रतिक्रिया होती है । कृत का परिणाम वर्तमान जीवन में भी भुगतान होता है और अगले जीवन में भी। क्योंकि प्राणी कर्म-सत्य होते हैं—कृत का परिणाम अवश्य भुगतते हैं। उससे बचने का एकमात्र उपाय धर्म है।' १. उत्तराध्ययन, ४।५। २. वही, १४।१६,१७ । ३. वही, २०४४। ४. (क) उत्तराध्ययन, ७।२० : कम्मसच्चा हु पाणिणो । (ख) वही, ४१३, १३।१० । ५. दशवकालिक, चूलिका १, सूत्र १८ : कडाणं कम्माणं.. वेयइत्ता मोक्खो, नति अवेयइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म की धारणा के हेतु १०१ व्यक्तिवादी दृष्टिकोण . धर्म की धारणा का चौथा हेतु रहा है-व्यक्तिवादी दृष्टिकोण । प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक जीवन जीता है। फिर भी उसकी आत्मा कभी सामाजिक नहीं बनती। इसी आशय से चित्त ने ब्रह्मदत्त से कहा था ___ 'उसी के कारण तू महान् अनुभाग (अचिन्त्य-शक्ति) सम्पन्न, महान् ऋद्धिमान् और पुण्यफलयुक्त राजा बना है। इसीलिए तू अशाश्वत भागों को छोड़ कर चारित्र की आराधना के लिए अभिनिष्क्रमण कर।' _ 'राजन् ! जो इस अशाश्वत जीवन में प्रचुर शुभ अनुष्ठान नहीं करता, वह मत्यु के मुंह में जाने पर पश्चात्ताप करता है और धर्म की आराधना न होने के कारण परलोक में भी पश्चात्ताप करता है। __जिस प्रकार सिंह हरिण को पकड़ कर ले जाता है, उसी प्रकार अन्तकाल में मृत्यु मनुष्य को ले जाती है। काल आने पर उसके मातापिता या भाई अंशधर नहीं होते-अपने जीवन का भाग देकर बचा नहीं पाते ।' 'जाति, मित्र-वर्ग, पुत्र और बान्धव उसका दुःख नहीं बंटा सकते, वह स्वयं अकेला दुःख का अनुभव करता है। क्योंकि कर्म कर्ता के पीछे चलता है।' 'यह पराधीन आत्मा द्विपद, चतुष्पद, खेत, घर, धन, धान्य, वस्त्र आदि सब कुछ छोड़ कर केवल अपने किए कर्मों को साथ लेकर परभव में जाता है।' 'उस अकेले और असार शरीर को अग्नि से चिता में जला कर स्त्री, पुत्र और ज्ञाति किसी दूसरे दाता (जीविका देने वाले) के पीछे चले जाते कृत-कर्मों का परिणाम भी व्यक्ति अकेला भुगतता है। इसी की पुष्टि में कहा गया ___'संसारी प्राणी अपने बन्ध-जनों के लिए जो साधारण कर्म (इसका फल मुझे भी मिले और उनको भी ऐसा कर्म) करता है, उस कर्म के फल-भोग के समय वे बन्धुजन बन्धुता नहीं दिखाते-उसका भाग नही बंटाते। - जो सत्य की एषणा करता है, उसे यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है - १. उत्तराध्ययन, १३०२०-२५ । २. वही, ४।४। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ संस्कृति के दो प्रवाह 'जब मैं अपने द्वारा किए गए कर्मों से छेदा जाता हूं तब माता-पिता, पुत्र, बन्धु, भाई, पत्नी और पुत्र-ये सभी मेरी रक्षा करने में समर्थ नहीं होते।" _समाज व्यक्ति के लिए त्राण होता है किन्तु वह व्यक्ति से अभिन्न नहीं होता इसलिए वह उसे अन्त तक त्राण नहीं दे सकता। धर्म व्यक्ति से अभिन्न होता है, इसलिए वह उसकी अन्तिम त्राण-शक्ति है। इसी संदर्भ में कमलावती ने महाराज इषुकार से कहा था 'यदि समूचा जगत् तुम्हें मिल जाए अथवा समूचा धन तुम्हारा हो जाए तो वह भी तुम्हारी इच्छा-पूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं होगा और वह तुम्हें त्राण भी नहीं दे सकेगा।' 'राजन् ! इन मनोरम काम-भोगों को छोड़ कर जब कभी मरना होगा । हे नरदेव ! एक धर्म ही त्राण है। उसके सिवाय दूसरी कोई वस्तु त्राण नहीं दे सकती।" अनाथी को किसी भी सामाजिक साधन से त्राण नहीं मिला, तब उन्होंने संकल्प किया 'इस विपुल वेदना से यदि मैं एक बार ही मुक्त हो जाऊं तो क्षमावान, दान्त और आरम्भ का त्याग कर अनगार-वृत्ति को स्वीकार कर लूं।" - इस संकल्प में वे अपने से अभिन्न हो गए। उनकी वेदना रात-रात में समाप्त हो गई। एकत्व और अत्राणात्मक दृष्टिकोण ____धर्म्य-ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं-एकत्व, अनित्व, अशरण और संसार-के चिन्तन से व्यक्ति का धर्म की ओर झुकाव होता है। एकत्व और अत्राणात्मक (या अशरणात्मक) दृष्टिकोण का निरूपण इसी शीर्षक में आ चुका है। उन्हें पृथक् किया जाए तो वे धर्म की धारणा के दो स्वतंत्र हेतु-पांचवां और छठा-बन जाते हैं। अनित्यवादी दृष्टिकोण धर्म की धारणा का सातवां हेतु रहा है-अनित्यवादी दृष्टिकोण । जिन्हें यह अनुभव हुआ कि जीवन नश्वर है, उन्होंने अनश्वर की प्राप्ति के १. उत्तराध्ययन, ६।३ । ३. वही, २०१३२। २. वही, १४१३६,४० । ४. वही, २०१३३। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म की धारणा के हेतु १०३ लिए धर्म का सहारा लिया । भगवान् महावीर ने इसी भावना के क्षणों में गौतम से कहा था 'रात्रियां बीतने पर वृक्ष का पका हुआ पान जिस प्रकार गिर जाता है, उसी प्रकार मनुष्य का जीवन एक दिन समाप्त हो जाता है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर ।' 'कुश की नोंक पर लटकते हुए ओस - बिन्दु की अवधि जैसे थोड़ी होती है, वैसे ही मनुष्य जीवन की गति है, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर ।' 'तेरा शरीर जीर्ण हो रहा है, केश सफेद हो रहे हैं और सब प्रकार का बल क्षीण हो रहा है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर ।' 'पित्तरोग, फोड़ा, फुंसी, हैजा और विविध प्रकार के शीघ्रघाती रोग शरीर का स्पर्श करते हैं, जिनसे यह शरीर शक्ति-हीन होता है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर ।" ' गद्दभलि मुनि ने राजा संजय से कहा - ' जबकि तू पराधीन है, इसलिए सब कुछ छोड़कर तुझे चले जाना है, तब अनित्य जीव-लोक में तू क्यों राज्य में आसक्त हो रहा है ?" मृगापुत्र ने अपने माता-पिता से कहा - 'यह शरीर अनित्य है, अशुचि से उत्पन्न है, आत्मा का यह अशाश्वत आवास है तथा दुःख और क्लेशों का भाजन है । 'इस अशाश्वत शरीर में मुझे आनन्द नहीं मिल रहा है । इसे पहले या पीछे जब कभी छोड़ना है । यह पानी के बुलबुले के समान नश्वर है ।' 'मनुष्य जीवन असार है, व्याधि और रोगों का घर है, जरा और मरण से ग्रस्त है, इसमें मुझे एक क्षण भी आनन्द नहीं मिल रहा है ।" इस प्रकार अनित्यवादी दृष्टिकोण धर्म की आराधना के लिए महान् प्रेरणा-स्रोत रहा है । यह कल्पना भी युक्ति से परे नहीं है कि भगवान् बुद्ध ने अनित्यता का उपदेश जनता को धर्माभिमुख करने के लिए दिया था। आगे चलकर दर्शन-काल में वही 'क्षणभंगुरवाद' नामक दार्शनिक सिद्धांत के रूप में परिणत हो गया । १. उत्तराध्ययन, १०११,२, २६, २७ । २. वही, १८।१२ । ३. वही, १६१२-१४ । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ संस्कृति के दो प्रवाह अनित्यवादी दृष्टिकोण आत्मवादियों के लिए धर्म-प्रेरक रहा तो परलोक में विश्वास नहीं करने वाले अनात्मवादी इससे भोग की प्रेरणा पाते रहे हैं। संसार भावना धर्म की धारणा का आठवां हेतु रहा है-संसार भावना। भगुपुत्रों ने अपने पिता से कहा—'यह लोक पीड़ित हो रहा है, चारों ओर से घिरा हुआ है, अमोघा आ रही है । इस स्थिति में हमें सुख नहीं मिल रहा है। 'पुत्रों ! यह लोक किससे पीड़ित है ? किससे घिरा हुआ है ? अमोघा किसे कहा जाता है ? मैं जानने के लिए चिंतित हूं।' कुमार बोले-'पिता! आप जानें कि यह लोक मृत्यु से पीड़ित है, जरा से घिरा हुआ है और रात्रि को अमोघा कहा जाता है । मृगापुत्र ने भी संसार को इसी दृष्टि से देखा था-'जैसे घर में आग लग जाने पर उस घर का जो स्वामी होता है, वह मूल्यवान् वस्तुओं को उससे निकालता है और मूल्य-हीन वस्तुओं को वहीं छोड़ देता है, उसी प्रकार यह लोक जरा और मृत्यु से प्रज्वलित हो रहा है । मैं आपकी आज्ञा पाकर उसमें से अपने आपको निकाल लूंगा।" यह संसार-चक्र अविरल गति से अनन्त काल तक चलता रहता है ।' आत्मवादी इस परिभ्रमण को अपनी स्वतंत्रता के प्रतिकल मानता है। उसका अन्त पाने के लिए वह धर्म की शरण में आता है। कुमारश्रमण केशी ने इसी आशय से प्रश्न किया था ___ 'मुने ! महान् जल-प्रवाह के वेग से बहते हुए जीवों के लिए तुम शरण, गति, प्रतिष्ठा और द्वीप किसे मानते हो?' गौतम बोले-'जल के मध्य में एक लम्बा-चौड़ा महाद्वीप है। वहां महान् जल-प्रवाह की गति नहीं है।' 'द्वीप किसे कहा गया है'-केशी ने गौतम से कहा। गौतम बोले'जरा और मृत्यु के वेग से बहते हुए प्राणियों के लिए धर्म ही द्वीप, प्रतिष्ठा, गति और उत्तम शरण है। १. उत्तराध्ययन, ५॥५-६ । २. वही, १४।२१-२३ । ३. वही, २६।२२,२३ । ४. वही, १०१५-१५।। ५. वही, २३३६५-६८ । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. धर्म श्रद्धा और बाह्यसंग-त्याग धर्म की धारणा के आठ हेतुओं का उल्लेख किया जा चुका है । उनके अनुप्रेक्षण से धर्म के प्रति श्रद्धा होती है । जिसे धर्म के प्रति श्रद्धा होती है, वह पौद्गलिक सुखों से विरक्त हो जाता है । विरक्ति की दो भूमिकाएं हैं- (१) अगार-धर्म और ( २ ) अनगार-धर्म । प्रारम्भ में सभी लोग गृहस्थ होते हैं । अनगार जन्मना नहीं होता । धर्म की श्रद्धा और वैराग्य का उत्कर्ष होने पर गृहस्थ ही गृहवास को छोड़ कर अनगार बनता है ।' भोग और विराग - ये जीवन के दो छोर हैं । जिनमें राग होता है, वे भोग चाहते हैं । जिनका मन विरक्त हो जाता है, वे भोग का त्याग कर देते हैं । ये दोनों भावनाएं हर युग मानस को व्याप्त करती रही हैं । ब्रह्मदत्त ने चित्त से कहा था- - 'हे भिक्षु ! तू नाट्य, गीत और वाद्यों के साथ नारी-जनों को परिवृत करता हुआ इन भोगों को भोग । यह मुझे रुचता है । प्रव्रज्या वास्तव में ही कष्टकर है । धर्म में स्थित और उस (राजा) का हित चाहने वाले चित्त मुनि ने पूर्वभव के स्नेह -वश अपने प्रति अनुराग रखने वाले काम- गुणों में आसक्त राजा से यह वाक्य कहा - 'सब गीत विलाप हैं । सब नृत्य विडम्बना हैं । सब आभरण भार हैं और सब काम भोग दुःखकर हैं ।" मृगापुत्र को भी माता-पिता ने यही समझाने का यत्न किया था'पुत्र ! तू मनुष्य सम्बन्धी पांच इन्द्रियों के भोगों का भोग कर । फिर भुक्तभोगी होकर मुनि-धर्म का आचरण कर ।" सम्राट् श्रेणिक ने अनाथी मुनि को देख कर विस्मय के साथ कहा - 'आर्यं ! तरुण हो, इस भोग- काल में ही प्रव्रजित हो गए । चलो, मैं तुम्हारा नाथ बनता हूं। तुम भोग भोगो, यह मनुष्य जीवन कितना दुर्लभ है ।" १. उत्तराध्ययन, २६।३ । २. वही, १३१४- १६ । ३. वही, १९।४३ | ४. वही, २०१८ - ११ । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह उक्त प्रसंगों से यह स्पष्ट होता है कि अनुरक्त मानस ने विरक्त को सदा भोगलिप्त करने का प्रयत्न किया है और विरक्त मानस ने सदा भोग से अलिप्त रहने का प्रयत्न किया है। यह भोग की अलिप्ति ही अनगार बनने का मुख्य कारण रही है।' बाह्यसंग-त्याग अनगार-जीवन में भोगसक्ति और उसके निमित्तों का भी वर्जन किया जाता है। कुछ लोग ऐसे जीवन को बहुत आवश्यक नहीं मानते थे, किन्तु श्रमण-परम्परा में इसे बहुत महत्त्व दिया गया। जयघोष ने विजयघोष से कहा-'मुझे भिक्षा से कोई प्रयोजन नहीं । तू निष्क्रमण कर, जिससे इस संसार-सागर में पड़ रहे आवर्तों से बच जाए। कुछ लोग सोचते हैं कि धर्म की आराधना के लिए आगार और अनगार की भेदरेखा खींचना आवश्यक नहीं । जो ऐसा सोचते हैं उनका मानना है कि विकार से बचने की आवश्यकता है, विषयों-निमित्तों से बचने की आवश्यकता नहीं। एक सीमा तक यह सही भी है। भगवान ने कहा-'कामभोग न समता उत्पन्न करते हैं और न विकार । इन्द्रिय और मन के विषय-स्पर्श, रस, गन्ध, रूप, शब्द और संकल्प-रागी व्यक्ति के लिए ही दुःख के हेतु बनते हैं, वीतराग के लिए वे किंचित् भी दुःख के हेतु नहीं होते।" विषय अचेतन हैं । वे अपने आप में मनोज्ञ-अमनोज्ञ कुछ भी नहीं हैं। उनमें जिसका प्रियभाव होता है, उसके लिए वे मनोज्ञ और जिसका उनमें अप्रियभाव होता है, उसके लिए वे अमनोज्ञ होते हैं। किन्तु जो उनके प्रति विरक्त होता है, उसके लिए वे मनोज्ञ, अमनोज्ञ कुछ भी नहीं होते। इस प्रसंग का फलित यह है कि बाह्य विषय हमारे लिए न दोषपूर्ण हैं और न निर्दोष । चेतना की शुद्धि हो तो वे उसके लिए निर्दोष हैं और चेतना अशुद्ध हो तो वे भी उसके लिए सदोष बन जाते हैं।' दोष का मूल चेतना की परिणति है, बाह्य विषय नहीं । १. उत्तराध्ययन, १६६ । २. वही, २०३८ । ३. वही, ३२।१००,१०१ । ४. वही, ३२॥१०६ । ५. मूलाराधना, १६६७, अमितगति : अन्तर्विशुद्धितो जन्तोः, शुद्धिः संपद्यते बहिः । बाह्य हि कुरुते दोषं, सर्वमन्तरदोषतः । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म - श्रद्धा और बाह्यसंग - त्याग १०७ उक्त अभिमत यथार्थ है । उसके आधार पर हमें चेतना को अलिप्त रखने की आवश्यकता है, बाह्य विषयों से बचने की कोई मुख्य बात नहीं । किन्तु हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि चेतना अंतर्जागरण की परिपक्व दशा में ही अलिप्त रह सकती है । निमित्त उपादान होने पर ही कार्य कर सकता है, अन्यथा नहीं । विकार का उपादान है—- राग । वह अव्यक्त रहता है, किन्तु निमित्त मिलने पर व्यक्त हो जाता है । इसलिए जब तक राग क्षीण नहीं होता, तब तक निमित्तों - बाह्य विषयों से बचाव करना आवश्यक होता है । बचाव की मात्रा सब व्यक्तियों के लिए समान भले न हो, पर उसका अपवाद हर कोई व्यक्ति नहीं हो सकता । इसीलिए ये मर्यादाएं स्थापित की गईं— " मित आहार करो।" · 'रसों का प्रचुर मात्रा में सेवन मत करो ।' 'रसों का प्रकाम ( अधिक मात्रा में ) सेवन नहीं करना चाहिए। वे प्रायः मनुष्य की धातुओं को उद्दीप्त करते हैं । जिसकी धातुएं उद्दीप्त होती हैं उसे काम - भोग सताते हैं, जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष को पक्षी । ' जैसे पवन के झोंकों के साथ प्रचुर ईंधन वाले वन में लगा हुआ दावानल उपशान्त नहीं होता, उसी प्रकार प्रकाम-भोजी ( ठूस ठूस कर खाने वाले) की इंद्रियाग्नि ( कामाग्नि) शांत नहीं होती। इसलिए प्रकाम भोजन किसी भी ब्रह्मचारी के लिए हितकर नहीं होता ।" " एकांत में रहो ।" 'स्त्री संसर्ग से बचो ।' 'जैसे बिल्ली की बस्ती के पास चूहों का रहना अच्छा नहीं होता, उसी प्रकार स्त्रियों की बस्ती के पास ब्रह्मचारी का रहना अच्छा नहीं होता । 'तपस्वी श्रमण स्त्रियों के रूप, लावण्य, विलास, हास्य, मधुर आलाप और चितवन को चित्त में रमाकर उन्हें देखने का संकल्प न करे । 'जो सदा ब्रह्मचर्य में रत हैं उनके लिए स्त्रियों को न देखना, न चाहना, न चिन्तन करना और न वर्णन करना हितकर है, और वह धर्म - ध्यान के लिए उपयुक्त है । १. उत्तराध्ययन ३२|४ | २. वही, ३२।१०,११ । ३. वही, ३२०४ | Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह _ 'यह ठीक है कि तीन गुप्तियों से गुप्त मुनियों को विभूषित देवियां भी विचलित नहीं कर सकतीं, फिर भी भगवान् ने एकान्तहित की दृष्टि से उनके लिए विविक्तवास को प्रशस्त कहा है। 'मोक्ष चाहने वाला संसार-भीरु एवं धर्म में स्थित मनुष्य के लिए लोक में और कोई ऐसा दुस्तर नहीं है, जैसी दुस्तर अज्ञानियों के मन को हरने वाली स्त्रियां हैं। - 'जो मनुष्य इन स्त्री-विषयक आसक्तियों का पार पा जाता है, उनके लिए शेष सारी आसक्तियां वैसे ही सुतर (सुख से पार करने योग्य) हो जाती हैं, जैसे महासागर का पार पा जाने वाले के लिए गंगा जैसी बड़ी नदी।" 'ब्रह्मचर्य के दस नियमों का पालन करो।" इस प्रकार और भी अनेक नियम हैं जो निमित्तों से बचने के लिए बनाए गए थे । समग्र दृष्टि से देखा जाए तो अनगार दीक्षा और क्या है ? वह निमित्तों से बचने की प्रक्रिया ही तो है। ___इस प्रकार अगार और अनगार जीवन का श्रेणी-विभाग बहुत ही मनोवैज्ञानिक है। अगार-जीवन में साधना के विघ्नभूत निमित्तों से बचने में जो कठिनाई होती है, उसका पार पा जाना ही अनगार-जीवन है। पहली भूमिका में बाह्य विषयों का त्याग उसकी सुरक्षा के लिए किया जाता है और अग्रिम भूमिकाओं में वह सहज स्वभाव हो जाता है। कृत-त्याग में स्खलनाएं हो सकती हैं किन्तु सहज स्वभाव में कोई स्खलना नहीं होती। हम इस बात को सदा याद रखें कि हमारा पहला चरण ही अन्तिम लक्ष्य तक नहीं पहुंच जाता। १. उत्तराध्ययन, ३२।१३-१८ । २. उत्तराध्ययन का १६ वां अध्ययन । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. श्रामण्य और कायक्लेश कुछ लोगों का अभिमत है कि बाह्य निमित्तों के बचाव की प्रक्रिया में श्रमण जीवन जटिल बन गया । सहज सुविधाएं नष्ट हो गईं, उनका स्थान कायक्लेश ने ले लिया। क्या यह सच है कि श्रमण जीवन बहुत ही कठोर है ? हमारे अभिमत में ऐसा नहीं है । भगवान् पार्श्व और भगवान् महावीर - दोनों ने अज्ञानपूर्ण कायक्लेश का प्रतिवाद किया । अज्ञानी करोड़ों वर्षों के कायक्लेश से जिस कर्म को क्षीण करता है, उसे ज्ञानी एक क्षण में क्षीण कर डालता है । यह सही है कि मुनि-जीवन में कायक्लेश का सर्वथा अस्वीकार नहीं है । फिर भी जितना महत्त्व संवर, गुप्ति, ध्यान आदि का है, उतना कायक्लेश का नहीं है । कई आचार्यों ने समय-समय पर कायक्लेश को कुछ अतिरिक्त महत्त्व दिया है, किन्तु जैन वाङ्मय की समग्र चिन्तनधारा में वह प्राप्त नहीं होता | आचारांग सूत्र में कहा गया है- 'काया को कसो, उसे जीर्ण करो,' किंतु वह एकान्त वचन नहीं है । आगम सूत्रों में कुछ मुनियों के कठोर तप का उल्लेख है । उसे पढ़कर सहज ही यह धारणा बन जाती है कि मुनिजीवन कठोर तपस्या का जीवन है । कुछ विद्वानों का अभिमत है कि जैन साधना प्रारम्भ में कठोर ही थी, फिर बौद्धों की मध्यम प्रतिपदा से प्रभावित हो कुछ मृदु बन गई । बौद्ध धर्म के उत्कर्ष काल में जैन परम्परा उससे प्रभावित नहीं हुई, यह तो नहीं कहा जा सकता । किन्तु इसे भी अमान्य नहीं किया जा सकता कि जैन साधना में मृदुता और कठोरता का सामञ्जस्य आरम्भ से ही रहा है । साधना के मुख्य अंग दो हैं- संवर और तपस्या । संवर के पांच प्रकार हैं - ( १ ) सम्यक्त्व, (२) व्रत, (३) अप्रमाद, (४) अकषाय और ( ५ ) अयोग । इनकी साधना मृदु है— कायक्लेश-रहित है | तपस्या के बारह प्रकार हैं(१) अनशन, (२) ऊनोदरी, (३) भिक्षाचरी, (४) रस - परित्याग, (५) कायक्लेश, (६) प्रतिसंलीनता. Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० (७) प्रायश्चित्त, (८) विनय, (६) वैयावृत्त्य, (१०) स्वाध्याय, (११) ध्यान और ( १२ ) व्युत्सर्गं । इनमें अनशन - लम्बे उपवासों तथा कायक्लेशों को छोड़कर अन्य किसी भी प्रकार को कठोर साधना नहीं कहा जा सकता । ये दोनों बहिरंग तपस्या ( प्रथम छह प्रकारों) के अंग हैं। इनकी तुलना में अन्तरंग तपस्या - ( अंतिम छह प्रकारों) का अधिक महत्त्व है । दूसरी बात यह है कि कायक्लेश व दीर्घकालीन उपवासों का मुनि के लिए अनिवार्य विधान नहीं है । यह अपनी रुचि का प्रश्न है । जिन मुनियों की रुचि इनकी ओर अधिक होती है, वे इन्हें स्वीकार करते हैं और जिनकी रुचि ध्यान आदि की ओर होती है, वे उन्हें स्वीकार करते हैं । सब व्यक्तियों की रुचि को एक ओर मोड़ा नहीं जा सकता । संस्कृति के दो प्रवाह महाव्रत और कायक्लेश मृगापुत्र के माता-पिता ने कहा - "पुत्र ! मुनि-जीवन का पालन बड़ी कठोर साधना है ।"" यहां कठोर साधना का अभिप्राय कायक्लेश से नहीं है । अहिंसा का पालन कठोर है— शत्रु और मित्र के प्रति समभाव रखना सरल काम नहीं है । सत्य का पालन भी कठोर है- सदा जागरूक रहना सरल काम नहीं है । इसी प्रकार अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और रात्रि भोजन- विरति का पालन भी कठोर है । इस कठोरता का मूल आत्मसंयम है किन्तु कायक्लेश नहीं । ये व्रत यावज्जीवन के लिए हैं, इसलिए भी इन्हें कठोर कहा गया। यहां यह जान लेना प्रासंगिक होगा कि जैन मुनि की दीक्षा यावज्जीवन के लिए होती है, वह बौद्ध-दीक्षा की भांति अल्पकालिक नहीं होती । महाव्रतों की साधना काया को कष्ट देने के लिए नहीं है । उनके द्वारा मुख्य रूप से कायिक, वाचिक और मानसिक संयम सिद्ध होता है । उसकी सिद्धि में क्वचित् कायक्लेश प्राप्त हो सकता है पर वह संयम-सिद्धि का मुख्य साधन नहीं है । परीवह और कायक्लेश मुनि के लिए बाईस प्रकार के परीषहों - कष्टों को सहने का विधान किया गया है, किन्तु वह काया को कष्ट देने की दृष्टि से नहीं है । अहिंसा १. उत्तराध्ययन १६।२४ । २ . वही, १६।३५ : जावज्जीवमविस्सामो, गुणाणं तु महाभरी । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रामण्य और कायक्लेश आदि महाव्रतों की पालना करने में जो कष्ट उत्पन्न होते हैं, उन्हें सहन करना काया को क्लेश देना नहीं किन्तु स्वीकृत धर्म में अडिग रहना है। मध्यम प्रतिपदा में विश्वास रखने वाले इस प्रकार के कष्टों से अपने को नहीं बचाते थे। ऐसे कष्टों को शांतिपूर्वक सहन करने की प्रेरणा दी जाती थी। बुद्ध ने कहा -"भिक्षुओं ! यह सीखो कि हम सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, दंशमशक, वात-आतप, सर्प सम्बन्धी कष्टों, शारीरिक वेदनाओं को सहन करने में समर्थ होंगे।" धुतांग साधना में भी अनेक कष्टों को सहा जाता था।' बुद्ध ने भिक्षुओं से कहा था-'भिक्षुओं ! जिसने कायानुस्मृति का अभ्यास किया है, उसे बढ़ाया है, उस भिक्षु को दस लाभ होने चाहिए। कौन से दस ? । ___ 'वह अरति-रति-सह (उदासी के सामने डटा रहने वाला) होता है। उसे उदासी परास्त नहीं कर सकती। वह उत्पन्न उदासी को परास्त कर विहरता है। 'वह भय-भैरव-सह होता। उसे भय-भैरव परास्त नहीं कर सकता । वह उत्पन्न भय-भैरव को परास्त कर विहरता है। _ 'शीत उष्ण, भूख-प्यास, डंक मारने वाले जीव, मच्छर, हवा-धूप, रेंगने वाले जीवों के आघात; दुरुक्त, दुरागत वचनों तथा दुःखदायी, तीव्र, कटु, प्रतिकूल, अरुचिकर, प्राण-हर शारीरिक पीड़ाओं को सह सकने वाला होता है।" ___ कायक्लेश और परीषह की भिन्नता प्राचीन काल से ही मानी जाती रही है । श्रुतसागरगणी ने दोनों का भेद बतलाते हुए लिखा है'कायक्लेश अपनी इच्छा के अनुसार किया जाता है और परीषह समागत कष्ट है।" अनेकान्तदृष्टि __ जैन आचार्यों की कायक्लेश के विषय में अनेकान्तदृष्टि रही है। उन्होंने अपेक्षा के अनुसार उसे महत्त्व भी दिया है और अनपेक्षित कायक्लेश का विरोध भी किया है। आर्य जिनसेन ने इस अनेकान्तदृष्टि की बड़ी मार्मिक चर्चा की है। उन्होंने भगवान् ऋषभ के प्रसंग में एक चिन्तन प्रस्तुत किया है-'मुमुक्षु को अपना शरीर न तो कृश ही बनाना चाहिए और न प्रवर रसों के द्वारा उसे पुष्ट ही करना चाहिए, किन्तु उसे मध्यम१. अंगुत्तरनिकाय, ४।१६।७। ३. बुद्धवचन, पृ० ४१ . २. विशुद्धिमग्ग, दूसरा परिच्छेद । ४. तत्त्वार्थ, ६।१६ श्रुतसागरीय वृत्ति । . Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ संस्कृति के दो प्रवाह मार्ग का अवलम्बन लेना चाहिए - दोष-निवृत्ति के लिए उपवास आदि करने चाहिए और प्राण-संधारण के लिए आहार भी । कायक्लेश उसी सीमा तक सम्मत है जब तक कि मानसिक संक्लेश उत्पन्न न हो । संक्लेश से मन का असमाधान होता है और असमाधान की स्थिति में मुनि धर्म से च्युत हो जाता है । अतः संयम यात्रा के निर्वाह में विघ्न उपस्थित न हो, वैसे उपस्थित होना चाहिए।" यह मध्यम-मार्ग की मान्यता जिनसेन से बहुत पहले ही स्थिर हो चुकी थी । अनेकान्तदृष्टि के साथ-साथ ही इसका उदय हुआ था । उत्तराध्ययन में उसके अनेक बीज प्राप्त हैं । आहार और अनशन - दोनों at ऐकान्तिक विधान नहीं है । छह कारणों से आहार करने की अनुमति दी गई है (४) संयम, (१) वेदना, (२) वैयावृत्त्य, (३) ईर्या, (५) प्राणधारण और (६) धर्मचिन्ता ।' छह कारणों से अनशन करने की अनुमति दी गई है— (४) प्राणिदया, (१) आतंक, (२) उपसर्ग, (३) ब्रह्मचर्यधारण, (५) तपस्या और ( ६ ) शरीर - विच्छेद । इसी प्रकार सरस भोजन का भी ऐकान्तिक विधि-निषेध नहीं है । जो दूध, दही आदि सरस आहार करे उसे भी तपस्या करनी चाहिएआहार और तपस्या का संतुलित क्रम चलाना चाहिए । जो ऐसा नहीं करता, वह पापश्रमण होता है ।" आमरण अनशन के लिए भी अनेकान्त व्यवस्था है । जब तक ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुणों का नित नया विकास होता रहे तब तक जीवन को धारण किया जाये, आहार आदि से शरीर को चलाया जाये । जब ज्ञान, दर्शन आदि का लाभ प्राप्त करने की क्षमता न रहे, उस स्थिति में देह का त्याग किया जाए -- आहार का प्रत्याख्यान किया जाए ।" १. महापुराण, २०११-१० । २. उत्तराध्ययन, २६।३२, ३३ । ३. वही, २६।३३-३४ । ४. वही, १७।१५ । ५. वही, ४।७ : लाभान्तरे जीविय बूहइत्ता, पच्छापरिम्नाय मलावधंसी । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रामण्य और कायक्लेश ११३ वस्त्र के विषय में भी महावीर का दृष्टिकोण मध्यममार्गी था। उन्होंने सचेल और अचेल-इन दोनों साधना-पद्धतियों को मान्यता दी। (१) कई मुनि जीवन पर्यन्त सचेल रहते थे। (२) कई मुनि साधना के प्रारम्भ काल में सचेल रहते और उसके परिपक्व होने पर अचेल हो जाते। (३) कई मुनि कभी सचेल रहते, कभी अचेल । हेमन्त में सचेल रहते और ग्रीष्म में अचेल हो जाते ।' वस्त्र मिलने पर सचेल रहते, न मिलने पर अचेल ।' महावीर ने साधुओं को गणों में संगठित भी किया और अकेले रहने की व्यवस्था भी दी। उन्होंने गण में रहने वालों के लिए सेवा और सहयोग को प्रोत्साहन दिया और अकेले रहने वालों के लिए सेवा या सहयोग न लेने की व्यवस्था दी। जो मण्डली-भोजन चाहते थे, उनके लिए वैसी व्यवस्था की और मण्डली-भोजन के प्रत्याख्यान को भी महत्त्व दिया। इस प्रकार साधना की व्यवस्था में उनका दृष्टिकोण अनेकान्तस्पर्शी रहा। ऊपर कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए हैं जो महावीर के मध्यम-मार्गी दृष्टिकोण पर प्रकाश डालते हैं। महावीर का झुकाव यदि कायक्लेश की ओर होता तो वे यह कभी नहीं कहते कि जो तप और नियम से भ्रष्ट हैं, वे चिरकाल तक अपने शरीर को क्लेश देकर भी संसार का पार नहीं पा सकते। उन्होंने कायक्लेश को वही स्थान दिया, जो स्थान स्वास्थ्य की प्राप्ति के लिए शल्य-चिकित्सा का है। देहाध्यास वास्तव में ही बहत गहरा होता है। उसकी जड़ों को उखाड फेंकने के लिए एक बार देह के प्रति निर्ममत्व होना होता है। रोग उत्पन्न होने पर औषध द्वारा उसका प्रतिकार न करना, इसी साधना की एक कड़ी है।" इस साधना की मृग-मरीचिका से तुलना की गई है। मृगापुत्र और उसके माता-पिता के संवाद से यह लगता है कि रोग का प्रतिकार न करना श्रमणों की सामान्य विधि थी। १. आयारो ८।५० । ७. वही, ११३५। २. उत्तराध्ययन, २।१३ । ८. वही, २६॥३४॥ ३. वही, ११।१४; १७११७ । ६. वही, २०६४१ । ४. वही, ३२।५। १०. वही, २१३२, ३३ । . ५. वही, २६४४ । ६. वही, २६।४० । । ११. वही, १९७५-८२ । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह किन्तु दूसरे आगमों में रोग प्रतिकार करने के उल्लेख भी मिलते हैं । हो सकता है प्रारम्भ में रोग प्रतिकार का निषेध हो और बाद में उसका विधान किया गया हो । यह भी हो सकता है कि देह-निर्ममत्व की विशेष साधना करने वाले मुनियों के लिए चिकित्सा का निषेध हो, सबके लिए नहीं । संभव है मृगापुत्र की विशेष साधना की उत्कट इच्छा को ध्यान में रखकर ही माता-पिता ने ऐसा कहा हो । कुछ भी हो, चिकित्सा के विषय में आगमकारों की एकांतदृष्टि नहीं रही । बाईस परीषहों, जो स्वीकृत - मार्ग पर स्थिर रहने और आत्म-शुद्धि के लिए सहन करने योग्य होते हैं, में कुछ परीषह सब मुनियों के लिए नहीं हैं । ११४ कठोर और मृदुचर्या का प्रश्न आपेक्षिक है । एक व्यक्ति को एक स्थिति में जो कठोर लगता है, वही उसको दूसरी स्थिति में मृदु लगने लगता है और जो मृदु लगता है, वह कभी कठोर लगने लगता है । इसी अनुभूति के सन्दर्भ में मृगापुत्र ने कहा था - ' जिसकी लौकिक प्यास बुझ चुकी है, उसके लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है । ।” १. उत्तराध्ययन, १६।४४ : इह लोए निष्पिवासस्स नत्थि किचि वि दुक्करं । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. तत्त्वविद्या तत्वविद्या हमारे ज्ञान-वृक्ष की वह शाखा है, जिसके द्वारा विश्व के अस्तित्व - नास्तित्व की व्याख्या की जाती है । इसके माध्यम से लगभग सभी दार्शनिकों ने दो मुख्य प्रश्नों पर गम्भीर चिन्तन प्रस्तुत किया। पहला प्रश्न यह रहा कि विश्व सत्य है या मिथ्या ? दूसरा प्रश्न था कि द्रव्य के अस्तित्व का स्रोत एक ही केन्द्र से प्रवाहित हो रहा है या उसके केन्द्र भिन्न-भिन्न हैं ? उपनिषद् और सृष्टि उपनिषदों के ऋषि इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि विश्व सत्य है । उसके अस्तित्व का स्रोत एक ही केन्द्र है । वह ब्रह्म है । उन्होंने यह स्वीकार किया कि जो कुछ है, वह सब ब्रह्म है।' वह एक है, अद्वितीय है । जो नानात्व को देखता है-दो को स्वीकार करता है, वह बार-बार मृत्यु को प्राप्त होता है । ऐतरेय उपनिषद् में बताया गया है कि सृष्टि से पूर्व एकमात्र आत्मा ही था । दूसरा कोई तत्त्व नहीं था । उसने सोचा, लोकों की रचना करूं । इस चिन्तन के साथ उसने लोकों की रचना की । छान्दोग्य उपनिषद् के अनुसार असत् से सत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती । आरम्भ में एक मात्र सत् ही था । उसने इच्छा की कि मैं बहुत होऊं । इस इच्छा के साथ वह अनेक रूपों में व्यक्त हो गया । " वस्तुतः सत् एक ही है । वही ब्रह्म या आत्मा है । जितना नानात्व है, वह उसी का प्रपंच है । औपनिषदिक दृष्टि का फलित अर्थ यह है कि विश्व का मूल हेतु १. ( क ) छान्दोग्योपनिषद्, ३|१४|१ | सर्व खल्विदं ब्रह्म । (ख) मुण्डकोपनिषद्, २।२।११ : ब्रह्मैवेदं सर्वम् । २. छान्दोग्योपनिषद्, ६।२१२ : एकमेवाद्वितीयम् । ३. बृहदारण्यकोपनिषद्, ४|४|११ ; कठोपनिषद् २।१।१० : मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानैव पश्यति । ४. ऐतरेयोपनिषद्, १११।१ २ । ५. छान्दोग्योपनिषद्, ६।२।२-३ ॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह ब्रह्म है। वही परमार्थ-सत्य है। शेष सब उसी से उत्पन्न है और उसी में विलीन हो जाता है। अत: बाह्य जगत् असत्य है-परमार्थ-सत्य नहीं है। जो परमार्थ-सत्य है, वह 'एक' है। जो नानात्व है, वह उसी में से उत्पन्न है, अतः वस्तुत: 'एक' ही सत्य है। जो अनेक है, वह सत्य नहीं है। बौद्ध दर्शन और विश्व बौद्ध धर्म की दो प्रमुख शाखाएं हैं-हीनयान और महायान । हीनयान की दो शाखाएं हैं-वैभाषिक और सौत्रान्तिक-सर्वास्तिवादी । वे जगत् के अस्तित्व को सत्य मानती हैं। ___ महायान की दो शाखाएं-योगाचार और माध्यमिक----जगत् के अस्तित्व को मिथ्या मानती हैं। वैभाषिक और सौत्रान्तिक की दृष्टि में द्रव्य का अस्तित्व आत्मकेन्द्रित है । वह किसी एक ही केन्द्र से प्रवाहित नहीं हो रहा है। योगाचार और माध्यमिक की दृष्टि दार्शनिक युग में विकसित हुई थी। इसीलिए वह तर्कहीन ब्रह्म को मान्य नहीं कर सकी। वह औपनिषदिक चिन्तन का अन्तिम रूप बनी। औपनिषदिक चिन्तन था कि ब्रह्म सत्य है और नानात्व असत्य । योगाचार और माध्यमिक शाखाओं का चिन्तन रहा कि सब कुछ असत्य है। जैन दर्शन और विश्व जैनदृष्टि इन दोनों धाराओं से भिन्न रही। आगम और दार्शनिक -दोनों युगों में उसका रूप-परिवर्तन नहीं हुआ। उसका अपना अभिमत था कि एकत्व भी सत्य है और नानात्व भी सत्य है। अस्तित्व की दृष्टि से सब द्रव्य एक हैं, अतः एकत्व भी सत्य है। उपयोगिता की दृष्टि से द्रव्य अनेक हैं, अतः नानात्व भी सत्य है। जैन आचार्यों ने एकत्व की व्याख्या संग्रह नय के आधार पर की और नानात्व की व्याख्या व्यवहार नय के आधार पर । एकत्व और नानात्व की व्याख्या जहां निरपेक्ष होती है, वहां सत्य का दर्शन खण्डित हो जाता है। निरपेक्ष एकत्व भी सत्य नहीं है और निरपेक्ष नानात्व भी सत्य नहीं है। दोनों का सापेक्ष दर्शन ही सत्य का पूर्ण दर्शन है। जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य आत्म-केन्द्रित हैं। उनके अस्तित्व का स्रोत किसी एक ही केन्द्र से प्रवहमान नहीं है । चेतन का अस्तित्व जितना स्वतन्त्र और वास्तविक है, उतना ही स्वतन्त्र और वास्तविक अचेतन का Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविद्या ११५ अस्तित्व भी है। चेतन और अचेतन की वास्तविक सत्ता ही यह जगत् है ।' यह जगत् अनादि-अनन्त है। चेतन अचेतन से उत्पन्न नहीं है और अचेतन चेतन से उत्पन्न नहीं है। इसका अर्थ यह है कि जगत् अनादिअनंत है। यह व्याख्या द्रव्य-स्पर्शी नय के आधार पर की जा सकती है, किन्तु रूपान्तर-स्पर्शी नय की व्याख्या इससे भिन्न होगी। उसके अनुसार यह जगत् सादि-सान्त भी है। इसका अर्थ यह है कि जगत् के घटक तत्त्व अनादि-अनंत हैं और उनके रूप सादि-सांत हैं । जीव अनादि-अनंत हैं, किंतु एकेन्द्रिय जीव प्रवाह की दृष्टि से अनादि-अनंत हैं और व्यक्ति की दृष्टि से सादि-सान्त हैं। इसी प्रकार अजीव भी अनादि-अनंत हैं किन्तु परमाण प्रवाह की अपेक्षा अनादि-अनंत है और व्यक्ति की दृष्टि से सादि-सान्त है।' जैन दार्शनिक इस सिद्धान्त में विश्वास नहीं करते कि असत् से सत् उत्पन्न होता है। इसका अर्थ यह है कि जगत् में नए सिरे से कुछ भी उत्पन्न नहीं होता। जो जितना है, वह उतना ही था और उतना ही रहेगा। यह मौलिक तत्त्व की बात है। रूपान्तरण की दृष्टि से असत् से सत् उत्पन्न होता भी है । जो एक दिन पहले असत् होता है, वह आज सत् हो जाता है और जो आज सत् होता है, वह कल फिर असत् हो सकता है। जिसे हम जगत् कहते हैं, उसकी सृष्टि का मूल यह रूपान्तरण ही है । जैन दार्शनिकों के अनुसार जगत् के घटक तत्त्व दो हैं-जीव और अजीव । शेष सब इनका विस्तार है। संसार में जितने द्रव्य हैं, वे सब इन दो द्रव्यों के ही भेद-उपभेद हैं। उनमें कुछ ऐसे हैं, जो हमारे लिए दृश्य हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो हसारे लिए दृश्य नहीं हैं। अजीव के पांच प्रकार हैंधर्मास्तिकाय गतितत्त्व। अधर्मास्तिकाय- स्थितितत्त्व । आकाशास्तिकाय- अवकाशतत्त्व। काल परिवर्तन का हेतु। पुद्गलास्तिकाय- संयोग-वियोगशील तत्त्व । मूर्त-अमूर्त भारतीय तत्त्ववेत्ता तीन हजार वर्ष पहले से ही मूर्त और अमूर्त का विभाग मानते रहे हैं । शतपथ ब्राह्मण में लिखा है कि ब्रह्म के दो रूप हैं१. उत्तराध्ययन, ३६।२ । ३. वही, ३६।१२-१३ । २. वही, ३६१७८-७६ । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ संस्कृति के दो प्रवाह मूर्त और अमूर्त ।' बहदारण्यक २।३।१ में भी यही बात मिलती है। पुराणसाहित्य में भी इस मान्यता की चर्चा हई है। जैन आगमों में मूर्त और अमूर्त के स्थान पर रूपी और अरूपी का प्रयोग अधिक मिलता है। इनकी चर्चा भी जितने विस्तार से उनमें हुई है, उतनी अन्यत्र प्राप्त नहीं है । रूपी और अरूपी की सामान्य परिभाषा यह है कि जिस द्रव्य में वर्ण, गन्ध, स्पर्श और संस्थान हों, वह रूपी है और जिसमें ये न हों वह अरूपी है। जीव अरूपी है इसलिए भगुपुत्रों ने अपने पिता से कहा था--'जीव अमूर्त होने के कारण इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य नहीं है। अजीव के प्रथम चार प्रकार अरूपी हैं । पुद्गल रूपी हैं । अरूपी जगत् जनसाधारण के लिए अगम्य है। उसके लिए जो गम्य है, वह पुद्गल जगत् है। उसके चार प्रकार हैंस्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु ।' परमाणु पुद्गल की सबसे छोटी इकाई है। उससे छोटा कुछ भी नहीं है। स्कन्ध उनके समुदाय का नाम है। देश और प्रदेश उसके काल्पनिक विभाग हैं। पुद्गल की वास्तविक इकाई परमाणु ही है । परमाणु सूक्ष्म होते हैं, इसीलिए वे रूपी होने पर भी हमारे लिए दृश्य नहीं हैं। इसी प्रकार उनके सूक्ष्म स्कन्ध भी हमारे लिए अदृश्य हैं। हमारे लिए वही रूपी जगत् दृश्य है जो स्थूल है। परमाणुवाद जैन आगमों में परमाणुओं के विषय में अत्यन्त विस्तृत चर्चा की गई है। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आगमों का आधा भाग परमाणुओं की चर्चा से सम्बन्धित है । उनके विषय में जैन दर्शन का एक विशेष दृष्टिकोण है । उसका अभिमत है कि इस संसार में जितना सांयोगिक परिवर्तन होता है, वह परमाणओं के आपसी संयोग-वियोग और और जीव और परमाणुओं के संयोग-वियोग से होता है। इसकी विशद चर्चा हम 'कर्मवाद और लेश्या' के प्रकरण में करेंगे। शिवदत्त ज्ञानी ने लिखा है-'परमाणवाद वैशेषिक दर्शन की ही विशेषता है । उसका प्रारम्भ उपनिषदों से होता है । जैन, आजीवक आदि द्वारा भी उसका उल्लेख किया गया है। किन्तु कणाद ने उसे व्यवस्थित रूप दिया। ज्ञानीजी का यह प्रतिपादन प्रामाणिक नहीं है। औपनिषदिक दष्टि के उपादान कारण परमाणु नहीं हैं। उसका उपादान ब्रह्म है। १. शतपथ ब्राह्मण, १४।५।३।१ । ४. वही, ३६।४ । २. विष्णुपुराण, १।२२।५३ । ५. वही, ३६।१०। ३. उत्तराध्ययन, १४।१६ ।। ६. भारतीय संस्कृति, पृ० २२६ । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविद्या ११६ हरमन जेकोबी ने परमाणु सिद्धान्तों के विषय पर बड़ी सूक्ष्मदृष्टि से प्रकाश डाला है । उनका अभिमत है - 'ब्राह्मणों की प्राचीनतम दार्शनिक मान्यताओं में, जो उपनिषदों में वर्णित हैं, हम अणु सिद्धांत का उल्लेख तक नहीं पाते हैं और इसलिए वेदान्त सूत्र में, जो उपनिषदों की शिक्षाओं को व्यवस्थित रूप से बताने का दावा करते हैं, इसका खण्डन किया गया है । सांख्य और योग दर्शनों में भी इसे स्वीकार नहीं किया गया है, जो वेदों के समान ही प्राचीन होने का दावा करते हैं, क्योंकि वेदान्त सूत्र भी इन्हें स्मृति के नाम से पुकारते हैं । किन्तु अणु सिद्धान्त वैशेषिक दर्शन का अविभाज्य अंग है और न्याय ने भी इसे स्वीकार किया है । ये दोनों ब्राह्मण परम्परा के दर्शन हैं जिनका प्रादुर्भाव साम्प्रदायिक विद्वानों (पण्डितों) द्वारा हुआ है, न कि देवी या धार्मिक व्यक्तियों द्वारा । वेदविरोधी मतों, जैनों ने इसे ग्रहण किया है, और आजीविकों ने भी। हम जैनों को प्रथम स्थान देते हैं क्योंकि उन्होंने पुद्गल के सम्बन्ध में अतीव प्राचीन मतों के आधार पर ही अपनी पद्धति को संस्थापित किया है ।" जीव विभाग दार्शनिक विद्वानों ने जीवों के विभाग भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से किए हैं । जैन दार्शनिकों ने उनके विभाग का आधार गति और ज्ञान को माना है । गति के आधार पर जीवों के दो विभाग होते हैं—स्थावर और स । जिनमें गमन करने की क्षमता नहीं है, वे स्थावर हैं और जिनमें चलने की क्षमता है, वे त्रस हैं । ' स्थावर सृष्टि स्थावर जीवों के तीन विभाग हैं -- पृथ्वी, जल और वनस्पति । ये तीनों दो-दो प्रकार के होते हैं— सूक्ष्म और स्थूल । सूक्ष्म जीव समूचे लोक में प्राप्त होते हैं और स्थूल जीव लोक के कई भागों में प्राप्त होते हैं । स्थूल पृथ्वी स्थूल पृथ्वी के दो प्रकार हैं- मृदु और कठिन | मृदु पृथ्वी के सात प्रकार हैं- १. एन्साइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एन्ड एथिक्स, भाग २, पृ० १६६,२०० । २. उत्तराध्ययन, ३६।६८ । ३. वही, ३६।६६ । ४. वही, ३६।७८,८६,१०० । ५. वही, ३६।७१ । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० संस्कृति के दो प्रवाह (१) कृष्ण (काली), (२) नील (नीली), (३) लोहित (लाल), (४) हारिद्र (पीली), (५) शुक्ल (श्वेत), (६) पाण्डु (धूमिल, भूरी), तथा (७) पनकमृतिका (अतिसूक्ष्म रज)।' यहां ये भेद अत्यन्त वैज्ञानिक हैं । प्रज्ञापना में भी मृदु पृथ्वी के ये सात प्रकार प्राप्त हैं । ____ कठिन पृथ्वी-भूतल-विन्यास और करंबोपलों को छत्तीस भागों में विभक्त किया गया है-- १. शुद्ध पृथ्वी १६. अंजन २. शर्करा २०. प्रवालक-मंगे के समान रंग ३. बालुका--बलुई वाला' ४. उपल-कई प्रकार की २१. अभ्रबालुका-अभ्रक की बालु शिलाएं और करंबोपल २२. अभ्रपटल-अभ्रक ५. शिला २३. गोमेदक-वैडूर्य की एक जाति ६. लवण २४. रुचक-मणि की एक जाति ७. ऊष-नौनी मिट्टी २५. अंक-मणि की एक जाति ८. अयस्-लोहा २६. स्फटिक १. ताम्र-तांबा २७. मरकत-पन्ना १०. अपु-जस्त २८. भुजमोचक-मणि की एक जाति ११. सीसक-सीसा २६. इन्द्रनील-नीलम १२. रूप्य-चांदी २०. चन्दन-मणि की एक जाति १३. सुवर्ण-सोना ३१. पुलक-मणि की एक जाति १४. वज्र हीरा ३२. सौगन्धिक-माणि की एक जाति १५. हरिताल ३३. चन्द्रप्रभ-मणि की एक जाति १६. हिंगुल ३४. वैडूर्य १७. मनःशीला-मैनसिल ३५. जलकान्त-मणि की एक जाति १८. सस्यक-रत्न की ३६. सूर्यकान्त-मणि की एक जाति - एक जाति वृत्तिकार के अनुसार लोहिताक्ष और मसारगल्ला क्रमशः स्फटिक और मरकत तथा गेरुक और हंसगर्भ के उपभेद हैं।' वृत्तिकार ने शुद्ध पृथ्वी से लेकर वज्र तक के चौदह प्रकार तथा हरिताल से लेकर अभ्र १. उत्तराध्ययन, ३६१७२ । २. कौटलीय अर्थशास्त्र, ११॥३६ । १. उत्तराध्ययन बहवृत्ति, पत्र ६८६ । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वविद्या १२१ पटल तक के आठ प्रकार स्पष्ट रूप से माने हैं । गोमेदक से लेकर शेष सब चौदह प्रकार होने चाहिए, किन्तु अठारह होते हैं (उत्तराध्ययन, ३६।७३-७६) । इनमें से चार वस्तुओं का दूसरों में अन्तर्भाव होता है । वृत्तिकार इस विषय में पूर्णरूपेण असंदिग्ध नहीं हैं कि किसमें किसका अन्तर्भाव होना चाहिए ।' स्थूल जल (१) शुद्ध उदक, (२) ओस, (३) हरतनु, (४) कुहरा और (५) हिम। स्थूल वनस्पति स्थूल वनस्पति के दो प्रकार हैं - ( १ ) प्रत्येक शरीरी' और ( २ ) साधारण शरीरी' ।' जिसके एक शरीर में एक जीव होता है, वह 'प्रत्येक शरीरी' कहलाती है। जिसके एक शरीर में अनंत जीव होते हैं, वह 'साधारण शरीरी' कहलाती है । आदि । 'प्रत्येक शरीरी' वनस्पति के बारह प्रकार हैं(१) वृक्ष, ( (४) लता, (७) लतावलय, (१०) जलज. (२) गुच्छ, (५) वल्ली, (८) पर्वग, (३) गुल्म, ( (११) औषधितृण और ( १२ ) हरितकाय । * 'साधारण शरीरी' वनस्पति के अनेक प्रकार हैं; जैसे - कन्द, मूल (६) तृण, (६) कुहुण, स सृष्टि स सृष्टि के छह प्रकार हैं (१) अग्नि, (२) वायु, (३) द्वीन्द्रिय, , १. उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति पत्र ६८६ : इह च पृथिव्यादयश्चतुर्दश हरिताला - दयोऽष्टौ गोमेज्जकादयश्च क्वचित्कस्यचित्कथंचिदन्तर्भावाच्चतुर्दशेत्यमी मीलिताः षट्त्रिंशद् भवन्ति । २. उत्तराध्ययन, ३६।८५ । ३. वही, ३६।६३ । ४. वही, ३६ ९४, ९५ । ५. वही, ३६६६,६६ । ६. वही, ३६।१०७,१२६ । (४) त्रीन्द्रिय, (५) चतुरिन्द्रिय और (६) पंचेन्द्रिय | " Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ संस्कृति के दो प्रवाह अग्नि और वायु की गति अभिप्रायपूर्वक नहीं होती, इसलिए वे केवल गमन वाले त्रस हैं। द्वीन्द्रिय आदि अभिप्रायपूर्वक गमन करने वाले अस हैं। अग्नि और वायु अग्नि और वायु दोनों दो-दो प्रकार के होते हैं-सूक्ष्म और स्थूल । सूक्ष्म जीव समूचे लोक में व्याप्त रहते हैं और स्थूल जीव लोक के अमुक-अमुक भाग में हैं।' स्थूल अग्निकायिक जीवों के अनेक भेद होते हैं, जैसे-अंगार, मुर्मुर, शुद्ध अग्नि, अचि, ज्वाला, उल्का, विद्युत् आदि।' स्थूल वायुकायिक जीवों के भेद ये हैं-(१) उत्कलिका, (२) मण्डलिका, (३) धनवात, (४) गुञ्जावात, (५) शुद्धवात और (६) संवर्तकवात ।' अभिप्रायपूर्वक गति करने बाले त्रस जिन किन्हीं प्राणियों में सामने जाना, पीछे हटना, संकुचित होना, फैलना, शब्द करना, इधर-उधर जाना, भयभीत होना, दौड़ना-ये क्रियाएं हैं और आगति एवं गति के विज्ञाता हैं, वे सब त्रस हैं । इस परिभाषा के अनुसार त्रस जीवों के चार प्रकार हैं-(१) द्वीन्द्रिय, (२) त्रीन्द्रिय, (३) चतुरिन्द्रिय और (४) पंचेन्द्रिय । ये स्थल ही होते हैं, इनमें सूक्ष्म और स्थूल का विभाग नहीं है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, और चतुरिन्द्रिय जीव सम्मूर्च्छनज ही होते हैं। पंचेन्द्रिय जीव सम्मूर्च्छनज और गर्भज-दोनों प्रकार के होते हैं। गति की दष्टि से पंचेन्द्रिय चार प्रकार के हैं- (१) नैरयिक, (२) तिर्यञ्च, (३) मनुष्य और (४) देव । पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च तीन प्रकार के होते हैं-(१) जलचर, (२) स्थलचर और (३) खेचर । ___जलचर सृष्टि के मुख्य प्रकार मत्स्य, कच्छप, ग्राह, मगर और शुंशुमार आदि हैं।' . १. उत्तराध्ययन, ३६१११,१२० । २. वही, ३६।१००,१०६ । ३. वही, ३६।११८-११६ । ४. दशवकालिक, ४ सूत्र ६ । ५. उत्तराध्ययन, ३६।१५६ । ६. वही, ३६।१७१। ७. वही, ३६।१७२। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वविद्या स्थलचर सृष्टि की मुख्य जातियां दो हैं--(१) चतुष्पद और (२) परिसर्प ।' चतुष्पद के चार प्रकार हैं(१) एक खुर वाले अश्व आदि, (२) दो खुर वाले बैल आदि, (३) गोल पैर वाले हाथी आदि, (४) नख-सहित पैर वाले --- सिंह आदि । परिसर्प की मुख्य जातियां दो हैं(१) भुजपरिसर्प-भुजाओं के बल रेंगने वाले-गोह आदि । (२) उरःपरिसर्प--छाती के बल रेंगने वाले–सर्प आदि ।' खेचर सृष्टि की मुख्य जातियां चार हैं(१) चर्मपक्षी, (२) रोमपक्षी, (३) समुद्गपक्षी और (४) वितत पक्षी।" यह जीव-सृष्टि की संक्षिप्त रूपरेखा है । दृश्य जगत् और परिवर्तनशील सृष्टि जीव दो प्रकार के होते हैं-(१) संसारी और (२) सिद्ध । सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप के द्वारा पौद्गलिक बन्धनों से मुक्त जीव 'सिद्ध' कहलाते हैं । दृश्य जगत और परिवर्तनशील सृष्टि में उनका कोई योगदान नहीं होता। वे केवल आत्मस्थ होते हैं। सृष्टि के विविध रूपों में संसारी जीवों का योगदान होता है । वे शरीरस्थ होते हैं, इसलिए पोद्गलिक संयोग-वियोग में रहते हुए नाना रूप धारण करते हैं। सृष्टि की विविधता उन्हीं रूपों में से निखार पाती है। यह मिट्टी क्या है ? पृथ्वी के जीवों का शरीर ही तो है। यह जल और क्या है ? अग्नि, वायु, वनस्पति और जंगम-ये सभी शरीर हैं, जीवित या मृत । हमारे सामने ऐसी कोई भी वस्तु दृश्य नहीं है, जो एक दिन किसी जीव का शरीर न रही हो। शरीर और क्या है ? सूक्ष्म को स्थल बनाने और अदृश्य को दृश्य बनाने का एक माध्यम है। शरीर और जीव का संयोग सृष्टि के परिवर्तन और संचलन का मुख्य हेतु है । १. उत्तराध्ययन, ३६।१७६ । ४. वही, ३६।१८८ । २. वही, ३६।१७६,१८० । ५. वही, ३६।४८ । ३. वही, ३६।१८१ ।। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. कर्मवाद और लेश्या परिस्थिति में ही गुण और दोष का आरोप वे लोग कर सकते हैं, जो आत्मा में विश्वास नहीं करते । आत्मा को मानने वाले लोग आंतरिक और बाह्य- दोनों में गुण-दोष देखते हैं और अन्तिम सचाई तो यह है कि आंतरिक विशुद्धि से ही बाहर की विशुद्धि होती है तथा आन्तरिक दोष से ही बाहर में दोष निष्पन्न होता है । अमितगति ने इसी भावभाषा में कहा है अन्तविशुद्धितो जन्तोः, शुद्धिः सम्पद्यते बहिः । बाह्य हि कुरुते दोषं, सर्वमान्तरदोषतः ॥ बाहरी परिस्थिति से वे ही व्यक्ति प्रभावित होते हैं, जो विजातीय तत्त्वों से अधिक सम्पृक्त हैं । जिनका विजातीय तत्त्वों से सम्पर्क कम है, जिसकी चेतना अपने में ही लीन है, वे बाहर से प्रभावित नहीं होते । इसी सत्य को इस भाषा ने भी प्रस्तुत किया जा सकता है कि जो बाहरी संगों से मुक्त रहता है, उसकी चेतना अपने में लीन रहती है और उसकी चेतना दूसरे रंगों में रंग जाती है, जो बाहर में विलीन रहता है। सचाई यह है, अपने को बाह्य में विलीन करने वाला हर जीव बाह्य से प्रभावित होता है और उसकी चेतना बाहर के रंगों से रंगीन रहती है । लेश्या इस रंगीन चेतना का ही एक परिणाम है और कर्म - बन्धन उसी का अनुगमन करता है । कर्म : चैतन्य पर प्रभाव जीव चेतन है और पुद्गल अचेतन । इन दोनों में सीधा सम्बन्ध नहीं है । जीव लेश्या के माध्यम से ही पुद्गलों का आत्मीकरण करता है, इसलिए जब वह शुभ प्रवृत्ति में संलग्न रहता है, तब शुभ पुद्गल आत्मीकृत होते हैं, जो पुण्य कहलाते हैं और जब वह अशुभ प्रवृत्ति में संलग्न रहता है, तब अशुभ पुद्गल आत्मीकृत होते हैं, जो पाप कहलाते हैं । जब ये पुण्य१. मूलाराधना, अमितगति, १६६७ । २. मूलाराधना, ७।१६१२ : मंदा हुंति कसाया, बाहिरसंगविजढस्स सव्वस्स । frost कसायबहुलो, चेव हु सव्वंपि गंथकलि || Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद और लेश्या १२५ पाप विभक्त किए जाते हैं, तब इनकी आठ जातियां बन जाती हैं, जिन्हें आठ कर्म कहा गया है १. ज्ञानावरण-इससे ज्ञान आवृत होता है, इसलिए यह पाप है। २. दर्शनावरण--इससे दर्शन आवृत होता है, इसलिए यह पाप है। ३. मोहनीय---इससे दष्टि और चारित्र विकत होते हैं, इसलिए यह पाप है। ४. अन्तराय-इससे आत्मा का वीर्य प्रतिहत होता है, इसलिए यह पाप है। ५. वेदनीय-यह सुख और दुःख की वेदना का हेतु बनता है। इसलिए यह पुण्य भी है और पाप भी है। ६. नाम-यह शुभ और अशुभ अभिव्यक्ति का हेतु बनता है, इसलिए यह पूण्य भी है और पाप भी है। ७. गोत्र--यह उच्च और नीच संयोगों का हेतु बनता है, इसलिए __ यह पुण्य भी है और पाप भी है। ८. आयुष्य-यह शुभ और अशुभ जीवन का हेतु बनता है, इसलिए यह पूण्य भी है और पाप भी है। जीव पुण्य या पाप नहीं है और पुद्गल भी पुण्य या पाप नहीं है। जीव और पुद्गल का संयोग होने पर जो स्थिति बनती है, वह पुण्य या पाप है। इन पुण्य या पाप कर्मों के द्वारा जीवों में विविध परिवर्तन होते रहते हैं। इस जगत् के नानात्व का सर्वोपरि कारण है कर्म-समूह । कर्मों के पुद्गल सूक्ष्म हैं । उनसे ऐसे रहस्यपूर्ण कार्य घटित होते हैं, जिनकी सामान्य बुद्धि व्याख्या ही नहीं कर सकती या जिन्हें बहुत सारे लोग ईश्वर की लीला कह कर सन्तोष मानते हैं। यदि हम जीव और कर्म पुद्गलों की संयोगिक प्रक्रियाओं को गहराई से समझ लें तो हम सृष्टि की सहज व्याख्या कर सकते हैं और जटिलताओं से भी बच जाते हैं, जो ईश्वरीय सृष्टि की व्याख्या में उत्पन्न होती हैं। लेश्या : चेतन और अचेतन के संयोग का माध्यम जितने स्थूल परमाणु स्कन्ध होते हैं, वे सब प्रकार के रंगों और उपरंगों से युक्त होते हैं। मनुष्य का शरीर स्थूल स्कन्ध है, इसलिए वह भी सब रंगों से युक्त है । वह रंगीन है, इसीलिए बाह्य रंगों से प्रभावित होता है । उनका प्रभाव मनुष्य के मन पर भी पड़ता है। इस प्रभाव-शक्ति Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ संस्कृति के दो प्रवाह के आधार पर भगवान् महावीर ने सब प्राणियों के शरीरों और विचारों को छह वर्गों में विभक्त किया । उस वर्गीकरण को 'लेश्या' कहा जाता है (१) कृष्णलेश्या, (३) कापोतलेश्या, (५) पद्मलेश्या और (२) नीललेश्या, (४) तेजोलेश्या, (६) शुक्ललेश्या। डा. हर्मन जेकोबी के अभिमत की समीक्षा डा० हर्मन जेकोबी ने लिखा है- 'जैनों के लेश्या के सिद्धान्त में और गोशालक के मानवों के छह भागों में विभक्त करने वाले सिद्धान्त में समानता है। इसे पहले पहल प्रो० ल्यूमेन ने पकड़ा, किन्तु इस विषय में मेरा विश्वास है कि जैनों ने यह सिद्धान्त आजीवकों से लिया और उसे परिवर्तित कर अपने सिद्धान्तों के साथ समन्वित कर दिया। मानवों का छह भागों में विभाजन गोशालक के द्वारा नहीं, किन्तु पूरणकश्यप के द्वारा किया गया था। पता नहीं प्रो० ल्यूमेन और डा० हर्मन जेकोबी ने उसे 'गोशालक के द्वारा किया हआ मानवों का विभाजन' किस आधार पर माना ? पूरणकश्यप बौद्ध साहित्य में उल्लिखित छह तीर्थङ्करों में से एक हैं।' उन्होंने रंगों के आधार पर छह अभिजातियां निश्चित की थीं१. कृष्णाभिजाति-क्रूर कर्म वाले सौकरिक, शाकुनिक आदि जीवों का वर्ग। २. नीलाभिजाति-बौद्ध-भिक्षु तथा कुछ अन्य कर्मवादी, क्रियावादी भिक्षओं का वर्ग । ३. लोहिताभिजाति--एकशाटक निर्ग्रन्थों का वर्ग । ४. हरिद्राभिजाति-श्वेत वस्त्रधारी या निर्वस्त्र । ५. शुक्लाभिजाति-आजीवक श्रमण-श्रमणियों का वर्ग । ६. परमशुक्लाभिजाति-आजीवक आचार्य--नन्द, वत्स, कृश, सांकृत्य, मस्करी गोशालक आदि का वर्ग ।' आनन्द ने गौतम बुद्ध से इन छह अभिजातियों के विषय में पूछा तो उन्होंने इसे 'अव्यक्त व्यक्ति द्वारा किया हुआ प्रतिपादन' कहा। इस वर्गीकरण का मुख्य आधार अचेलता है। इसमें वस्त्रों के अल्पी १. Sacred Books of the East, Vol. XLY, Introduction. p. Xxx. २. अंगुत्तरनिकाय, ६।६।३, भाग ३, पृ० ६३ । ३. दीघनिकाय, ११२, पृ० १६,२० । ४. अंगुत्तरनिकाय, ६।६।३, भाग ३, पृ० ६३-६४ । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद और लेश्या १२७ करण या पूर्ण-त्याग के आधार पर अभिजातियों की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया गया है। गौतम बुद्ध ने आनन्द से कहा- 'मैं भी छह अभिजातियों की प्रज्ञापना करता है १. कोई पुरुष कृष्णाभिजातिक (नीच कुल में उत्पन्न) हो, कृष्ण धर्म (पाप) करता है। २. कोई पुरुष कृष्णाभिजातिक हो, शुक्ल-धर्म करता है। ३. कोई पुरुष कृष्णाभिजातिक हो, अकृष्ण-अशुक्ल निर्वाण को पैदा करता है। ४. कोई पुरुष शुक्लाभिजातिक (ऊंचे कुल में उत्पन्न) हो, शुक्ल धर्म (पुण्य) करता है। ५. कोई पुरुष शुक्लाभिजातिक हो, कृष्ण-धर्म करता है। ६. कोई पुरुष शुक्लाभिजातिक हो, अकृष्ण-अशुक्ल निर्वाण को पैदा ___ करता है। यह वर्गीकरण जन्म और कर्म के आधार पर किया हुआ है। इसमें चाण्डाल, निषाद आदि जातियों को 'शुक्ल' कहा गया है। कायिक, वाचिक और मानसिक दुश्चरण को 'कृष्ण-धर्म' और उनके सुचरण को 'शुक्लधर्म' कहा गया है। निर्वाण न कृष्ण है और न शक्ल । इस वर्गीकरण का ध्येय यह है कि नीच जाति में उत्पन्न व्यक्ति भी शुक्ल-धर्म कर सकता है और उच्च कुल में उत्पन्न व्यक्ति कष्ण-धर्म भी करता है। धर्म और निर्वाण का सम्बन्ध जाति से नहीं है। छह अभिजातियों के इन दोनों वर्गीकरणों का लेश्या के वर्गीकरण से कोई सम्बन्ध नहीं है। वह सर्वथा स्वतंत्र है। लेश्याओं का सम्बन्ध एकएक व्यक्ति से है। विचारों को प्रभावित करने वाली लेश्याएं एक व्यक्ति के एक ही जीवन में काल-क्रम से छहों हो सकती हैं। लेश्या का वर्गीकरण छह अभिजातियों की अपेक्षा महाभारत के वर्गीकरण के अधिक निकट है। सनत्कुमार ने दानवेन्द्र वृत्रासुर से कहा'प्राणियों के वर्ण छह प्रकार के हैं-(१) कृष्ण, (२) धूम्र, (३) नील, (४) रक्त, (५) हारिद्र और (६) शुक्ल । इनमें से कृष्ण, धूम्र और नील वर्ण का सुख मध्यम होता है। रक्त वर्ण अधिक सह्य होता है। हारिद्र वर्ण १. (क) अंगुत्तरनिकाय, ६।६।३, भाग ३, पृ० ६३-६४ । (ख) दीघनिकाय, ३३१०, पृ० २६५।। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ संस्कृति के दो प्रवाह सुखकर और शुक्ल वर्ण अधिक सुखकर होता है।" कृष्ण वर्ण की नीच गति होती है । वह नरक में ले जाने वाले कर्मों में आसक्त रहता है। नरक से निकलने वाले जीव का वर्ण धम्र होता है, यह पशु-पक्षी जाति का रंग है। नील वर्ण मनुष्य जाति का रंग है । रक्त वर्ण अनुग्रह करने वाले देववर्ग का रंग है। हारिद्र वर्ण विशिष्ट देवताओं का रंग है । शुक्ल वर्ण सिद्ध शरीरधारी साधकों का रंग है।' महाभारत में एक स्थान पर लिखा है-'दुष्कर्म करने वाला मनुष्य वर्ण से परिभ्रष्ट हो जाता है । पुण्य-कर्म से वह वर्ण के उत्कर्ष को प्राप्त होता है।" 'लेश्या, और महाभारत के 'वर्ण-निरूपण' में बहत साम्य है, फिर भी वह महाभारत से गृहीत है, ऐसा मानने के लिए कोई हेतु प्राप्त नहीं है । रंग के प्रभाव की व्याख्या लगभग सभी दर्शन-ग्रंथों में मिलती है। जैन आचार्यों ने उसे सर्वाधिक विकसित किया, इस सम्बन्ध में कोई भी मनीषी दो मत नहीं हो सकता। इस विकास को देखते हुए सहज ही यह कल्पना हो जाती है कि जैन आचार्य इसका प्रतिपादन बहुत पहले से ही करते आए हैं। इसके लिए वे उन दूसरी परम्पराओं के ऋणी नहीं हैं, जिन्होंने इसका प्रतिपादन केवल प्रासंगिक रूप में ही किया है। गीता में गति के कृष्ण और शुक्ल-ये दो वर्ग किए गए हैं । कृष्णगति वाला बार-बार जन्म-मरण करता है। शुक्लगति वाला जन्म-मरण से मुक्त हो जाता है। धम्मपद में धर्म के दो भाग किए हैं। वहां लिखा है-'पण्डित मनुष्य को कृष्ण धर्म को छोड़ शुक्ल धर्म का आचरण करना चाहिये।५।। पतञ्जलि ने कर्म की चार जातियां बतलाई थीं-(१) कृष्ण, (२) शुक्ल-कृष्ण, (३) शुक्ल और (४) अशुक्ल-अकृष्ण । ये क्रमशः १. महाभारत, शान्तिपर्व, २८०१३३ : षड् जीववर्णाः परमं प्रमाणं, कृष्णो धूम्रो नीलमथास्य मध्यम् । रक्तं पुनः सह्यतरं सुखं तु, हारिद्रवर्णं सुसुखं च शुक्लम् ।। २. वही, २८०।३४-४७ । ३. वही, २६११४-५ । ४. गीता, ८।२६ : शुक्लकृष्णे गती ह्यते, जगतः शाश्वते मते । एकया यात्यनावृत्ति-मन्ययाऽवर्तते पुनः ।। ५. धम्मपद, पंडितवग्ग, श्लोक १६ । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद और लेश्या १२६ I अशुद्धतर, अशुद्ध, शुद्ध और शुद्धतर हैं। योगी की कर्म-जाति 'अशुक्लअकृष्ण' होती है । शेष तीन कर्म-जातियां सब जीवों में होती हैं ।' उनका कर्म कृष्ण होता है, जिनका चित्त दोष कलुषित या क्रूर होता है । पीड़ा और अनुग्रह दोनों विद्याओं से मिश्रित कर्म 'शुक्ल कृष्ण' कहलाता है । ये बाह्य साधनों के द्वारा साध्य होते हैं । तपस्या, स्वाध्याय श्रौर ध्यान में निरत लोगों के कर्म केवल मन के अधीन होते हैं । उनमें बाह्य साधनों की अपेक्षा नहीं होती और न किसी को पीड़ा दी जाती है, इसलिए इस कर्म को 'शुक्ल' कहा जाता है । जो पुण्य के फल की भी इच्छा नहीं करते, उन क्षीणक्लेश चरमदेह योगियों के अशुक्ल-अकृष्ण कर्म होता है । " श्वेताश्वतर उपनिषद् में प्रकृति को लोहित, शुक्ल और कृष्ण कहा गया है ।' सांख्यकौमुदी के अनुसार रजोगुण से मन मोह - रञ्जित होता है, इसलिए वह लोहित है । सत्त्व-गुण से मन मल रहित होता है, इसलिए वह शुक्ल है । " स्वरविज्ञान में भी यह बताया गया है कि विभिन्न तत्त्वों के विभिन्न वर्ण प्राणियों को प्रभावित करते हैं । उनके अनुसार मूलतः प्राणतत्त्व एक है । अणुओं के न्यूनाधिक वेग या कम्पन के अनुसार उसके पांच विभाग होते हैं । उनके नाम, रंग, आकार आदि इस प्रकार हैं नाम वेग रंग आकार रस या स्वाद पीला चतुष्कोण सफेद या बैंगनी अर्द्धचंद्राकार १. पृथ्वी २. जल ३. तेजस् ४. वायु ५. आकाश अल्पतर अल्प तीव्र तीव्रतर तीव्रतम १. पातञ्जल योगसूत्र, ४।७ । ३. श्वेताश्वतर उपनिषद् ४।५ : लाल नीला या आसमानी काला या नीलाभ ( सर्ववर्ण क मिश्रित रंग) त्रिकोण गोल अनेक बिन्दु गोल या आकर शून्य २. वही, ४१७ भाष्य । अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां, बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः । अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते, जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः ॥ ४. सांख्य कौमुदी, पृ० २०० । ५. शिवस्वरोदय, भाषा टीका, श्लोक १५६, पृ० ४२ आपः श्वेता क्षितिः पीता, रक्तवर्णों हुताशनः । मारुतो नीलजीभूतः, आकाशः सर्ववर्णकः ।। मधुर कसैला चरपरा खट्टा कडवा Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह रंगों से प्राणि-जगत् प्रभावित होता है, इस सत्य की ओर जितने संकेत मिलते हैं, उनमें लेश्या का विवरण सर्वाधिक विशद और सुव्यवस्थित लेश्या की परिभाषा और वर्गीकरण का आधार मन के परिणाम अशुद्ध और शुद्ध-दोनों प्रकार के होते हैं। उनके निमित्त भी शुद्ध और अशुद्ध---दोनों प्रकार के होते हैं। निमित्त प्रभाव डालते हैं और मन के परिणाम उनसे प्रभावित होते हैं । इस प्रकार इन दोनों का पारस्परिक सम्बन्ध है। इसीलिए इन दोनों को-निमित्त को द्रव्य-लेश्या और मन के परिणाम को भाव-लेश्या-कहा गया है। निमित्त बनने वाले पुद्गल हैं। उनमें वर्ण भी है, गंध भी है, रस और स्पर्श भी है, फिर भी उनका नामकरण वर्ण के आधार पर हआ है। मानसिक विचारों की अशुद्धि और शुद्धि को कृष्ण और शुक्लवर्ण के द्वारा अभिव्यक्ति दी जाती रही है। इसका कारण यह हो सकता कि गंध आदि की अपेक्षा वर्ण मन को अधिक प्रभावित करता है। कृष्ण, नील और कापोत-ये तीन रंग अशुद्ध माने गए हैं। इनसे प्रभावित होने वाली लेश्याएं भी इसी प्रकार विभक्त होती हैं। कृष्ण, नील और कापोत-ये तीन अधर्म लेश्याएं हैं।' तेजस्, पद्म और शुक्ल-ये तीन धर्म लेश्याएं हैं।' __ अशुद्धि और शुद्धि के आधार पर छह लेश्याओं का वर्गीकरण इस प्रकार है१. कृष्णलेश्या अशुद्धतम क्लिष्टतम २. नीललेश्या अशुद्धतर क्लिष्टतर ३. कापोतलेश्या अशुद्ध क्लिष्ट ४. तेजस्लेश्या अक्लिष्ट ५. पद्मलेश्या शुद्धतर अक्लिष्टतर ६. शुक्ललेश्या शुद्धतम अक्लिष्टतम इस अशुद्धि और शुद्धि का आधार केवल निमित्त नहीं है। निमित्त और उपादान-दोनों मिल कर किसी स्थिति का निर्माण करते हैं । अशुद्धि का उपादान है-कषाय की तीव्रता और उसके निमित हैं-कृष्ण, नील और कापोत रंग वाले पुद्गल । शुद्धि का उपादान है-कषाय की मन्दता और उसके निमित्त हैं-रक्त, पीत और श्वेत रंग वाले पुद्गल । १. उत्तराध्ययन, ३४१५६ । २. वही, ३४।५७ । शुद्ध Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद और लेश्या १३१ उत्तराध्ययन ( ३४।३ ) में लेश्या का ग्यारह प्रकार से विचार किया गया है'(१) नाम' १. कृष्ण २. नील ३. कापोत (२) वर्णं' १. कृष्ण२. नील ३. कापोत ४. तेजस् ५. पद्म— ६. शुक्ल (३) रस * १. कृष्ण२. नील- ३. कापोत ४. तेजस्— ५. पद्म— ६. शुक्ल (४) गंध' १. कृष्ण२. नील ३. कापोत ४. तेजस् ५. पद्म ६. शुक्ल १. उत्तराध्ययन, ३४।२ २. वही, ३४।३ । ३. वही, ३४।४-६ ४. वही, ३४।१०-१५ । ५. वही, ३४।१६-१७ । मेघ की तरह कृष्ण अशोक की तरह नील अलसी पुष्प की तरह हिंगुल की तरह रक्त हरिताल की तरह पीत शङ्ख की तरह श्वेत । ४. तेजस् ५. पद्म ६. शुक्ल । तुम्बे से अनन्त गुना कड़वा त्रिकुट ( सोंठ, पिप्पल और काली मिर्च) से अनन्त गुना तीखा के से अनन्त गुना कसैला पके आम से अनन्त गुना अम्ल - मधुर आसव से अनन्त गुना अम्ल, कसैला और मधुर खजूर से अनन्त गुना मधुर मृत " 21 11 मटमैला सर्प की गंध से अनन्त गुना अमनोज्ञ " 11 "} " 11 31 सुरभि कुसुम की गंध से अनन्त गुना मनोज्ञ 11 11 23 33 37 11 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ (५) स्पर्श' १. कृष्ण--- २. नील ३. कापोत ४. तेजस्— ५. पद्म ६. शुक्ल (६) परिणाम' १. कृष्ण२. नील ३. कापोत ४. तेजस्— ५. पद्म गाय की जीभ से अनन्त गुना कर्कश 17 33 "" "3 १. उत्तराध्ययन, ३४।१८ - १६ । २. वही, ३४।२० । ३. वही, ३४।२१-२२ । 17 नवनीत से अनन्त गुना मृदु " 31 29 जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट 37 17 33 " जघन्य, मध्यम और " "" 22 संस्कृति के दो प्रवाह 11 " " 13 उत्कृष्ट ६. शुक्ल - जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट परिणामों के तारतम्य पर विचार करने से प्रत्येक लेश्या के नौ-नौ परिणाम होते हैं " 31 13 १. जघन्य - जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट २. मध्यम ३. उत्कृष्ट जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट के इसी प्रकार सात परिणामों का जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट त्रिक से गुणन करने पर विकल्पों की वृद्धि होती है । जैसे- ९×३ =२७, २७३ ८१, ८१४३ - २४३ । इस प्रकार मानसिक परिणामों की तरतमता के आधार पर प्रत्येक लेश्या के अनेक परिणमन होते हैं । (७) लक्षण 33 १. कृष्ण' – मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग- इन पांच आस्रवों में प्रवृत्त होना, मन, वचन और काया का संयम न करना, जीव हिंसा में रत रहना, तीव्र आरम्भ में संलग्न रहना, प्रकृति की क्षुद्रता, बिना विचारे काम करना, क्रूर होना और इंद्रियों पर विजय न पाना । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद और लेश्या १३३ गुद्धि, नील' ईर्ष्या, कदाग्रह, अतपस्विता, अविद्या, माया, निर्लज्जता, प्रद्वेष, शठता, प्रमाद, रसलोलुपता, सुख की गवेषणा, हिंसा में रत रहना, प्रकृति की क्षुद्रता और बिना विचारे काम करना । कापोत-वाणी की वक्रता, आचरण की वक्रता, कपट, अपने दोषों को छुपाना, मिथ्यादृष्टि, मखोल करना, दुष्ट वचन बोलना, चोरी करना और मात्सर्य । ➖➖➖➖ तेजस्' नम्र व्यवहार करना, अचपल होना, ऋजुता, कुतूहल न करना, विनय में निपुण होना, जितेन्द्रियता, मानसिक समाधि, तपस्विता, धार्मिक प्रेम, धार्मिक दृढ़ता, पापभीरुता और मुक्ति की गवेषणा । पद्म - क्रोध, मान, माया और लोभ की अल्पता, चित्त की प्रशान्ति, आत्म-नियंत्रण, समाधि, अल्पभाषिता और जितेन्द्रियता । शुक्ल -- धर्म और शुक्लध्यान की लीनता, चित्त की प्रशान्ति, आत्मनियंत्रण, सम्यक् प्रवृत्ति, मन, वचन और काया का संयम तथा जितेन्द्रियता । इस प्रसंग में गोम्मटसार जीवकाण्ड ( गाथा ५०८ - ५१६) द्रष्टव्य है । लेश्याओं के लक्षणों के साथ सत्त्व, रजस् और तमस् के लक्षणों की आंशिक तुलना होती है । शौच, आस्तिक्य, शुक्ल-धर्म की रुचि वाली बुद्धिये सत्त्वगुण के लक्षण हैं; बहुत बोलना, मान, क्रोध, दम्भ और मात्सर्यये रजोगुण के लक्षण हैं और भय, अज्ञान, निद्रा, आलस्य और विषाद - ये तमोगुण के लक्षण हैं । १. उत्तराध्ययन, ३४।२३-२४ २. वही, ३४१२५-२६॥ ३. वही, ३४।२७-२८ । ४. वही, ३४।२६-३० । ५. वही, ३४।३२ । ६. अष्टांगहृदय, शरीरस्थान, ३।३७,३८ : सात्विकं शौचमास्तिक्यं शुक्लधर्म रुचिर्मतिः । राजसं बहुभाषित्वं मानक्रुद्दम्भमत्सरम् ॥ तामसं भयमज्ञानं, निद्रालस्यविषादिता । इति भूतमयो देह II Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ संस्कृति के दो प्रवाह (6) स्थान १. कृष्ण असंख्य २. नील३. कापोत४. तेजस्५. पद्म ६. शुक्ल(९) स्थिति श्वेताम्बर दिगम्बर' लेश्या जघन्य उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट १. कृष्ण अन्तर्मुहूर्त ३३ सागर और एक अन्तर्मुहूर्त ३३ सागर मुहूर्त २. नील " पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दस सागर ३३ सागर ३. कापोत पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक तीन सागर ७ सागर ४. तेजस् पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दो सागर २ सागर ५. पद्म अन्तर्मुहूर्त अधिक दस सागर १८ सागर ६. शुक्ल " अन्तर्मुहूर्त अधिक ३३ सागर ३३ सागर (१०) गति' १. कष्ण३. नील२. कापोत४. तेजस्- सुगति ५. पद्म६. शुक्ल दुर्गति ४. उत्तराध्ययन, ३४१५६-५७ । १. उत्तराध्ययन, ३४१३३ । २. वही, ३४१३४-३६ । ३. तत्त्वार्थ राजवातिक, पृ० २४१ : Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद और लेश्या १३५ (११) आयु - लेश्या के प्रारम्भिक और अन्तिम समय में आयु शेष नहीं होता, किन्तु मध्यकाल में वह शेष होता है । यह नियम सब श्याओं के लिए समान है ।' तत्त्वार्थ राजवार्तिक ( पृ० २३८ ) में लेश्या पर सोलह दृष्टियों से विचार किया गया है १. निर्देश २. वर्ण ३. परिणाम ४. संक्रम ५. कर्म ६. लक्षण १०. ७. गति ११. क्षेत्र ८. स्वामित्व १२. स्पर्शन १३. काल १४. अंतर १५. भाव १६. अल्प - बहुत्व भगवती, प्रज्ञापना आदि आगमों में तथा उत्तरवर्ती ग्रंथों में लेश्या का जो विशेष विवेचन किया गया है, उसे देख कर सहज ही यह विश्वास होता है कि जैन आचार्य लेश्या सिद्धान्त की प्रस्थापना के लिए दूसरे सम्प्रदायों के ऋणी नहीं हैं । ६. साधन संख्या मनुष्य का शरीर पौद्गलिक है । जो पौद्गलिक होता है, उसमें रंग अवश्य होते हैं । इसीलिए संभव है कि रंगों के आधार पर वर्गीकरण करने की प्रवृत्ति चली । महाभारत में चारों वर्णों के रंग भिन्न-भिन्न बतलाए गए हैं । जैसे - ब्राह्मणों का रंग श्वेत, क्षत्रियों का लाल, वैश्यों का पीला और शूद्रों का काला । जैन साहित्य में चौबीस तीर्थङ्करों के भिन्न-भिन्न रंग बतलाए गए हैं । पद्मप्रभ और वासुपूज्य का रंग लाल, चन्द्रप्रभ और पुष्पदन्त का रंग श्वेत, मुनि सुव्रत और अरिष्टनेमि का रंग कृष्ण, मल्लि और पार्श्व का रंग नील तथा शेष सोलह तीर्थङ्करों का रंग सुनहला था । ' रंग-चिकित्सा के आधार पर भी लेश्या के सिद्धान्त की व्याख्या की जा सकती है । रंगों की कमी से उत्पन्न होने वाले रोग रंगों की समुचित पूर्ति होने पर मिट जाते हैं । यह उनका शारीरिक प्रभाव । इसी प्रकार रंगों के परिवर्तन और मात्रा भेद से मन भी प्रभावित होता है । इस प्रसंग डा० जे० सी० ट्रस्ट की 'अणु और आभा ' पुस्तक द्रष्टव्य है । १. उत्तराध्ययन, ३४।५८- ६० । २. महाभारत, शांतिपर्व, २८८३५ ब्राह्मणानां सितोवर्ण:, क्षत्रियाणां तु लोहितः । वैश्यानां पातको वर्णः शूद्राणामसितस्तथा ॥ " ३. अभिधान चिन्तामणि, ११४६ । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. महावीरकालीन मतवाद भगवान् महावीर का युग धार्मिक मतवादों की जटिलता का युग था । बौद्ध साहित्य में ६२ धर्म - मतवादों का विवरण मिलता है ।' सामञ्ञफलसुत्त में छह तीर्थङ्करों का उल्लेख है । उनमें पांचवें तीर्थङ्कर निग्गंठ नातपुत्त अर्थात् भगवान् महावीर हैं। उनके मत का चातुर्याम संवर के रूप में उल्लेख किया गया है। अजातशत्रु भगवान् बुद्ध से कहता है 'भन्ते ! एक दिन मैं जहां निग्गंठ नाथपुत्त थे, वहां गया । जाकर निग्गंठ नाथपुत्त के साथ मैंने संमोदन किया : - 'क्या भन्ते ! श्रामण्य के पालन करने का फल इसी जन्म में प्रत्यक्ष बतलाया जा सकता है ?' ऐसा कहने पर भन्ते ! निग्गंठ नाथपुत्त ने यह उत्तर दिया- 'महाराज ! निग्गंठ चार ( प्रकार के ) संवरों से संवृत रहता है' ( १ ) निग्गंठ ( = निर्ग्रन्थ) जल के व्यवहार का वारण करता है ( जिसमें जल के जीव न मारे जावें), (२) सभी पापों का वारण करता है, (३) सभी पापों के वारण करने से धूतपाप - पापरहित होता है, (४) सभी पापों के वारण करने में लगा रहता है । महाराज ! निग्गंठ इस प्रकार चार संवरों से संवृत रहता है । क्योंकि निग्गंठ इन चार प्रकार के संवरों से संवृत रहता है, इसीलिए वह निर्ग्रन्थ गतात्मा ( = अनिच्छुक ), यतात्मा ( = संयमी ) और स्थितात्मा कहलाता है ।" 'निग्गंथ नाथपुत्त ने चार भन्ते ! प्रत्यक्ष श्रामण्य फल के पूछे " संवरों का वर्णन किया ।" यह संवाद वास्तविकता से दूर है । भगवान् महावीर चातुर्याम-संवर के प्रतिपादक नहीं थे । पार्श्वनाथ के चातुर्याम धर्म को भ्रमवश निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र का चातुर्याम-संवर कहा गया है । लगता है कि संगीति में सम्मिलित बौद्ध भिक्षु भगवान् पार्श्व के चातुर्याम धर्म से परिचित थे, किन्तु चार यामों को यथार्थ जानकारी उन्हें नहीं थी । सामञ्ञफलसुत्त में उल्लिखित चार ३. वही, ११२, पृ० ५० । १. दीघनिकाय, १1१, पृ० ५-१५ । २. बही, १२, पृ० २१ । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीरकालीन मतवाद याम निर्ग्रन्थ परम्परा में प्रचलित नहीं रहे हैं । भगवान् पार्श्व के चार याम ये थे--- (१) प्राणातिपात - विरमण । (२) मृषावाद - विरमण । (३) अदत्तादान - विरमण । ( ४ ) बहिस्तात् - आदान- विरमण । ११२ भगवान् महावीर ने निर्ग्रन्थों के लिए पांच महाव्रतों का प्रतिपादन किया था । भगवान् पार्श्व के चौथे उत्तराधिकारी कुमारश्रमण केशी एक बार श्रावस्ती में आए और तिन्दुक - उद्यान में ठहरे। उन्हीं दिनों भगवान् महावीर के प्रथम गणधर गौतम स्वामी भी वहां आए और कोष्ठक उद्यान में ठहरे । उन दोनों के शिष्य परस्पर मिले । उनके मन में एक तर्क खड़ा हुआ - "यह हमारा धर्म कैसा है ? और यह उनका धर्म कैसा है ? आचारधर्म की व्यवस्था हमारी कैसी है ? और वह उनकी कैसी है ? जो चातुर्याम धर्म है, उसका प्रतिपादन महामुनि पार्श्व ने किया है और यह जो पंच शिक्षात्मक-धर्म है, उसका प्रतिपादन महामुनि वर्द्धमान ने किया है.. " जबकि हम एक ही उद्देश्य से चले हैं तो फिर इस भेद का क्या कारण है । अपने शिष्यों की वितर्कणा को जान कर उनका सन्देह - निवारण करने के लिए केशी और गौतम मिले । केशी ने गौतम से पूछा - "जो चातुर्याम धर्म है, उसका प्रतिपादन महामुनि पार्श्व ने किया है और यह जो पंच शिक्षात्मक-धर्म है, उसका प्रतिपादन महामुनि वर्द्धमान ने किया है । एक ही उद्देश्य के लिए हम चलें हैं तो फिर इस भेद का क्या कारण है ? मेधाविन् ! धर्म के इन दो प्रकारों में तुम्हें सन्देह कैसे नहीं होता ? " केशी के कहते-कहते ही गौतम ने इस प्रकार कहा - "धर्म के परम अर्थ की, जिसमें लाखों का विनिश्चय होता है, सीमा प्रज्ञा से होती है । पहले तीर्थङ्कर के साधु ऋजु और जड़ होते हैं । अन्तिम तीर्थङ्कर के साधु वक्र और जड़ होते हैं। बीच के तीर्थङ्करों के साधु ऋजु और प्राज्ञ होते हैं, इसलिए धर्म के दो प्रकार किए हैं । पूर्ववर्ती साधुओं के लिए मुनि के आचार को यथावत् ग्रहण कर लेना कठिन है । चरमवर्ती साधुओं के लिए मुनि के आचार का पालन कठिन है । मध्यवर्ती साधु उसे यथावत् ग्रहण कर लेते हैं और उसका पालन भी वे सरलता से करते हैं । " ३. वही, २३।२३ - २७ । १. स्थानांग, ४११३६ । २. उत्तराध्ययन, २३।११,१२,१३ । १३७ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ - संस्कृति के दो प्रवाह गौतम ने जो उत्तर दिया उसका समर्थन स्थानांग से भी होता है।' उत्तरवर्ती साहित्य में भी यह अर्थ बराबर मान्य रहा है। इसका विसंवादी प्रमाण समग्र जैन-वाङ्मय में कहीं भी नहीं है। इसलिए सामञफलसूत्त का यह उल्लेख कि श्रामण्य का फल पूछने पर भगवान महावीर ने चातुर्याम-संवर का व्याकरण किया-काल्पनिक सा लगता है। बुद्ध का प्रकर्ष और शेष तीर्थङ्करों व तीथिकों का अपकर्ष दिखाने के लिए बौद्धभिक्षुओं ने एक विशिष्ट शैली अपनाई थी। पिटकों में स्थान-स्थान पर वह देखने को मिलती है। इसीलिए उस शैली पर आधारित संवादों की यथार्थता की दृष्टि से बहुत महत्त्व नहीं दिया जा सकता। . जैन आगमकारों की शैली इससे भिन्न है। पहली बात तो यह है कि उन्होंने अन्यतीथिकों के सिद्धान्त का उल्लेख किया, किन्तु उसके प्रवर्तक या प्ररूपक का उल्लेख नहीं किया। इससे उसका मूल ढंढने में कठिनाई अवश्य होती है, पर उनके अपकर्ष-प्रदर्शन का प्रसंग नहीं आता। दूसरी बात-भगवान् महावीर का प्रकर्ष और अन्यतीथिकों का अपकर्ष दिखलाने वाली शैली आगमकारों ने नहीं अपनाई। तीसरी बातबौद्ध भिक्षओं ने पिटकों को जो साहित्यिक रूप दिया, वह जैन साधओं ने आगमों को नहीं दिया। इसमें कोई सन्देह नहीं कि पिटकों को साहित्यिक रूप मिला, उससे वे बहुत सरस और मनोरम बन गए। आगम उतने सरस नहीं बन पाए । आगम वीर-निर्वाण की सहस्राब्दी के पश्चात् लिखे गए और पिटक बुद्ध-निर्वाण के पांच सौ वर्ष बाद । फिर दोनों का निष्पक्ष अध्ययन करने वाला व्यक्ति इसी निष्कर्ष पर पहुंचे बिना नहीं रहता कि पिटकों में जितना मिश्रण और परिवर्तन हुआ है, उतना आगमों में नहीं हुआ। सूत्रकृतांग में चार वादों का उल्लेख है-(१) क्रियावाद, (२) अक्रियावाद, (३) विनयवाद और (४) अज्ञानवाद । इन चारों में विभिन्न अभ्युपगम-सिद्धान्तों का समावेश हो जाता है, इसीलिए सूत्रकृतांग में इन्हें 'समवसरण' कहा गया है। सूत्रकृतांग के नियुक्तिकार ने इन समवसरणों १. स्थानांग, ५।३२,३३ । २. दीघनिकाय (पढमो भागो), सामञ्यफलसुत्तं, पृ० ५० : निगण्ठो नातपुत्तो सन्दिट्टिकं सामनफलं पुट्ठो समानो चातुयामसंवरं व्याकासि । ३. मज्झिमनिकाय, २।११६ उपालि-सुत्तन्त; २।१८ अभयराजकुमार-सुत्तन्त । ४. सूत्रकृतांग, १।१२।१ । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीरकालीन मतवाद १३६ में समाहृत होने वाले मतवादों की संख्या तीन सौ तिरेसठ बताई हैक्रियावादी मतवाद १८० अक्रियावादी मतवादविनयवादी मतवादअज्ञानवादी मतवाद ३२ इन सब मतवादों और उनके आचार्यों के नाम प्राप्त नहीं हैं, किन्तु जैनों के प्रकीर्ण-ग्रन्थ' और बौद्ध एवं वैदिक साहित्य के संदर्भ में इनके कुछ नामों का पता लगाया जा सकता है। - १. सूत्रकृतांग नियुक्ति, गाथा ११६ : असियसयं किरियाणं अक्किरियाणं च होइ चुलसीती। अन्नाणियं सतट्ठी वेणइयाणं च बत्तीसा॥ २. (क) षट्खण्डागम, खंड १, भाग १, पुस्तक २, पृ० ४२ । (ख) तत्त्वार्थवार्तिक ८।१, पृ० ६५२ । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. जैन धर्म और क्षत्रिय जैन दर्शन क्रियावादी है। इस विचारधारा ने बहुत व्यक्तियों को प्रभावित किया था। उत्तराध्ययन में उन व्यक्तियों की एक लम्बी तालिका है, जो इस क्रियावादी विचारधारा से प्रभावित होकर श्रमण बने थे। वे क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र-चारों जातियों के थे। क्षत्रिय ब्राह्मण (१) विदेहराज नमि (अ० ६) (१) भृगु (अ० १४) (२) इषुकार (अ० १४) (२) यशा (अ० १४) (३) कमलावती रानी (अ० १४) (३) दो भृगुपुत्र (अ० १४) (४) संजय (अ० १८) (४) गौतम (अ० २४) (५) एक क्षत्रिय (अ० १८) (५) जयघोष (अ० २५) (६) गद्दभालि (अ० १८) (६) विजयघोष (अ० २५) (७) भरत चक्रवर्ती (अ० १८) (७) गर्ग (अ० २७) (८) सगर चक्रवर्ती (अ० १८) (६) मघवा चक्रवर्ती (अ० १८) (१०) सनत्कुमार चक्रवर्ती (अ० १८) (११) शान्ति चक्रवर्ती और तीर्थङ्कर (अ. १८) (१२) कुन्थु तीर्थङ्कर (अ० १८) (१) संभूत (अ० १६) (१३) अर तीर्थङ्कर (अ० १८) (२) अनाथी (अ० २०) (१४) महापद्म चक्रवर्ती (अ० १८) (३) समुद्रपाल (अ. २१) (१५) हरिषेण चक्रवर्ती (अ० १८) (१६) जय चक्रवर्ती (अ० १८) (१७) दशार्णभद्र (अ० १८) (१८) करकण्डू (अ० १८) (१६) द्विमुख (अ० १८) चाण्डाल (२०) नग्नजित् (अ० १८) .. (१) हरिकेशबल (अ० १२) (२१) उद्रायण (अ० १८) (२) चित्त (अ० १३) (२२) काशीराज (अ० १८) (३) संभूत (पूर्वजन्म) (अ० १३) १. उत्तराध्ययन, १८॥३३ । वैश्य Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) जैन धर्म और क्षत्रिय (२३) विजय (अ० १८) (२४) महाबल (अ० २८) (२५) मृगापुत्र (अ० १६) अरिष्टनेमि (अ० २२) (२७) राजीमती (अ० २२) (२८) रथनेमि (अ० २२) (२६) केशी (अ० २३) .. इस तालिका के अध्ययन से हम इस निष्कर्ष पर पहंचते हैं कि इस क्रियावादी (या आत्मवादी) विचारधारा ने क्षत्रियों को अधिक प्रभावित किया था। इतिहास की यह विचित्र घटना है कि जो धारा क्षत्रियों से उद्भूत हुई और सभी जातियों को प्रभावित करती हुई भी उनमें सतत प्रवाहित रही, वही धारा आगे चल कर केवल वैश्य वर्ग में सिमट गई। समग्र आगमों के अध्ययन से हम जान पाते हैं कि निर्ग्रन्थ संघ में हजारों ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र निर्ग्रन्थ थे। किन्तु उनमें प्रचुरता क्षत्रियों की ही थी। इस प्रसंग में हमें इस विषय पर संक्षिप्त विवेचन करना है कि जैन धर्म केवल वैश्य वर्ग में सीमित क्यों हुआ? Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. भगवान महावीर का विहारक्षेत्र भगवान् महावीर का विहारक्षेत्र प्रमुखतः वर्तमान बिहार, बंगाल और उत्तरप्रदेश था। जैन साहित्य में साढ़े पच्चीस देशों को आर्य-देश कहा गया हैआर्य-देश राजधानी मगध राजगृह अंग चम्पा बंग ताम्रलिप्ति कलिंग कांचनपुर काशी वाराणसी कौशल साकेत गजपुर (हस्तिनापुर) पांचाल काम्पिल्य जंगल (जांगल) अहिच्छत्र सौराष्ट्र द्वारावती मिथिला वत्स कौशाम्बी शांडिल्य नन्दिपुर मलय भद्दिलपुर मत्स्य वैराट अत्स्य (अच्छ) वरुणा दशार्ण मृत्तिकावती चेदि शुक्तिमती सिन्धु-सौवीर वीतभय शूरसेन मथुरा भंगी पावा वर्त्त मासपुरी कुणाल श्रावस्ती लाढ कोटिवर्ष केकय श्वेतांबिका विदेह १. प्रज्ञापना, पद १ । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर का विहारक्षेत्र १४३ किन्तु भगवान् महावीर ने साधुओं के विहार के लिए आर्य-क्षेत्र की जो सीमा की, वह उक्त सीमा से छोटी है(१) पूर्व दिशा में अंग और मगध (२) दक्षिणा दिशा में कौशाम्बी (३) पश्चिम दिशा में स्थूणा-कुरुक्षेत्र (४) उत्तर दिशा में कुणाल देश' इस विहार-सीमा से यह प्रतीत होता है कि जैनों का प्रभाव-क्षेत्र मुख्यतः यही था। महावीर के जीवन-काल में ही सम्भवतः जैन धर्म का प्रभाव-क्षेत्र विस्तृत हो गया था। विहार की यह सीमा तीर्थ-स्थापना के कुछ वर्षों बाद ही की होगी। जीवन के उत्तरकाल में भगवान् महावीर स्वयं अवन्ति (उज्जैन). सिन्धु-सौवीर आदि प्रदेशों में गए थे। . हरिवंशपुराण के अनुसार भगवान महावीर वाल्हीक (बैक्ट्यिा , बलख), यवन (यूनान), गांधार (आधुनिक अफगानिस्तान का पूर्वी भाग), कम्बोज (पश्चिमोत्तर सीमाप्रान्त) में गए थे। बंगाल की पूर्वीय सीमा (संभवतः बर्मी सरहद) तक भी भगवान् के विहार की संभावना की जाती है।' - - - १. बृहत्कल्प, भाग ३, पृ० ६०५। २. हरिवंशपुराण, सर्ग ३, श्लोक ५। ३. सुवर्णभूमि में कालकाचार्य, पृ० २२ । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. विदेशों में जैन धर्म जैन साहित्य के अनुसार भगवान् ऋषभ, अरिष्टनेमि, पार्श्व और महावीर ने अनार्य- देशों में विहार किया था ।' सूत्रकृतांग के एक श्लोक से अनार्य का अर्थ 'भाषा-भेद' भी फलित होता है । इस अर्थ की छाया में हम कह सकते हैं कि चार तीर्थङ्करों ने उन देशों में भी विहार किया, जिनकी भाषा उनके मुख्य विहार क्षेत्र की भाषा से भिन्न थी । भगवान् ऋषभ ने बहली ( बैक्ट्रिया, बलख ), अडंबइल्ला (अटक - प्रदेश ), यवन (यूनान), सुवर्णभूमि ( सुमात्रा), पण्हव आदि देशों में विहार किया । पण्हव का सम्बन्ध प्राचीन पार्थिया ( वर्तमान ईरान का एक भाग) से है या पल्हव से, यह निश्चित नहीं कहा सकता । भगवान् अरिष्टनेमि दक्षिणापथ के मलय देश में गए थे ।" जब द्वारका - दहन हुआ था तब अरिष्टनेमि पल्हव नामक अनार्य- देश में थे ।" भगवान् पार्श्वनाथ ने कुरु, कौशल, काशी, सुम्ह, अवन्ती, पुण्ड्र, मालव, अंग, बंग, कलिंग, पांचाल, मगध, विदर्भ, भद्र, दशार्ण, सौराष्ट्र, कर्णाटक, कोंकण, मेवाड़, लाट, द्राविड़, काश्मीर, कच्छ, शाक, पल्हव, वत्स, आभीर आदि देशों में विहार किया था ।' दक्षिण में कर्णाटक, कोंकण, पल्हव, द्राविड़ आदि उस समय अनार्य माने जाते थे । शाक भी अनार्य प्रदेश है । इसकी पहिचान शाक्य- देश या शाक्य द्वीप से हो सकती है । शाक्य भूमि नेपाल की उपत्यका में है। वहां भगवान् पार्श्व के अनुयायी थे । भगवान् बुद्ध का चाचा स्वयं भगवान् पार्श्व का श्रावक था । शाक्यप्रदेश में भगवान् का विहार हुआ हो, यह बहुत सम्भव है । भारत और शाक्य - प्रदेश का बहुत प्राचीन काल से सम्बन्ध रहा है । १. आवश्यकनिर्युक्ति, गाथा २५६ ॥ २. सूत्रकृतांग, १।१।४२ । ३. आवश्यकनिर्युक्ति, गाथा ३३६-३३७ । ४. हरिवंशपुराण, सर्ग ५६, श्लोक ११२ । ५. उत्तराध्ययनवृत्ति, सुखबोधा, पत्र ३६ । ६. सकलकीर्ति, पार्श्वनाथ चरित्र, १५/७६ - ८५; २३।१७- १६ । ७. अंगुत्तरनिकाय की अट्ठकथा, भाग ५, पृ० ५५६ । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ विदेशों में जैन धर्म भगवान् महावीर वज्रभूमि, सुम्हभूमि दृढभूमि आदि अनेक अनार्यप्रदेशों में गए थे। वे बंगाल की पूर्वीय सीमा तक भी गए थे। उत्तर-पश्चिम सीमा-प्रान्त एवं अफगानिस्तान में विपुल संख्या में जैन श्रमण विहार करते थे। जैन श्रावक समुद्र पार जाते थे। उनकी समुद्र-यात्रा और विदेशव्यापार के अनेक प्रमाण मिलते हैं। लंका में जैन श्रावक थे, इसका उल्लेख बौद्ध साहित्य में भी मिलता है । महावंश के अनुसार ई० पूर्व ४३० में जब अनुराधापुर बसा, तब जैन-श्रावक वहां विद्यमान थे। वहां अनुराधापुर के राजा पाण्डुकाभय ने ज्योतिय निग्गंठ के लिए घर बनवाया। उसी स्थान पर गिरी नामक निग्गंठ रहते थे । राजा पाण्डुकाभय ने कुम्भण्ड निग्गंठ के लिए एक देवालय बनवाया था।' जैन श्रमण भी सुदूर देशों तक विहार करते थे। ई० पू० २५ में पाण्ड्य राजा ने अगस्टस् सीजर के दरबार में दूत भेजे थे। उनके साथ श्रमण भी यूनान गए थे। जी० एफ० मूर के अनुसार ईसा से पूर्व ईराक, शाम और फिलिस्तीन में जैन मुनि और बौद्ध भिक्षु सैकड़ों की संख्या में चारों ओर फैले हुए थे। पश्चिमी एशिया, मिश्र, यूनान और इथियोपिया के पहाड़ों और जंगलों में उन दिनों अगणित भारतीय साधु रहते थे, जो अपने त्याग और अपनी विद्या के लिए प्रसिद्ध थे। ये साधु वस्त्रों तक का परित्याग किए हुए थे। इस्लाम धर्म के कलन्दरी तबके पर जैन धर्म का काफी प्रभाव पड़ा था। कलन्दर चार नियमों का पालन करते थे-साधता, शुद्धता, सत्यता और दरिद्रता । वे अहिंसा पर अखण्ड विश्वास रखते थे। __यूनानी लेखक मिस्र, एबीसीनिया, इथ्यूपिया में दिगम्बर मुनियों का अस्तित्व बताते हैं।' आर्द्र देश का राजकुमार आर्द्र भगवान महावीर के संघ में प्रवजित १. (क) जरनल ऑफ दी रायल एशियाटिक सोसाइटी, जनवरी १८८५ । (ख) एन्शियन्ट ज्योग्रफी ऑफ इन्डिया, पृ० ६१७ । २. महावंश, परिच्छेद १०, पृ० ५५ । ३. इण्डियन हिस्टोरीकल क्वाटर्ली, भाग २, पृ० २६३ । ४. हुकमचन्द अभिनन्दन ग्रंथ, पृ० ३७४ । ५. वही, पृ० ३७४। ६. एशियाटिक रिसर्चेज, भाग ३, पृ० ६। । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ संस्कृति के दो प्रवाह हुआ था । ' अरबस्तान के दक्षिण में 'एडन' बंदर वाले प्रदेश को 'आर्द्रदेश' कहा जाता था । कुछ विद्वान् इटली के एड्रियाटिक समुद्र के किनारे वाले प्रदेश को आर्द्र - देश मानते हैं । " बेलोनिया में जैन धर्म का प्रचार बौद्ध धर्म का प्रसार होने से पहले ही हो चुका था । इसकी सूचना बावेरु - जातक से मिलती है । इब्न- अनन- जीम के अनुसार अरबों के शासन काल में यहिया इब्न खालिद बरमकी ने खलीफा के दरबार और भारत के साथ अत्यन्त गहरा सम्बन्ध स्थापित किया । उसने बड़े अध्यवसाय और आदर के साथ भारत के हिन्दू, बौद्ध और जैन विद्वानों को निमंत्रित किया ।" इस प्रकार मध्य एशिया में जैन धर्म या श्रमण संस्कृति का काफी प्रभाव रहा था । उससे वहां के धर्म प्रभावित हुए थे । वानक्रेमर के अनुसार मध्य-पूर्व में प्रचलित 'समानिया' सम्प्रदाय 'श्रमण' शब्द का अपभ्रंश है ।" श्री विश्वम्भरनाथ पाण्डे ने लिखा है - "इन साधुओं के त्याग का प्रभाव यहूदी धर्मावलम्बियों पर विशेष रूप से पड़ा । इन आदर्शों का पालन करने वालों की, यहूदियों में, एक खास जमात बन गई, जो 'ऐस्सिनी' कहलाती थी । इन लोगों ने यहूदी धर्म के कर्मकाण्डों का पालन त्याग दिया । ये बस्ती से दूर जंगलों में या पहाड़ों पर कुटी बना कर रहते थे। जैन मुनियों की तरह अहिंसा को अपना खास धर्म मानते थे । मांस खाने से उन्हें बेहद परहेज था । वे कठोर और संयमी जीवन व्यतीत करते थे । पैसा या धन को छूने तक से इन्कार करते थे। रोगियों और दुर्बलों की सहायता को दिनचर्या का आवश्यक अङ्ग मानते थे । प्रेम और सेवा को पूजापाठ से बढ़ कर मानते थे। पशुबलि का तीव्र विरोध करते थे । शारीरिक परिश्रम से ही जीवन-यापन करते थे । अपरिग्रह के सिद्धान्त पर विश्वास करते थे । समस्त सम्पत्ति को समाज की सम्पत्ति समझते थे । मिस्र में इन्हीं तपस्वियों को 'थेरापूते' कहा जाता था । 'थेरापूते' का अर्थ 'मौनी अपरिग्रही' है ।" १. सूत्रकृतांग, २६ । २. प्राचीन भारतवर्ष, प्रथम भाग, पृ० २६५ । ३. वही, प्रथम भाग, पृ० २६५ । ४. बावेरु जातक, ( सं ३३९), जातक खण्ड ३, पृ० २८६-२६१ । ५. हुकमचन्द अभिनन्दन ग्रंथ, पृ० ३७५ । ६. वही, पृ० ३७४ । ७. हुकमचन्द अभिनन्दन ग्रंथ, पृ० ३७४ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदेशों में जैन धर्म १४७ कालकाचार्य सुवर्णभूमि (सुमात्रा) में गए थे। उनके प्रशिष्य श्रमण सागर अपने गणसहित वहां पहले ही विद्यमान थे।' क्रौंचद्वीप', सिंहलद्वीप (लंका) और हंसद्वीप में भगवान् सुमतिनाथ की पादुकाएं थीं। पारकर देश और कासहद में भगवान् ऋषभदेव की प्रतिमा थी। ऊपर के संक्षिप्त विवरण से हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि जैन धर्म का प्रसार हिन्दुस्तान से बाहर के देशों में भी हुआ था। उत्तरवर्ती श्रमणों की उपेक्षा व अन्यान्य परिस्थितियों के कारण वह स्थायी नहीं रह सका। १. (क) उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा १२० । (ख) उत्तराध्ययन, बृहद्वृत्ति, पत्र १२७-१५८ । (ग) वही, चूणि, पृ० ८३-८४ । (घ) वही, वृत्ति (सुखबोधा), पृ० ५० । (ड) बृहत्कल्पभाष्य, भाग १, पृ० ७३,७४ । (च) निशीथचूणि, उद्देशक १० । २. कर्नल विल्फर्ड के अनुसार क्रौंचद्वीप का सम्बन्ध बाल्टिक समुद्र के पार्श्ववर्ती प्रदेश से है (एशियाटिक रिसचेंज, खण्ड ११, पृ १४) । स्वर्गीय राजवाड़े के मतानुसार घृत समुद्र के पश्चिम में क्रौंचद्वीप था। जिस प्रदेश में वर्तमान समरकन्द तथा बुखारा शहर बसे हुए हैं, वह प्रदेश वास्तव में 'क्रौंचद्वीप' कहलाता था। ३. विविधतीर्थकल्प, पृ० ८५ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. जैन धर्म : हिन्दुस्तान के विविध अंचलों में विहार भगवान् महावीर के समय में उनका धर्म प्रजा के अतिरिक्त अनेक राजाओं द्वारा भी स्वीकृत था। वज्जियों के शक्तिशाली गणतंत्र के प्रमुख राजा चेटक भगवान् महावीर के श्रावक थे । वे भगवान् पार्श्व की परम्परा को मान्य करते थे। वृज्जी गणतंत्र की राजधानी 'वैशाली' थी। वहां जैन धर्म बहुत प्रभावशाली था। मगध सम्राट श्रेणिक प्रारम्भ में बुद्ध का अनुयायी था।' अनाथी मुनि के सम्पर्क में आने के पश्चात् वह निर्ग्रन्थ धर्म का अनुयायी हो गया था। इसका विशद वर्णन उत्तराध्ययन के बीसवें अध्ययन में है । श्रेणिक की रानी चेलणा चेटक की पुत्री थी। यह श्रेणिक को निर्ग्रन्थ धर्म का अनुयायी बनाने का सतत प्रयत्न करती थी और अन्त में उसका प्रयत्न सफल हो गया। मगध में जैन धर्म प्रभावशाली था। श्रेणिक का पुत्र कूणिक भी जैन था। जैन आगमों में महावीर के अनेक प्रसंग हैं। मगध शासक शिशुनाग वंश के बाद नन्द वंश का प्रभुत्व बढ़ा। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ रायचौधरी के अनुसार नन्द वंश का राज्य बम्बई के सुदूर दक्षिण गोदावरी तक फैला हुआ था। उस समय मगध और कलिंग में जैन धर्म का प्रभुत्व था ही, परन्तु अन्यान्य प्रदेशों में भी उसका प्रभत्व बढ़ रहा था। डा० राधाकुमुद मुकर्जी के अनुसार "जैन-ग्रन्थों को भी नौ नन्दों का परिचय है (आवश्यक सूत्र, पृ० ६९३ नवमे नन्दे) । उनमें भी नन्द को १. उपदेशमाला, गाथा ६२ : वेसालीए पुरीए सिरिपासजिणेससासणसणाहो । हेहयकुलसंभूओ चेडगनामा निवो आसि ।। २. दीघनिकायो (पढमो भागो), पृ० १३५: समणं खलु भो गोतम राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो सपुत्तो सभारियो सपरिसो सामच्चो पाणे हि सरणं गतो। ३. स्टडीज इन इन्डियन एन्टीक्वीटीज, पृ० २१५ । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म : हिन्दुस्तान के विविध अंचलों में १४६ वेश्या के गर्भ से उत्पन्न 'नापित- पुत्र' कहा है- (वही, पृ० ८६० - नापितदास • राजा जातः) । परन्तु उदायि और नौ नन्दों के बीच के राजा उन्होंने छोड़ दिये । संभवतः उन्हें नगण्य समझकर नहीं लिया । " जैन धर्म के प्रति नन्दों के झुकाव का कारण संभवतः उसकी जाति थी । पहले नंद को छोड़कर और नंदों के विरुद्ध जैन ग्रन्थों में कुछ नहीं कहा है । नंद राजाओं के मंत्री जैन थे । उनमें पहला कल्पक था जिसे बलात् यह पद संभालना पड़ा। कहा जाता है कि इसी मंत्री की विशेष सहायता पर सम्राट् नन्द ने पूर्वकालीन क्षत्रिय वंशों का अन्त करने के लिए अपनी सैनिक विजय की योजना की । उत्तरकालीन नन्दों के मंत्री उसी के वंशज थे । नौ नंद का मंत्री शकटाल था । उसके दो पुत्र थेस्थूलभद्र और श्रीयक । पिता की मृत्यु के बाद स्थलभद्र को मंत्रि-पद दिया गया, उसने स्वीकार नहीं किया । वह दीक्षा लेकर साधु हो गया, तब वह पद उसके भाई श्रीयक को दिया गया । "नंदों पर जैनों के प्रभाव की अनुश्रुति को बाद के संस्कृत नाटक 'मुद्राराक्षस' में भी माना गया है। वहां चाणक्य ने एक जैन को ही अपना प्रधान गुप्तचर चुना है । नाटक की सामाजिक पृष्ठभूमि पर भी कुछ अंश में जैन - प्रभाव है । "खारवेल के हाथीगुंफा लेख से कलिंग पर नन्द की प्रभुता ज्ञात होती है । एक वाक्य में उसे 'नन्द राजा' कहा गया है जिसने एक प्रणाली या नहर बनाई थी, जो ३०० वर्ष ( या १०३ ? ) वर्षों तक काम में न आई । तब अपने राज्य के पांचवें वर्ष में खारवेल उसे अपने नगर में लाया। दूसरे वाक्य में कहा गया है कि नन्द राजा प्रथम 'जिन' (ऋषभ ) की मूर्ति ( या पादुका), जो कलिंग राजाओं के यहां वंश-परम्परा से चली आ रही थी, विजय के चिह्न रूप मगध उठा ले गया । ' नन्द - वंश की समाप्ति हुई और मगध की साम्राज्यश्री मौर्य वंश के हाथ में आई । उसका पहला सम्राट् चन्द्रगुप्त था । उसने उत्तर भारत में जैन धर्म का बहुत विस्तार किया । पूर्व और पश्चिम भी उससे काफी प्रभावित हुए । सम्राट् चन्द्रगुप्त अपने अंतिम जीवन में मुनि बने और श्रुतकेवली भद्रबाहु के साथ दक्षिण में गए थे । चन्द्रगुप्त के पुत्र बिन्दुसार, उनके पुत्र अशोकश्री ( सम्राट् अशोक ) हुए। ऐसा माना जाता है कि वे प्रारम्भ में जैन थे, अपने परम्परागत धर्म के अनुयायी थे और बाद में १. हिन्दू सभ्यता, पृ० २६४-२६५ । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० संस्कृति के दो प्रवाह बौद्ध हो गए। कुछ विद्वान् ऐसा मानते हैं कि वे अन्त तक जैन ही थे। प्रो० कर्न के अनुसार "अहिंसा के विषय में अशोक के नियम बौद्ध सिद्धान्तों की अपेक्षा जैन सिद्धान्तों से अधिक मिलते हैं।" __ अशोक के उत्तराधिकारी उनके पौत्र सम्प्रति थे। कुछ इतिहासज्ञ उनका उत्तराधिकारी उनके पुत्र कुणाल (सम्प्रति के पिता) को ही मानते है . जिनप्रभसूरि के अनुसार मौर्य-वंश की राज्यावलि का क्रम इस प्रकार (१) चन्द्रगुप्त। (४) कुणाल। (२) बिन्दुसार। (५) सम्प्रति । (३) अशोकश्री। किन्तु कुछ जैन लेखकों के अनुसार कुणाल अन्धा हो गया था, इसलिए उसने अपने पुत्र सम्प्रति के लिए ही सम्राट अशोक से राज्य मांगा था। सम्राट् सम्प्रति को 'परम आर्हत' कहा गया है। उन्होंने अनार्यदेशों में श्रमणों का विहार करवाया था। भगवान् महावीर के काल में विहार के लिए जो आर्य-क्षेत्र की सीमा थी, वह सम्प्रति के काल में बहत विस्तृत हो गई थी। साढे पच्चीस देशो को आर्य-क्षेत्र मानने की बात भी १. अर्ली फैथ ऑफ अशोक (थॉमस) पृ० ३१-३२, ३४ । 2. Indian Antiquery, Vol. V, page 205. His (Ashoka's) ordinances concerning the sparing of animal life agree much more closely with the idieas of historical Jainas than those of the Buddhists. ३. भारतीय इतिहास की रूपरेखा, जिल्द २, पृ० ६६६। ४. विविधतीर्थकल्प, पृ० ६६ । तत्रैव च चाणिक्यः सचिवो नन्दं समूलमुन्मूल्य मौर्यवंशं श्रीचन्द्रगुप्तं न्यवीशद्विशांपतित्वे । तद्वंशे तु बिन्दुसारोऽशोकश्री: कुणालस्तत्सूनुस्त्रिखण्डभारताधिपः परमाहतोऽनार्यदेशेष्वपि प्रवर्तितश्रमणविहारः सम्प्रतिमहाराजश्चाभवत् ॥ ५. विशेषावश्यकभाष्य, पृ० २७६ । ६. विविधतीर्थकल्प, ६६ । ७. बृहत्कल्पभाष्य वृत्ति, भाग ३, पृ० ६०७ : 'ततः परं' बहिर्देशेषु अपि सम्प्रतिनृपतिकालादारभ्य यत्र ज्ञान-दर्शन-चारित्राणि 'उत्सर्पन्ति' स्फातिमासादयन्ति तत्र विहर्तव्यम् । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म : हिन्दुस्तान के विविध अंचलों में १५१ सम्भवतः सम्प्रति के बाद ही स्थिर हुई होगी। सम्राट् सम्प्रति को,भरत क्षेत्र के तीन खण्डों का अधिपति कहा गया है। जयचन्द्र विद्यालंकार ने लिखा है- “सम्प्रति को उज्जैन में जैन आचार्य सहस्ती ने अपने धर्म की दीक्षा दी। उसके बाद सम्प्रति ने जैन धर्म के लिए वही काम किया जो अशोक ने बौद्ध धर्म के लिए किया था। 'चाहे चन्द्रगुप्त के और चाहे सम्प्रति के समय में जैन धर्म की बुनियाद तामिल भारत के नए राज्यों में भी जा जमी, इसमें संदेह नहीं। उत्तर पश्चिम के अनार्य-देशों में भी सम्प्रति के समय जैन-प्रचारक भेजे गए और वहां जैन साधुओं के लिए अनेक विहार स्थापित किए । अशोक और सम्प्रति दोनों के कार्य से आर्य संस्कृति एक विश्व-शक्ति बन गई और आर्यावर्त का प्रभाव भारतवर्ष की सीमाओं के बाहर तक पहुंच गया। अशोक की तरह उसके पौत्र ने भी अनेक इमारतें बनवाइ । राजपूताना की कई जैन रचनाएं उसके समय की कही जाती हैं। कुछ विद्वानों का अभिमत है कि जो शिलालेख अशोक के नाम से प्रसिद्ध हैं, वे सम्राट् सम्प्रति ने लिखवाए थे। सुप्रसिद्ध ज्योतिर्विद् श्री सूर्यनारायण व्यास ने एक बहुत खोजपूर्ण लेख द्वारा यह प्रमाणित किया है कि सम्राट अशोक के नाम के लेख सम्राट् सम्प्रति के हैं।' सम्राट अशोक ने शिला-लेख लिखवाए हों और उन्हीं के पौत्र तथा उन्हीं के समान धर्म-प्रचार-प्रेमी सम्राट् सम्प्रति ने शिलालेख न लिखवाए हों, यह कल्पना नहीं की जा सकती। एक बार फिर सूक्ष्म-दष्टि से अध्ययन करने की आवश्यकता है कि अशोक के नाम से प्रसिद्ध शिलालेखों में कितने अशोक के हैं और कितने सम्प्रति के ? बंगाल __ राजनीतिक दृष्टि से प्राचीनकाल में बंगाल का भाग्य मगध के साथ जुड़ा हुआ था । नन्दों और मौर्यों ने गंगा की उस निचली घाटी पर अपना स्वत्व बनाए रखा। कुषाणों के समय में बंगाल उनके शासन से बाहर रहा, परन्तु गुप्तों ने उस पर अपना अधिकार फिर स्थापित किया। गुप्त साम्राज्य के पतन के पश्चात् बंगाल में छोटे-छोटे अनेक राज्य उठ खड़े हुए। १. भारतीय इतिहास की रूपरेखा, जिल्द २, पृ० ६६६-६६७ । २. जैन इतिहास की पूर्व पीठिका और हमारा अभ्युत्थान, पृ० थ६ । ३. नागरी प्रचारिणी। ___४. प्राचीन भारत का इतिहास, पृ० २६५ । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ संस्कृति के दो प्रवाह मुनि कल्याणविजयजी के अनुसार प्राचीनकाल में बंग शब्द से दक्षिण बंगाल का ही बोध होता था, जिसकी राजधानी 'ताम्रलिप्ति' थी, जो आजकल तामलुक नाम से प्रसिद्ध है। बाद में धीरे-धीरे बंगाल की सीमा बनी और वह पांच भागों में भिन्न-भिन्न नामों से पहिचाना जाने लगा–बंग (पूर्वी बंगाल), समतट (दक्षिणी बंगाल), राढ अथवा कर्ण सुवर्ण (पश्चिमी बंगाल), पुण्ड्र (उत्तरी बंगाल), कामरूप (आसाम)। भगवान् महावीर वज्रभूमि (वीर) में गए थे। उस समय वह अनार्य प्रदेश कहलाता था। उससे पूर्व बंगाल में भगवान् पार्श्व का धर्म ही प्रचलित था। वहां बौद्ध धर्म का प्रचार जैन धर्म के बाद में हुआ। वैदिक धर्म का प्रवेश तो वहां बहुत बाद में हुआ था। ई० स० ६८६ में राजा आदिसूर ने नैतिक धर्म के प्रचार के लिए पांच ब्राह्मण निमन्त्रित किए थे। भगवान् महावीर के सातवें पट्टधर श्री श्रुतकेवली भद्रबाहु पौण्ड्रवर्धन (उत्तरी बंगाल) के प्रमुख नगर कोट्टपुर के सोमशर्मा पुरोहित के पुत्र थे।' उनके शिष्य स्थविर गोदास से गोदास गण का प्रवर्तन हुआ । उसकी चार शाखाएं थीं १. तामलित्तिया। २. कोडिवरिसिया। ___३. पुंडवद्धणिया (पोंडवद्धणिया)। ४. दासीखब्बडिया। तामलित्तिया का सम्बन्ध बंगाल की मुख्य राजधानी ताम्रलिप्ति से है। कोडिवरिसिया का सम्बन्ध राढ की राजधानी कोटिवर्ष से है। पोंडवद्धणिया का सम्बन्ध पौंड-उत्तरी बंगाल से है। दासीखब्बडिया का सम्बन्ध खरवट से है । इन चारों बंगाल शाखाओं से बंगाल में जैन धर्म के १. श्रमण भगवान् महावीर, पृ० ३८६ । २. बंगला भाषार इतिहास, पृ० २७ : आसीत् पुरा महाराज, आदिशूरः प्रतापवान् । आनीतवान् द्विजान् पंच, पंचगोत्रसमुद्भवान् । ३. भद्रबाहु चरित्र, ११२२-४८।। ४. पट्टावली समुच्चय, प्रथम भाग, पृ० ३,४। थेरेहिन्तो गोदासेहितो कासवगुत्तेहितो इत्थं णं गोदासगणे नामं गणे निग्गए, तस्स णं इमाओ चत्तारी साहाओ एवमाहिज्जंति, तंजहा-कामलित्तिया १, कोडिवरिसिया २, पुंड्रवद्धणिया (पोंडवद्धणिया) ३, दासीखब्बडिया ४ । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म : हिन्दुस्तान के विविध अंचलों में सार्वजनिक प्रसार की सम्यक् जानकारी मिलती है । शांतिनिकेतन के उपकुलपति आचार्य क्षितिमोहनसेन ने 'बंगाल और जैन धर्म' शीर्षक लेख में लिखा है- "भारतवर्ष के उत्तर-पूर्वं प्रदेशों अर्थात् अंग, बंग, कलिंग, मगध, काकट (मिथिला) आदि में वैदिक धर्म का प्रभाव कम तथा तीर्थिक प्रभाव अधिक था । फलतः श्रुति, स्मृति आदि शास्त्रों में यह प्रदेश निंदा के पात्र के रूप में उल्लिखित था । इसी प्रकार उस प्रदेश में तीर्थयात्रा करने से प्रायश्चित्त करना पड़ता था । श्रुति और स्मृति के शासन से बाहर पड़ जाने के कारण इस पूर्वी अंचल में प्रेम, मैत्री और स्वाधीन चिन्ता के लिए बहुत अवकाश प्राप्त हो गया था। इसी देश में महावीर, बुद्ध, आजीवक धर्मगुरु इत्यादि अनेक महापुरुषों ने जन्म लिया और इसी प्रदेश में जैन, बौद्ध प्रभृति अनेक महान् धर्मों का उदय तथा विकास हुआ। जैन और बौद्ध धर्म यद्यपि मगध में ही उत्पन्न हुए तथापि इनका प्रचार और विलक्षण प्रसार बंगदेश में ही हुआ । इस दृष्टि से बंगाल और मगध एक ही स्थल पर अभिषिक्त माने जा सकते " बंगाल में कभी बौद्ध धर्म की बाढ़ आई थी, किन्तु उससे पूर्व यहां जैन धर्म का ही विशेष प्रसार था । हमारे प्राचीन धर्म के जो निदर्शन हमें मिलते हैं, वे सभी जैन हैं । इसके बाद आया बौद्ध-युग । वैदिक धर्म के पुनरुत्थान की लहरें भी यहां आकर टकराईं, किंतु इस मतवाद में भी कट्टर कुमारिलभट्ट को स्थान नहीं मिला। इस प्रदेश में वैदिकमत के अन्तर्गत प्रभाकर को ही प्रधानता मिली और प्रभाकर थे स्वाधीन विचारधारा के पोषक तथा समर्थक | जैनों के तीर्थङ्करों के पश्चात् चार श्रुतकेवली आए । इनमें चौथे श्रुतकेवली थे भद्रबाहु । .... ये भद्रबाहु चन्द्रगुप्त के गुरु थे । उनके समय में एक बार बारह वर्ष व्यापी अकाल की सम्भावना दिखाई दी थी । उस समय वे एक बड़े संघ के साथ बंगाल को छोड़ कर दक्षिण चले गए और फिर वहीं रह गए । वहीं उन्होंने देह त्यागी । दक्षिण का यह प्रसिद्ध जैन महातीर्थ 'श्रवणबेलगोला' के नाम से प्रसिद्ध है । दुर्भिक्ष के समय इतने बड़े संघ को लेकर देश में रहने से गृहस्थों पर बहुत बड़ा भार पड़ेगा, इसी विचार से भद्रबाहु ने देश-परित्याग किया था । १५३ “भद्रबाहु की जन्मभूमि थी बंगाल । यह कोई मनगढन्त कल्पना नहीं है । हरिसेन कृत बृहत्कथा में इसका विस्तृत वर्णन मिलता है । रत्ननन्दी गुजरात के निवासी थे, उन्होंने भी भद्रबाहु के सम्बन्ध में यही लिखा Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह है। तत्कालीन बंग देश का जो वर्णन रत्ननन्दी ने किया है, इसकी तुलना नहीं मिलती। "इनके अनुसार भद्रबाहु का जन्म-स्थान पुंड्रवर्धन के अन्तर्गत कोटिवर्ष नाम का ग्राम था। ये दोनों स्थान आज बांकुड़ा और दिनाजपुर जिलों में पड़ते हैं। इन सब स्थानों में जैन मत की कितनी प्रतिष्ठा हई थी, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि वहां से राढ और तामलुक तक सारा इलाका जैन धर्म से आप्लावित था। उत्तर बंग, पूर्व बंग, मेदनीपुर, राढ और मानभूम जिले में बहुत सी मूर्तियां मिलती हैं । मानभूम के अन्तर्गत पातकम स्थान में भी जैन मूर्तियां मिली हैं, सुन्दर वन के जङ्गलों में भी धरती के नीचे से कई मूर्तियां संग्रहीत की गई हैं । बांकुड़ा जिला की सराक जाति उस समय जैन श्रावक शब्द के द्वारा परिचित थी। इस प्रकार बंगाल किसी समय जैन धर्म का एक प्रधान क्षेत्र था। जब बोद्ध धर्म आया, तब उस यूग के अनेकों पण्डितों ने उसे जैन धर्म की एक शाखा के रूप में ही ग्रहण किया था। "इन जैन साधुओं के अनेक संघ और गच्छ हैं। इन्हे हम साधकसम्प्रदाय या मण्डली कह सकते हैं। बंगाल में इस प्रकार की अनेक मण्डलियां थीं। पुण्ड्रवर्धन और कोटिवर्ष एक-दूसरे के निकट ही हैं, किन्तु वहां भी पुंड्रवर्धनीय और कोटिवर्षीय नाम की दो स्वतंत्र शाखाएं प्रचलित थीं। ताम्रलिप्ति में ताम्रलिप्ति शाखा का प्रचार था। खरवट भू-भाग में खरवटिया-शाखा का प्रचार था। इस प्रकार और भी बहत-सी शाखाएं पल्लवित हई थीं, जिनके आधार पर हम कह सकते हैं कि बंगाल जैनों की एक प्राचीन भूमि है। यहीं जैनों के प्रथम शास्त्र-रचयिता भद्रबाह का उदय हुआ था। यहां की धरती के नीचे अनेक जैन-मूर्तियां छिपी हुई हैं और धरती के ऊपर अनेक जैन धर्मावलम्बी आज भी निवास करते हैं।" उडीसा ई० पू० दूसरी शताब्दी में उडीसा में जैन धर्म बहुत प्रभावशाली था। सम्राट् खारवेल का उदयगिरि पर्वत पर हाथीगुंफा का शिलालेख इसका स्वयं प्रमाण है। लेख का प्रारम्भ-'नमो अरहंतानं, नमो सवसिधानं-इस वाक्य से होता है। उत्तर प्रदेश ____ भगवान् पार्श्व वाराणसी के थे। काशी और कौशल-ये दोनों १. जैन भारती, १० अप्रैल १९५५, पृ० २६४ । २. प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, द्वितीय खण्ड, पृ० २६-२८ । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म : हिन्दुस्तान के विभिन्न अंचलों में १५५ राज्य उनके धर्मोपदेश से बहुत प्रभावित थे। वाराणसी का अलक्ष्य राजा भी भगवान महावीर के पास प्रवजित हुआ था। उत्तराध्ययन में प्रवजित होने वाले राजाओं की सूची में काशीराज के प्रवजित होने का उल्लेख है, किन्तु उनका नाम यहां प्राप्त नहीं है । स्थानांग में भगवान् महावीर के पास प्रवजित आठ राजाओं के नाम ये हैं १. वीराङ्गक ५. सेय (आम्रकल्पा का स्वामी) २. वीरयशा ६. शिव (हस्तिनापुर का राजा) ३. संजय ७. उद्रायण (सिन्धु-सौवीर का राजा) और ४. ऐणेयक (प्रदेशी का ८. शंख (काशीवर्धन)।' सामन्त राजा) इनमें शंख को 'काशी का बढ़ाने वाला' कहा है। संभव है उत्तराध्ययन में यही काशीराज के नाम से उल्लिखित हो। विपाक के अनुसार काशीराज अलक भगवान् महावीर के पास प्रवजित हुए थे। संभव है ये सब एक ही व्यक्ति के अनेक नाम हों। इस प्रकार और भी अनेक राजा भगवान् महावीर के पास प्रवजित हुए। भगवान् महावीर के बाद मथुरा जैन धर्म का प्रमुख अंग बन गया था। मथुरा ___ डा० राधाकुमुद मुकर्जी ने उज्जैन के बाद दूसरा केन्द्र मथुरा को माना है। उन्होंने लिखा है-"जैनों का दूसरा केन्द्र मथुरा में बन रहा था। यहां बहुसंख्यक अभिलेख मिले हैं। उनमें फूलते-फलते जैन-संघ के अस्तित्व का प्रभाव मिलता है। इस संघ में महावीर और उनके पूर्ववर्ती जिनों की मूर्तियां और चैत्यों की स्थापना दान द्वारा की गई थी। उनसे यह भी ज्ञात होता है कि मथुरा-संघ स्पष्ट रूप से श्वेताम्बर था और छोटे-छोटे गण, कुल और शाखाओं में बंटा हुआ था। इनमें सबसे पुराना लेख कनिष्क के वें वर्ष (लगभग ८७ ई०) का है और इसमें कोटिक गण के आचार्य नागनन्दी की प्रेरणा से जैन उपासिका विकटा द्वारा मूर्ति की प्रतिष्ठा का उल्लेख है। स्थविरावली के अनुसार इस गण की स्थापना स्थविर सुस्थित ने की थी जो महावीर के ३१३ वर्ष बाद अर्थात १५४ ई० पूर्व में दिवंगत हुए। इस प्रकार इस लेख से श्वेताम्बर सम्प्रदाय की प्राचीनता द्वितीय शती ई० पूर्व० तक जाती है। मथुरा के कुछ लेखों में १. स्थानांग, ८१४१ । २. तीर्थकर महावीर, भाग २, पृ० ५०५-६६४ । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह १५६ भिक्षुणियों का भी उल्लेख है । इससे भी श्वेताम्बरों का सम्बन्ध सूचित होता है, क्योंकि वे ही स्त्रियों को संघ प्रवेश का अधिकार देते हैं ।" " डा० वासुदेव उपाध्याय के अनुसार - " ईसवी सन् के आरम्भ से मथुरा के समीप इस मत का अधिक प्रचार हुआ था । यही कारण है कि कंकाली टीले की खुदाई से अनेक तीर्थङ्कर प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं। उन पर दानकर्त्ता का नाम भी उल्लिखित है । वहां के आयागपट्ट पर भी अभिलेख उत्कीर्ण है, जिसमें वर्णन है कि अमोहिनी ने पूजा निमित्त इसे दान में दिया था- अमोहिनिये सहा पुत्रेहि पालघोषेन पोठघोषेन । धनघोषन आर्यवती ( आयागपट्ट) प्रतिथापिता ।। "वह लेख 'नमो अरहतो वर्धमानस' जैन मत से उसका सम्बन्ध घोषित करता है ।" ।'” ! डा. वासुदेवशरण अग्रवाल ने मथुरा के एक स्तूप, जो जैन आचार्यों द्वारा सुदूर अतीत में निर्मित माना जाता था, की प्राचीनता का समर्थन किया है । उन्होंने लिखा है - ' तिब्बत के विद्वान् बौद्ध इतिहास के लेखक तारानाथ ने अशोककालीन शिल्प के निर्माताओं को 'यक्ष' कहा है और लिखा है कि मौर्यकालीन शिल्पकला यक्षकला थी । उससे पूर्व युग की कला देव निर्मित समझी जाती थी । अतएव 'देव निर्मित' शब्द की यह ध्वनि स्वीकार की जा सकती है कि मथुरा का 'देव निर्मित' जैन स्तूप मौर्यकाल से भी पहले लगभग पांचवीं या छठी शताब्दी ईसवी पूर्व में बना होगा। जैन विद्वान् जिनप्रभसूरि ने अपने विविधतीर्थकल्प ग्रन्थ में मथुरा के इस प्राचीन स्तूप के निर्माण और जीर्णोद्धार की परम्परा का उल्लेख किया है। उसके अनुसार यह माना जाता था कि मथुरा का यह स्तूप आदि में सुवर्णमय था । उसे कुबेरा नाम की देवी ने सातवें तीर्थङ्कर सुपार्श्व की स्मृति में बनवाया था । कालान्तर में तेईसवें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ के समय में इसका निर्माण ईंटों से किया गया । भगवान् महावीर की सम्बोधि के तेरह सौ वर्ष बाद वप्प महसूरि ने इसका जीर्णोद्धार कराया । इस उल्लेख से यह ज्ञात होता है कि मथुरा के साथ जैन धर्म का सम्बन्ध सुपार्श्व तीर्थङ्कर के समय में ही हो गया था और जैन लोग उसे अपना तीर्थ मानने लगे थे । पहले यह स्तूप केवल मिट्टी का रहा होगा, जैसा कि मौर्य काल से पहले के बौद्ध स्तूप भी हुआ करते थे । उसी प्रकार स्तूप का जब पहला जीर्णोद्धार १. हिन्दू सभ्यता, पृ० २३५ । २. प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, पृ० १२४ । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म : हिन्दुस्तान के विविध अंचलों में १५७ हुआ तब उस पर ईंटों का आच्छादान चढ़ाया गया । जैन परम्परा के अनुसार यह परिवर्तन महावीर के भी जन्म के पहले तीर्थङ्कर पाश्वनाथ के समय हो चुका था । इसमें कोई अत्युक्ति नहीं जान पड़ती । उसी इष्टिकानिर्मित स्तूप का दूसरा जीर्णोद्धार लगभग शुंगकाल में दूसरी शती ई० पू० में किया गया ।" इस विवरण से डा० वासुदेवशरण अग्रवाल का यह अभिमत कि ' ई० पू० के आरम्भ से मथुरा के समीप इसका अधिक प्रसार हुआ था' बहुत मूल्यवान् नहीं रहता । उत्तर प्रदेश में प्राप्त पुरातत्त्व और शिलालेखों के आधार से भी जैन धर्म के व्यापक प्रसार की जानकारी मिलती है । 'ईसवी सन् के आरम्भ से जैन प्रतिमा के आधार - शिला पर (बौद्ध प्रतिमा की तरह) लेख उत्कीर्ण मिलते हैं । लखनऊ के संग्रहालय में ऐसी अनेक तीर्थङ्कर की मूर्तियां सुरक्षित हैं, जिनके प्रस्तर पर कनिष्क के ७६ या ८४ वें वर्ष का लेख उत्कीर्ण है । गुप्तयुग में भी इस तरह की प्रतिमाओं का अभाव न था, जिनके आधार - शिला पर लेख उत्कीर्ण हैं । ध्यानमुद्रा में बैठी भगवान् महावीर की ऐसी मूर्ति मथुरा से प्राप्त हुई है । गु० स० १३३ ( ई० स० ४२३) के मथुरा वाले लेख में हरिस्वामिनी द्वारा जैन प्रतिमा के दान का वर्णन मिलता है । स्कन्दगुप्त के शासन काल में भद्र नामक व्यक्ति द्वारा आदिकर्तृन की प्रतिमा के साथ एक स्तम्भ का वर्णन कहौम ( गोरखपुर, उत्तर प्रदेश) के लेख में है—-श्रेयोऽर्थ भूतनत्यं पथि नियमवतामहंतामादिकन् । पहाड़पुर के लेख (गु० स० १५६ ) में जैन विहार में तीर्थङ्कर की पूजा निमित्त भूमिदान का विवरण है, जिसकी आय गंध, धूप, दीप, नैवेद्य के लिए व्यय की जाती थी- “विहारे भगवतां अहंतां गंधधूपसुमनदीपाद्यर्थम् ।"" ईसा की चौथी शताब्दी में आचार्य स्कन्दिल के नेतृत्व में 'मथुरा' में जैन आगमों की द्वितीय वाचना हुई थी ।' चम्पा कौशाम्बी की राजधानी चम्पा भी जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र थी । १. महावीर जयन्ती स्मारिका, अप्रैल १९६२, पृ० १७-१८ । २. प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, पृ० १२५ । ३. नंदी, मलयगिरि वृत्ति, पत्र ५१ । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ संस्कृति के दो प्रवाह श्रुतकेवली शय्यंभव ने दशवकालिक की रचना वहीं की थी।' राजस्थान भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् मरुस्थल (वर्तमान राजस्थान) में जैन धर्म का प्रभाव बढ़ गया था । पण्डित गौरीशंकर ओझा को अजमेर के पास वडली ग्राम में एक बहुत प्राचीन शिलालेख मिला था। वह वीर निर्वाण सम्वत् ८४ (ई० पू० ४४३) में लिखा हुआ था-वीराय भगवत चत्तुरसीति वसे, मामामिके.. __आचार्य रत्नप्रभसूरि वीर निर्वाण की पहली शताब्दी में उपकेश या ओसिया में आए थे। उन्होंने वहां ओसिया के सवालाख नागरिकों को जैन धर्म में दीक्षित किया और उन्हें एक जन-जाति (ओसवाल) के रूप में परिवर्तित कर दिया। यह घटना वीर निर्वाण के ७० वर्ष बाद के आसपास की है। पूर्व मध्ययुग में राजपूताना के विस्तृत क्षेत्र में भी जैन-मत का पर्याप्त प्रचार था, जिसका परिज्ञान अनेक प्रशस्तियों के अध्ययन से हो जाता है। चहमान लेख में राजा को जैन-धर्म-परायण कहा गया है तथा तीर्थङ्कर शान्तिनाथ की पूजा निमित्त आठ द्रम (सिक्के) के दान का वर्णन है । तैलप नामक राजा के पितामह द्वारा जैन मन्दिर के निर्माण का भी वर्णन मिलता है पितामहेन तस्येव शमीयादयां जिनालये। कारितं शांतिनाथस्य बिम्बं जनमनोहरम् ॥ ... विझोली शिलालेख (ए० इ० २६, पृ० ८६) का आरम्भ 'ओम नमो वीतरागाय' से किया गया है, जिसके पश्चात पार्श्वनाथ की प्रार्थना मिलती है । जालोर के लेख में पार्श्वनाथ के 'ध्वज उत्सव' के लिए दान का वर्णन है-श्री पार्श्वनाथदेवे तोरणादीनां प्रतिष्ठाकार्ये कृते। ध्वजारोपणप्रतिष्ठायां कृतायां (ए० इ० ११, पृ० ५५) मारवाड़ के शासक राजदेव के अभिलेख में महावीर मंदिर तथा विहार के निवासी जैन साधु के लिए दान देने का विवरण मिलता है-श्री महावीर चैत्ये साधुतपोधननिष्ठार्थे । लेखों के आधार पर कहा गया है कि राजपूताना में महावीर, पार्श्व१. दशवकालिक, हारिभद्रीयवृत्ति, पत्र ११ । २. जर्नल ऑफ दी बिहार एण्ड ओरिस्सा रिसर्च सोसाइटी, ई० स० १९३० ३. पट्टावलि समुच्चय, पृ० १८५-१८६ । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म : हिन्दुस्तान के विविध अंचलों में १५६ नाथ तथा शांतिनाथ की पूजा प्रचलित थी । परमार लेख में ऋषभनाथ के पूजा का उल्लेख मिलता है और मन्दिर को अतीव सुन्दर तथा पृथ्वी का भूषण बतलाया है— श्री वृषभनाथ नाम्नः प्रतिष्ठितं भूषणेन बिम्बमिदं तेनाकारि मनोहरं जिनगृहं मूमेरिव भूषणम् ।"" पंजाब और सिन्धु- सौवीर भगवान् महावीर ने साधुओं के लिए चारों दिशाओं की सीमा निर्धारित की, उसमें पश्चिमी सीमा 'स्थूणा' (कुरुक्षेत्र) है । इससे जान पड़ता है कि पंजाब का स्थूणा तक का भाग जैन धर्म से प्रभावित था । साढ़े पच्चीस आर्य देशों की सूची में भी कुरु का नाम है । सिन्धु - सौवीर सुदीर्घ काल से श्रमण संस्कृति से प्रभावित था । भगवान् महावीर महाराज उद्रायण को दीक्षित करने वहां पधारे ही थे । मध्य प्रदेश बुन्देलखण्ड में ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के लगभग जैन धर्म बहुत प्रभावशाली था । आज भी वहां उसके अनेक चिह्न मिलते हैं ।' राष्ट्रकूट नरेश जैन धर्म के अनुयायी थे । उनका कलचुरि नरेशों से गहरा सम्बन्ध था । कलचुरि की राजधानी त्रिपुरा और रत्नपुर में आज भी अनेक प्राचीन जैन - मूर्तियां और खण्डहर प्राप्त हैं । चन्देल राज्य के प्रधान खुजराहो नगर में लेख तथा प्रतिमाओं के अध्ययन से जैन-मत के प्रचार का ज्ञान होता है । प्रतिमाओं के आधारशिला पर खुदा लेख यह प्रमाणित करता है कि राजाओं के अतिरिक्त साधारण जनता भी जैन-मत में विश्वास रखती थी । मालवा अनेक शताब्दियों तक जैन धर्म का प्रमुख प्रचार क्षेत्र था । व्यवहार भाष्य में बताया है कि अन्यतीर्थिकों के साथ वाद-विवाद मालवा आदि क्षेत्रों में करना चाहिए। इससे जाना जाता है कि अवन्तीपति चन्डप्रद्योत तथा विशेषतः सम्राट् सम्प्रति से लेकर भाष्य - रचनाकाल तक वहां जैन धर्म प्रभावशाली था । १. प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, पृ० १२५ । २. खंडहरों का वैभव, १६४,२२६ । ३. प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, पृ० १२५, १२६ । ४. व्यवहार भाष्य, उद्देशक १०, गाथा २८६ : खेत्तं मालवमादी, अहवावी साहुभावियं जं तु । नाऊण तहा विहिणा, वातो य तहि करेयव्वो ॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० सस्कृति के दो प्रवाह सौराष्ट्र-गुजरात सौराष्ट्र जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र था । भगवान् अरिष्टनेमि से वहां जैन परम्परा चल रही थी। सम्राट् सम्प्रति के राज्यकाल में वहां जैन धर्म को अधिक बल मिला था। सूत्रकृतांग चूणि में सौराष्ट्रवासी श्रावक का उल्लेख मगधवासी श्रावक की तुलना में किया गया है। जैन साहित्य में 'सौराष्ट्र' का प्राचीन नाम 'सुराष्ट्र' मिलता है। वल्लभी में श्वेताम्बर जैनों की दो आगम-वाचनाएं हुई थीं। ईसा की चौथी शताब्दी में जब आचार्य स्कन्दिल के नेतृत्व में मथुरा में आगमवाचना हो रही थी, उसी समय आचार्य नागार्जुन के नेतृत्व में वह वल्लभी में हो रही थी। ईसा की पांचवीं शताब्दी (४५४) में फिर वहीं आगम-वाचना के लिए एक परिषद् आयोजित हुई। उसका नेतृत्व देवद्धिगणि क्षमाश्रमण ने किया। उन्होंने आचार्य स्कन्दिल की 'माथरी-वाचना' को मुख्यता दी और नागार्जुन की 'वल्लभी-वाचना' को वाचनान्तर के रूप में स्वीकृत किया। गुजरात के चालुक्य, राष्ट्रकूट, चावड, सोलंकी आदि राजवंशी भी जैन धर्म के अनुयायी या समर्थक थे । बम्बई-महाराष्ट्र सम्राट् सम्प्रति से पूर्व जैनों की दृष्टि में महाराष्ट्र अनार्य-देश की गणना में था। उसके राज्य काल में जैन साधु वहां विहार करने लगे। उत्तरवर्ती-काल में वह जैनों का प्रमुख विहार-क्षेत्र बन गया था। जैन आगमों की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत से बहुत प्रभावित है। कुछ विद्वानों ने प्राकृत भाषा के रूप का 'जैन महाराष्ट्री प्राकत' ऐसा नाम रखा है। ईसा की आठवीं-नौवीं शताब्दी में विदर्भ पर चालुक्य राजाओं का शासन था। दसवीं शताब्दी में वहां राष्ट्रकट राजाओं का शासन था। ये दोनों राज-वंश जैन-धर्म के पोषक थे। उनके शासन काल में वहां जैन धर्म खूब फला-फूला। नर्मदा-तट नर्मदा-तट पर जैन धर्म के अस्तित्व के उल्लेख पुराणों में मिलते हैं। वैदिक आर्यों से पराजित होकर जैन धर्म के उपासक असुर लोग नर्मदा के - १. सूत्रकृतांग चूणि, पृ० १२७ : सोरट्ठो सावगो मागधो वा । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म : हिन्दुस्तान के विविध अंचलों में तट पर रहने लगे। कुछ काल बाद वे उत्तर भारत में फैल गए थे। हैहयवंश की उत्पत्ति नर्मदा-तट पर स्थित माहिष्मती के राजा कार्तवीर्य से मानी जाती है। भगवान् महावीर का श्रमणोपासक चेटक हैहय-वंश का ही था। दक्षिण भारत दक्षिण भारत में जैन धर्म का प्रभाव भगवान् पार्श्व और महावीर से पहले ही था। जिस समय द्वारका का दहन हुआ था, उस समय भगवान् अरिष्टनेमि पल्हव देश में थे। वह दक्षिणापथ का ही एक राज्य था। उत्तर भारत में जब दुभिक्ष हुआ, तब भद्रबाहु दक्षिण में गए। यह कोई आकस्मिक संयोग नहीं, किन्तु दक्षिण भारत में जैन धर्म के सम्पर्क का सूचन है। मध्यकाल में भी कलभ, पाण्डय, चोल, पल्लव, गंग, राष्ट्रकूट, कदम्ब आदि राज-वंशों ने जैन धर्म को बहुत प्रसारित किया था। ईसा की सातवीं शताब्दी के पश्चात् बंगाल और बिहार आदि पूर्वी प्रान्तों में जैन धर्म का प्रभाव क्षीण हुआ। उसमें भी विदेशी आक्रमण का बहुत बड़ा हाथ है। दुर्भिक्ष के कारण साधुओं का विहार वहां कम हुआ, उससे भी जैन धर्म को क्षति पहुंची। १. पद्मपुराण, प्रथम सृष्टि खण्ड, अध्याय १२, श्लोक ४१२ : नर्मदासरितं प्राप्य, स्थिताः दानवसत्तमाः । २. एपिग्राफिका इण्डिका, भाग २, भाग २, पृ० ८ । ३. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ६, श्लोक २२६ । ४. (क) हरिवंशपुराण, सर्ग ६४, श्लोक १। । (ख) उत्तराध्ययन, सुखबोधा, पत्र ३६ । .. . Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ जैन धर्म का ह्रासकाल ईसा की दसवीं शताब्दी तक दक्षिण और बम्बई प्रान्त में जैन धर्म प्रभावशाली रहा। किन्तु उसके पश्चात् जैन राज-वंशों के शैव हो जाने पर उसका प्रभाव क्षीण होने लगा। इधर सौराष्ट्र में जैन धर्म का प्रभाव ईसा की बारहवीं, तेरहवीं शताब्दी तक रहा। कुमारपाल ने जैन धर्म को प्रभावशाली बनाने के लिए बहुत प्रयत्न किए। किन्तु कुछ समय बाद वहां भी जैन धर्म का प्रभाव कम हो गया। शिथियन, तुरुष्क, ग्रीस, तुर्कस्तान, ईरान आदि देशों तथा गजनी के आक्रमण ने वहां जैन धर्म को बहुत क्षति पहुंचाई। वल्लभी का भंग हुआ उस समय जैन साहित्य प्रचुर मात्रा में लुप्त हो गया था।' प्रभावक चरित्र से ज्ञात होता है कि विक्रम सम्वत् की पहली शताब्दी तक क्षत्रिय राजा जैन मुनि होते थे। उसके पश्चात् ऐसा उल्लेख नहीं मिलता। राजस्थान के जैन राज-वंश भी शैव या वैष्णव हो गए। __ इस प्रकार जो जैन धर्म हिन्दुस्तान के लगभग सभी प्रान्तों में कालक्रम के तारतम्य में प्रभावशाली और व्यापक बना था, वह ईसा की पन्द्रहवीं, सोलहवीं शताब्दी आते-आते बहुत ही सीमित हो गया। इसमें जैन साधु-संघों के पारस्परिक मतभेदों का भी व्यापक प्रभाव है। साधुओं की रूढ़िवादिता, समयानुसार परिवर्तन करने की अक्षमता, संघ को संगठित बनाए रखने की तत्परता का अभाव, सामुदायिक चिन्तन का अकौशल और प्रचार-कौशल की अल्पता-ये भी जैन धर्म के सीमित होने में निमित्त बने । यद्यपि शैवों और वैष्णवों से जैन धर्म को क्षति पहुंची, फिर भी उससे अधिक क्षति विदेशी आक्रमणों, राज्यों तथा आन्तरिक संघर्षों से पहुंची। शंकराचार्य ने जैन-धर्म को बहुत प्रभावहीन बनाया, यह कहा जाता है, उसमें बहत सचाई नहीं है। श्री राहल सांकृत्यायन ने बौद्ध धर्म और शंकराचार्य के सम्बन्ध में जो लिखा है, वही जैन धर्म और १. विद्यगोष्ठी, मुनि सुन्दरसूरि विकुत्स्या तुच्छम्लेच्छादि कुनृपतिततिविध्वस्तानेकवल्लभ्यादि तत्तन्महानगरस्थानेकलक्षणप्रमाणागमादिसदादर्शोच्छेदेन कौतुस्कुस्तावदज्ञानान्धकूपप्रपतत्प्राणिप्रतिहस्तकप्रायप्रशस्तपुस्तकप्राप्तियोगाः । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म का ह्रासकाल १६३ शंकराचार्य के सम्बन्ध में घटित होता है। उन्होंने लिखा है ___ 'भारतीय जीवन के निर्माण में इतनी देन देकर बौद्ध-धर्म भारत से लुप्त हो गया,इससे किसी भी सहृदय व्यक्ति को खेद हुए बिना नहीं रहेगा। उसके लुप्त होने के क्या कारण थे, इसके बारे में कई भ्रान्तिमूलक धारणाएं फैली हैं। कहा जाता है, शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म को भारत से निकाल बाहर किया। किंतु, शंकराचार्य के समय आठवीं सदी में भारत में बौद्ध धर्म लुप्त नहीं, प्रबल होता देखा जाता है। यह नालन्दा के उत्कर्ष और विक्रमशिला की स्थापना का समय था। आठवीं सदी में ही पालों जैसा शक्तिशाली बौद्ध राज-वंश स्थापित हुआ था। यही समय है, जबकि नालन्दा ने शान्तरक्षित, धर्मोत्तर जैसे प्रकाण्ड दार्शनिक पैदा किए। तंत्रमत के सार्वजनिक प्रचार के कारण भीतर में निर्बलताएं भले ही बढ़ रही हों, किन्तु जहां तक विहारों और अनुयायियों की संख्या का सम्बन्ध है, शंकराचार्य के चार सदियों बाद बारहवीं सदी के अन्त तक बौद्धों का ह्रास नहीं हुआ था । उत्तरी भारत का शक्तिशाली गहड़वार-वंश केवल ब्राह्मण धर्म का ही परिपोषक नहीं था, बल्कि वह बौद्धों का भी सहायक था। गहड़वार रानी कुमारदेवी ने सारनाथ में 'धर्मचक्र महाविहार' की स्थापना और गोविन्दचन्द्र ने 'जेतवन महाविहार' को कई गांव दिए थे। अन्तिम गहडवार राजा जयचन्द के भी दीक्षा-गुरु जगन्मिजानन्द (मित्रयोगी) एक महान बौद्ध सन्त थे, जिन्होंने कि तिब्बत में अपने शिष्य जयचन्द को पत्र लिखा था, जो आज भी 'चन्द्रराज-लेख' के नाम से तिब्बती भाषा में उपलब्ध है। गहड़वारों के पूर्वी पड़ोसी पाल थे, जो अंतिम क्षण तक बौद्ध रहे । दक्षिण में कोंकण का शिलाहार-वंश भी बौद्ध था। दूसरे राज्यों में भी बौद्ध काफी संख्या में थे । स्वयं शंकराचार्य की जन्मभूमि केरल भी बौद्ध-शिक्षा का बहिष्कार नहीं कर पाई थी। उसने तो बल्कि बौद्धों के 'मंजुश्री मूलकल्प' की रक्षा करते हुए हमारे पास तक पहुंचाया। वस्तुतः बौद्ध धर्म को भारत से निकालने का श्रेय या अयश किसी शंकराचार्य को नहीं है। ___फिर बौद्ध धर्म भारत से नष्ट कैसे हुआ ? तुर्कों का प्रहार जरूर इसमें एक मुख्य कारण बना । मुसलमानों को भारत से बाहर मध्य-एशिया में जफरशां और वक्षु की उपत्यकाओं, फर्गाना और बालीक की भूमियों में बौद्धों का मुकाबिला करना पड़ा। वैसा संघर्ष इन्हें ईरान और रोम के साथ भी नहीं करना पड़ा था। घुटे चेहरे और रंगे कपड़े वाले बुतपरस्त (बुद्ध-परस्त) भिक्षुओं से वे पहले ही परिचित थे । उन्होंने भारत Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ संस्कृति के दो प्रवाह में आकर अपने चिरपरिचित बौद्ध शत्रुओं के साथ जरा भी दया नहीं दिखाई। उनके बड़े-बड़े विहार लूट कर जला दिए गए, भिक्षुओं के संघाराम नष्ट कर दिए गए। उनके रहने के लिए स्थान नहीं रह गए । देश की उस विपन्नावस्था में कहीं आशा नहीं रह गई और पड़ोस के बौद्ध देश उनका स्वागत करने के लिए तैयार थे । इस तरह भारतीय बौद्ध-संघ के प्रधान कश्मीरी पण्डित 'शाक्य श्रीमद्' विक्रमशिला विश्वविद्यालय के ध्वस्त होने के बाद भाग कर पूर्वी बंगाल के 'जगत्तला' विहार में पहुंचे । जब वहां भी तुर्कों की तलवार गई, तो वे अपने शिष्यों के साथ भाग कर नेपाल गए । उनके आने की खबर सुन कर भोट (तिब्बत) सामन्त कीर्तिध्वज ने उन्हें अपने यहां निमन्त्रित किया । विक्रमशिला के संघराज कई सालों तक भोट में रहे और अन्त में ऊपर ही ऊपर अपनी जन्मभूमि कश्मीर में जा कर उन्होंने १२२६ ई० में शरीर को छोड़ा । 'शाक्य श्रीमद्' की तरह न जाने कितने बौद्ध भिक्षुओं और धर्माचार्यों ने बाहर के देशों में जाकर शरण ली। बौद्धों के धार्मिक नेता गृहस्थ नहीं, भिक्षु थे । इसलिए एक जगह छोड़ कर दूसरी जगह चला जाना उनके लिए आसान था । बाहरी बौद्ध देशों में जहां उनकी बहुत आवभगत थी, वहां देश में उनके रंगे कपड़े मृत्यु के वारंट थे । यह कारण था, जिससे कि भारत के बौद्धकेन्द्र बहुत जल्दी बौद्ध भिक्षुओं से शून्य हो गए। अपने धार्मिक नेताओं के अभाव में बौद्ध धर्म बहुत दिनों तक टिक नहीं सकता था । और इस प्रकार वह भारत में तुर्कों के पैर रखने के एक-डेढ़ शताब्दि में ही लुप्त हो गया । वज्रयान के सुरा सुन्दरी सेवन ने चरित्र बल को खोखला करके इस काम में और सहायता की । ' 1 १. (क) बौद्ध संस्कृति, पृ० ३३-३४ । (ख) बुद्धचर्या, पृ १२-१३ । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. जैन धर्म और वैश्य कुछ विद्वान् कहते हैं कि जैन धर्म अहिंसा को सर्वाधिक महत्त्व देता है। युद्ध और रक्षा में हिंसा होती है, इसलिए यह धर्म क्षत्रियों के अनुकूल नहीं है। कृषि आदि कर्मों में हिंसा होती है, इसलिए यह किसानों के भी अनुकूल नहीं है। यह सिर्फ उन व्यापारियों के अनुकूल है, जो शांतिपूर्वक अपना व्यापार चलाते हुए जीव-हिंसा से बचाव करने का यत्न किया करते हैं। मैक्स वेबर ने उक्त विषय पर कुछ विस्तार से लिखा है जैन धर्म एक विशिष्ट व्यापारिक-सम्प्रदाय है, जो पश्चिम के यहूदियों से भी ज्यादा एकांतिक रूप से व्यापार में लगा हुआ है। इस प्रकार हम स्पष्ट रूप से एक धर्म का व्यापारों उद्देश्य के साथ सम्बन्ध देखते हैं, जो हिन्दू-धर्म के लिए बिल्कुल विदेशीय है। ___... अहिंसा के सिद्धान्त ने जैनियों को जीव-हिंसा वाले तमाम उद्योगों से अलग रखा। अत: उन व्यापारों से जिसमें अग्नि का प्रयोग होता है, तेज या तीक्ष्ण धार वाले यंत्रों का उपयोग (पत्थर या काठ वे कारखाने आदि में) होता है, भवनादि निर्माण-व्यवसाय तथा अधिकांश उद्योग-धन्धों से जैनियों को अलग रखा । खेती-बारी का काम तो बिल्कुल ही बाद पड़ गया, क्योंकि विशेषतः खेत जोतने में कीड़े-मकोडे आदि के सदा हिंसा होती है। __'यह उल्लेखनीय है कि (जैनधर्म में) अधिक धन संचित करने के मनाही नहीं है, बल्कि धन का अत्यधिक मोह या सम्पत्ति के पीछे पागल है जाने की मनाही है। यह सिद्धान्त पश्चिम के एशेटिक प्रोटेस्टेन्टीज्म वे सिद्धान्त से मिलता-जुलता है। प्रोटेस्टेन्टीज्म ने सम्पत्ति और लाभ के बुरा नहीं बताया किन्तु उसमें लवलीन होने को आपत्तिजनक बताया है और भी बातें समान हैं। जैन-मत में अतिशयोक्ति या झूठ वर्ण्य है । जैन लोग व्यापार में बिलकुल सचाई रखने पर विश्वास करते हैं। माया रूप कार्यों की एकदम मनाही है। झूठ, चोरी या भ्रष्ट तरीकों से कमाए हुए धन को वर्जित मानते हैं। 'जैन विशेषतः श्वेताम्बर सभी जैनों के व्यापारी बनने का मुरूर हेतु धार्मिक सिद्धान्त ही है। केवल व्यापार ही एक ऐसा व्यवसाय है Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ संस्कृति के दो प्रवाह जिसमें अहिंसा का पालन किया जा सकता है । उनके व्यवसाय का विशेष तरीका भी धार्मिक नियमों से निश्चित होता था । जिसमें विशेष करके यात्रा के प्रति गहरी अरुचि रहती थी और यात्रा को कठिन बनाने के अनेक नियमों ने उन्हें स्थानीय व्यापार के लिए प्रोत्साहित किया, फिर जैसा कि यहूदियों के साथ हुआ, वे साहूकारी (बेंकिंग) और ब्याज के धन्धों में सीमित रह गए। 'उनकी पूंजी लेन-देन में ही सीमित रही और वे औद्योगिक संस्थानों के निर्माण में असफल रहे । इसका मूल कारण भी जैन-मत का सैद्धान्तिक पक्ष ही रहा जिससे की जैन लोग उद्योग में पादन्यास कर ही नहीं सके । 'जैन सम्प्रदाय की उत्पत्ति भारतीय नगर के विकास के साथ-साथ प्रायः समसामयिक है । इसीलिए शहरी जीवन विरोधी बंगाल जैनत्व को बहुत कम ग्रहण कर सका । लेकिन यह नहीं मानना चाहिए कि यह सम्प्रदाय धनवानों से उत्पन्न है । यह क्षत्रियों की विचार कल्पना से तथा गृहस्थों की संन्यास भावना से प्रस्फुटित हुआ है । इसके सिद्धान्त विशेषकर श्रावकों (गृहस्थों के लिए निश्चित विधान) तथा दूसरे धार्मिक नियमों ने ऐसे दैनिक जीवन का गठन किया, जिसका पालन व्यापारियों के लिए ही संभव था । ' मैक्स बेवर की ये मान्यताएं काल्पनिक तथ्यों पर आधारित हैं । ये हैं— (१) जैन श्रावक के लिए आक्रमणकारी होने का निषेध है । वह प्रत्याक्रमण की हिंसा से अपने को मुक्त नहीं रख पाता । भगवान् महावीर के समय जिन क्षत्रियों या क्षत्रिय राजाओं ने अनाक्रमण का व्रत लिया था, उन्होंने भी अमुक-अमुक स्थितियों में लड़ने की छूट रखी थी । जैन सम्राटों, राजाओं, सेनापतियों, दण्डनायकों और सैनिकों ने देश की सुरक्षा के लिए अनेक लडाइयां लड़ी थीं । गुजरात और राजस्थान में जैन सेनानायकों की बहुत लम्बी परम्परा रही है । इसी संदर्भ में उस निष्कर्ष को मान्य नहीं किया जा सकता कि अहिंसा प्रधान होने के कारण जैन धर्म क्षत्रिय वर्ग के अनुकूल नहीं है । (२) भगवान् महावीर के श्रावकों में आनन्द गृहपति का स्थान पहला है । वह बहुत बड़ा कृषिकार था । उसके पास चार व्रज थे । प्रत्येक १. दी रिलिजन्स ऑफ इण्डिया, पृ० १६३ - २०२ । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म और वैश्य १६७ ब्रज में दस-दस हजार गाएं थीं। आज भी कच्छ आदि प्रदेशों में हजारों जैन खेतीहर हैं। एक शताब्दी पूर्व राजस्थान में भी हजारों जैन-परिवार खेती किया करते थे। इस संदर्भ में वह निष्कर्ष भी मान्य नहीं होता कि अहिंसा प्रधान होने के कारण जैन धर्म किसानों के अनुकूल नहीं है । (३) व्यापार में प्रत्यक्ष जीव-वध नहीं होता, इसलिए वह अहिंसा प्रधान जैन धर्म के अधिक अनुकूल है, यह भी विशेष महत्त्वपूर्ण तथ्य नहीं है। जैन आचार्यों ने असि, मषी, कृषि, विद्या, शिल्प और वाणिज्य-इन छहों कर्मों को एक कोटि का माना है। तलवार, धनुष, आदि शस्त्र-विद्या में निपुण असि-कर्मार्य हैं। मुनीमी का कार्य करने वाला मषि-कार्य है। धोबी, नाई, लुहार, कुम्हार आदि शिल्प कर्मार्य हैं। चन्दन, घी, धान्य आदि का व्यापार करने वाला वणिक्कर्मार्य है। ये छहों अविरत होने से सावद्यकार्य हैं। जो लोग अव्रती होते हैं, जिनके संकल्पी-हिंसा का त्याग नहीं होता, वे भले रक्षा का काम करें, खेती करें या वाणिज्य करें, सावध काम करने वाले ही होते हैं। जो श्रावक होते हैं, उनके व्रत भी होता है, इसलिए वे चाहे व्यापार करें, खेती करें या रक्षा का काम करें, अल्पसावध काम करने वाले होते हैं। जैन-श्रावक बनने का अर्थ कषि, रक्षा आदि से दूर हटना नहीं, किन्तु संकल्पी-हिंसा और अनर्थ-हिंसा का त्याग करना है। जैन आचार्यों ने केवल प्रत्यक्ष जीव-वध को ही दोषपूर्ण नहीं माना, किन्तु मानसिक हिंसा को भी दोषपूर्ण माना है। इसी आधार पर आचार्य जिनसेन ने आदिपुराण में ब्याज के धन्धे को महा हिंसा की कोटि में उपस्थित किया था। (४) श्रावकों के लिए ऐसे दैनिक-जीवन का गठन नहीं किया, गया, जिससे वह वैश्य-वर्ग के सिवाय अन्य वर्गों के अनुकल न हो। (५) बंगाल में जैन-धर्म के अस्तित्व की चर्चा पहले की जा चुकी है। उसके आधार पर कहा जा सकता है-'शहरी जीवन विरोधी बंगाल जैनत्व को बहुत कम ग्रहण कर सका'-यह तथ्य भी सारपूर्ण नहीं है । ___मैक्स वेबर जिन निष्कर्ष पर पहुंचे, उन्हें हम जैन धर्म की सैद्धान्तिक भूमिका के स्तर से सम्बन्धित नहीं मान सकते। किन्तु तात्कालिक जैन १. तत्त्वार्थ राजवार्तिक, ३३३६ : षडप्येते अविरतिप्रवणत्वात् सावद्यकार्याः । २. वही, ३३६ अल्पसावद्यकर्यािः श्रावकाः श्राविकाश्च विरत्यविरतिपरिणतत्वात्। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ संस्कृति के दो प्रवाह श्रावकों के जीवन-व्यवहार से सर्वथा सम्बन्धित नहीं थे, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। संभव है कि भूमिका भेद का गहरा विचार किए बिना साधुओं द्वारा भी श्रावकों के जटिल दैनिक जीवन का क्रम निश्चित किया गया हो । इस लम्बे विवेचन के बाद हम पुन: उसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जैन धर्म के ह्रास और उसके वैश्य वर्ग में सीमित होने के हेतु मुख्य रूप में वे ही हैं, जो हमने पहले प्रस्तुत किए थे। सूत्ररूप में उनकी पुनरावृत्ति कुछ तथ्यों को और सम्मिलित कर इस प्रकार की जा सकती है— १. उन्नति और अवनति का ऐतिहासिक क्रम । २. दीर्घकालीन समृद्धि से आने वाली शिथिलता । ३. जैन संघ का अनेक गच्छों व सम्प्रदायों में विभक्त हो जाना । ४. परस्पर एक दूसरे को पराजित करने का प्रयत्न । ५. अपने प्रभाव क्षेत्रों में दूसरों को न आने देना या जो आगत हों, उन्हें वहां से निकाल देना । ६. साधुओं का रूढ़िवादी होना । ७. देश-काल के अनुसार परिवर्तन न करना, नए आकर्षण उत्पन्न न करना । दैनिक जीवन में क्रियाकाण्डों की जटिलता कर देना । ८. ६. संघ - शक्ति का सही मूल्यांकन न होना । १०. सामुदायिक चिन्तन और प्रचार- कौशल की अल्पता । ११. विदेशी आक्रमण । १२. अन्यान्य प्रतिस्पर्धी धर्मों के प्रहार । १३. जातिवाद का स्वीकरण । इन स्थितियों ने जैन धर्म को सीमित बनाया । कुछ जैन आचार्यो ने दूरदर्शितापूर्ण प्रयत्न किए और ओसवाल, पोरवाल, खण्डेलवाल आदि आदि कई जैन जातियों का निर्माण किया । उससे जैन धर्म मुख्यतः वैश्यवर्ग में सीमित हो गया, किन्तु वह बौद्ध धर्म की भांति भारत से उच्छिन्न नहीं हुआ । आचार्य भद्रबाहु ने अपने विशाल ज्ञान तथा वर्तमान की स्थितियों का भविष्य में प्रतिबिम्ब देख कर ही यह कहा था- "धर्मं मुख्यतः वैश्य - वर्ग के हाथ में होगा ।' चन्द्रगुप्त के सातवें स्वप्न - 'अकुरडी पर कमल उगा हुआ है' का अर्थ उन्होंने किया था - "ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र - Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म और वैश्य १६६ इन चारों वर्गों में जो धर्म फैला हुआ है, वह सिमट कर अधिकांशतया वैश्यों के हाथ में चला जाएगा।'' आठवें स्वप्न में उन्होंने देखा-"जुगनू प्रकाश कर रहा है।" आचार्य भद्रबाहु ने इसका फल बताया-"श्रमण-गण आर्यमार्ग को छोड़, केवल क्रिया का घटाटोप दिखा वैश्य-वर्ग में उद्योत करेगा। फलतः निर्ग्रन्थों का पूजा-सत्कार कम हो जाएगा और बहुत लोग मिथ्यात्व रत हो जाएंगे।" सम्राट का नौवां स्वप्न था—“सरोवर सूख गया, केवल दक्षिण, दिशा में थोडा जल भरा है और वह भी पूर्ण स्वच्छ नहीं है।" आचार्य भद्रबाहु ने इसका फल बताया-"जिस भूमि में तीर्थङ्करों के पांच कल्याण (च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण) हुए थे, वहां धर्म की हानि होगी और दक्षिण-पश्चिम में थोड़ा-थोड़ा धर्म रहेगा और वह भी अनेक मतवादों और पारस्परिक संघर्षों से परिपूर्ण ।"३ भद्रबाहु की इस भविष्यवाणी में उस घटना-क्रम का अंकन है, जब जैन धर्म एक स्थिति से दूसरी स्थिति में संक्रान्त हो रहा था। जैन श्रमण मतभेदों को प्रधानता दे रहे थे; जैन श्रावक प्रत्यक्ष जीववध की तुलना में मानसिक हिंसा को कम आंक रहे थे और जैन शासन एक जाति के रूप में संगठित हो रहा था। १. व्यवहार चूलिका : उत्तमे उक्करडियाए कमलं उग्गयं दिळें, तस्स फलं तेणं माहण खत्तिय वइस्स सुई चउण्हं वण्णाणं मज्जे वइस्स हत्थे धम्म भविस्सई। २. वही : अट्ठमे खज्जुओ उज्जोयं करेइ । तेणं समणा आरियमग्गं मोत्तूण खज्जुया इव किरियाए फडाडोवं दंसिऊण वइस्स वण्णे उज्जोयं करिस्संति । तेण समणाणं णिग्गंथाणं पूयासक्कारे थोवे भविस्सई, बहुजणा मिच्छत्त रागिणो भविस्संति। ३. वही : णवमे सुक्कं सरोवरं दाहिणदिसाए थोवं जलभरियं गड़ लियं दिळें, तस्स फलं तेणं जत्थ जत्थ भूमिए पंच जिणकल्लाणं तत्थ देसे धम्महाणी भविस्सई दाहिणपच्छिमए किंपि धम्मं बहुमइडोहलियं भविस्सइ । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. महावीर तीर्थङ्कर थे पर जैनधर्म के प्रवर्तक नहीं भगवान् महावीर तीर्थङ्कर थे, फिर भी किसी नए धर्म के प्रवर्तक नहीं थे। उनके पीछे एक परम्परा थी और वे उसके उन्नायक थे। महात्मा बुद्ध स्वतंत्र धर्म के प्रवर्तक थे या किसी पूर्व परम्परा के उन्नायक ? इस प्रश्न के उत्तर में बौद्ध साहित्य कोई निश्चित उत्तर नहीं देता। उपक आजीवक के यह पूछने पर कि तेरा शास्ता (गुरु) कौन है, और तू किस धर्म को मानता है, महात्मा बुद्ध ने कहा--"मैं सबको पराजित करने वाला, सबको जानने वाला हं। सभी धर्मों में निर्लेप हं। सर्वत्यागी हूं, तृष्णा के क्षय से मुक्त हूं, मैं अपने ही जान कर उपदेश करूंगा। मेरा आचार्य नहीं है, मेरे सदृश (कोई) विद्यमान नहीं । देवताओं सहित (सारे) लोक में मेरे समान पुरुष नहीं। मैं संसार में अर्हत् हूं, मैं अपूर्व उपदेशक हूं। मैं एक सम्यक् सम्बुद्ध शान्ति तथा निर्वाण को प्राप्त हूं। धर्म का चक्का घुमाने के लिए काशियों के नगर को जा रहा हूं। (वहां) अंधे हुए लोक में अमृत-दुन्दुभि बजाऊंगा। मेरे ही ऐसे आदमी जिन होते हैं.जिनके कि चित्तमल (आश्रव) नष्ट हो गए हैं। मैंने बुराइयों को जीत लिया है, इसलिए हे उपक ! मैं जिन हं।"५ । एक दूसरे प्रसंग में कहा गया है-भगवान् ने इन्द्रकील पर खड़े होकर सोचा... पहले बुद्धों ने कुल नगर में भिक्षाचार कैसे किया ? क्या बीच-बीच में घर छोड़ कर या एक ओर से...?' फिर एक बुद्ध को भी बीच-बीच में घर छोड़ कर भिक्षाचार करते नहीं देख, 'मेरा भी यही (बुद्धों का) वंश है, इसलिए यही कुल-धर्म ग्रहण करना चाहिए। इससे आने वाले समय में मेरे श्रावक (शिष्य) मेरा ही अनुसरण करते (हुए ) भिक्षाचार व्रत पूरा करेंगे, ऐसा (सोच) छोर के घर से भिक्षाचार आरम्भ किया। राजा शुद्धोदन के द्वारा आपत्ति करने पर बुद्ध ने कहा १. (क) विनयपिटक, पृ० ७२ - (ख) बुद्धचर्या, पृ० २०-२१ । २. बुद्धचर्या, पृ० ५३ । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर तीर्थङ्कर थे पर जैनधर्म के प्रवर्तक नहीं "महाराज ! हमारे वंश का यही आचार है ।"" पहले प्रसंग से प्राप्त होता है कि बुद्ध स्वतंत्र धर्म के प्रवर्तक थे, उनका किसी परम्परा से सम्बन्ध नहीं था । दूसरे प्रसंग से प्राप्त होता है कि वे बुद्धों की परम्परा से जुड़े हुए थे । ' 1 भगवान् महावीर के सम्बन्ध में यह अनिश्चितता नहीं है । जैन साहित्य की यह निश्चित घोषणा है कि भगवान् महावीर स्वतंत्र धर्म के प्रवर्तक नहीं, किन्तु पूर्व - परम्परा के उन्नायक थे । वे अहिंसक परम्परा के एक तीर्थङ्कर थे । भगवान् ने स्वयं कहा है- " जो अर्हत् हो चुके हैं, जो वर्तमान में हैं, जो आगे होंगे, उन सबका यही निरूपण है कि सब जीवों की हिंसा मत करो । ३ भगवान् महावीर के मातृ पक्ष और पितृ पक्ष- दोनों भगवान् पार्श्वनाथ के अनुयायी थे । भगवान् महावीर स्वयंबुद्ध थे, इसीलिए उन्हें भगवान् पार्श्व का शिष्य नहीं कहा जा सकता । जैसे भगवान् पार्श्व ने धर्म - तीर्थं का प्रवर्तन किया था, वैसे ही भगवान् महावीर भी धर्म-तीर्थ के प्रवर्तक थे । कुमारश्रमण केशी ने गौतम से पूछा था - " लोगों को अन्ध बनाने वाले तिमिर में बहुत लोग रह रहे हैं । इस समूचे लोक में उन प्राणियों के लिए प्रकाश कौन करेगा ।"" गौतम ने कहा - " समूचे लोक में प्रकाश करने वाला एक विमल भानु उगा है । वह समूचे लोक में प्राणियों के लिए प्रकाश करेगा ।' "भानु किसे कहा गया है" - केशी ने गौतम से पूछा । गौतम बोले - “जिसका संसार क्षीण हो चुका है, जो सर्वज्ञ है, वह अर्हत् रूपी भास्कर समूचे लोक के प्राणियों के लिए प्रकाश करेगा ।" १७१ भगवान् पार्श्व के निर्वाण के पश्चात् यज्ञ-संस्था बहुत प्रबल हो गई थी । इधर श्रमण परम्परा के अनुयायी और आत्म-विद्या के संरक्षक राजे भी वैदिकधारा से प्रभावित हो रहे थे, जिसका वर्णन हमें उपनिषदों में प्राप्त होता है । वैदिकों की प्रवृत्तिवादी विचारणा से श्रमणों में आचार सम्बन्धी शिथिलता घर कर रही थी । हिंसा और अब्रह्मचर्य जीवन की सहज प्रवृत्ति के रूप में अभिव्यक्ति पा रहे थे । वह स्थिति श्रमणों को घोर अन्धकारमय लग रही थी । उस स्थिति में श्रमणों की विचारधारा को १. बुद्धचर्या, पृ० ५३ । २. वही, पृ० ५३ ३. आयारो ४।१ । ४. उत्तराध्ययन, २३।७५-७८ । ५. वही, २३१७६-७८ । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ संस्कृति के दो प्रवाह शक्तिशाली बनाने के लिए तीर्थङ्कर की आवश्यकता थी। भगवान् महावीर से ठीक पहले हमें तीर्थङ्कर के रूप में केवल एक पार्श्व का ही अस्तित्व मिलता है, किन्तु भगवान् महावीर के काल में हम छह तीर्थंकरों का अस्तित्व पाते हैं। कुछ जैन विद्वान् यह कहते हैं कि एक तीर्थङ्कर जैसी धर्म-व्यवस्था करते हैं, वैसी ही दूसरे तीर्थङ्कर करते हैं। किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से इसका बहुत मूल्य नहीं है। एक तीर्थंकर ने कहा, उसका निरूपण दूसरा तीर्थङ्कर करे तो वस्तुतः वह तीर्थङ्कर ही नहीं होता। जिसका मार्ग पूर्व तीर्थङ्कर से भिन्न होता है, यानी सर्वथा सदृश नहीं होता, उसी को 'तीर्थङ्कर' कहा जाता है । हमारी यह स्थापना निराधार नहीं है। इसकी यथार्थता प्रमाणित करने के लिए हमें तीर्थङ्करों के शासन-भेद का अध्ययन करना होगा। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. पार्श्व और महावीर का शासन-भेद भगवान् पार्श्व और भगवान् महावीर के शासन-भेद का विचा निम्न तथ्यों के आधार पर करेंगे१ भगवान् पाश्वं की धर्म-सामाचारी भगवान महावीरको धर्म-सामाचा (१) चातुर्याम (१) पांच महाव्रत (२) सामायिक चारित्र (२) छेदोपस्थापनीय चारित (३) रात्रि भोजन न करना उत्तरगुण (३) रात्रिभोजन न करना मू (४) सचेल (४) अचेल २. प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण (५) दोष होने पर प्रतिक्रमण (५) नियमतः दो बार प्रतिः ३. औद्देशिक औदेशिक (६) एक साधु के लिए बने आहार का (६) एक साधु के लिए बने उ दूसरे द्वारा ग्रहण __ का दूसरे द्वारा वर्जन ४. राजपिण्ड राजपिण्ड (७) राजपिण्ड का ग्रहण (७) राजपिण्ड का वर्जन ५. मासकल्प मासकल्प (८) मासकल्प का नियम न होने पर (८) मासकल्प का नियम । जीवन भर एक गाँव में रहने का स्थान में एक मास से उ विधान । कीचड़ और जीव-जन्तु न रहने का विधान । न हो उस स्थिति में वर्षा-काल में भी विहार का विधान । ६. पर्युषण कल्प पर्यषण कल्प (९) पर्युषण कल्प का अनियम । (६) पर्युषण कल्प का नियम । जघन्यतः भाद्रव-शुक्ला पंचमी से कार्तिकशुक्ला पंचमी तक और उत्कृष्टतः आषाढ़ पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक एक स्थान में रहने का नियम । (१०) (१०) परिहारविशुद्ध चारित्र Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ (१) चातुर्याम और पांच महाव्रत प्राग्- ऐतिहासिक काल में भगवान् ऋषभ ने पांच महाव्रतों का उपदेश दिया था, ऐसा माना जाता है । ऐतिहासिक काल में भगवान् पार्श्व ने चातुर्याम-धर्म का उपदेश दिया था । उनके चार याम ये थे(१) अहिंसा, (२) सत्य, (३) अचौर्य और ( ४ ) बहिस्तात् आदानविरमण ( बाह्य वस्तु के ग्रहण का त्याग ) ।' भगवान् महावीर ने पांच महाव्रतों का उपदेश दिया। उनके पांच महाव्रत ये हैं- ( १ ) अहिंसा, (२) सत्य, (३) अचौर्य, (४) ब्रह्मचर्य और ( ५ ) अपरिग्रह । सहज ही प्रश्न होता है कि महावीर ने महाव्रतों का विकास क्यों किया ? भगवान् पार्श्व की परम्परा के आचार्य कुमारभ्रमण केशी और भगवान् महावीर के गणधर गौतम जब श्रावस्ती में आए, तब उनके शिष्यों को यह संदेह उत्पन्न हुआ कि हम एक ही प्रयोजन से चल रहे हैं, तब यह अन्तर क्यों ? पार्श्व ने चातुर्याम-धर्म का निरूपण किया और महावीर ने पांच महाव्रतधर्म का, यह क्यों ?" कुमारश्रमण केशी ने गौतम से यह प्रश्न पूछा तब उन्होंने केशी से कहा -- “ पहले तीर्थंङ्कर के साधु ऋजु जड़ होते हैं । अन्तिम तीर्थङ्कर के साधु वक्र-जड़ होते हैं । बीच के तीर्थङ्करों के साधु ऋजु प्राज्ञ होते हैं, इसलिए धर्म के दो प्रकार किए हैं । संस्कृति के दो प्रवाह 'पूर्ववर्ती साधुओं के लिए मुनि के आचार को यथावत् ग्रहण कर लेना कठिन है । चरमवर्ती साधुओं के आचार का पालन कठिन है । मध्यवर्ती साधु उसे यथावत् ग्रहण कर लेते हैं और उसका पालन भी वे सरलता से करते हैं । " इस समाधान में एक विशिष्ट ध्वनि है। उससे इस बात का संकेत मिलता है कि जब भगवान् पार्श्वनाथ के प्रशिष्य अब्रह्मचर्य का समर्थन करने लगे, उसका पालन कठिन हो गया तब उस स्थिति को देख कर भगवान् महावीर को ब्रह्मचर्य को स्वतंत्र महाव्रत के रूप में स्थान देना पड़ा । १. स्थानांग, ४|१३७ । २. उत्तराध्ययन २१।१२ । ३. वही, २३।१२-१३ । ४. वही, २३।२६-२७ । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्व और महावीर का शासन-भेद १७५ भगवान् पार्श्व ने मैथुन को परिग्रह के अन्तर्गत माना था। किन्तु उनके निर्वाण के पश्चात् और भगवान् महावीर के तीर्थङ्कर होने से थोड़े पूर्व कुछ साध इस तर्क का सहारा ले अब्रह्मचर्य का समर्थन करने लगे कि भगवान् पार्श्व ने उसका निषेध नहीं किया है। भगवान् महावीर ने इस कुतर्क के निवारण के लिए स्पष्टतः ब्रह्मचर्य महाव्रत की व्यवस्था की और महाव्रत पांच हो गए। सूत्रकृतांग में अब्रह्मचर्य का समर्थन करने वाले को ‘पार्श्वस्थ' कहा है। वृत्तिकार ने उन्हें 'स्वयूथिक' भी बतलाया है।' इसका तात्पर्य यह है कि भगवान् महावीर के पहले से ही कुछ स्वयूथिक निर्ग्रन्थ अर्थात् पार्श्व की परम्परा के श्रमण स्वच्छन्द होकर अब्रह्मचर्य का समर्थन कर रहे थे। उनका तर्क था कि "जैसे वर्ण या फोड़े को दबा कर पीव को निकाल देने से शांति मिलती है, वैसे ही समागम की प्रार्थना करने वाली स्त्री के साथ समागम करने से शान्ति मिलती है। इसमें दोष कैसे हो सकता है ? ___"जैसे भेड बिना हिलाए शान्तभाव से पानी पी लेती है, वैसे ही समागम की प्रार्थना करने वाली स्त्री के साथ शान्तभाव से किसी को पीड़ा पहुंचाए बिना समागम किया जाए, उसमें दोष कैसे हो सकता है ? _ 'जैसे कपिजल नाम की चिड़िया आकाश में रह कर बिना हिलाए डुलाए जल पी लेती है, वैसे ही समागम की प्रार्थना करने वाली स्त्री के साथ अनासक्त-भाव से समागम किया जाए तो उसमें दोष कैसे हो सकता भगवान् महावीर ने इन कुतर्कों को ध्यान में रखा और वक्र-जड़ मुनि किस प्रकार अर्थ का अनर्थ कर डालते हैं, इस और ध्यान दिया तो उन्हें ब्रह्मचर्य को स्वतंत्र महाव्रत का रूप देने की आवश्यकता महसूस हुई। इसीलिए स्तुतिकार ने कहा है-'से धारिया इत्थि सराइभत्तं' (सूत्रकृतांग, १।६।२८) ___ अर्थात् भगवान् ने स्त्री और रात्रिभोजन का निवारण किया। यह स्तुति-वाक्य इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि भगवान् महावीर ने १. स्थानांग, ४।१३७ वृत्ति : मैथुनं परिग्रहेऽन्तर्भवति, नह्यपरिगृहीता योषिद् भुज्यते। २. सूत्रकृतांग, १।३।६६,७३ः । ३. (क) सूत्रकृतांग, ११३३६६ : स्वयूथ्या वा । (ख) वही, १।३।६८ वृत्ति : स्वयूथ्या वा पार्श्वस्थावसग्नकुशीलादयः । ४. सूत्रकृतांग, १।३।७१,७२ । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ संस्कृति के दो प्रवाह ब्रह्मचर्य की विशेष व्याख्या, व्यवस्था या योजना की थी। ____ अब्रह्मचर्य को फोड़े की पीव निकालने आदि के समान बताया जाता था, उसके लिए भगवान् ने कहा-'कोई मनुष्य तलवार से किसी का सिर काट शान्ति का अनुभव करे तो क्या वह दोषी नहीं है ?' ___ 'कोई मनुष्य चुपचाप शांत-भाव से जहर की चूंट पीकर बैठ जाए तो क्या वह विष व्याप्त नहीं होता? ___'कोई मनुष्य किसी धनी के खजाने से अनासक्त-भाव से बहुमूल्य रत्नों को चुराए, तो क्या वह दोषी नहीं होता?" __दूसरे का सिर काटने वाला, जहर की चूंट पीने वाला और दूसरों के रत्न चुराने वाला वस्तुतः शांत या अनासक्त नहीं होता, वैसे ही अब्रह्मचर्य का सेवन करने वाला शांत या अनासक्त नहीं हो सकता। जो पार्श्वस्थ श्रमण अनासक्ति का नाम ले अब्रह्मचर्य का समर्थन करते हैं, वे काम-भोगों में अत्यन्त आसक्त हैं। __ अब्रह्मचर्य को स्वाभाविक मानने की ओर श्रमणों का मानसिक झुकाव होता जा रहा था, उस समय उन्हें ब्रह्मचर्य की विशेष व्यवस्था देने की आवश्यकता थी। इस अनुकल परीषह से श्रमणों को बचाना आवश्यक था। उस स्थिति में भगवान महावीर ने ब्रह्मचर्य को बहुत महत्त्व दिया और उसकी सुरक्षा के लिए विशेष व्यवस्था दी (देखिए-उत्तराध्ययन, सोलहवां और बत्तीसवां अध्ययन)। (२) सामायिक और छेवोपस्थापनीय भगवान् पार्श्व के समय सामायिक चारित्र था और भगवान् महावीर ने छेदोपस्थापनीय चारित्र का प्रवर्तन किया । वास्तविक दृष्टि से चारित्र एक सामायिक ही है।' चारित्र का अर्थ है 'समता की आराधना' । विषमतापूर्ण प्रवृत्तियां व्यक्त होती हैं तब सामायिक चारित्र प्राप्त होता है। यह निविशेषण या निविभाग है । भगवान् पार्श्व ने चारित्र के विभाग नहीं किए, उसे विस्तार से नहीं समझाया। संभव है उन्हें इसकी आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई। भगवान महावीर के सामने एक विशेष प्रयोजन उपस्थित था, इसलिए उन्होंने सामायिक को छेदोपस्थापनीय का रूप दिया। इस चारित्र को स्वीकार करने वाले को व्यक्ति या विभागशः महाव्रतों का १. सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा ५३-५५ । २. सूत्रकृतांग, ११३१७३ । ३. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा १२६७ । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्व और महावीर का शासन-भेद १७७ स्वीकार कराया जाता है । छेद का अर्थ 'विभाग' है। भगवान् महावीर ने भगवान पार्श्व के निविभाग सामायिक चारित्र को विभागात्मक सामायिक चारित्र बना दिया और वही छेदोपस्थापनीय के नाम से प्रचलित हुआ। भगवान् ने चारित्र के तेरह मुख्य विभाग किए थे। पूज्यपाद ने भगवान् महावीर को पूर्व तीर्थङ्करों द्वारा अनुपदिष्ट तेरह प्रकार के चारित्रउपदेष्टा के रूप में नमस्कार किया है तिनः सत्तमगुप्तयस्तनुमनोभाषानिमित्तोवयाः, . पंचेर्यादि समाभयाः समितयः पंचवतानीत्यपि । चारित्रोपहितं प्रयोदशतयं पूर्व न दिष्टं पर राचारं परमेष्ठिनो जिनपतेर्वीरान् नमामो वयम् ॥ यह विचित्र संयोग की बात है कि आचार्य भिक्षु ने भी तेरापंथ की व्याख्या इन्हीं तेरह (पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति) व्रतों के आधार पर की थी। भगवती से ज्ञात होता है कि जो चातुर्याम-धर्म का पालन करते थे, उन मुनियों के चारित्र को 'सामायिक' कहा जाता था और जो मुनि चातुर्याम-धर्म की प्राचीन परम्परा को छोड़ कर पंचयाम-धर्म में प्रवजित हुए उनके चारित्र को 'छदोपस्थापनीय' कहा गया।' भगवान् महावीर ने भगवान् पार्श्व की परम्परा का सम्मान करने अथवा अपने निरूपण के साथ उसका सामंजस्य बिठाने के लिए दोनों व्यवस्थाएं की प्रारम्भ में अल्पकालीन निविभाग (सामायिक) चारित्र को मान्यता दी, दीर्घकाल के लिए विभागात्मक (छेदोपस्थापनीय) चारित्र की व्यवस्था की। १. चारित्रभक्ति, ७। २. भिक्षुजशरसायन, ७७ : पंच महाव्रत पालता, शुद्धि सुमति सुहावै हो । तीन गुप्त तीखी तरै, भल आतम भावे हो । चित्त तूं तेरा ही चाहवै हो । ३. भगवती, २५१७७८६, गाथा १,२ : सामाइयंमि उ कए, चाउज्जामं अणुत्तरं धम्म । ति विहेणं फासयंतो, सामाइयं संजमो स खलु ॥ छेत्तूण उ परियागं, पोराणं जो ठवेइ अप्पाणं । धम्ममि पंच जामे, छेदोवट्ठावणो स खलु ॥ ४. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा १२६८ । ५. वही, गाथा १२१०४ । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ संस्कृति के दो प्रवाह (३) रात्रिभोजन-विरमण भगवान पार्श्व के शासन में रात्रिभोजन न करना व्रत नहीं था। भगवान् महावीर ने उसे व्रत की सूची में सम्मलित कर लिया। यहां सूत्रकृतांग (१।६।२८) का वह पद फिर स्मरणीय है-'से वारिया इत्थि सराइभत्त' । हरिभद्रसरि ने इसकी चर्चा करते हए बताया है कि भगवान ऋषभ और भगवान् महावीर ने अपने ऋजु-जड़ और वक्र-जड़ शिष्यों की अपेक्षा से रात्रिभोजन न करने को व्रत का रूप दिया और उसे मूल गुणों की सूची में रखा। मध्यवर्ती २२ तीर्थंकरों ने उसे मूलगुण नहीं माना, इसलिए उन्होंने उसे व्रत का रूप नहीं दिया। सोमतिलक सूरि का भी यही अभिमत है। हरिभद्रसूरि से पहले भी यह मान्यता प्रचलित थी। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने लिखा है कि 'रात को भोजन न करना' अहिंसा महाव्रत का संरक्षक होने के कारण समिति की भांति उत्तर गुण है। किन्तु मुनि के लिए वह अहिंसा महाव्रत की तरह पालनीय है । इस दृष्टि से वह मूलगुण की कोटि में रखने योग्य है । श्रावक के लिए वह मूलगुण नहीं है। जो गुण साधना के आधारभूत होते हैं, उन्हें 'मौलिक' या 'मूलगुण' कहा जाता है। उनके उपकारी या सहयोगी गुणों को 'उत्तरगुण' कहा जाता है। जिनभद्रगणी ने मूलगुण की संख्या पांच और छह-दोनों प्रकार से मानी है-- १. अहिंसा ४. ब्रह्मचर्य २. सत्य ५. अपरिग्रह ३. अचौर्य ६. रात्रिभोजन-विरमण ।' १. दशवकालिक, हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र १५० : एतच्च रात्रिभोजनं प्रथमचरमतीर्थकरतीर्थयोः ऋजुजडवक्रजडपुरुषापेक्षया मूलगुणत्वख्यापनार्थं महाव्रतोपरि पठितं, मध्यमतीर्थकरतीर्थेषु पुनः ऋजुप्रज्ञपुरुषापेक्षयोत्तरगुणवर्ग इति । २. सप्ततिशतस्थान, गाथा २८७ : मूलगुणेसु उ दुण्हं, सेसाणुत्तरगुणेसु निसिभुत्तं । ३. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा १२४७ वृत्ति : उत्तरगुणत्वे सत्यपि तत् साधोर्मूलगुणो भव्यते । मूलगुणपालनात् प्राणातिपातादिविरमणवत् अन्तरङ्गत्वाच्च । ४. वही, गाथा १२४५-१२५० । ५. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा १२४४ : सम्मत्त समेयाई, महव्वयाणुव्वयाइ मूलगुणा। ६. वही, गाथा १८२६ : मूलगुणा छव्वयाई तु । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्व और महावीर का शासन-भेद १७६ आचार्य वट्टकेर ने मूलगुण २८ माने हैं१-५. पांच महाव्रत २४. अस्नान ६-१०. पांच समितियां २५. भूमिशयन ११-१५. पांच इन्द्रिय-विजय २६. दन्तघर्षण का वर्जन १६-२१. षड् आवश्यक २७. स्थिति भोजन २२. केशलोच २८. एक-भक्त । २३. अचेलकता मूलगुणों की संख्या सब तीर्थङ्करों के शासन में समान नहीं रही, इसका समर्थन भगवान् महावीर के एक निम्न प्रवचन से होता है __ "आर्यो ! .. मैंने पांच महाव्रतात्मक, सप्रतिक्रमण और अचेलधर्म का निरूपण किया है। आर्यो ! . . मैंने नग्नभाव, मुण्डभाव, अस्नान, दन्तप्रक्षालन-वर्जन, छत्र-वर्जन, पादुका-वर्जन, भूमि-शय्या, केश-लोच आदि का निरूपण किया है।" __भगवान् महावीर के जो विशेष विधान हैं, उनका लम्बा विवरण स्थानांग, ६।६२ में है। (४) सचेल और अचेल गौतम और केशी के शिष्यों के मन में एक वितर्क उठा था “महामुनि वर्द्धमान ने जो आचार-धर्म की व्यवस्था की है, वह अचेलक है और महामुनि पाश्वं ने जो यह आचार-धर्म की व्यवस्था की है, वह वर्ण आदि से विशिष्ट तथा मूल्यवान वस्त्र वाली है। जब कि हम एक ही उद्देश्य से चले हैं तो फिर इस भेद का क्या कारण है ?" केशी ने गौतम के सामने यह जिज्ञासा प्रस्तुत की और पूछा-"मेधाविन् ! वेष के इन प्रकारों में तुम्हें सन्देह कैसे नहीं होता ?" ___ केशी के ऐसा कहने पर गौतम ने इस प्रकार कहा-"विज्ञान द्वारा यथोचित जान कर ही धर्म के साधनों उपकरणों की अनुमति दी गई है। लोगों को यह प्रतीति हो कि ये साधु हैं, इसलिए नाना प्रकार के उपकरणों की परिकल्पना की गई है। जीवन-यात्रा को निभाना और 'मैं साधु हूं,' ऐसा ध्यान आते रहना-वेष-धारण के इस लोक में ये प्रयोजन हैं। यदि मोक्ष की वास्तविक साधना की प्रतिज्ञा हो तो निश्चय-दृष्टि में उसके १. मूलाचार, ११२-११३ । २. स्थानांग, ६।२। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० साधन ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही हैं ।" भगवान् पार्श्व के भगवान् महावीर ने अपने अनुमति दी । to हर्मन जेकोब का यह मत है कि भगवान् महावीर ने अचेलकता या नग्नत्व का आचार आजीवक आचार्य गोशालक से ग्रहण किया । किन्तु यह संदिग्ध है । भगवान् महावीर के काल में और उनसे पूर्व भी नग्न साधुओं के अनेक सम्प्रदाय थे । भगवान् महावीर ने अचेलकता को किसी से प्रभावित होकर अपनाया या अपनी स्वतन्त्र बुद्धि से ? इस प्रश्न के समाधान का कोई निश्चित स्रोत प्राप्त नहीं है, किन्तु इतना निश्चित है कि महावीर दीक्षित हुए तब सचेल थे, बाद में अचेल हो गए। भगवान् ने अपने शिष्यों के लिए भी अचेल आचार की व्यवस्था की, किन्तु उनकी अचेल व्यवस्था दूसरे दूसरे नग्न साधुओं की भांति ऐकान्तिक आग्रहपूर्ण नहीं थी । गौतम ने केशी से जो कहा, उससे यह स्वयं सिद्ध है । संस्कृति के दो प्रवाह शिष्य बहुमूल्य और रंगीन वस्त्र रखते थे । शिष्यों को अल्पमूल्य और श्वेत वस्त्र रखने की जो निर्ग्रन्थ निर्वस्त्र रहने में समर्थ थे, उनके लिए पूर्णतः अचेल (निर्वस्त्र ) रहने की व्यवस्था थी और जो निर्ग्रन्थ वैसा करने में समर्थ नहीं थे, उनके लिए सीमित अर्थ में अचेल (अल्पमूल्य और श्वेत वस्त्रधारी ) रहने की व्यवस्था थी । भगवान् पार्श्व के शिष्य भगवान् महावीर के तीर्थ में इसीलिए खप सके कि भगवान् महावोर ने अपने तीर्थ में सचेल और अचेल – इन दोनों व्यवस्थाओं को मान्यता दी थी। इस सचेल और अचेल के प्रश्न पर ही निर्ग्रन्थ संघ श्वेताम्बर और दिगम्बर- इन दो शाखाओं में विभक्त हुआ था । श्वेताम्बर साहित्य के अनुसार जिनकल्पी साधु वस्त्र नहीं रखते थे और स्थविरकल्पी साधु वस्त्र रखते थे । दिगम्बर साहित्य के अनुसार सब साधु वस्त्र नहीं रखते थे । इस विषय पर पार्श्ववर्ती परम्पराओं का भी विलोडन करना अपेक्षित है । पूरणकश्यप ने समस्त जीवों का वर्गीकरण कर छह अभिजातियां निश्चित की थीं । उसमें तीसरी - लोहित्याभिजाति-में एक शाटक रखने १. उत्तराध्ययन, २३।२६-३३ । २. दी सेक्रेड बुक ऑफ दी ईस्ट, भाग ४५, पृ० ३२ : It is probable that he borrowed them from the Akelakas or āgīvikas, the followers of Gosāla.'' ३. अंगुत्तरनिकाय, ६६३, छलभिजातिसुत्त, भाग ३, पृ० ८६ । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्व और महावीर का शासन-भेद वाले निर्ग्रन्थों का उल्लेख किया है।' ___ आचारांग में भी एक शाटक रखने का उल्लेख है। अंगुत्तरनिकाय में निर्ग्रन्थों के नग्न रूप को लक्षित करके ही उन्हें 'अह्रीक' कहा गया है।' आचारांग में निम्रन्थों के लिए अचेल रहने का भी विधान है। विष्णुपुराण में जैन साधुओं के निर्वस्त्र और सवस्त्र-दोनों रूपों का उल्लेख मिलता इन सभी उल्लेखों से यह जान पड़ता है कि भगवान् महावीर के शिष्य सचेल और अचेल-इन दोनों अवस्थाओं में रहते थे। फिर भी अचेल अवस्था को अधिक महत्त्व दिया गया, इसीलिए केशी के शिष्यों के मन में उसके प्रति एक वितर्क उत्पन्न हुआ था। प्रारम्भ में अचेल शब्द का अर्थ निर्वस्त्र ही रहा होगा और दिगम्बर, श्वेताम्बर संघर्ष-काल में उसका अर्थ 'अल्प वस्त्र वाला' या 'मलिन वस्त्र वाला' हुआ होगा अथवा एक वस्त्रधारी निर्ग्रन्थों के लिए भी अचेल का प्रयोग हुआ होगा। दिगम्बर परम्परा ने निर्वस्त्र रहने का ऐकान्तिक आग्रह किया और श्वेताम्बर परंपरा ने निर्वस्त्र रहने की स्थिति के विच्छेद की घोषणा की। इस प्रकार सचेल और अचेल का प्रश्न, जिसको भगवान् महावीर ने समाहित किया था, आगे चल कर विवादास्पद बन गया। यह विवाद अधिक उग्र तब बना, जब आजीवक श्रमण दिगम्बरों में विलीन हो रहे थे। तामिल काव्य मणिमेखले' में जैन श्रमणों को निर्ग्रन्थ और आजीवक-इन दो भागों में विभक्त किया गया है । भगवान महावीर के काल में आजीवक एक स्वतंत्र सम्प्रदाय था। अशोक और दशरथ के 'बराबर' तथा 'नागार्जुनी गुहा-लेखों से उसके अस्तित्व की जानकारी मिलती है। उनके श्रमणों को गुहाएं दान में दी गई थीं। सम्भवतः ई० स० के आरम्भ से आजीवक मत का उल्लेख प्रशस्तियों में नहीं मिलता। डा. वासुदेव उपाध्याय ने सम्भावना की है कि आजीवक १. अंगुत्तरनिकाय, ६।६।३; तत्रिदं भन्ते, पूरणेन कस्सपेन लोहिताभिजाति पञत्ता, निग्गण्ठा, एक साटका। २. आयारो ८।५२ : अदुवा एगसाडे । ३. अंगुत्तरनिकाय, १०।८।८, भाग ४, पृ० २१८ : अहिरिका भिक्खवे निग्गण्ठा। ४. आयारो, ११८४१५३ : अदुवा अचेले। ५. विष्णुपुराण, अंश ३, अध्याय १८, श्लोक १० : दिग्वाससामयं धर्मो, धर्मोऽयं बहुवाससाम् । ६. प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, खण्ड ५, पृ० २२ । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ संस्कृति के दो प्रवाह ब्राह्मण मत में विलीन हो गए। किन्तु मणिमेखले से यही प्रमाणित होता है कि आजीवक-श्रमण दिगम्बर श्रमणों में विलीन हो गए। __ आजीवक नग्नत्व के प्रबल समर्थक थे। उनके विलय होने के पश्चात् सम्भव है कि दिगम्बर परम्परा में भी अचेलता का आग्रह हो गया। यदि आग्रह न हो तो सचेल और अचेल-इन दोनों अवस्थाओं का सुन्दर सामञ्जस्य बिठाया जा सकता है, जैसा कि भगवान् महावीर ने बिठाया था। (५) प्रतिक्रमण भगवान पार्श्व के शिष्यों के लिए दोनों सन्ध्याओं में प्रतिक्रमण करना अनिवार्य नहीं था। जब कोई दोषाचरण हो जाता, तब वे उसका प्रतिक्रमण कर लेते। भगवान् महावीर ने अपने शिष्यों के लिए दोनों संध्याओं में प्रतिक्रमण करना अनिवार्य कर दिया, भले फिर कोई दोषाचरण हुआ हो या न हुआ हो।" (६) अवस्थित और अनवस्थित कल्प भगवान् पार्श्व और भगवान् महावीर के शासन-भेद का इतिहास दस कल्पों में मिलता है। उनमें से चातुर्याम-धर्म, अचेलता और प्रतिक्रमण पर हम एक दृष्टि डाल चुके हैं। भगवान् पार्श्व के शिष्यों के लिए-१. शय्यातर-पिण्ड (उपाश्रय दाता के घर का आहार) न लेना, २. चातुर्याम-धर्म का पालन करना, ३. पुरुष को ज्येष्ठ मानना, ४. दीक्षा पर्याय में बड़े साधुओं को वंदना करना-ये चार कल्प अवस्थित थे। १. अचेलक, २. औद्देशिक, ३. प्रतिक्रमण, ४. राजपिण्ड, ५. मासकल्प, ६. पर्युषण कल्प-ये छहों कल्प अनवस्थित थे-ऐच्छिक थे। भगवान् महावीर के शिष्यों के लिए ये सभी कल्प अवस्थित थे, अनिवार्य थे। परिहार विशुद्ध चारित्र भी भगवान् महावीर की देन थी। इसे छेदोपस्थापनीय चारित्र की भांति 'अवस्थितकल्पी' कहा गया है। १. प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, खण्ड १, पृ० १२६ । २. बुद्धिस्ट स्टडीज, पृ० १५। ३. (क) आवश्यकनिर्युक्ति, १२४४ । (ख) मूलाचार ७।१२५-१२६ । ४. भगवती, २५४६१ : सामाइयसंजए णं भंते ! किं ठियकप्पे होज्जा अट्ठियकष्पे होज्जा ? गोयमा ठियकप्पे वा होज्जा अट्ठियकप्पे वा होज्जा, छेदोवट्ठावणियसंजए पुच्छा, गोयमा ! ठियकप्पे होज्जा नो अट्ठियकप्पे होज्जा । ५. भगवती, २५१४६१ । - Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. साधना-पद्धति साध्य की सम्पूर्ति के लिए साधना-पद्धति अपेक्षित होती है। प्रत्येक दर्शन ने अपने साध्य की सिद्धि के लिए उसका विकास किया है। उनमें से जैन दर्शन भी एक है। सांख्य दर्शन की साधना-पद्धति का अविकल रूप महर्षि पतंजलि के योग-दर्शन में मिलता है। वह ई० पू० दूसरी शताब्दी की रचना है। पाणिनि के भाष्यकार, चरक के प्रति-संस्कर्ता और योग-दर्शन के कर्ता महर्षि पतञ्जलि एक ही व्यक्ति हैं । अतः उनका अस्तित्वकाल पाणिनी के बाद का है। मौर्य साम्राज्य का अस्तित्व ई० पू० ३२२ से १८५ तक माना जाता है। मौय-वंश का अंतिम राजा बृहद्रथ था। वह ई० पू० १८५ में अपने सेनापति पुष्यमित्र द्वारा मारा गया था। महर्षि पतंजलि पुष्यमित्र के समकालीन थे। इस तथ्य के आधार पर उनका अस्तित्व काल ई० पू० दूसरी शताब्दी है। बौद्ध दर्शन का साधना मार्ग 'अभिधम्मकोष' (ई० सन् पांचवी शताब्दी) और 'विसुद्धिमग्ग' (ई० सन् पांचवीं शताब्दी) में उपलब्ध है । उत्तराध्ययन उक्त तीनों ग्रन्थों से पूर्ववर्ती है । योग सूत्रकार पतञ्जलि और महाभाष्यकार पतञ्जलि एक व्यक्ति नहीं थे, यह नगेन्द्रनाथ वसु का अभिमत है। उनके अनुसार महाभाष्यकार के बहुत पहले कात्यायन ने अपने वार्तिक (६।१।६४) में पतञ्जलि का स्पष्ट नामोल्लेख किया है। अतः यह निश्चित है कि योग सूत्रकार पतञ्जलि कात्यायन के पूर्ववर्ती हैं। कुछ विद्वान् योग सूत्रकार पतञ्जलि को पाणिनी से पूर्ववर्ती मानते हैं, किन्तु यह ठीक नहीं है। पाणिनि ने कहीं पर भी पतञ्जलि, पातंजल दर्शन प्रतिपाद्य किसी पारिभाषिक शब्द का उल्लेख नहीं किया है। पतञ्जलि ने अपने योग-दर्शन में ऐसे अनेक पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग किया है, जो वैदिक-साहित्य के पारिभाषिक शब्दों से भिन्न हैं और श्रमगों के पारिभाषिक शब्दों से अभिन्न हैं। इससे यह फलित होता है कि पतञ्जलि की दृष्टि में श्रमणों की साधना-पद्धति प्रतिबिम्बित थी। साध्य जैन दर्शन के अनुसार मनुष्य का साध्य है-मोक्ष या आत्मो१. विश्वकोष, भाग १३ पृ० २५४ । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ सस्कृति के दो प्रवाह पलब्धि । आत्मा का स्वरूप है-ज्ञान, सम्यक्त्व और वीतरागता । सम्यक्त्व विकृत, ज्ञान आवृत और वीतरागता अप्रकटित होती है, तब तक हर व्यक्ति के लिए अपनी आत्मा साध्य होती है और जब सम्यक्त्व मल रहित, जान अनावृत और वीतरागता प्रकट होती है, तब वह स्वयं सिद्ध हो जाती ___साध्य की सिद्धि के लिए जिन हेतुओं का आलम्बन लिया जाता है, उन्हें 'साधन' और उनके अम्यास क्रम को 'साधना' कहा जाता है। साधन मोक्ष के साधन चार हैं-१. ज्ञान, २. दर्शन, ३. चारित्र और ४. उप ।' ज्ञान से सत्य जाना जाता है और दर्शन (सम्यक्त्व) से सत्य के प्रति श्रद्धा होती है, इसलिए ये दोनों सत्य की प्राप्ति के साधन हैं। चरित्र से आने वाले कर्मों का निरोध होता है और तप से पूर्व संचित कर्म क्षीण होते है, इसलिए ये दोनों सत्य की उपलब्धि के साधन हैं। ये चारों समूदित रूप ते मोक्ष या आत्मोपलब्धि के साधन हैं।' साधना मोक्ष के साधन चार हैं, इसलिए उसकी साधना के भी मुख्य प्रकार वार हैं-१. ज्ञान की साधना, २. दर्शन की साधना, ३. चारित्र की साधना और ४. तप की साधना। (१) ज्ञान की साधना के पांच अंग हैं१. वाचना- पढ़ाना । २. प्रतिपच्छा-- प्रश्न पूछना। ३. परिवर्तना- पुनरावृत्ति करना। ४. अनुप्रेक्षा- चिन्तन करना। ५. धर्मकथा- धर्म-चर्चा करना। ज्ञान की आराधना करने से अज्ञान क्षीण होता है।' ज्ञान-सम्पन्न नीव संसार में विनष्ट नहीं होता। जिस प्रकार धागा पिरोई सूई गिरने र भी गुम नहीं होती, उसी प्रकार ज्ञान-युक्त जीव संसार में विलुप्त नहीं होता। इस प्रकार भगवान महावीर ने ज्ञान का उतना ही समर्थन किया, जतना कि चारित्र का। इसलिए जैन दर्शन को हम केवल ज्ञान-योग का समर्थक नहीं कह सकते। १. उत्तराध्ययन, २८।३। ३. वही, २६।१८-२४ । २. वही, २८।३५ । ४. वही, २९५६। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना-पद्धति (२) दर्शन की साधना के आठ अंग हैं१. निःशंकित। ५. उपबंहण । २. निष्कांक्षित। ६. स्थिरीकरण । ३. निर्विचिकित्सा। ७. वात्सल्य । ४. अमूढदृष्टि । ८. प्रभावना। दर्शन जैन-संघ के संगठन का मूल आधार रहा है। पहला आधार है-निःशंकित-आस्था या अभय । एकसूत्रता का मूल बीज आस्था है। स्वसम्मत लक्ष्य के प्रति आस्थावान हुए बिना कोई भी प्रगति नहीं कर सकता। लक्ष्य के साथ तादात्म्य हो, यह संगठन की पहली अपेक्षा है। अभय भी ऐसी ही अनिवार्य अपेक्षा है। मन में भय हो तो लक्ष्य को पकड़ा ही नहीं जा सकता और पूर्व गृहीत हो तो उस पर टिका नहीं जा सकता। भगवान् महावीर की दृष्टि में सब दोषों का मूल है हिंसा और हिंसा का मूल है भय। कोई व्यक्ति अभय होकर ही अपने लक्ष्य की ओर स्वतंत्र गति से चल सकता है। ___संगठन का दूसरा आधार है-निष्कांक्षित-लक्ष्य के प्रति दृढ़ अनुराग या वैचारिक स्थिरता । जगत् में अनेक संगठन और उनके भिन्न-भिन्न लक्ष्य होते हैं। स्व-सम्मत लक्ष्य के प्रति दढ़ अनुराग न हो तो मन कभी किसी को पकड़ना चाहता है और कभी किसी को। विचारों में एक अंधड़सा चलता रहता है। इस प्रकार व्यक्ति और संगठन दोनों ही स्वस्थ नहीं बन सकते। तीसरा आधार है-निविचिकित्सा--स्वीकृत साधनों की सफलता में विश्वास । हर संगठन का अपना साध्य होता है और अपने साधन होते हैं। किसी भी साधन से तब तक साध्य नहीं सधता, जब तक साधक को उसकी सफलता में विश्वास न हो। इस साधन से अमक साधना की सिद्धि निश्चित होगी-ऐसा माने बिना संगठन का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। ___ संगठन का चौथा आधार-स्तम्भ है-अमूढ़दृष्टि । दूसरे विचारों के प्रति हमारी सद्भावना हो, यह सही है पर यह सही नहीं कि अपनी नीति से विरोधी विचारों के प्रति हमारी सहमति हो। यदि ऐसा हो तो हमारा दृष्टिकोण विशुद्ध नहीं रह सकता और हमारे संगठन और कार्य-प्रणाली का कोई स्वतन्त्र रूप भी नहीं रह सकता। संगठन के लिए यह बहुत अपेक्षित है कि उसका अनुयायी विनम्र हो पर 'सब समान हैं' इस अविवेक का समर्थक न हो। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह पांचवां आधार है—उपबृंहण । संगठन की आत्मा है— गुण या विशेषता । गुण और अवगुण - ये दोनों मनुष्य के सहचारी हैं । गुण की वृद्धि और अवगुण का शोधन करना संगठन के लिए बहुत ही आवश्यक होता है। पर इसमें बहुत सतर्कता बरती जानी चाहिए । अवगुण का प्रतिकार होना चाहिए पर उसे प्रसारित कर संगठन के सामने जटिलता पैदा नहीं करनी चाहिए । गुण का विकास करना चाहिए पर उसके प्रति ईर्ष्या या उन्माद न हो, ऐसी सजगता रहनी चाहिए । इसी सूत्र के आधार पर यह विचार विकसित हुआ था कि जो एक साधु की पूजा करता है, वह सब साधुओं की पूजा करता है यानी साधुता की पूजा करता है । जो एक साधु की अवहेलना करता है, वह सब साधुओं की अवहेलना करता है यानी साधुता की अवहेलना करता है । १८६ संगठन का छठा आधार है— स्थिरीकरण । अनेक लोगों का एक लक्ष्य के प्रति आकृष्ट होना भी कठिन है और उससे भी कठिन है, उस पर टिके रहना । आन्तरिक और बाहरी ऐसे दबाव होते हैं कि आदमी दब जाता है । शारीरिक और मानसिक ऐसी परिस्थितियां होती हैं कि आदमी पराजित हो जाता है और तब वह लक्ष्य को छोड़ कर दूर भागना चाहता है । उस समय उसे लक्ष्य में फिर से स्थिर करना संगठन के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। स्थिरीकरण के हेतु अनेक हो सकते हैं । उनमें सबसे बड़ा हेतु है वात्सल्य और यही सातवां आधार है । सेवा और संविभाग इसी पर विकसित हुए हैं । भगवान् ने कहा - ' असं विभागी को मोक्ष नहीं मिलता । जो संविभाग को नहीं जानता, वह अपने आपको अनगिन बन्धनों में जकड़ ता है, फिर मुक्ति की कल्पना कहां ?' इसी सूत्र के आधार पर उत्तरवर्ती आचार्यों ने भगवान् के मुंह से कहलाया कि जो रोगी साधु की सेवा करता है, वह मेरी सेवा करता है और एकात्मता की भाषा में गाया गया'भिन्न-भिन्न देश में उत्पन्न हुए, भिन्न-भिन्न आहार से शरीर बढ़ा किन्तु जैसे ही वे जिनशासन में आए, वैसे ही सब भाई हो गए ।' यह भाईचारा और सेवाभाव ही संगठन की सुदृढ़ आधारशिला है । आठवां आधार है - प्रभावना । वही संगठन टिक सकता है जो प्रभावशाली होता है । लक्ष्यपूर्ति के साधनों को प्रभावशाली बनाए रखे बिना उनकी ओर किसी का झुकाव ही नहीं होता । दूसरों के मन को भावित करने की क्षमता रखने वाले ही संगठन को प्रभावशाली बना सकते Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना-पद्धति १८७ हैं। विद्या, कला, कौशल, वक्तृत्व आदि शक्तियों का विकास और पराक्रम सहज ही जन-मानस को प्रभावित कर देता है। संगठन के लिए ऐसे पारगामी व्यक्ति भी सदा अपेक्षित होते हैं। संगठन के लिए जो आठ आधार भगवान् ने बताए, उनमें से पहले चार वैयक्तिक हैं। उनसे व्यक्ति अपनी आत्मा की सहायता करता है और साथ-साथ संघ को भी लाभान्वित करता है । अन्तिम वार से व्यक्ति दूसरों की सहायता कर संघ को शक्तिशाली बनाता है। ____दर्शन-विहीन व्यक्ति के ज्ञान नहीं होता, ज्ञान के बिना चारित्र नहीं होता, चारित्र के बिना मोक्ष नहीं होता और मोक्ष के बिना निर्वाण नहीं होता। दर्शन-सम्पन्न व्यक्ति भव-परम्परा का अन्त पा लेता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवान् महावीर ने दर्शन को उतना ही महत्त्व दिया, जितना ज्ञान और चारित्र को। इसीलिए हम जैन दर्शन को केवल श्रद्धा (या भक्ति) योग का समर्थक नहीं कह सकते। (३) चारित्र की साधना के पांच अंग हैं१. सामायिक। ४. सूक्ष्मसंपराय। २. छेदोपस्थापन। ५. यथाख्यात।' ३. परिहारविशुद्धीय। चारित्र सम्पन्न व्यक्ति स्थिर बनता है। भगवान् महावीर ने चारित्र को ज्ञान और दर्शन का सार कहा है। जैन दर्शन केवल चारित्रकर्मयोग का समर्थक नहीं है। (४) तप की साधना के बारह अंग हैं१. अनशन। ७. प्रायश्चित्त। २. ऊनोदरी। ८. विनय । ३. भिक्षाचरी। ६. वैयावृत्य। ४. रस-परित्याग। १०. स्वाध्याय। ५. कायक्लेश। ११. ध्यान। ६. संलीनता (विविक्त-शयनासन) १२. व्युत्सर्ग । १. उत्तराध्ययन, २८१३० । २. वही, २६६० । ३. वही, २८॥३२,३३ । ४. वही, २६६१ । ५. वही, ३०८,३० । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ संस्कृति के दो प्रवाह जैन दर्शन अनेकान्तवादी है। इसीलिए वह कोरे तपो-योग का समर्थक नहीं है । वह श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र और तप में सामञ्जस्य स्थापित करता है और केवल श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र या तप को मान्यता देने वाले उसकी दृष्टि में अपूर्ण हैं। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. योग जैन योग की अनेक शाखाएं हैं- दर्शन-योग, ज्ञान-योग, चारित्रयोग, तपो-योग, स्वाध्याय - योग, ध्यान-योग, भावना-योग, स्थान- योग, गमन-योग और आतापना - योग । दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपो-योग की चर्चा साधना के प्रकरण में की जा चुकी है । स्वाध्याय-योग ज्ञान-योग का ही एक प्रकार है । स्वाध्याय और ध्यान-योग का समावेश तपो - योग में भी होता है । इस प्रकरण में हम भावना, स्थान, गमन और आतापना - इन योगों की चर्चा करेंगे | भावना-योग साधना के प्रारम्भ में प्राचीन जीवन का विघटन और नए जीवन का निर्माण करना होता है । इस प्रक्रिया में भावना का बहुत बड़ा उपयोग है । जिन चेष्टाओं व संकल्पों द्वारा मानसिक विचारों को भावित या वासित किया जाता है, उन्हें 'भावना' कहा जाता है ।' महर्षि पतञ्जलि ने भावना और जप में अभेद माना है ।" भावना के अनेक प्रकार हैं । ज्ञान, दर्शन, चारित्र, भक्ति आदि जिनजिन चेष्टाओं व अभ्यासों से मानस को भावित किया जाता है, वे सब भावनाएं हैं अर्थात् भावनाएं असंख्य हैं । फिर भी उनके कई वर्गीकरण मिलते हैं। पांच महाव्रत की पच्चीस भावनाएं हैं। धर्म और शुक्ल ध्यान की चार-चार अनुप्रेक्षाएं हैं ।" वे मिलित रूप में आठ भावनाएं हैं । ये दोनों आगमकालीन वर्गीकरण हैं । तत्त्वार्थ सूत्र में बारह भावनाओं का एक वर्गीकरण' और दूसरा वर्गीकरण चार भावनाओं का प्राप्त होता है ।" इन दोनों वर्गीकरणों की सोलह भावनाएं प्रकीर्ण रूप में आगमों में १. पासणाहचरियं, पृ० ४६० : भाविज्जइ वासिज्जइ जीए जीवो विसुद्धचेट्टाए सा भावणत्ति वुच्चइ | २. पातञ्जल योग, सूत्र १२८ : तज्जपस्तदर्थ भावनम् । ३. पासणाहचरियं पृ० ४६० । ४. उत्तराध्ययन, १३।१७ । ५. स्थानांग, ४६८,७२ । ६. तत्त्वार्थ, ६।७ । ७. वही, ७६ । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह मिलती हैं, किन्तु इनका वर्गीकृत रूप उत्तरकाल में ही हुआ। महाव्रतों की भावनाएं उनकी स्थिरता के लिए हैं। प्रत्येक महाव्रतों की पांच-पांच भावनाएं हैं। अहिंसा महाव्रत १. ईर्यासमिति । २. मन-परिज्ञा। ३. वचन-परिज्ञा। ४. आदान-निक्षेप समिति । ५. आलोकित-पान-भोजन । सत्य महाव्रत १. अनुवीचि-भाषण। २. क्रोध-प्रत्याख्यान । ३. लोभ-प्रत्याख्यान। ४. अभय (भय-प्रत्याख्यान)। अचोयं महावत १. अनुवीचि-मितावग्रह-याचन । ४. अवग्रह का बार-बार अवधारण । २. अनुज्ञापित पान-भोजन। ५. साधार्मिकों से अनुवीचि मिताव ३. अवग्रह का अवधारण। ग्रह याचन । ब्रह्मचर्य महाव्रत १. स्त्रीकथा-वर्जन। २. स्त्रियों की इन्द्रियों का अवलोकन-वर्जन । ३. पूर्वक्रीड़ित काम की स्मृति का वर्जन । ४. अतिमात्र और प्रणीत पान-भोजन का वर्जन । ५. स्त्री आदि से संसक्त शयनासन का वर्जन । अपरिग्रह महाव्रत १. मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्द में समभाव । २. मनोज्ञ और अमनोज्ञ रूप में समभाव । ३. मनोज्ञ और अमनोज्ञ गन्ध में समभाव । ४. मनोज्ञ और अमनोज्ञ रस में समभाव। ५. मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्श में समभाव । १. तत्त्वार्थ, ७।३ : तत्स्थर्यार्थभावनाः पंच पंच । २. आयारचूला, १५॥४४-७६ । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग १६१ धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं१. एकत्व, ३. अशरण और २. अनित्य, ... ४. संसार। शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं१. अनन्तवर्तिता-भव-पराम्परा अनन्त है। २. विपरिणाम-- वस्तु विविध रूपों में परिणत होती रहती है। ३. अशुभ- संसार अशुभ है। ४. अपाय- जितने आश्रव हैं, बन्धन के हेतु हैं, वे सब मूल दोष हैं।' इनमें से धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं बारह भावनाओं के वर्ग में संगृहीत हैं । बारह भावनाएं इस प्रकार हैं--- १. अनित्य ७. आश्रव २. अशरण ८. संवर ३. संसार ६. निर्जरा ४. एकत्व १०. लोक ५. अन्यत्व ११. बोधि-दुर्लभ ६. अशौच १२. धर्म चार भावनाएं१. मैत्री ३. कारुण्य २. प्रमोद ४. माध्यस्थ्य इन भावनाओं के अभ्यास से मोह की निवृत्ति होती है और सत्य की उपलब्धि होती है। भगवान् महावीर ने कहा-'जिसकी आत्मा भावनायोग से शुद्ध है, वह जल में नौका के समान है। वह तट को प्राप्त कर सब दुःखों से मुक्त हो जाता है।" आगमों में इनका प्रकीर्ण रूप इस प्रकार हैअनित्य भावना धीर पुरुष को मुहूर्त-भर भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। अवस्था १. स्थानांग, ४।६८ । २. वही, ४१७२ । ३. सूत्रकृताङ्गः, १११२५ : भावणाजोगसुद्धष्पा जले णावाब आहिया। नावा व तीरसंपन्ना सव्वदुक्खा तिउट्टइ ।। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ बीती जा रही है । यौवन चला आ रहा है । ' अशरण भावना सगे-सम्बन्धी तुम्हारे लिए त्राण नहीं हैं और तुम भी उनके लिए त्राण नहीं हो । ' संसार भावना इस जन्म-मरण के चक्कर में एक पल-भर भी सुख नहीं है । संस्कृति के दो प्रवाह एकत्व भावना आदमी अकेला जन्मता है और अकेला मरता है। उसकी संज्ञा, विज्ञान और वेदना भी व्यक्तिगत होती है ।" अन्यत्व भावना काम-भोग मुझसे भिन्न हैं और में उनसे भिन्न हूं। पदार्थ मुझसे भिन्न हैं और मैं उनसे भिन्न हूं ।' अशौच भावना यह शरीर अपवित्र है, अनेक रोगों का आलय है ।' आश्रव भावना आश्रव - कर्म - बन्धन के हेतु ऊपर भी हैं, नीचे भी हैं और मध्य में भी हैं । संवर और निर्जरा भावना नाले बन्द कर देने व अन्दर के जल को उलीच उलीच कर बाहर निकाल देने पर जैसे महातालाब सूख जाता है, वैसे ही आश्रव-द्वारों को बन्द कर देने और पूर्व संचित कर्मों को तपस्या के द्वारा निर्जीर्ण करने पर आत्मा पुद्गल-मुक्त हो जाती है ।" लोक भावना जो लोकदर्शी है, वह लोक के अधोभाग को भी जानता है, ऊर्ध्वभाग को भी जानता है और तिर्यग्-भाग को भी जानता है ।' १. ( क ) आयारो, २।४,५ । (ख) उत्तराध्ययन, १३।३१ । २. (क) उत्तराध्ययन, ६ । ३ । (ख) आयारो, २८ । ३. उत्तराध्ययन, १६७४ । ४. वही, १८१४-१५ । ५. सूत्रकृतांग, २।२।३४ । ६. उत्तराध्ययन, १०१२७ । ७. आयारो, ५।११८ । ८. उत्तराध्ययन, ३०१५-६ । ६. आयारो, २।११५ । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग १९३ बोधि-दुर्लभ भावना जागो ! क्यों नहीं जाग रहे हो ? बोधि बहुत दुर्लभ है।' धर्म भावना धर्म जीवन का पाथेय है। यात्री के पास पाथेय होता है तो उसकी यात्रा सुख से सम्पन्न हो जाती है। इसी प्रकार जिसके पास धर्म का पाथेय होता है, उसकी जीवन यात्राएं सुख से सम्पन्न होती हैं। मंत्री भावना सब जीव मेरे मित्र हैं।' प्रमोद भावना तुम्हारा आर्जव आश्चर्यकारी है और आश्चर्यकारी है तुम्हारा मार्दव । उत्तम है तुम्हारी क्षमा और उत्तम है तुम्हारी मुक्ति । कारुण्य भावना बन्धन से मुक्त करने का प्रयत्न और चिन्तन । माध्यस्थ्य भावना समझाने-बुझाने पर भी सामने वाला व्यक्ति दोष का त्याग न करे, उस स्थिति में उत्तेजित न होना, किन्तु योग्यता की विचित्रता का चिन्तन करना। भावना-योग के द्वारा वांछनीय संस्कारों का निर्माण कर अवांछनीय संस्कारों का उन्मूलन किया जा सकता है। भावना-योग से विशुद्ध ध्यान का क्रम, जो विच्छिन्न होता है, वह पुनः संध जाता है। स्थानयोग पतंजलि के अष्टाङ्ग-योग में तीसरा अङ्ग आसन है । जैन योग में १. सूत्रकृताङ्ग, ११२।१। २. उत्तराध्ययन, १६।१८-२१ । ३. वही, ६।२। ४. वही, ६।५७ । ५. वही, १३।१६। ६. वही, १३३२३ । ७. योगशास्त्र, ४११२२ आत्मानं भावयन्नाभिर्भावनाभिर्महामतिः । त्रुटितामपि संधत्ते, विशुद्धध्यानसन्ततिम् ॥ . Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ संस्कृति के दो प्रवाह आसन के अर्थ में 'स्थान' शब्द का प्रयोग मिलता है। आसन का अर्थ है 'बैठना'। स्थान का अर्थ है 'गति की निवृत्ति'। स्थिरता आसन का महत्त्वपूर्ण स्वरूप है। वह खड़े रह कर, बैठकर, और लेटकर-तीनों प्रकार से की जा सकती है। इस दृष्टि से आसन की अपेक्षा 'स्थान' शब्द अधिक व्यापक है। स्थानयोग के तीन प्रकार हैं-(१) ऊर्ध्व-स्थान, (२) निषीदनस्थान और (३) शयन-स्थान ।' ऊर्ध्व स्थानयोग खड़े रह कर किए जाने वाले स्थानों को 'उर्ध्व स्थानयोग' कहा जाता है। आचार्य शिवकोटि के अनुसार ऊर्ध्वस्थान के सात प्रकार हैं१. साधारण--प्रमाजित खम्भे आदि के सहारे निश्चल होकर खड़े रहना। २. सविचार-जहां स्थित हो, वहां से दूसरे स्थान में जाकर एक प्रहर, एक दिन आदि निश्चित-काल तक निश्चल होकर खड़े रहना। ३. सनिरुद्ध-जहां स्थित हो, वहीं निश्चल होकर खड़े रहना। ४. व्युत्सर्ग:-कायोत्सर्ग । ५. समपाद-पैरों को समणि में स्थापित कर (सटा कर) खड़े रहना। ६. एकपाद--एक पैर पर खड़े रहना। १. ओघनियुक्तिभाष्य, गाथा १५२ : उड्ढनिसीयतुयट्टणठाणं तिविहं तु होइ नायव्वं । २. मूलाराधना, ३।२२३ : साधारणं सविचारं सणिरुद्ध तहेव वोसट् ठं । समपादमेगपादं, गिद्धोलीणं च ठाणाणि । ३. मूलाराधना, ३।२२३, विजयोदया, वृत्ति : साधारणं-प्रमृष्टस्तंभादिकमुपाश्रित्य स्थानम् । ४. वही, ३।२२३, विजयोदया, वृत्ति : सविचारं---ससंक्रमं पूर्वस्थानात् स्थानान्तरे गत्वा प्रहरदिवसादि परिच्छेदेनावस्थानमित्यर्थः ।। ५. वही, २।२२३, विजयोदया, वृत्ति : सणिरुद्ध निश्चलमवस्थानम् ।। ६. वही, ३।२२३, विजयोदया, वृत्ति : वोस?--कायोत्सर्गम् । ७. वही, ३।२२३, विजयोदया, वृत्ति : समपादो-समौ पादौ कृत्वा स्थानम् । ८. वही, ३।२२३, विजयोदया, वृत्ति : एकपादं-एकेन पादेन अवस्थानम् । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग ७. १६५ गृद्धोडीन -- उड़ते हुए गीध के पंखों की भांति बाहों को फैला कर खड़े रहना ।' निषीदन स्थानयोग बैठ कर किए जाने वाले स्थानों को 'निषीदन स्थानयोग' कहा जाता है । उसके अनेक प्रकार हैं । स्थानांग में पांच प्रकार की निषद्याएं बतलाई गई हैं' - १. उत्कटुका--उकडू आसन - पुतों को ऊंचा रख कर पैरों के बल पर बैठना । २. गोदोहिका -- गाय को दुहते समय बैठने का आसन । एड़ियों को उठा कर पंजे के बल पर बैठना । ३. समपादपुता - पैरों और पुतों को सटा कर भूमि पर बैठना । ४. पर्यङ्का -- पैरों को मोड़ पिंडलियों के ऊपर जांघों को रख कर बैठना और एक हस्ततल पर दूसरा हस्ततल जमा नाभि के पास रखना । ५. अर्द्ध-पर्यङ्का-एक पैर को मोड़, पिंडली के ऊपर जांघ को रखना और दूसरे पैर के पंजों को भूमि पर टिका कर घुटने को ऊपर की ओर रखना । बृहत्कल्पभाष्य' में निषद्या के पांच प्रकार कुछ परिवर्तन के साथ १. मूलाराधना, ३।२२३, विजयोदया, वृत्ति : गिद्धोली -गृद्धस्योर्ध्वगमनमिव बाहू प्रसार्यावस्थानम् । २. स्थानांग, ५।४२ : पंच निसिज्जाओ प० तं०-उक्कुडुती गोदोहिता समपादपुता पलितंका अद्धपलितंका | ३. [क] स्थानांग, ५७४२ वृत्ति: आसनालग्नपुतः पादाभ्यामवस्थित उत्कुटुकस्तस्य या सा उत्कुटका [ख] मूलाराधना, ३।२२४, वृत्ति । ४. स्थानांग, ५।४२ वृत्ति : गोर्दोहनं गोदोहिका तद्वद्या याऽसौ गोदोहिका । ५. मूलाराधना, ३।२२४, वृत्ति : गोदोहगा - गोर्दोहे आसनमिव पाष्णिद्वयमुत्क्षिप्याग्रपादाभ्यामासनम् । ६. स्थानांग, ५०४२, वृत्ति: समौ-समतया भूलग्नौ पादी च पुतौ च यस्यां सा समपादपुता । ७. बृहत्कल्प भाष्य, गाथा ५६५३, वृत्ति: निषद्या नाम उपवेशनविशेषाः ताः पंचविधा:, तद्यथा— समपादपुता गोनिषधिका हस्तिशुण्डिका पर्यङ्काऽर्धपर्यङ्का चेति । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ उपलब्ध होते हैं १. समपादपुता । २. गोनिषधिका - गाय की तरह बैठना ।' ३. हस्तिशुण्डिका - पुतों के बल पर बैठ कर एक पैर को ऊंचा रखना । ४. पर्यङ्का । ५. अर्द्ध-पर्यङ्का । इनमें उत्कटिका और गोदोहिका नहीं हैं । उनके स्थान पर हस्तिfuser और गोनिषधिका हैं । यह परिवर्तन परम्परा भेद का सूचक है । स्थानांग, औपपातिक, बृहत्कल्प. दशाश्रुतस्कंध आदि आगमों में वीरासन, दण्डायत, आम्रकुब्जिका तथा उत्तरवर्ती ग्रन्थों में वज्रासन, सुखासन, पद्मासन, भद्रासन, शवासन, समपद, मकरमुख, हस्तिशुण्डि गोनिषद्या, कुक्कुटासन आदि आसन भी उपलब्ध होते हैं । " १. वीरासन - कुर्सी पर बैठने से शरीर की जो स्थिति होती है, उस स्थिति में कुर्सी के बिना स्थित रहना । १. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा ५६५३, वृत्ति : यस्यां तु गोरिवोपवेशनं सा गोनिषधिका । २. वही, गाथा ५६५३, वृत्ति : यत्र पुताभ्यामुपविश्य एकं पादमुत्पाटयति सा हस्तिfuser | ३. (क) मूलाराधना, ३।३२४-२२५ : समपलियं कणिसेज्जा, गोदोहिया य उक्कुडिया | मगरमुह हत्थिसुंडी, गोणणिसेज्जद्धपलियंका ॥ वीरासणं च दंडा य, ****** | (ख) ज्ञानार्णव, २८।१० : संस्कृति के दो प्रवाह **** पर्यङ्कमर्द्धपर्यङ्क, वज्रवीरासनं तथा । सुखारविन्द पूर्वे च कायोत्सर्गश्च सम्मतः ॥ (ग) योगशास्त्र, ४।१२४ : वीर-वाज-भद्र-दण्डासनानि च । उत्कटिका गोदोहिका कायोत्सर्गस्तथासनम् ॥ (घ) अमितगति श्रावकाचार, ८।४५-४८ । (ङ) मूलाराधना, अमितगति, ३।२२३-२२४ : मस्फिगं समस्फिक्कं कृत्यं कुक्कुटकासनम् । बहुधेत्यासन साधोः कायक्लेश विधायिनः ॥ कोदण्डलगडादण्ड, कर्त्तव्या बहुधा शय्या, शवशय्या पुरस्सरम् । शरीरक्लेशकारिणा ॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९७ २. दण्डायत-दण्ड की भांति लम्बा हो कर पैर पसार कर बैठना। ३. आम्रकुब्जिका-आम्र-फल की भांति टेढ़ा होकर बैठना।' ४. वज्रासन-बाएं पैर को दाईं जांघ पर और दाएं पैर को बाई जांघ पर रखकर हाथों को वज्राकार रूप में पीछे ले जाकर पैरों के अंगूठे पकड़ना। यह बद्धपद्मासन जैसी स्थिति है। ५. सुखासन-बाएं पैर को उसके नीचे और दाएं पैर को जंघा के ऊपर रख कर बैठना।' ६. पद्मासन-दाएं पैर को बाई जंघा पर और बाएं पैर को दाई जंघा पर रख कर बैठना। ७. भद्रासन-वृषण के आगे दोनों पाद-तलों को संपुट कर (सीवनी के बाएं भाग में बाएं पैर की एड़ी रख) दोनों हाथों को कर्म मुद्रा के आकार में स्थापित कर बैठना। ८. गवासन-गाय की तरह बैठना । गोनिषद्या और गवासन एक ही प्रतीत होता है । घेरण्ड संहिता में जो गो-मुखासन का उल्लेख है, वह इससे भिन्न है। अमितगति के अनुसार साध्वियां इसी आसन में बैठ कर साधुओं को वंदन किया करती थीं। ६. समपद-जंघा और कटि-भाग को समरेखा में रख कर बैठना।' १०. मकरमुख-दोनों पैरों को मगर-मुंह की आकृति में अवस्थित कर बैठना। घेरण्ड संहिता में मकरासन का उल्लेख है। वह औंधे मुख सोकर छाती को भूमि पर टिका १. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ५८४, वृत्ति : आम्रकुब्जो वा आम्रफलवद् वक्राकारेणाव स्थितः । २. योगशास्त्र, ४।१२७ । ३. यशस्तिलक, ३६ । ४. योगशस्त्र, ४।१३० : सम्पुटीकृत्य. मुष्काने, तलपादौ तथोपरि। पाणिकच्छपिकां कुर्यात्, यत्र भद्रासनं तु तत् ॥ ५. अमितगति श्रावकाचार, ८।४८ : गवासनं जिनरुक्तमार्याणां यतिवंदने । ६. मूलाराधना, ३१७२४, विजयोदया, वृत्ति : समपदं-स्फिपिडसमकरणेनासनम् । ७. वही, २।२२४, विजयोदया, वृत्ति : मकरस्य मुखमिव कृत्वा पादाववस्थानम् । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ संस्कृति के दो प्रवाह दोनों हाथों को फैला उनसे सिर को पकड़ कर किया जाता है। ११. हस्तिशुण्डि---एक पैर को संकुचित कर दूसरे पैर को उस पर फैला कर, हाथी की सुंड के आकार में स्थापित कर बैठना।' १२. गोनिषद्या-दोनों जंघाओं को सिकोड़ कर गाय की तरह बैठना। १३. कुक्कुटासन-पद्मासन कर दोनों हाथों को दोनों ओर जांघ और पिंडलियों के बीच डाल दोनों पंजों के बल उत्थित पद्मासन की मुद्रा में होना। यन स्थानयोग सो कर किए जाने वाले स्थानों को 'शयन स्थानयोग' कहा जाता है। वे इस प्रकार हैं (१) लगण्डशयन-वक्र-काष्ठ की भांति एड़ियों और सिर को भूमि से सटा कर शेष शरीर को ऊपर उठा कर सोना । (२) उत्तानशयन-सीधा लेटना। शवासन में हाथ-पांव अलग हते हैं, परन्तु इसमें दोनों पांव मिले रह कर दोनों हाथ बगल में रहते हैं। (३) अधोमुखशयन--औंधा लेटना । (४) एकपार्वशयन-दाई और बाईं करवट लेटना। एक पैर को संकुचित कर दूसरे पैर को उसके ऊपर से ले जाकर फैलाना और दोनों हाथों को लम्बा कर सिर की ओर फैलाना। (५) मृतकशयन---शवासन । (६) ऊर्ध्वशयन-~ऊंचा होकर सोना। (७) धनुरासन---पेट के बल सीधा लेट, दोनों पैरों को ऊपर की गोर उठा, दोनों हाथों से उन्हें पकड़ लेना। १. (क) मूलाराधना, ३।२५४, विजयोदया, वृत्ति : हस्तिसुंडी--हस्तिहस्तप्रसारण मिव एक पादं प्रसार्यासनम् ।। (ख) मूलाराधना दर्पण : हस्तिसुंडी-हस्तिहस्तप्रसारणमिव एक पादं संकोच्य तदुपरि द्वितीयं पादं प्रसार्यासनम् । २. मूलाराधना, ३।२२५ : ....... . 'उड्ढमाईय लगंडसायीय । उत्ताणोमच्छिय एगपाससाई य मडयसाई य ।। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग पतञ्जलि ने आसन की व्याख्या की है, उल्लेख नहीं किया है । भाष्यकार व्यास ने है-' १३ १. पद्मासन, २. भद्रासन, ३. वीरासन, ४. स्वस्तिकासन, C. हस्तिनिषदन, १०. ऊष्ट्रनिषदन, ५. दण्डासन, आसनों के अर्थ मेद ६. सोपाश्रय, ७. पर्यङ्क, ८. क्रौंचनिषदन, कुछ आसनों के अर्थ समान हैं तो कुछ एक आसनों के अर्थ समान नहीं हैं । पर्यङ्क, अर्ध - पर्यङ्क, वीरासन, उत्कटिका, हस्तिशुण्डिका, दण्डायत - इन आसनों के अर्थ विभिन्न प्रकार से उपलब्ध होते हैं। अभयदेवसूरि ने पर्यङ्क और अर्द्ध-पर्यङ्क आसन का अर्थ क्रमशः - 'पद्मासन' और अर्द्ध- पद्मासन किया है ।" आचार्य हेमचन्द्र ने पद्मासन को पर्यङ्कासन से भिन्न माना है ।" आचार्य हेमचन्द्र और अमितगति के अनुसार पर्यङ्कासन का अर्थ है -पैरों को मोड़, पिंडलियों के ऊपर जांघों को रख कर बैठना और हस्ततल पर दूसरा हस्ततल जमा नाभि के पास रखना । यह मुद्रा वज्रासन जैसी है । शङ्कराचार्य ने पर्यङ्कासन की अवस्थिति इससे भिन्न मानी है । उनके अनुसार घुटनों को मोड़, हाथों को फैला कर सोना 'पर्यङ्कासन' है । ' यह मुद्रा सुप्तवज्रासन जैसी है । सुप्तवज्रासन को पर्यङ्कासन माना जाए १. पातञ्जलयोगसूत्र, २०४६, भाष्य । २. स्थानांग, ५।४५, वृत्ति: पर्यङ्का – जिन प्रतिमानामिव या पद्मासनमिति रूढा, अर्द्ध पर्यङ्का - ऊरावेकपादनिवेशनलक्षणेति । ३. योगशास्त्र, ४।१२५, १२६ । ४. (क) योगशास्त्र, ४।१२५ : स्याज्जंघयोरधोभागे, पादोपरि कृते सति । पर्यङ्को नाभिगोत्तान दक्षिणोत्तर पाणिकः ॥ ख अमितगति श्रावकाचार, ८।४६ : बुधैरुपर्यधोभागे, समस्तयोः कृते ज्ञेयं, २1४७, ५. पातञ्जलयोगसूत्र, पर्यङ्कासनम् । १६६ किन्तु उसके प्रकारों का आसनों का उल्लेख किया ११. समसंस्थान, १२. स्थिरसुख और १३. यथासुख । घयोरुभयोरपि । पर्यङ्कासनमासनम् ॥ भाष्य विवरण : आजानुप्रसारितबाहुशयनं Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० संस्कृति के दो प्रवाह तो वज्रासन को अर्ध-पर्यङ्कासन माना जा सकता है। किन्तु जैन आचार्यों का मत इससे भिन्न है। वे वज्रासन की मुद्रा को पर्यङ्कासन और अर्धवज्रासन (एक घुटने को ऊपर रख कर बैठने की मुद्रा) को अर्ध-पर्यङ्कासन मानते हैं। वीरासन शङ्कराचार्य के अनुसार किसी एक पैर को सिकोड़ घुटने को ऊपर की ओर रखकर दूसरे पैर के घुटने को भूमि से सटा कर बैठना वीरासन है।' बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार कुर्सी पर बैठने से शरीर की जो स्थिति होती है, उस स्थिति में कुर्सी के बिना रहना वीरासन है। ... अपराजितसूरि (विक्रम की १२ वीं शताब्दी) ने वीरासन का अर्थ 'दोनों जंघाओं में अन्तर डाल कर उन्हें फैला कर बैठना' किया है। ___ आचार्य हेमचन्द्र ने बृहत्कल्प भाष्य के अर्थ को मतान्तर के रूप में स्वीकृत किया है। उनका अपना मत यह है-बाएं पैर को दाई जंघा पर और दाएं पैर को बाई जंघा पर रख कर बैठना वीरासन है। उनके अनुसार इस मुद्रा को कुछ योगाचार्य पद्मासन भी मानते हैं। पं० आशाधर १. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा ५६५३, वृत्ति : अर्धपर्यङ्का यस्यामेकं जानुमुत्पाटयति । २. पातञ्जलयोगसूत्र, २।४७, भाष्यविवरण : कुंचितान्यतरपादमवनिविन्यस्ता. परजानुकं वीरासनम् ।। ३. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा ५६५४, वृत्ति: 'वीरासणं तु सीहासणे व जह मुक्कजण्णुकणिविट्ठो'-वृत्ति-वीरासनं नाम यथा सिंहासने उपविष्टो भून्यस्तपाद आस्ते तथा तस्यापनयने कृतेऽपि सिंहासन इव निविष्टो मुक्तजानुक इव निरालम्बनेऽपि यद् आस्ते । दुष्करं चैतद्, अतएव वीरस्य-साहसिकस्यासनं विरासनमित्युच्यते । ४. मूलाराधना, ३।२२५, विजयोदया वृत्ति : वीरासणं-जंघे विप्रकृष्टदेशे कृत्वासनम् । ५. योगशास्त्र, ४।१२८ : सिंहासनाधिरूढस्यासनापनयने सति । तथैवाव स्थिति तामन्ये वीरासनं विदुः ॥ ६. वही, ४।१२६ : वामोऽह्रिर्द क्षिणोरूध्वं, वामोरूपरि दक्षिणः । क्रियते यत्र तद्वीरोचितं वीरासनं स्मृतम् ।। ७. वही, ४११२६ वृत्ति : पद्मासनमित्येके । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग २०१ जी (वि० सं० १३ वीं शताब्दी) का अर्थ आचार्य हेमचन्द्र का समर्थन करता है ।' आचार्य अमितगति का मत यही है।' पद्मासन ___ आगमोक्त आसनों में पद्मासन का उल्लेख नहीं है। पहले बताया जा चुका है कि अभयदेव सूरि पर्यङ्कासन का अर्थ पद्मासन करते हैं। आगम-काल में पद्मासन के लिए 'पर्यङ्कासन' शब्द प्रचलित रहा हो तो जैन परम्परा में पद्मासन का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान माना जा सकता है। इसका उल्लेख ज्ञानार्णव', अमितगति श्रावकाचार, योगशास्त्र आदि ग्रन्थों में मिलता है। अमितगति के अनुसार एक जंघा के साथ दूसरी जंघा का समभाग में जो आश्लेष होता है, वह पद्मासन है। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार जंघा के मध्य भाग में दूसरी जंघा का श्लेष करना पद्मासन है। सोमदेव सूरि के अनुसार जिसमे दोनों पैर दोनों घुटनों से नीचे दोनों पिण्डलियों पर रख कर बैठा जाता है, उसे पद्मासन कहते हैं।' शङ्कराचार्य ने पद्मासन का अर्थ किया है.---'बाएं पैर को दाईं जंघा पर और दाएं पैर को बाईं जंघा पर रख कर बैठना।" १. मूलाराधना दर्पण, ३।२२५ : वीरासणं-ऊरूद्वयोपरि पादद्वयविन्यासः । २. अमितगति श्रावकाचार, ८।४७ : ऊर्वोरुपरि निक्षेपे, पादयोविहिते सति । वीरासनं चिरं कत्तं, शक्यं वीरैर्न कातरैः ।। ३. ज्ञानार्णव, २८।१०। ४. अमितगति, श्रावकाचार, ८।४५ : जंघाया जंघया श्लेषे, समभागे प्रकीर्तितम् । पद्मासने सुखाधायि, सुसाध्यं सकलैजनैः ।। ५. योगशास्त्र, ४।१२६ : जंघाया मध्यभागे तु, संश्लेषो यत्र जंघया। पद्मासनमिति प्रोक्तं, तदासनविचक्षणः ।। ६. उपासकाध्ययन, ३६७३२ : __ संन्यस्ताभ्यामधोङिघ्रभ्यामूर्वोरुपरि युक्तितः । भवेच्च समगुल्फाभ्यां पद्मवीरसुखासनम् ॥ ७. पातञ्जल योगसूत्र, २।४६, विवरण : तत्र पद्मासनं नाम-सव्यं पादमुपसंहृत्य दक्षिणोपरि निदधीत, तथैव दक्षिणं सव्यस्योपरिष्टात् । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ संस्कृति के दो प्रवाह गोरक्षसंहिता के अनुसार बाएं ऊरु पर दायां पैर और दाएं ऊरु पर बायां पैर रखकर दोनों हाथों को पीछे ले जा, दाएं हाथ से दाएं पैर का और बाएं हाथ से बाएं पैर का अंगूठा पकड़ कर बैठना पद्मासन है। यह बद्ध-पद्मासन का लक्षण है । मुक्त पद्मासन में दोनों हाथों को पीछे ले जाकर अंगूठे नहीं पकड़े जाते। - सोमदेव सूरि ने पद्मासन, वीरासन और सुखासन में जो अन्तर किया है, वह बहुत उपयुक्त लगता है। पद्मासन का अर्थ पहले बताया जा चका है। जिसमें दोनों पैर दोनों घुटनों के ऊपर के हिस्से पर रख कर बैठा जाता है अर्थात दाईं ऊरु के ऊपर बायां पैर और बाईं ऊरु के ऊपर दायां पैर रखा जाता है, उसे 'वीरासन' कहते हैं। जिसमें पैरों की गांठ बराबर रहती है, उसे 'सुखासन' कहते हैं।' दण्डायत बृहत्कल्पभाष्य वृत्ति के अनुसार इसका अर्थ है 'दण्ड की भांति लम्बा होकर पैर पसार कर बैठना।" आचार्य हेमचन्द्र और शङ्कर के अभिमत में यह बैठ कर किया जाने वाला आसन है। उनके अनुसार यह आसन बैठकर, पैरों को फैला कर, टखनों, अंगूठों और घुटनों को सटा कर किया जाता है। ___किन्तु अपराजित सूरि ने उसे 'शयनयोग' माना है। उनके अनुसार १. गोरक्षसंहिता : वामोरूपरि दक्षिणं हि चरणं संस्थाप्य वामं तथाप्यन्योरूपरि तस्य बन्धनविधौ धृत्वा कराभ्यां दृढम् । अंगुष्ठं हृदये निधाय चिबुकं नासाग्रमालोकयेदेतद् व्याधिविनाशकारि यमिनां पद्मासनं प्रोच्यते ॥ २. उपसकाध्ययन, ३६१७३२ । ३. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा ५९५४, वृत्ति : दण्डस्येवायतं.-.--पादप्रसारणेन दीर्घ .यद आसनं तद् दण्डासनम् । ४. (क) योगशास्त्र, ४।१३१ : श्लिष्टांगुली श्लिष्टगुल्फो भूश्लिष्टोरु प्रसारयेत् । यत्रोपविश्य पादौ तद्दण्डासनमुदीरितम् ॥ (ख) पातज्जलयोगसूत्र, २।४६, भाष्य-विवरण : समगुल्फो समांगुष्ठौ प्रसारयन् समजानू पादौ दण्डवद्येनोपविशेत् तत् दण्डासनम् । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग २०३ वह दण्ड की भांति शरीर को लम्बा कर, सीधा सोकर किया जाता है । ' वर्तमान में करणीय आसन जैन परम्परा में कठोर आसन और सुखासन - दोनों प्रकार के आसन प्रचलित थे, किन्तु विक्रम की सहस्राब्दी के अन्तिम चरण में कुछ आचार्यों की यह धारणा बन गई कि वर्तमानकाल में शारीरिक शक्ति की दुर्बलता के कारण कायोत्सर्ग और पर्यङ्क—ये दो आसन ही प्रशस्त हैं । " आसन तीन प्रयोजनों से किए जाने थे - ( १ ) इंद्रिय - निग्रह के लिए, (२) विशिष्ट विशुद्धि के लिए और ( ३ ) ध्यान के लिए । विशिष्ट विशुद्धि के लिए तथा किंचित् मात्रा में इंद्रिय - निग्रह के लिए किए जाने वाले आसन उग्र होते इसलिए उन्हें काय- क्लेश तप की कोटि में रखा गया । ध्यान के लिए कठोर आसन का विधान नहीं है। जिस आसन से मन स्थिर हो, वही आसन विहित है ।" जिनसेन ने ध्यान की दृष्टि से शरीर की विषम स्थिति को 'अनुपयुक्त बतलाया । उन्होंने लिखा- 'विषम आसनों से शरीर का निग्रह होता है, उससे मानसिक पीड़ा और विमनस्कता होती है । विमनस्कता की स्थिति में ध्यान नहीं हो सकता । अतः ध्यानकाल में सुखासन ही इष्ट है । कायोत्सर्ग और पर्यङ्क – ये दो आसन सुखासन हैं, शेष सब विषम आसन हैं । इन दोनों में भी मुख्यतः पर्यङ्क ही सुखासन है ।" १. मूलाराधना, ३।२२५, विजयोदया वृत्ति : दण्डवदायतं शरीरं कृत्वा शयनम् । २. ज्ञानार्णव, २८।१२ । कायोत्सर्गश्च पर्यङ्कः, प्रशस्तं कैश्चिदीरितम् । देहिनां वीर्यवैकल्यात्, कालदोषेण सम्प्रति ॥ ३. ( क ) ज्ञानार्णव, २८।११ : येन येन सुखासीना, विदध्युर्निश्चलं मनः । तत्तदेव विधेयं स्यान्मुनिभिर्बन्धुरासनम् ।। (ख) योगशास्त्र, ४ । १३४ : जायते येन येनेह विहितेन स्थिरं मनः । तत् तदेव विधातव्यमासनं ध्यानमासनम् ।। ४. महापुराण २११७०-७२ : विसंस्थुलासनस्थस्य, ध्रुवं गात्रस्य निग्रहः । तन्निग्रहान्मनः पीडा, ततश्च विमनस्कता ॥ वैमनस्ये च किं ध्यायेत्, तस्मादिष्टं सुखासनम् । कायोत्सर्गश्च पर्यकस्ततोऽन्यद्द्द्विषमासनम् ॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ संस्कृति के दो प्रवाह जिनसेन ने ध्यान के लिए सुखासन की उपयुक्तता स्वीकृत की, किंतु कठोर आसनों को सर्वथा अनुपयुक्त नहीं माना । कायिक दुःखों की तितिक्षा, सुखासक्ति की हानि और धर्म-प्रभावना के लिए उन्होंने कायक्लेश का समर्थन किया। ___ शुभचन्द्र और हेमचन्द्र ने ध्यान के लिए किसी आसन का विधान नहीं किया। उसे ध्यान करने वाले की इच्छा पर ही छोड़ दिया। अमितगति ने पद्मासन, पर्यङ्कासन, वीरासन, उत्कटुकासन और गवासन-- सामान्यतः इतने ही आसन मुमुक्षु के लिए उपयोगी बतलाए। ध्यान के लिए सुखासन होना चाहिए, इस विषय में सभी आचार्य एकमत हैं, किन्तु कठोर आसनों के विषय में एकमत नहीं हैं । 'कालदोषेण सम्प्रति'---इस विचारधारा ने जैसे साधना के अन्य अनेक क्षेत्रों को प्रभावित किया, वैसे ही आसन भी उससे प्रभावित हुए और उनको करने की पद्धति जैन परम्परा में विलुप्त-सी हो गई। गमनयोग यह स्थानयोग का प्रतिपक्षी है। शक्ति-संचय और आलस्य-विजय के द्वारा इस योग का प्रतिपादन हुआ है। इसके छह प्रकार हैं १. अनुसूर्यगमन- तेज धूप में पूर्व से पश्चिम की ओर जाना। २. प्रतिसूर्यगमन- पश्चिम से पूर्व की ओर जाना। ३. ऊर्ध्वगमन- सूर्य मध्य में हो, उस समय जाना । ४. तिर्यकसूर्यगमन- सूर्य तिरछा हो, उस समय जाना। तदवस्थाद्वयस्यैव, प्राधान्यं ध्यायतो यतेः । प्रायस्तत्रापि पल्यङ्क, आमनन्ति सुखासनम् ।। १. वही, २०६१ : कायासुखतितिक्षार्थ, सुखासक्तेश्च हानये । धर्मप्रभावनार्थञ्च, कायक्लेशमुपेयुषे ।। २. अमितगति श्रावकाचार, ८१४६ । विनयासक्तचित्तानां, कृतिकर्मविधायिनाम् । न कार्यव्यतिरेकेण, परमासनमिष्यते ।। ३. मूलाराधना, ३।२२४ : अणुसूरी पडिसूरी य, उड्ढसूरी य तिरियसूरी य । उभागेण य गमणं, पडिआगमणं च गंतूणं ।। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग २०५ ५. अन्यग्रामगमन- जहां अवस्थित हो, वहां से दूसरे गांव में भिक्षार्थ जाना। ६. प्रत्यागमन- दूसरे गांव में जाकर वापस आना। आतापना-योग आतापना का अर्थ है 'सूर्य का ताप सहना'। यह सूर्य की रश्मियों या गर्मी को शरीर में संचित कर गुप्त शक्तियों को जगाने की प्रक्रिया है, इसलिए यह योग है। आतापना-योग तीन प्रकार का है-- १. उत्कृष्ट-- गर्म शिला आदि पर लेट कर ताप सहना । २. मध्यम- बैठ कर ताप सहना । ३. जघन्य- खड़े रह कर ताप सहना । उत्कृष्ट आतापना के तीन प्रकार हैं--- १. उत्कृष्ट-उत्कृष्ट-छाती के बल लेट कर ताप सहना । २. उत्कृष्ट-मध्यम- दाएं या बाएं पार्श्व से लेट कर ताप सहना । ३. उत्कृष्ट-जघन्य-पीठ के बल लेट कर ताप सहना । मध्यम आतापना के तीन प्रकार हैं१. मध्यम-उत्कृष्ट- पर्यङ्कासन में बैठ कर ताप सहना । २. मध्यम-मध्यम- अर्ध-पर्यङ्कासन में बैठ कर ताप सहना । ३. मध्यम-जघन्य- उकडू आसन में बैठ कर ताप सहना । जघन्य आतापना के तीन प्रकार हैं - १. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा ५९४५ : आयावणा य तिविहा, उक्कोसा मज्झिमा जहण्णा य । उक्कोसा उ निवण्णा, निसण्ण मज्झाट्ठिय जहण्णा ॥ २. वही, गाथा ५६४६ : तिविहा होइ निवण्णा, ओमत्थिय पास तइयमुत्ताणा । . उक्कोसुक्कोसा उक्कोसमज्झिमा उक्कोसगजहण्णा ।। ३. वही, गाथा ५६४७,४८ : मज्झुक्कोसा दुहओ वि मज्झिमा मज्झिमा जहण्णा य । अहमुक्कोसाऽहममज्झिमा य अहमाहमाचरिमा । पलियंक अद्धक्कुडुग भो य तिविहा उ मज्झिमा होइ । तइया उ हत्थिसुंडेगपाद समपादिगा चेव ॥ ४. वही, गाथा ५९४७-४८ । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ संस्कृति के दो प्रवाह १. जघन्य-उत्कृष्ट- हस्तिशुण्डिका ।' एक पैर को पसार कर ताप सहना। २. जघन्य-मध्यम---एकपादिका। एक पैर के बल पर खड़े रह कर ताप सहना। ३. जघन्य-जघन्य-समपादिका। दोनों पैरों को समश्रेणि में रख, खड़े-खड़े ताप सहना । तपोयोग तप के दो भेद हैं---बाह्य और आभ्यन्तर । दोनों के छह-छह प्रकार हैं। बाह्य तप के छह प्रकार ये हैं(१) अनशन यह बाह्य तप का पहला प्रकार है। इसके दो भेद हैं--- १. इत्वरिक---अल्पकालिक । २. यावत्कथित-मरणकालभावी। मुनि के लिए आहार करना और न करना-दोनों सहेतुक हैं।' जब तक अपना शरीर ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना में सहायक रहे, उसके द्वारा नए-नए विकास उपलब्ध हों तब तक वह शरीर का पोषण करे। जब यह लगे कि इस शरीर के द्वारा कोई विशेष उपलब्धि नहीं हो रही हैज्ञान, दर्शन और चारित्र का नया उन्मेष नहीं आ रहा है, तब शरीर की उपेक्षा कर दे-आहार का परित्याग कर दे।' यह सिद्धान्त आमरणभावी अनशन के लिए है। अल्पकालिक अनशन का सिद्धान्त यह है कि इन्द्रियविजय या चित्त-शुद्धि के लिए जब जैसी आवश्यकता हो, वैसा अनशन करे। इसकी सामान्य मर्यादा यह है कि इन्द्रिय और योग की हानि न हो तथा मन अमंगल चिन्तन न करे, तब तक तपस्या की जाए। वह आत्म-शुद्धि १. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा ५६४८, वृत्ति : पुताभ्यामुपविष्टस्येकपादोत्पाटनरूपा। बृहत्कल्पभाष्य, ५९५३ की वृत्ति में हस्तिशुण्डिका को निषद्या का एक प्रकार माना है और जघन्य आतापना में खड़ा रहने का विधान है। वस्तुतः इस आसन में बैठने और खड़ा रहने का मिश्रण है। २. उत्तराध्ययन, २६॥३१-३४ । ३. वही, ४१७ : लाभान्तरे जीविय वहइत्ता, पच्छा परिन्नाय मलावधंसी। ४. मरणसमाधि प्रकीर्णक, १३४ : सो हु तवो कायव्वो, जेण मणोऽमंगलं न चितेइ । जेण न इंदियाहाणी, जेण जोगा न हायंति ॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग २०७ के लिए है। उससे संकल्प-विकल्प या आर्तध्यान की वृद्धि नहीं होनी चाहिए। (२) अवमौदर्य यह बाह्य तप का दूसरा प्रकार है। इसका अर्थ है 'जिस व्यक्ति की जितनी आहार मात्रा है, उससे कम खाना।' इसके पांच प्रकार किए गए १. द्रव्य की दृष्टि से अवमौदर्य । २. क्षेत्र की दृष्टि से अवमौदर्य । ३. काल की दृष्टि से अवमौदर्य । ४. भाव की दृष्टि से अवमौदर्य । ५. पर्यव की दृष्टि से अवमौदर्य । औपपातिक में इसका विभाजन इस प्रकार है-- १. द्रव्यत: अवमौदर्य । २. भावतः अवमौदर्य । द्रव्यतः अवमौदर्य के दो प्रकार हैं---- १. उपकरण अवमौदर्य। २. भक्त-पान अवमौदर्य । भक्त-पान अवमौदर्य के अनेक प्रकार हैं१. आठ ग्रास खाने वाला अल्पाहारी होता है। २. बारह ग्रास खाने वाला अपार्द्ध अवमौदर्य होता है। ३. सोलह ग्रास खाने वाला अर्द्ध अवमौदर्य होता है। ४. चौबीस ग्रास खाने वाला पौन अवमौदर्य होता है। ५. इकतीस ग्रास खाने वाला किंचित् ऊन अवमौदर्य होता है।' यह कल्पना भोजन की पूर्ण मात्रा के आधार पर की गई है। पुरुष के आहार की पूर्ण मात्रा बत्तीस ग्रास और स्त्री के आहार की पूर्ण मात्रा अट्ठाइस ग्रास है। ग्रास का परिमाण मुर्गी के अण्डे अथवा हजार चावल जितना बतलाया गया है। २. औपपातिक, सूत्र १६ । ३. मूलाराधना, ३३२११ । ४. औपपातिक, सूत्र १६ । ५. मूलाराधना, दर्पण, पृ० ४२७ : ग्रासोश्रावि सहस्रतंदुलमितः । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० संस्कृति के दो प्रवाह इसका तात्पर्य यह है कि जितनी भूख हो, उससे एक कवल. तक कम खाना भी अवमौदर्य है। निद्रा-विजय, समाधि, स्वाध्याय, परम संयम और इंद्रिय-विजय-ये अवमौदर्य के फल हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ, कलह आदि को कम करना भी अवमौदर्य (३) भिक्षावरी (वृत्ति-संक्षेप) __ यह बाह्य तप का तीसरा प्रकार है। इसका दूसरा नाम 'वृत्तिसंक्षेप' या 'वृत्ति-परिसंख्यान' है। इसका अर्थ है 'विविध प्रकार के अभिग्रहों के द्वारा भिक्षा-वृत्ति को संक्षिप्त करना । (४) रस-परित्याग यह बाह्य तप का चौया प्रकार है। इसका अर्थ है(१) दूध, दही, घी आदि का त्याग । (२) प्रणीत-स्निग्ध पान-भोजन का त्याग । औपपातिक में इसका विस्तार मिलता है। वहां इसके निम्नलिखित प्रकार मिलते हैं १. निर्विकृति-विकृति का त्याग । २. प्रणीत रस-परित्याग-स्निग्ध व गरिष्ठ आहार का त्याग । ३. आचामाम्ल-आम्ल-रस मिश्रित भात आदि का आहार । ४. आयामसिक्थ भोजन-ओसामण में मिश्रित अन्न का आहार । ५. अरस आहार-हींग आदि से संस्कृत आहार। ६. विरस आहार-पुराने धान्य का आहार । ७. अन्त्य आहार-वल्ल आदि तुच्छ धान्य का आहार । ८. प्रान्त्य आहार-ठण्डा आहार । ६. रूक्ष आहार। १. मूलाराधना, अमितगति २११ । २. औपपातिक, सूत्र १६ । ३. समवायांग, समवाय ६ । ४. मूलाराधना, ३।२।७। ५. देखिए-उत्तराध्ययन, ३०।२५ का टिप्पण । ६. उत्तराध्ययन ३०।२६ । ७. औपपातिक, सूत्र १६ 1. Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग २०६ इस तप का प्रयोजन है स्वाद - विजय । इसीलिए रस-परित्याग करने वाला विकृति, सरस व स्वादु भोजन नहीं खाता । विकृतियां नौ हैं—' १. दूध, २. दही, ३. नवनीत ४. घृत, ५. तैल, इनमें मधु, मद्य, मांस और नवनीत - ये चार महा विकृतियां हैं । जिन वस्तुओं से जीभ और मन विकृत होते हैं - स्वाद - लोलुप या विषय- लोलुप बनते हैं, उन्हें 'विकृति' कहा जाता है। पण्डित आशाधरजी ने इसके चार प्रकार बतलाए हैं'. ६. गुड, ७. मधु, ८. मद्य और ६. मांस । १. गो-रस विकृति - दूध, दही, घृत, मक्खन आदि । २. इक्षु-रस विकृति - गुड़, चीनी आदि । ३. फल - रस विकृति - अंगूर, आम आदि फलों के रस । ४. धान्य- रस विकृति - तेल, मांड आदि । स्वादिष्ट भोजन को भी विकृति कहा जाता है । इसलिए रसपरित्याग करने वाला शाक, व्यंजन, नमक आदि का भी वर्जन करता है । मूलाराधना के अनुसार दूध, दही, घृत, तैल और गुड़-इनमें से किसी एक का अथवा इन सबका परित्याग करना रस- परित्याग है तथा अवगाहिम विकृति (मिठाई ) पूड़े, पत्र- शाक, दाल, नमक आदि का त्याग भी रसपरित्याग है । " रस - परित्याग करने वाले मुनि के लिए निम्न प्रकार के भोजन का विधान है - १. अरस आहार - स्वाद रहित भोजन । २. अन्य वेला कृत — ठण्डा भोजन । १. स्थानांग, २३ । २. (क) स्थानांग, ४ । १८५ । (ख) मूलाराधना, ३।२१३ | ३. सागारधर्मामृत, टीका ५।३५ ४. सागारधर्मामृत, टीका ५। ३५ । ५. मूलाराधना, ३।२१५ । ६. वही, ३।२१६ | Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० ३. शुद्धोदन - शाक आदि से रहित कोरा भात । ४. रूखा भोजन घृत-रहित भोजन । ५. आचामाम्ल - अम्ल - रस - सहित भोजन । ६. आयामोदन - जिसमें थोड़ा जल और अधिक अन्न भाग हो, ऐसा आहार अथवा ओसामण सहित भात | ७. विकटौदन - बहुत पका हुआ भात अथवा गर्म जल मिला हुआ भात । जो रस - परित्याग करता है, उसके तीन बातें फलित होती हैं'१. संतोष की भावना, २. ब्रह्मचर्य की आराधना और ३. वैराग्य । (५) कायक्लेश कायक्लेश बाह्य तप का पांचवां प्रकार है । उत्तराध्ययन २०।१७ में कायक्लेश का अर्थ 'वीरासन आदि कठोर आसन करना' किया गया है । स्थानांग में कायक्लेश के सात प्रकार निर्दिष्ट हैं १. स्थान कायोत्सर्ग, २. ऊकडू आसन ३. प्रतिमा आसन, ४. वीरासन, २. ऊकडू आसन, ३. प्रतिमा आसन, ४. वीरासन, ५. निषद्या, औपपातिक में कायक्लेश के अनेक प्रकार बतलाए गए हैं! १. स्थान कायोत्सर्ग, ६ आतापना, ७. वस्त्र त्याग, ८. अकण्डूयन --- खाज न करना, 8. अनिष्ठीवन - थूकने का त्याग और १०. सर्वगात्र - परिकर्म --- विभूषा का वर्जन । आचार्य वसुनन्दि के अनुसार आचाम्ल, निर्विकृति, एक-स्थान, १. मूलाराधना अमितगति २१७ : संतोष भावितः सम्यग् ब्रह्मचर्यं प्रपालितम् । दर्शितं स्वस्य वैराग्यं कुर्वाणेन रसोज्झनम् ॥ संस्कृति के दो प्रवाह २. स्थानांग, ७।४६ ३. औपपातिक, सूत्र १६ । ५. निषद्या, ६. दण्डायत और ७. लगण्डशयनासन । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग २११ उपवास, बेला आदि के द्वारा शरीर को कृश करना 'कायक्लेश' है। यह व्याख्या उक्त व्याख्याओं से भिन्न है। वैसे तो उपवास आदि करने में काया को क्लेश होता है, किन्तु भोजन से सम्बन्धित अनशन, ऊनोदरी, वृत्ति-संक्षेप और रस-परित्याग-इन चारों बाह्य तपों से कायक्लेश का लक्षण भिन्न होना चाहिए, इस दृष्टि से कायक्लेश की व्याख्या उपवास प्रधान न होकर अनासक्ति-प्रधान होनी चाहिए । शरीर के प्रति निर्ममत्व-भाव रखना तथा उसे प्राप्त करने के लिए आसन आदि साधना तथा उसकी साज-सज्जा व संवारने से उदासीन रहना-यह कायक्लेश का मूलस्पर्शी अर्थ होना चाहिए। उत्तराध्ययन के दूसरे अध्ययन में जो परीषह बतलाए गए हैं, उनसे यह भिन्न है । कायक्लेश स्वयं इच्छानुसार किया जाता है और परीषह समागत कष्ट होता है। श्रुतसागर गणि के अनुसार ग्रीष्म ऋतु में धूप में, शीत ऋतु में खुले स्थान में और वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे सोना, नाना प्रकार की प्रतिमाएं और आसन करना 'काय-क्लेश' है।' ६. प्रतिसंलीनता उत्तराध्ययन ३०८ में बाह्य तप का छठा प्रकार संलीनता' बतलाया गया है और ३०।२८ में उसका नाम 'विविक्त शयनासन' है। भगवती (२५१५७२) में छठा प्रकार 'प्रतिसंलीनता' है। तत्त्वार्थ सूत्र (६।१६) में 'विविक्त-शयनासन' बाह्य तप का छठा प्रकार है। इस प्रकार कुछ ग्रंथों में 'संलीनता' या प्रतिसंलीनता' और कुछ ग्रंथों में विविक्तशय्यासन' या 'विविक्त-शय्या' का प्रयोग मिलता है। किन्तु औपपातिक के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मूल शब्द 'प्रतिसंलीनता' है। 'विविक्त-शयनासन' उसी का एक अवान्तर भेद है। प्रतिसंलीनता चार प्रकार की होती है१. वसुनन्दि श्रावकाचार, श्लोक ३५१ : आयंबिलणिव्वियडी एयट्ठाणं छ?माइ खवणेहिं । जं कीरइ तणुतावं कायकिलेसो मुणेयव्वो ॥ २. तत्त्वार्थ, ६।१६, श्रुतसागरीय वृत्ति : यदृच्छ्या समागतः परीषहः, स्वयमेव कृतः कायक्लेश इति परीषहकायक्लेशयोविशेषः । ३. वही, ६.१६, श्रुतसागरीय वृत्ति । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ संस्कृति के दो प्रवाह (१) इन्द्रिय प्रतिसंलीनता, (३) योग प्रतिसंलीनता और (२) कषाय प्रतिसंलीनता, (४) विविक्त-शयनासन-सेवन ।' प्रस्तुत अध्ययन में संलीनता की परिभाषा केवल विविक्त-शयनासन के रूप में की गई, यह आश्चर्य का विषय है। हो सकता है सूत्रकार इसी को महत्त्व देना चाहते हों। तत्त्वार्थ सत्र आदि उत्तरवर्ती ग्रंथों में भी इसी का अनुसरण हआ है। विविक्त-शयनासन का अर्थ मूल-पाठ में स्पष्ट है। मूलराधना के अनुसार जहां शब्द, रस, गंध और स्पर्श के द्वारा चित्तविक्षेप नहीं होता, स्वाध्याय और ध्यान में व्याघात नहीं होता, वह विविक्तशय्या है । जहां स्त्री, पुरुष और नपुंसक न हों, वह विविक्त-शय्या है। भले फिर उसके द्वार खले हों या बन्द, उसका प्राङ्गण सम हो या विषम, वह गांव के बाह्य-भाग में हो या मध्य-भाग में, शीत हो या ऊष्ण । विविक्त-शय्या के छह प्रकार ये हैं-(१) शून्य-गृह, (२) गिरिगुफा, (३) वृक्ष-मूल, (४) आगन्तुक-आगार (विश्राम-गृह), (५)देवकुल, अकृत्रिम शिला-गृह और (६) कूट-गृह ।। विविक्त शय्या में रहने से निम्न दोषों से सहज ही बचाव हो जाता है-(१) कलह, (२) बोल (शब्द बहुलता), (३) झंझा (संक्लेश), (४) व्यामोह, (५) सांकर्य (असंयमियों के साथ मिश्रण), (६) ममत्व तथा (७) ध्यान और स्वाध्याय का व्याघात ।' बाह्य तप के प्रयोजन १. अनशन के प्रयोजन-- (क) संयम-प्राप्ति । (ख) राग-नाश । (ग) कर्म-मल विशोधन । (घ) सध्यान की प्राप्ति । (3) शास्त्राभ्यास। १. औपपातिक, सूत्र १६: से किं तं पडिसंलीणया ? पडिसंलीणया चउविहा पण्णत्ता, तं जहा-इंदिअपडिसलीणया कसायपडिसलीणया जोगपडिसलीणया विवित्तसयणासणसेवणया। २. तत्त्वार्थ सुत्र, ६।१६ : अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्या सनकायक्लेशा बाह्य तपः ।। ३. मूलाराधना, ३।२२८,२२६,२३१,२३२ । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग २. अवमोदय के प्रयोजन(क) संयम में सावधानता। (ख) वात, पित्त, श्लेष्म आदि दोषों का उपशमन । (ग) ज्ञान, ध्यान आदि की सिद्धि। ३. वत्तिसंक्षेप के प्रयोजन(क) भोजन सम्बन्धी आशा पर अंकुश । (ख) भोजन सम्बन्धी संकल्प-विकल्प और चिन्ता का नियंत्रण । ९. रस-परित्याग के प्रयोजन---- (क) इन्द्रिय-निग्रह। (ख) निद्रा-विजय । (ग) स्वाध्याय-ध्यान की सिद्धि । ५. विविक्त-शय्या के प्रयोजन (क) बाधाओं से मुक्ति । (ख) ब्रह्मचर्य-सिद्धि। (ग) स्वाध्याय, ध्यान की सिद्धि । ६. कायक्लेश के प्रयोजन(क) शारीरिक कष्ट-सहिष्णुता का स्थिर अभ्यास । (ख) शारीरिक सुख की श्रद्धा से मुक्ति । (ग) जैन धर्म की प्रभावना ।' बाह्य तप के परिणाम : १. सुख की भावना स्वयं परित्यक्त हो जाती है। २. शरीर कृश हो जाता है। ३. आत्मा संवेग में स्थापित होती है ४. इन्द्रिय-दमन होता है। ५. समाधि-योग का स्पर्श होता है। ६. वीर्य-शक्ति का उपयोग होता है ७. जीवन की तृष्णा विच्छिन्न होती है। ८. संक्लेश-रहित दुःख-भावना-कष्ट-सहिष्णुता का अभ्यास होता है। ६. देह, रस और सुख का प्रतिबन्ध नहीं रहता। १०. कषाय का निग्रह होता है। १. तत्त्वार्थ, २०, श्रुतसागरीय वृत्ति । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह ११. विषय-भोगों के प्रति अनादर - उदासीन भाव उत्पन्न होता है । १२. समाधि-मरण का स्थिर अभ्यास होता है । १३. आत्म- दमन होता है - आह र आदि का अनुराग क्षीण होता है । १४. आहार - निराशता - आहार की अभिलाषा के त्याग का अभ्यास होता है । २१४ १५. अमृद्धि बढ़ती है । १६. लाभ और अलाभ में सम रहने का अभ्यास सधता है । १७. ब्रह्मचर्यं सिद्ध होता है । १८. निद्वा-विजय होती है । १६. ध्यान की दृढ़ता प्राप्त होती है । २०. विमुक्ति - विशिष्ट त्याग का विकास होता है । २१. दर्प का नाश होता है । २२. स्वाध्याय-योग की निर्विघ्नता प्राप्त होती है । २३. सुख-दुःख में सम रहने की स्थिति बनती है । २४. आत्मा, कुल, गण, शासन - सबकी प्रभावना होती है । २५. आलस्य त्यक्त होता है । २६. कर्म - मल का विशोधन होता है । २७. दूसरों को संवेग उत्पन्न होता है । २८. मिथ्यादृष्टियों में भी सौम्य भाव उत्पन्न होता है । २६. मुक्ति-मार्ग का प्रकाशन होता है । ३०. तीर्थङ्कर की आज्ञा की आराधना होती है । ३१. देह - लाघव प्राप्त होता है । ३२. शरीर-स्नेह का शोषण होता है । ३३. राग आदि का उपशम होता है । ३४. आहार की परिमितता होने से नीरोगता बढ़ती है । ३५ सन्तोष बढ़ता है । ' आभ्यन्तर तप आभ्यन्तर तप के छह प्रकार ( १ ) प्रायश्चित्त - यह आभ्यन्तर तप का पहला प्रकार है । इसके दस भेद हैं१. आलोचनायोग्य — गुरु के समक्ष अपने दोषों का निवेदन करना । १. मूलाराधना, ३।२३७-२४४ । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ २. प्रतिक्रमणयोग्य-किए हुए पापों से निवृत्त होने के लिए 'मिथ्या मे दुष्कृतम्'-मेरे सब पाप निष्फल हों-ऐसा कहना, कायोत्सर्ग आदि करना तथा भविष्य में पाप-कर्मों से दूर रहने के लिए सावधान रहना। ३. तदुभययोग्य-पाप से निवृत्त होने के लिए आलोचना और ___ प्रतिक्रमण-दोनों करना। ४. विवेक-आए हुए अशुद्ध आहार आदि का उत्सर्ग करना। ५. व्युत्सर्ग-चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति के साथ कायोत्सर्ग करना । ६. तप-उपवास, बेला आदि करना।। ७. छेद-पाप-निवृत्ति के लिए संयमकाल को छेद कर कम कर देना। ८. मूल-पुनः व्रतों में आरोपित करना-नई दीक्षा देना। ९. अनवस्थापना-तपस्या-पूर्वक नई दीक्षा देना। १०.पारांचिक-भर्त्सना एवं अवहेलना पूर्वक नई दीक्षा देना।' तत्त्वार्थ सूत्र (२२) में प्रायश्चित्त के ह ही प्रकार बतलाए गए हैं, 'पारांचिक' का उल्लेख नहीं है। (२) विनय __ यह आभ्यन्तर तप का दूसरा प्रकार है। स्थानांग (७.१३०), भगवती (२५॥५८२) और औपपातिक (सू० २०) में विनय के ७ भेद बतलाए गए हैं १. ज्ञान-विनय-ज्ञान के प्रति भक्ति, बहुमान आदि करना। २. दर्शन-विनय-गुरु की शुश्रूषा करना, आशातना न करना । ३. चारित्र-विनय-चारित्र का यथार्थ प्ररूपण और अनुष्ठान करना। ४. मनोविनय-अकुशल मन का निरोध और कुशल की प्रवृत्ति । ५. वचन-विनय-अकुशल वचन का निरोध और कुशल की प्रवृत्ति । ६. काय-विनय-अकुशल काय का निरोध और कुशल की प्रवत्ति । ७. लोकोपचार-विनय-लोक-व्यवहार के अनुसार विनय करना । १. (क) स्थानांग, १०७३ । (ख) भगवती, २५२५५६ । (ग) औपपातिक, सूत्र २० । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ संस्कृति के दो प्रवाह तत्त्वार्थ सूत्र (६२३) में विनय के चार ही प्रकार बतलाए गए हैं-(१) ज्ञान-विनय, (२) दर्शन-विनय, (३) चारित्र-विनय और (४) उपचार-विनय । (३) वयावृत्त्य (सेवा) वैयावृत्य आभ्यन्तर तप का तीसरा प्रकार है। उसके दस प्रकार १. आचार्य का वैयावृत्त्य ७. कुल का वैयावृत्त्य २. उपाध्याय का वैयावृत्त्य ८. गण का वैयावत्त्य ३. स्थविर का वैयावृत्त्य ६. संघ का वैयावृत्त्य ४. तपस्वी का वैयावृत्त्य १०. सार्मिक (समान धर्म वाले ५. ग्लान का वैयावृत्त्य साधु-साध्वी) का वैयावृत्त्य । ६. शैक्ष का वैयावृत्त्य यह वर्गीकरण स्थानांग (१०।१७) के आधार पर है। भगवती (२५१५९८) और औपपातिक (सूत्र २०) के वर्गीकरण का क्रम कुछ भिन्न है १. आचार्य का वैयावृत्त्य ६. शैक्ष का वैयावृत्त्य २. उपाध्याय का वैयावृत्त्य ७. कुल का वैयावृत्त्य ३. स्थविर का वैयावृत्त्य ८. गण का वैयावृत्त्य ४. तपस्वी का वैतावृत्त्य ९. संघ का वैयावृत्त्य ५. ग्लान का वैयावृत्त्य १०. सार्मिक का वैयावृत्त्य । तत्त्वार्थ सूत्र (६।२४) में ये कुछ परिवर्तन के साथ मिलते हैं१. आचार्य का वैयावृत्त्य २. उपाध्याय का वैयावृत्त्य ३. तपस्वी का वैयावृत्त्य ४. शैक्ष का वैयावृत्त्य ५. ग्लान का वैयावृत्त्य ६. गण (श्रुत स्थविरों की परम्परा का संस्थान') का वैयावृत्त्य ७. कुल का वैयावृत्त्य (एक आचार्य का साधु-समुदाय ‘गच्छ' १. तत्त्वार्थ, ६२४ भाष्यानुसारि टीका : गण:--स्थविरसंततिसंस्थितिः । स्थविरपरिग्रहः, न वयसा पर्यायेण वा, तेषां संततिः-~-परम्परा तस्याः संस्थानं-वर्तनं अद्यापि भवनं संस्थितिः। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फोग २१७ कहलाता है; एक जातीय अनेक गच्छों को कुल कहा जाता ८. संघ (साधु, साध्वी, श्रावक तथा श्राविका') का वैयावत्त्य । (६) साधु का वैयावृत्त्य (१०) समनोज्ञ का वैयावृत्त्य (समान सामाचारी वाले तथा एक ___- मण्डली में भोजन करने वाले साधु 'समनोज्ञ' कहलाते हैं।') इस वर्गीकरण में स्थविर और सार्मिक-ये दो प्रकार नहीं हैं। उनके स्थान पर साधु और समनोज्ञ-ये दो प्रकार हैं। गण और कुल की भांति संघ का अर्थ भी साधु-परक ही होना चाहिए। ये दसों प्रकार केवल साधु-समूह के विविध पदों या रूपों से सम्बद्ध हैं। . ... वैयावृत्त्य (सेवा) का फल तीर्थङ्कर-पद की प्राप्ति बतलाया गया है। व्यावहारिक सेवा ही तीर्थ को संगठित कर सकती है । इस दष्टि से भी इसका बहुत महत्त्व है। (४) स्वाध्याय यह आभ्यन्तर तप का चौथा प्रकार है। उसके पांच भेद हैं(१) वाचना, (२) प्रच्छना, (३) परिवर्तना, (४) अनुप्रेक्षा और (५) धर्मकथा। तत्त्वार्थ सूत्र (२५) में इनका क्रम और एक नाम भी भिन्न है(१) वाचना, (२) प्रच्छना, (३) अनुप्रेक्षा, (४) आम्नाय और (५) धर्मोपदेश। इनमें परिवर्तना के स्थान में आम्नाय है । आम्नाय का अर्थ है 'शुद्ध उच्चारण पूर्वक बार बार पाठ करना ।" १. तत्त्वार्थ, ६।२४ भाष्यानुसारि टीका : कुलमाचार्यसंततिसंस्थितिः, एकाचार्यप्रणय" साधुसमूही गच्छः, बहूनां गच्छानां एकजातीयानां समूहः कुलम् । २. वही, ६।२४ . भाष्यानुसारि टीका : संघश्चतुर्विधः---साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविकाः। .. ३. तत्त्वार्थ, १।२४ भाष्यानुसारि टीका : द्वादशविधसम्भोगभाजः समनोज्ञज्ञानदर्शन... चारित्राणि मनोज्ञानि सह मनोजः समनोज्ञाः । ४. उत्तराध्ययन, ३५।४३ । ५. देखिए - उत्तराध्ययन २६।१८ का टिप्पण ।.... ६. तत्त्वार्थ, ६।२५, श्रुतसागरीय वृत्ति : अष्टस्थानोच्चारविशेषेण यच्छुद्धं घोषणं पुनः पुनः परिवर्तनं स आम्नाय कथ्यते । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ संस्कृति के दो प्रवाह परिवर्तना या आम्नाय को अनुप्रेक्षा से पहले रखना उचित लगता आचार्य शिष्यों को पढ़ाते हैं—यह 'वाचना' है। पढ़ते समय या पढ़ने के बाद शिष्य के मन में जो जिज्ञासाएं उत्पन्न होती हैं, उन्हें वह प्राचार्य के सामने प्रस्तुत करता है-यह 'प्रच्छना' है। आचार्य से प्राप्त प्रत को याद रखने के लिए वह बार-बार उसका पाठ करता है यह परिवर्तना' है । परिचित श्रुत का मर्म समझने के लिए वह उसका र्यालोचन करता है-यह 'अनुप्रेक्षा' है । पठित, परिचित और पर्यालोचित चुत का वह उपदेश करता है-यह 'धर्मकथा' है। इस क्रम में परिवर्तना का स्थान अनुप्रेक्षा से पहले प्राप्त होता है। सिद्धसेन गणि के अनुसार अनुप्रेक्षा का अर्थ है 'ग्रन्थ और अर्थ का मानसिक अभ्यास करना।' इसमें वर्णों का उच्चारण नहीं होता और नाम्नाय में वर्णों का उच्चारण होता है, यही इन दोनों में अन्तर है।' मनुप्रेक्षा के उक्त अर्थ के अनुसार उसे आम्नाय से पूर्व रखना भी अनुचित नहीं है। आम्नाय, घोषविशुद्ध, परिवर्तन, गुणन और रूपादानये आम्नाय या परिवर्तना के पर्यायवाची शब्द हैं। ___अर्थोपदेश, व्याख्यान, अनुयोगवर्णन, धर्मोपदेश-ये धर्मोपदेश या वर्मकथा के पर्यायवाची शब्द हैं।' (५) ध्यान यह आभ्यन्तर तप का पांचवां प्रकार है । साधना-पद्धति में इसका सर्वोपरि महत्त्व रहा है। यह हमारी चेतना की ही एक अवस्था है। इसका अनुसन्धान और अभ्यास सुदूर अतीत में हो चुका था। कोई भी आध्यात्मक धारा इसके बिना अपने साध्य तक नहीं पहुंच सकती थी। छान्दोग्य उपनिषद् के ऋषि के ध्यान महत्त्व से परिचित थे। किन्तु छान्दोग्य में इसका १. तत्त्वार्थ, ६।२५ भाष्यानुसारि टीका : सन्देहे सति ग्रन्थार्थयोर्मनसाऽभ्यासोऽनुप्रेक्षा। न तु बहिर्वर्णोच्चारणमनुश्रावणीयम् । आम्नायोऽपि परिवर्तनं उदात्तादि परिशुद्धमनुश्रावणीयमभ्यासविशेषः । २. वही, ६।२५ भाष्यानुसारि टीका : आम्नायो घोषविशुद्धं परिवर्तनं गुणनं रूपादा नमित्यर्थः । ३. वही, ६।२५ भाष्यानुसारि टीका : अर्थोपदेशो व्याख्यानं अनुयोगवर्णनं धर्मोपदेश इत्यनान्तरम् । ४. छान्दोग्य उपनिषद्, ७।६।१-२ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग २१६ विकसित रूप प्राप्त नहीं है । बुद्ध ने ध्यान को बहुत महत्त्व दिया था। महावीर की परम्परा में भी इसे सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। योगदर्शन में भी इसका महत्त्व स्वीकृत है। उत्तरवर्ती उपनिषदों में भी इसे बहुत मान्यता मिली है। भारतीय साधना की समग्र धाराओं ने इसे सतत प्रवाहित रखा। चित्त और ध्यान ___मन की दो अवस्थाएं हैं-(१) चल और (२) स्थिर। चल अवस्था को 'चित्त' और स्थिर अवस्था को 'ध्यान' कहा जाता है। वस्तुतः चित्त और ध्यान एक ही मन (अध्यवसाय) के दो रूप हैं। मन जब गुप्त, एकाग्र या निरुद्ध होता है, तब उसकी संज्ञा ध्यान हो जाती है। भावना, अनुप्रेक्षा और चिता-ये सब चित्त की अवस्थाएं हैं। भावना- ध्यान के अभ्यास की क्रिया। अनुप्रेक्षा- ध्यान के बाद होने वाली मानसिक चेष्टा। चिता- सामान्य मानसिक चिन्तन । इनमें एकाग्रता का वह रूप प्राप्त नहीं होता, जिसे ध्यान कहा जा सके। ध्यान शब्द 'ध्यैङ् चिन्तायाम्' धातु से निष्पन्न होता है। शब्द की उत्पत्ति की दृष्टि से ध्यान का अर्थ चिन्तन होता है, किन्तु प्रवृत्ति-लभ्य अर्थ उससे भिन्न है । ध्यान का अर्थ चिन्तन नहीं किन्तु चिन्तन का एकाग्रीकरण अर्थात् चित्त को किसी एक लक्ष्य पर स्थिर करना या उसका निरोध करना है। तत्त्वार्थ सूत्र में एकाग्रचिन्ता तथा शरीर, वाणी और मन के निरोध को ध्यान कहा गया है। इससे यह ज्ञात होता है कि जैन परम्परा में ध्यान का सम्बन्ध केवल मन से ही नहीं माना गया था। वह मन, वाणी और शरीर-इन तीनों से सम्बन्धित था। इस अभिमत के आधार पर उसकी पूर्ण परिभाषा इस प्रकार बनती है-शरीर, वाणी और मन की एकाग्र प्रवृत्ति तथा उनकी निरेजन दशा-निष्प्रकम्प दशा ध्यान है। पतञ्जलि ने १. ध्यानशतक २ : जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं । २. वही, २ : तं होज्ज भावणा वा अणुप्पेहा वा अहव चिता। ३. आवश्यकनियुक्ति, गाथा १४६३: अंतोमुहुत्तकालं चित्तस्सेगग्गगया हवइ झाणं ४. तत्त्वार्थ, सूत्र ६।२७ : उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात् । ५. आवश्यकनियुक्ति १४६७-१४६८ । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० संस्कृति के दो प्रवाह ध्यान का सम्बन्ध केवल मन के साथ माना है। उनके अनुसार जिसमें धारणा की गई हो, उस देश में ध्येय-विषयक ज्ञान की एकतानता (अर्थात् सदृश प्रवाह), जो अन्य ज्ञानों से अपरामृष्ट हो, को ध्यान कहा जाता है। सदश प्रवाह का अभिप्राय यह है कि जिस ध्येय विषयक पहली वृत्ति हो, उसी विषय की दूसरी और उसी विषय की तीसरी हो-ध्येय से अन्य ज्ञान बीच में न हो।' पतञ्जलि ने एकाग्रता और निरोध-ये दोनों केवल चित्त के ही माने हैं। गरुडपुराण में भी ब्रह्म और आत्मा की चिन्ता को ध्यान कहा गया है। बौद्धधारा में भी ध्यान मानसिक ही माना गया है। ध्यान केवल मानसिक ही नहीं, किन्तु वाचिक और कायिक भी है। यह अभिमत जैन आचार्यों का अपना मौलिक है। पतञ्जलि ने ध्यान और समाधि-ये दो अंग पृथक् मान्य किए, इसलिए उनके योग-दर्शन में ध्यान का रूप बहुत विकसित नहीं हुआ। जैन आचार्यों ने ध्यान को इतने व्यापक अर्थ में स्वीकार किया कि उन्हें उससे पथक समाधि को मानने की आवश्यकता ही नहीं हुई। पतञ्जलि की भाषा में जो सम्प्रज्ञात समाधि है, वही जैन योग की भाषा में शुक्लध्यान का पूर्व चरण है। पतञ्जलि जिसे असम्प्रज्ञात कहते हैं, वह जैन-योग में शुक्ल-ध्यान का उत्तर चरण है। ध्यान से समाधि को पृथक् मानने की परम्परा जैन साधना पद्धति के उत्तर काल में स्थिर हुई, ऐसा प्रतीत होता है। इससे यह भी स्पष्ट है कि जैनों की ध्यान विषयक मान्यता पतञ्जलि से प्रभावित नहीं केवलज्ञानी के केवल निरोधात्मक ध्यान ही होता है, किन्तु जो केवलज्ञानी नहीं हैं उनके एकाग्रतात्मक और निरोधात्मक-दोनों ध्यान होते हैं। ध्यान का संबंध शरीर, वाणी और मन-तीनों से माना जाता रहा, फिर भी उसकी परिभाषा--चित्त की एकाग्रता ध्यान है---इस प्रकार की जाती रही है। भद्रबाहु के सामने यह प्रश्न उपस्थित था-यदि ध्यान का १. पातंजलयोगदर्शन ३।२ तत्र प्रत्ययकतानता ध्यानम् । २. पातंजलयोगदर्शन १।१८ । ३. गरुडपुराण, अ० ४८ : ब्रह्मात्मचिन्ता ध्यानं स्यात् । ४. विशुद्धिमार्ग, पृ० १४१-१५१ ।। ५. पातंजलयोगदर्शन, यशोविजयजी, १११८ : तत्र पृथक्त्ववितर्कसविचारकत्व वितर्काविचाराख्यशुक्लध्यानभेदद्वये सम्प्रज्ञातः समाधिवत्यर्थानां सम्यग्ज्ञानात् । ६. वही, यशोविजयजी, १११८ । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग २२१ अर्थ मानसिक एकाग्रता है, तो इसकी संगति जैन परम्परा सम्मत उस प्राचीन अर्थ---शरीर, वाणी और मन की एकाग्र प्रवत्ति या निरेजन दशा ध्यान है के साथ कैसे होगी ?' आचार्य भद्रबाह ने इसका समाधान इस प्रकार किया-शरीर में वात, पित्त, और कफ-ये तीन धातु होते हैं। उनमें से जो प्रचुर होता है, उसी का व्यपदेश किया जाता है--जैसे वायु कुपित है। जहां 'वायु कुपित है'-ऐसा निर्देश किया जाता है, उसका अर्थ यह नहीं है कि वहां पित्त और श्लेष्मा नहीं हैं। इसी प्रकार मन की एकाग्रता ध्यान है-यह परिभाषा भी प्रधानता की दृष्टि से है। जैसे मन की एकाग्रता व निरोध मानसिक ध्यान कहलाता है वैसे ही 'मेरा शरीर अकम्पित हो'----यह संकल्प कर जो स्थिरकाय बनता है, वह कायिक ध्यान है।' इसी प्रकार संकल्प पूर्वक अकथनीय भाषा का वर्जन किया जाता है, वह वाचिक ध्यान है। जहां मन एकाग्र व अपने लक्ष्य के प्रति व्याप्त होता है तथा शरीर और वाणी भी उसी लक्ष्य के प्रति व्याप्त होते हैं, वहां मानसिक कायिक और वाचिक-ये तीनों ध्यान एक साथ हो जाते हैं। जहां कायिक या वाचिक ध्यान होता है, वहाँ मानसिक ध्यान भी होता है, किन्तु वहां उसकी प्रधानता नहीं होती, इसलिए वह मानसिक ही कहलाता है । निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि मन सहित वाणी और काया का व्यापार होता है, उसका नाम भावक्रिया है और जो भावक्रिया है, वह ध्यान है।' वाचिक या कायिक ध्यान के साथ मन संलग्न होता है, फिर भी उनका विषय एक होता है, इसलिए उसे अनेकाग्र नहीं कहा जा सकता। वह व्यक्ति जो मन से ध्यान करता है, वही वाणी से बोलता है और उसी में उसकी काया संलग्न होती है । यह उनकी अखण्डता या एकाग्रता है। __ध्यान में शरीर, वाणी और मन का निरोध ही नहीं होता, प्रवृत्ति भी होती है । सहज ही प्रश्न होता है कि स्वाध्याय में मन की एकाग्रता होती है और ध्यान में भी । उस स्थिति में स्वाध्याय और ध्यान ये दो क्यों ? स्वाध्याय में मन की एकाग्रता होती है किन्तु वह घनीभूत नहीं होती इसलिए उसे ध्यान की कोटि में नहीं रखा जा सकता। ध्यान चित्त की घनीभूत अवस्था है। १. आवश्यकनियुक्ति, गाथा १४६७ । २. वही, गाथा १४६८,१४६६ । ३. वही, गाथा १४७४ । ४. वही, गाथा १४७६,१४७७ । ५. वही, गाथा १४७८ । ६. वही, गाथा १४८६ । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ संस्कृति के दो प्रवाह स्वल्प निद्रा और प्रगाढ़ निद्रा में शुभ या अशुभ ध्यान नहीं होता। इसी प्रकार नवोत्पन्न शिशु तथा जिनका चित्त मूच्छित, अव्यक्त, मदिरापान से उन्मत्त, विष आदि से प्रभावित है, उनके भी ध्यान नहीं होता। ध्यान का अर्थ शून्यता या अभाव नहीं है । अपने आलम्बन में गाढ़ रूप से संलग्न होने के कारण जो निष्प्रकम्प हो जाता है, वही चित्त ध्यान कहलाता है। मदु, अव्यक्त और अनवस्थित चित्त को ध्यान नहीं कहा जा सकता। ध्यान चेतना की वह अवस्था है, जो अपने आलम्बन के प्रति एकाग्र होती है अथवा बाह्य-शून्यता होने पर भी आत्मा के प्रति जागरूकता अबाधित रहती है। इसीलिए कहा गया है "जो व्यवहार के प्रति सुषुप्त है, वह आत्मा के प्रति जागरूक है।" उक्त विवरण से फलित होता है कि चिन्तन-शून्यता ध्यान नहीं और वह चिन्तन भी ध्यान नहीं है, जो अनेकाग्र है। एकाग्र चिन्तन ध्यान है, भावक्रिया ध्यान है और चेतना के व्यापक प्रकाश में चित्त विलीन हो जाता है, वह भी ध्यान है। इन परिभाषाओं के आधार पर जाना जा सकता है कि जैन आचार्य जड़तामय शून्यता व चेतना की मूर्छा को ध्यान कहना इष्ट नहीं मानते थे। ध्यान के प्रकार एकाग्र चिन्तन को ध्यान कहा जाता है, इस व्युत्पत्ति के आधार पर उसके चार प्रकार होते हैं-(१) आर्त, (२) रौद्र, (३) धर्म और (४) शुक्ल । (१) आर्तध्यान-चेतना की अरति या वेदनामय एकाग्र परिणति को आर्तध्यान कहा जाता है। उसके चार प्रकार हैं कोई पुरुष अमनोज्ञ संयोग से संयुक्त होने पर उस (अमनोज्ञ विषय) के वियोग का चितन करता है--यह पहला प्रकार है। कोई पुरुष मनोज्ञ संयोग से संयुक्त है, वह उस (मनोज्ञ विषय) के वियोग न होने का चिंतन करता है-यह दूसरा प्रकार है। कोई पुरुष आतंक-सद्योघाती रोग के संयोग से संयुक्त होने पर उसके वियोग का चिंतन करता है-यह तीसरा प्रकार है । कोई पुरुष प्रीतिकर काम-भोग के संयोग से संयुक्त है, वह उसके वियोग न होने का चिंतन करता है--यह चौथा प्रकार है। १. आवश्यकनियुक्ति, गाथा १४८१-१४८३ । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग आर्त्तध्यान के चार लक्षण हैं १. अक्रन्द करना, २. शोक करना, ३. आंसू बहाना और ४. विलाप करना । (२) रौद्रध्यान - चेतना की क्रूरतामय 'रौद्रध्यान कहा जाता है । उसके चार प्रकार हैं एकाग्र परिणति को १. हिंसानुबन्धी- जिसमें हिंसा का अनुबन्ध - हिंसा में सतत प्रवर्तन हो । अनुबन्ध - मृषा में सतत अनुबन्ध - चोरी में सतत ४. संरक्षणानुबन्धी — जिसमें विषय के साधनों के संरक्षण का अनुबन्ध - विषय के साधनों में सतत प्रवर्तन हो । २. मृषानुबन्धी- जिसमें मृषा का प्रवर्तन हो । ३. स्तेनानुबन्धी- जिसमें चोरी का प्रवर्तन हो । रौद्रध्यान के चार लक्षण हैं २२३ १. अनुपरतदोष - प्राय: हिंसा आदि से उपरत न होना । २. बहुदोष - हिंसा आदि की विविध प्रवृत्तियों में संलग्न रहना । ३. अज्ञानदोष - अज्ञानवश हिंसा आदि में प्रवृत्त होना । ४. आमरणान्तदोष – मरणान्त तक हिंसा आदि करने का अनुताप न होना । ये दोनों ध्यान पापाश्रव के हेतु हैं, इसीलिए इन्हें 'अप्रशस्त' ध्यान कहा जाता है । इन दोनों को एकाग्रता की दृष्टि से ध्यान को कोटि में रखा गया है, किन्तु साधना की दृष्टि से आतं और रौद्र परिणतिमय एकाग्रता विघ्न ही है । मोक्ष के हेतुभूत ध्यान दो ही हैं - ( १ ) धर्म और ( २ ) शुक्ल । इनसे आश्रव का निरोध होता है, इसलिए इन्हें 'प्रशस्त ध्यान' कहा जाता है। (३) धर्मध्यान- वस्तु-धर्म या सत्य की गवेषणा में परिणत चेतना की एकाग्रता को 'धर्मध्यान' कहा जाता है। इसके चार प्रकार हैं१. आज्ञा-विचय- प्रवचन के निर्णय में संलग्न चित्त । २. अपाय-विचय- दोषों के निर्णय में संलग्न चित्त । ३. faure-विचय-- कर्म-फलों के निर्णय में संलग्न चित्त । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ संस्कृति के दो प्रवाह ४. संस्थान-विचय-विविध पदार्थों के आकृति-निर्णय में संलग्न चित्त । धर्मध्यान के चार लक्षण हैं १. आज्ञा-रुचि-प्रवचन में श्रद्धा होना। २. निसर्ग-रुचि-सहज ही सत्य में श्रद्धा होना। ३. सूत्र-रुचि-सूत्र पढ़ने के द्वारा श्रद्धा उत्पन्न होना। ४. अवगाढ़-रुचि-विस्तार से सत्य की उपलब्धि होना। धर्मध्यान के चार आलम्बन हैं १. वाचना-पढ़ाना। २. प्रतिप्रच्छना--शंका-निवारण के लिए प्रश्न करना। ३. परिवर्तना-पुनरावर्तन करना। ४. अनुप्रेक्षा--अर्थ का चिंतन करना। धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं हैं १. एकत्व-अनुप्रेक्षा-अकेलेपन का चिंतन करना। २. अनित्य-अनुप्रेक्षा--पदार्थों की अनित्यता का चिंतन करना ३. अशरण अनुप्रेक्षा-अशरण दशा का चिन्तन करना। ४. संसार-अनुप्रेक्षा-संसार-परिभ्रमण का चिन्तन करना। (४) शुक्लध्यान-चेतना की सहज (उपाधि रहित) परिणति को 'शुक्लध्यान' कहा जाता है। उसके चार प्रकार हैं १. पृथक्त्व-वितर्क-सविचारी। २. एकत्व-वितर्क-अविचारी।। ३. सूक्ष्म-क्रिय-अप्रतिपाति । ४. समुच्छिन्न-क्रिय-अनिवृत्ति । ___ ध्यान के विषय द्रव्य और उसके पर्याय हैं । ध्यान दो प्रकार का होता है--सालम्बन और निरालम्बन । ध्यान में सामग्री का परिवर्तन भी होता है और नहीं भी होता। वह दो दृष्टियों से होता है-भेददृष्टि से और अभेददृष्टि से। जब एक द्रव्य के अनेक पर्यायों का अनेक दृष्टियोंनयों से चिन्तन किया जाता है और पर्व-श्रत का आलम्बन लिया जाता है तथा शब्द से अर्थ में और अर्थ से शब्द में एवं मन, वचन और काया में से एक दूसरे में संक्रमण किया जाता है, शुक्लध्यान की इस स्थिति को 'पृथक्त्व-वितर्क-सविचारी' कहा जाता है। जब एक द्रव्य के किसी एक पर्याय का अभेददृष्टि से चिन्तन किया Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग २२५ जाता है और पूर्व-श्रुत का आलम्बन लिया जाता है तथा जहां शब्द, अर्थ एवं मन-वचन-काया में से एक दूसरे में संक्रमण नहीं किया जाता, शुक्लध्यान की इस स्थिति को 'एकत्व-वितर्क-अविचारी' कहा जाता है। जब मन और वाणी के योग का पूर्ण निरोध हो जाता है और काया के योग का पूर्ण निरोध नहीं होता-श्वासोच्छ्वास जैसी सूक्ष्मक्रिया शेष रहती है, उस अवस्था को 'सूक्ष्म-क्रिय' कहा जाता है। इसका पतन नहीं होता, इसलिए यह अप्रतिपाति है। जब सूक्ष्मक्रिया का भी निरोध हो जाता है, उस अवस्था को 'समुच्छिन्न-क्रिय' कहा जाता है । इसका निवर्तन नहीं होता, इसलिए यह अनिवृत्ति है। शुक्लध्यान के चार लक्षण हैं १. अव्यथ-क्षोभ का अभाव । २. असम्मोह-सूक्ष्म पदार्थ विषयक मूढ़ता का अभाव । ३. विवेक-शरीर और आत्मा के भेद का ज्ञान । ४. व्युत्सर्ग-शरीर और उपाधि में अनासक्त भाव । शुक्लध्यान के चार आलम्बन हैं १.क्षान्ति-क्षमा । २. मुक्ति-निर्लोभता। ३. मार्दव-मृदुता। ४. आर्जव-सरलता। शुक्लध्यान की चार अनुपेक्षाएं हैं १. अनन्तवृत्तिता अनुप्रेक्षा-संसार परम्परा का चिन्तन करना । २. विपरिणाम अनुप्रेक्षा-वस्तुओं के विविध परिणामों का चिन्तन करना। ३. अशुभ अनुप्रेक्षा-पदार्थों की अशुभता का चिन्तन करना। ४. अपाय अनुप्रेक्षा-दोषों का चिन्तन करना। आगम के उत्तरवर्ती साहित्य में ध्यान चतुष्टय का दूसरा वर्गीकरण भी मिलता है। उसके अनुसार ध्यान के चार भेद इस प्रकार हैं-(१) पिण्डस्थ, (२) पदस्थ, (३) रूपस्थ और (४) रूपातीत । तंत्रशास्त्र में भी पिण्ड, पद, रूह और रूपातीत~ये चारों प्राप्त Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ संस्कृति के दो प्रवाह होते हैं ।' दोनों के अर्थ भेद को छोड़कर देखा जाए तो लगता है कि जैनसाहित्य का यह वर्गीकरण तंत्रशास्त्र से प्रभावित है । ध्यान के विभाग ध्येय के आधार पर किए हैं । धर्मध्यान के जैसे चार ध्येय बतलाए, वैसे और भी हो सकते हैं । इसी संभावना के आधार पर पिण्डस्थ, पदस्थ आदि भेदों का विकास हुआ। वस्तुतः ये धर्मध्यान केही प्रकार हैं । नय-दृष्टि से ध्यान दो प्रकार का होता है - सालम्बन और निरालम्बन । सालम्बन ध्यान भेदात्मक होता है । उसमें ध्यान और ध्येय भिन्नभिन्न रहते हैं । इसे ध्यान मानने का आधार व्यवहार नय है । पिण्डस्थ ध्यान में भी शरीर के अवयव - सिर, भ्रू, तालु, ललाट, मुंह, नेत्र, कान, नासाग्र, हृदय और नाभि आदि आलम्बन होते हैं । इसमें धारणाओं का आलम्बन भी लिया जाता है। आचार्य शुभचन्द्र ने इसके लिए पांच धारणाओं का उल्लेख किया है (१) पार्थिवी - योगी यह कल्पना करे कि एक समुद्र है - शान्त और गंभीर । उसके मध्य में हजार पंखुड़ी वाला एक कमल है । उस कमल के मध्य में एक सिंहासन है । उस पर वह बैठा है और यह विश्वास करता है कि कषाय क्षीण हो रहे हैं, यह 'पार्थिवी' धारणा है। (२) आग्नेयी -- सिंहासन पर बैठा हुआ योगी यह कल्पना करे कि नाभि में सोलह दल वाला कमल है । उसकी कणिका में एक महामंत्र 'अर्हम्' है और उसके प्रत्येक दल पर एक-एक स्वर है । 'अर्हम्' के एकार से धूमशिखा निकल रही है । स्फुलिंग उछल रहे हैं । अग्नि की ज्वाला १. नवचक्रेश्वरतंत्र : पिण्डं पदं तथा रूपं, रूपातीतं चतुष्टयम् । यो वा सम्यग् विजानाति स गुरुः परिकीर्तितः । पिण्डं कुण्डलिनी शक्तिः, पदं हंसः प्रकीर्तितः । रूपं बिन्दुरिति ज्ञेयं, रूपातीतं निरञ्जनम् ।। २. योगशास्त्र १०1७ : संस्थानस्य चिन्तनात् । आज्ञापायविपाकानां इत्थं वा ध्येयभेदेन धर्म्यं ध्यानं चतुर्विधम् ॥ ३. तत्त्वानुशासन, ६६ । ४. वैराग्यमणिमाला, ३४ । ५. ज्ञानार्णव, ३७/४-३० १ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोग २२७ भभक रही है। उससे हृदय-स्थित अष्टदल कमल, जो आठ कर्मों का सूचक है, जल रहा है । वह भस्मीभूत हो गया है। अग्नि शान्त हो गई है, पह 'आग्नेयी' धारणा है। (३) मारुती-फिर यह कल्पना करे कि वेगवान् वायु चल रहा है, उसके द्वारा जले हुए कमल की राख उड़ रही है, यह 'मारुती' धारणा है। (४) वारुणी-फिर यह कल्पना करे कि तेज वर्षा हो रही है, बची हुई राख उसके जल में प्रवाहित हो रही है, यह 'वारुणी' धारणा है। (५) तत्त्वरूपवती-फिर कल्पना करे कि यह आत्मा 'अर्हत्' के समान है, शुद्ध है, अतिशय सम्पन्न है, यह 'तत्त्वरूपवती' धारणा है। हेमचन्द्र ने इसका 'तत्त्वभू' नाम भी रखा है। __ पदस्थ ध्यान में मंत्र-पदों का आलम्बन लिया जाता है। ज्ञानार्णव (३८।१-१६) और योगशास्त्र (८।१-८०) में मंत्र-पदों की विस्तार से चर्चा की है। रूपस्य ध्यान में 'अर्हत्' के रूप (प्रतिमा) का आलम्बन लिया जाता है। वीतराग का चिन्तन करने वाला वीतराग हो जाता है और रोगी का चिन्तन करने वाला रोगी। इसीलिए रूपस्थ ध्यान का आलम्बन वीतराग का रूप होता है। पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ-इन तीनों ध्यानों में आत्मा का चिदानन्दमय स्वरूप होता है। इसमें ध्याता, ध्यान और ध्येय की एकता होती है । इस एकीकरण को 'समरसी-भाव' कहा जाता है। यह निरालम्बन ध्यान है। इसे ध्यान मानने का आधार निश्चय नय है। प्रारम्भ में सालम्बन ध्यान का अभ्यास किया जाता है। इसमें एक स्थूल आलम्बन होता है, अतः इससे ध्यान के अभ्यास में सुविधा मिलती है । जब इसका अभ्यास परिपक्व हो जाता है तब निरालम्बन ध्यान की योग्यता प्राप्त होती है। जो व्यक्ति सालम्बन ध्यान का अभ्यास किए बिना सीधा निरालम्बन ध्यान करना चाहता है, वह वैचारिक आकुलता से घिर जाता है । इसीलिए आचार्यों ने चेताया कि पहले सालम्बन ध्यान का अभ्यास करो। वह सध जाए तब उसे छोड़ दो, निरालम्बन ध्यान के अभ्यास में लग जाओ।' ध्यान के अभ्यास का यह क्रम प्रायः सर्वसम्मत रहा है--स्थूल से सूक्ष्म, सविकल्प से निर्विकल्प और सालम्बन से १. योगशास्त्र, ६।१३। २. ज्ञानसार, ३७; योगशात्र, १०१४ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ संस्कृति के दो प्रवाह निरालम्बन होना चाहिए। ध्यान की मर्यादाएं ___ ध्यान करने की कुछ मर्यादाएं हैं। उन्हें समझ लेने पर ही ध्यान करना सुलभ होता है। सभी ध्यानशास्त्रों में न्यूनाधिक रूप से उनकी चर्चा प्राप्त है । जैन आचार्यों ने भी उनके विषय में अपना अभिमत प्रदर्शित किया है। ध्यानशतक में ध्यान से सम्बन्धित बारह विषयों पर विचार किया गया है। वे ये हैं (१) भावना, (२) प्रदेश, (३) काल, (४) आसन, (५) आलम्बन, (६) क्रम, (७) ध्येय, (८) ध्याता, (६) अनुप्रेक्षा, (१०) लेश्या, (११) लिङ्ग और (१२) फल ।' पहले हम इन विषयों के माध्यम से धर्मध्यान पर विचार करेंगे। (१) भावना ध्यान की योग्यता उसी व्यक्ति को प्राप्त होती है, जो पहले भावना का अभ्यास कर चुकता है। इस प्रसंग में चार भावनाएं उल्लेखनीय हैं (१) ज्ञान-भावना--ज्ञान का अभ्यास ; ज्ञान में मन की लीनता, (२) दर्शन-भावना-मानसिक मूढ़ता के निरसन का अभ्यास,. (३) चारित्र-भावना-समता का अभ्यास, (४) वैराग्य-भावना-जगत् के स्वभाव का यथार्थ दर्शन ; आसक्ति, भय और आकांक्षा से मुक्त रहने का अभ्यास । इन भावनाओं के अभ्यास से ध्यान के योग्य मानसिक स्थिरता प्राप्त होती है। आचार्य जिनसेन ने ज्ञान-भावना के पांच प्रकार बतलाए हैं-वाचना, प्रच्छना, अनुप्रेक्षा, परिवर्तना और धर्म-देशना । दर्शन-भावना के सात प्रकार बतलाए हैं—संवेग, प्रशम, स्थैर्य, अमूढ़ता, अगर्वता, आस्तिक्य और अनुकम्पा । चारित्र-भावना के नौ प्रकार बतलाए हैं--पांच समितियां, तीन गुप्तियां और कष्ट-सहिष्णुता। वैराग्य-भावना के तीन प्रकार बतलाए हैं—विषयों के प्रति अनासक्ति, कायतत्त्व का अनुचिन्तन और जगत् के स्वभाव का विवेचन ।' १. ध्यानशतक, २८,२६ । २. ध्यानशतक, ३० । ३. महापुराण, २११६६-६६ । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग २२६ 1 (२) प्रदेश - ध्यान के लिए एकान्त प्रदेश अपेक्षित है । जो जनाकीर्ण स्थान में रहता है, उसके सामने इन्द्रियों के विषय प्रस्तुत होते रहते हैं । उनके सम्पर्क से कदाचित् मन व्याकुल हो जाता है । इसलिए एकान्तवास मुनि के लिए सामान्य मार्ग है, किन्तु जैन आचार्यों ने हर सत्य को अनेकान्तदृष्टि से देखा, इसलिए उनका यह आग्रह कभी नहीं रहा कि मुनि को एकान्तवासी ही होना चाहिए। भगवान् महावीर ने कहा"साधना गांव में भी हो सकती है और अरण्य में भी हो सकती है । साधना का भाव न हो तो वह गांव में भी नहीं हो सकती और अरण्य में भी नहीं हो सकती ।"" धीर व्यक्ति जनाकीर्णं और विजन -- दोनों स्थानों में समचित्त रह सकता है ।' अतः ध्यान के लिए प्रदेश की कोई ऐकान्तिक मर्यादा नहीं दी जा सकती । अनेकान्तदृष्टि से विचार किया जाए तो प्रदेश के सम्बन्ध में सामान्य मर्यादा यह है कि ध्यान का स्थान शून्य-गृह, गुफा आदि विजन प्रदेश होना चाहिए । जहां मन, वाणी और शरीर को समाधान मिले और जहां जीव-जन्तुओं का कोई उपद्रव न हो, वह स्थान ध्यान के लिए उपयुक्त है । (३) काल - ध्यान के लिए काल की भी कोई ऐकान्तिक मर्यादा नहीं है । वह सार्वकालिक है- जब भावना हो तभी किया जा सकता है ।" ध्यानशतक के अनुसार जब मन को समाधान प्राप्त हो, वही समय ध्यान के लिए उपयुक्त है । उसके लिए दिन-रात आदि किसी समय का नियम नहीं किया जा सकता । ' (४) आसन - ध्यान के लिए शरीर की अवस्थिति का भी कोई नियम नहीं है । जिस अवस्थिति में ध्यान सुलभ हो, उसी में वह करना चाहिए । इस अभिमत के अनुसार ध्यान खड़े, बैठे और सोते -तीनों अवस्थाओं में किया जा सकता है ।" १. महापुराण, २१।७०-८० । २. आयारो, ८।१४ : गामे वा अदुवा रण्णे, णेव गामे णेव रण्णे धम्ममायाणह । ३. ध्यानशतक, ३६ । ४. वही, ३७ । ५. महापुराण, २१।८१ : न चाहोरात्र सन्ध्यादि-लक्षणः कालपर्ययः । नियतोऽस्यास्ति दिध्यासोः, तद्ध्यानं सार्वकालिकम् ॥ ६. ध्यानशतक, ३८ । ७. ध्यानशतक, ३६; महापुराण, २१।७५ । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० संस्कृति के दो प्रवाह 'भू-भाग'-ध्यान किसी ऊंचे आसन या शय्या आदि पर बैठ कर नहीं करना चाहिए । उसके लिए 'भूतल' और 'शिलापट्ट'-ये दो उपयुक्त माने गए हैं। काष्ठपट्ट भी उसके लिए उपयुक्त है । ध्यान के लिए अभिहित आसनों की चर्चा हम 'स्थानयोग' के प्रसंग में कर चुके हैं। समग्रदृष्टि से ध्यान के लिए निम्न अपेक्षाएं हैं(१) बाधा रहित स्थान, (२) प्रसन्न काल, (३) सुखासन, (४) सम, सरल और तनाव रहित शरीर, (५) दोनों होठ 'अधर' मिले हुए, (६) नीचे और ऊपर के दांतों में अन्तर, (७) दृष्टि नासा के अग्र भाग पर टिकी हुई, (८) प्रसन्न मुख, (E) मुंह पूर्व या उत्तर दिशा की ओर (१०) मंद श्वास-निःश्वास ।' (५) आलम्बन-ऊपर की चढ़ाई में जैसे रस्सी आदि के सहारे की आवश्यकता होती है, वैसे ही ध्यान के लिए भी कुछ आलम्बन आवश्यक होते हैं। इनका उल्लेख 'ध्यान के प्रकार' शीर्षक में किया जा चुका है। (६) क्रम-पहले स्थान (स्थिर रहने) का अभ्यास होना चाहिए। इसके पश्चात् मौन का अभ्यास करना चाहिए। शरीर और वाणी-दोनों की गुप्ति होने पर ध्यान (मन की गुप्ति) सहज हो जाता है । अपनी शक्ति के अनुसार ध्यान-साधना के अनेक क्रम हो सकते हैं। (७) ध्येय-ध्येय अनेक हो सकते हैं, उनकी निश्चित संख्या नहीं की जा सकती। ध्येय विषयक चर्चा 'ध्यान के प्रकार' शीर्षक में की जा चुकी है। (८) ध्याता-ध्यान के लिए कुछ विशेष गुणों की अपेक्षाएं हैं। वे १. तत्त्वानुशासन, ६२। २. (क) महापुराण, २११६०-६४ । (ख) योगशास्त्र, ४।१३५,१३६ । (ग) पासनाहचरिय, २०६ । ३. ध्यानशतक, ४३ । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग जिसे प्राप्त हों, वही व्यक्ति उसका अधिकारी है। ध्यानशतक में उन विशेष गुणों का उल्लेख इस प्रकार है(१) अप्रमाद-मद्यपान, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा-ये पांच प्रमाद हैं, इनसे जो मुक्त होता है। (२) निर्मोह-जिसका मोह उपशान्त या क्षीण होता है। (३) ज्ञान-सम्पन्न-जो ज्ञान-सम्पदा से युक्त होता है । इन तीन गुणों से युक्त व्यक्ति ही धर्मध्यान का अधिकारी होता ___ सामान्य धारणा यही रही है कि ध्यान का अधिकारी मुनि हो सकता है। रामसेन' और शुभचन्द्र का भी यही मत है। इसका अर्थ यह नहीं कि गृहस्थ के धर्मध्यान होता ही नहीं, किन्तु इसका अभिप्राय यह है कि उसके उत्तम कोटि का ध्यान नहीं होता। __धर्मध्यान की तीन कोटियां हो सकती हैं-उत्तम, मध्यम और अवर । उत्तम कोटि का ध्यान अप्रमत्त व्यक्तियों का ही होता है। मध्यम और अवर कोटि का ध्यान शेष व्यक्तियों के हो सकता है। उनके लिए यही सीमा मान्य है कि इन्द्रिय और मन पर उनका निग्रह होना चाहिए।' रामसेन ने अधिकारी की दृष्टि से धर्मध्यान को दो भागों में विभक्त किया है-मुख्य और उपचार। मुख्य धर्मध्यान का अधिकारी अप्रमत्त ही होता है। दूसरे लोग औपचारिक धर्मध्यान के अधिकारी होते हैं।' ध्यान की सामग्री (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव) के आधार पर भी ध्याता और ध्यान के तीन-तीन प्रकार निश्चित किए गए हैंउत्कृष्ट सामग्री उत्कृष्ट ध्याता उत्कृष्ट ध्लान मध्यम सामग्री मध्यम ध्याता मध्यम ध्यान जघन्य सामग्री जघन्य ध्याता जघन्य ध्यान १. ध्यानशतक, ६३ । २. वही, ६३ । ३. तत्त्वानुशासन, ४१-४५ । ४. ज्ञानार्णव, ४।१७।। ५. तत्त्वानुशासन, ३८ : गुप्तेन्द्रियमना ध्याता। ६. तत्त्वानुसाशन, ४७ । ७. (क) वही, ४८,४६ । (ख) ज्ञानार्णव, २१४१०२ । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह धर्मध्यान का अधिकारी अल्पज्ञानी व्यक्ति हो सकता है, किन्तु वह नहीं हो सकता, जिसका मन अस्थिर हो ।' ध्यान और ज्ञान का निकट से कोई सम्बन्ध नहीं है । ज्ञान व्यग्र होता है—अनेक आलम्बनों में विचरण करता है और ध्यान एकाग्र होता है—एक आलम्बन पर स्थिर होता है । वस्तुतः ध्यान ज्ञान से भिन्न नहीं है, उसी की एक विशेष अवस्था है । अपरिस्पन्दमान अग्निशिखा की भांति जो ज्ञान स्थिर होता है, वही ध्यान कहलाता है ।" जिसका संहनन वज्र की तरह सुदृढ़ होता है और जो विशिष्ट श्रुत ( पूर्व - ज्ञान ) का ज्ञाता होता है, वही व्यक्ति शुक्लध्यान का अधिकारी है । " जैन आचार्यों का यह अभिमत रहा है कि वर्तमान में शुक्लध्यान उपयुक्त सामग्री - वज्र - संहनन और ध्यानोपयोगी विशिष्ट ज्ञान प्राप्त नहीं है । उन्होंने ऐदयुगीन लोगों को धर्मध्यान का ही अधिकारी माना है ।" के २३२ (६) अनुप्रेक्षा - आत्मोपलब्धि के दो साधन हैं- स्वाध्याय और ध्यान । कहा गया है कि स्वाध्याय करो, उससे थकान का अनुभव हो तब ध्यान करो । ध्यान से थकान का अनुभव हो, तब फिर स्वाध्याय करो । इस क्रम से स्वाध्याय और ध्यान के अभ्यास से परमात्मा प्रकाशित हो जाता है ।" अनुप्रेक्षा स्वाध्याय का एक अंग है । ध्यान की सिद्धि के लिए अनुप्रेक्षाओं का अभ्यास करना नितान्त आवश्यक है । उनके अभ्यास से जिसका मन सुसंस्कृत होता है, वह विषम स्थिति उत्पन्न होने पर भी अविचल रह सकता है, प्रिय और अप्रिय दोनों स्थितियों को समभाव से सह सकता है । धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं हैं । इनका उल्लेख हम 'ध्यान के प्रकार' शीर्षक में कर चुके हैं । (१०) लेश्या - विचारों में तरतमता होती है । वे अच्छे हों या बुरे, एक समान नहीं होते। इस तरतमता को लेश्या के द्वारा समझाया गया है । यह निश्चित है कि धर्मध्यान के समय विचार प्रवाह शुद्ध होता १. महापुराण, २८।२६ । २. सर्वार्थसिद्धि, ६।२७; तत्त्वानुशासन, ४६ । ३. ध्यानशतक, ६४ । ४. तत्त्वानुशासन, ३६ । ५. वही, ८१ । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग २३३ है। शुद्ध विचार-प्रवाह के तीन प्रकार हैं-तेजस् लेश्या, पद्म लेश्या और शुक्ल लेश्या। तेजस् लेश्या से पद्म लेश्या विशुद्ध होती है और पद्म लेश्या से शुक्ल लेश्या विशुद्ध होती है। एक-एक लेश्या के परिणाम भी मंद, मध्यम और तीव्र होते हैं। उत्तराध्ययन में मानसिक विशुद्धि का क्रम समझाते हुए बताया गया है 'जो मनुष्य नम्रता से बर्ताव करता है, जो चपल होता है, जो माया से रहित है, जो अकुतूहली है, जो विनय करने में निपुण है, जो दान्त है, जो समाधि-युक्त है, जो उपधान (श्रुत अध्ययन करते समय तप) करने वाला है, जो धर्म में प्रेम रखता है, जो धर्म में दृढ़ है, जो पापभीर है, जो मुक्ति का गवेषक है-जो इन सभी प्रवृत्तियों से युक्त है, वह तेजोलेश्या में परिणत होता है।' - 'जिस मनुष्य के क्रोध, मान, माया और लोभ अत्यन्त अल्प हैं, जो प्रशान्त-चित्त है, जो अपनी आत्मा का दमन करता है, जो समाधि-युक्त है, जो उपधान करने वाला है, जो अत्यल्प भाषी है, जो उपशान्त है, जो जितेन्द्रिय है-जो इन सभी प्रवृत्तियों से युक्त है, वह पद्म लेश्या में परिणत होता है।' 'जो मनुष्य आत और रौद्र-इन दोनों ध्यानों को छोड़कर धर्म और शुक्ल-इन दो ध्यानों में लीन रहता है, जो प्रशान्त-चित्त है, जो अपनी आत्मा का दमन करता है, जो समितियों से समित है, जो गुप्तियों से गुप्त है, जो उपशान्त है, जो जितेन्द्रिय है-जो इन सभी प्रवृत्तियों से पुक्त है, वह सराग हो या वीतराग, शुक्ल लेश्या में परिणत होता है।" (११) लिङ्ग-सूदूर प्रदेश में अग्नि होती है, उसे आंखों से नहीं देखा जा सकता, किन्तु धुंआ देखकर उसे जाना जा सकता है। इसीलिए बूंआ उसका लिङ्ग है। ध्यान व्यक्ति की आन्तरिक प्रवृत्ति है, उसे नहीं देखा जा सकता, किन्तु उस व्यक्ति की सत्य विषयक आस्था देखकर उसे माना जा सकता है, इसीलिए सत्य की आस्था उसका लिङ्ग है-हेतु है।' आगमों में इसके चार लिङ्ग (लक्षण) बतलाए गए हैं। 'ध्यान के प्रकार' शीर्षक देखिए। (१२) फल-धर्मध्यान का प्रथम फल आत्म-ज्ञान है। जो सत्य १. उत्तराध्ययन, ३४।२७-३२ । २. ध्यानशतक, ६७ । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ संस्कृति के दो प्रवाह अनेक तर्कों के द्वारा नहीं जाना जाता, वह ध्यान के द्वारा सहज ही ज्ञात हो जाता है। आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है-"कर्म क्षीण होने पर मोक्ष होता है, कर्म आत्म-ज्ञान से क्षीण होते हैं और आत्म-ज्ञान ध्यान से होता है। यह ध्यान का प्रत्यक्ष फल है।"' पारलौकिक या परोक्ष फल के विषय में सन्देह हो सकता है, इसीलिए हमारे आचार्यों ने ध्यान के ऐहिक या प्रत्यक्ष फलों का भी विवरण प्रस्तुत किया है। ध्यान-सिद्ध व्यक्ति कषाय से उत्पन्न होने वाले मानसिक दुःखों-ईर्ष्या, विषाद, शोक, हर्ष आदि से पीड़ित नहीं होता । वह सर्दी-गर्मी आदि से उत्पन्न शारीरिक कष्टों से भी पीड़ित नहीं होता। यह तथ्य वर्तमान शोधों से भी प्रमाणित हो चुका है कि बाह्य परिस्थितियों से ध्यानस्थ व्यक्ति बहुत कम प्रभावित होता है। अन्तरिक्ष यात्रियों के लिए अत्यधिक सर्दी और गर्मी से अप्रभावित रहना आवश्यक है। इस दष्टि से योग की प्रक्रिया को अन्तरिक्ष यात्रा के लिए उपयोगी समझा गया। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए रूसियों और अमरीकियों ने भारत में आकर योगाभ्यास की अनेक प्रक्रियाओं का ज्ञान प्राप्त किया। शुक्लध्यान शुक्लध्यान के लिए उपयुक्त सामग्री अभी प्राप्त नहीं है, अतः आधनिक लोगों के लिए उसका अभ्यास भी संभव नहीं है। फिर भी उसका विवेचन आवश्यक है। उसकी परम्परा का विच्छेद नहीं होना चाहिए, आचार्य हेमचन्द्र की यह मान्यता है।' इस मान्यता में सचाई भी है। अविच्छिन्न परम्परा से यदा-कदा कोई व्यक्ति थोड़ी बहुत मात्रा में लाभान्वित हो सकता है। अब हम भावना आदि बारह विषयों के माध्यम से शुक्लध्यान का विवेचन करेंगे। भावना, प्रदेश, काल और आसन-ये चार विषय धर्म और शुक्ल-दोनों के समान हैं। आलम्बन आदि दोनों के भिन्न-भिन्न हैं। आलम्बन-शुक्लध्यान के आलम्बनों की चर्चा 'ध्यान के प्रकार' १. योगशास्त्र, ४।११३ : मोक्षः कर्मक्षयादेव, स चात्मज्ञानतो भवेत् । ध्यानसाध्यं मतं तच्च, तध्यानं हितमात्मनः ।। २. ध्यानशतक, १०३,१०४। ३. योगशास्त्र, १११३,४ । ४. भ्यानशतक, ६८, वृत्ति । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग २३५ शीर्षक में की जा चुकी है। ___ क्रम-शुक्लध्यान करने वाला क्रमशः महद् आलम्बन की ओर बढ़ता है। प्रारम्भ में मन का आलम्बन समूचा संसार होता है। क्रमिक अभ्यास होते-होते वह एक परमाणु पर स्थिर हो जाता है। केवली दशा आते-आते मन का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। ___ आलम्बन के संक्षेपीकरण का जो क्रम है, उसे कुछ उदाहरणों के द्वारा समझाया गया है। जैसे समूचे शरीर में फैला हुआ जहर डंक के स्थान में उपसंहृत किया जाता है और फिर उसे बाहर निकाल दिया जाता है, उसी प्रकार विश्व के सभी विषयों में फैला हुआ मन एक परमाणु में निरुद्ध किया जाता है और फिर उससे हटाकर आत्मस्थ किया जाता है। जैसे ईंधन समाप्त होने पर अग्नि पहले क्षीण होती है, फिर बुझ जाती है, उसी प्रकार विषयों के समाप्त होने पर मन पहले क्षीण होता है, फिर बुझ जाता है-शान्त हो जाता है। जैसे लोहे के गर्म बर्तन में डाला हुआ जल क्रमशः क्षीण होता जाता है, उसी प्रकार शुक्लध्यानी का मन अप्रमाद से क्षीण होता जाता है। महर्षि पतंजलि के अनुसार योगी का चित्त सूक्ष्म में निविशमान होता है, तब परमाणु में स्थित हो जाता है और जब स्थूल में निविशमान होता है, तब परम महत उसका विषय बन जाता है। इसमें परमाण पर स्थित होने की बात है पर यह स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाने के क्रम की चर्चा नहीं है। ध्येय-शुक्लध्यान का ध्येय पृथक्त्व-वितर्क-सविचार और एकत्ववितर्क-अविचार-इन दो रूपों में विभक्त है। पहला भेदात्मक रूप है और दूसरा अभेदात्मक । इनका विशेष अर्थ 'ध्यान के प्रकार' में देखें। ध्याता-ध्याता के लक्षण धर्मध्यान के ध्याता के समान ही हैं। अनप्रेक्षा-देखिए 'ध्यान के प्रकार' शीर्षक । लेश्या-शुक्लध्यान के प्रथम दो चरणों में लेश्या शक्ल होती है, तीसरे चरण में वह परम शुक्ल होती है और चौथा चरण लेश्यातीत होता लिङ्ग-शुक्लध्यान के चार लिङ्ग (लक्षण) हैं। देखिए 'ध्यान के प्रकार' शीर्षक में। १. ध्यानशतक, ७० । २. पातंजल योगसूत्र, ११४० । 3. ध्यानशतक E । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ संस्कृति के दो प्रवाह फल-धर्मध्यान का जो फल बतलाया गया है, वह उत्कृष्ट स्थिति में पहंच शुक्लध्यान का फल बन जाता है। इसका अंतिम फल मोक्ष है। ध्यान के व्यावहारिक फल के विषय में कुछ मतभेद मिलता है। ध्यानशतक के अनुसार ध्यान से मन, वाणी और शरीर को कष्ट होता है, वे दुर्बल होते हैं और उनका विदारण होता है।' इस अभिमत से जान पड़ता है कि ध्यान से शरीर दुर्बल होता है। दूसरा अभिमत इससे भिन्न है। उसके अनुसार ध्यान से ज्ञान, विभूति, आयु, आरोग्य, सन्तुष्टि, पुष्टि और शारीरिक धैर्य-ये सब प्राप्त होते हैं। एकान्तदृष्टि से देखने पर ये दोनों तथ्य विपरीत जान पड़ते हैं, पर इन दोनों के साथ भिन्नभिन्न अपेक्षा जुड़ी हुई है। जिस ध्यान में श्रोती भावना या चिन्तन की अत्यन्त गहराई होती है, उससे शारीरिक कशता हो सकती है। जिस ध्यान में आत्म-संवेदन के सिवाय शेष चिन्तन का अभाव होता है. उससे शारीरिक पुष्टि हो सकती है। ध्यान और प्राणायाम जैन आचार्य ध्यान के लिए प्राणायाम को आवश्यक नहीं मानते। उनका अभिमत है कि तीव्र प्राणायाम से मन व्याकूल होता है। मानसिक व्याकुलता से समाधि का भंग होता है। जहां समाधि का भंग होता है, वहां ध्यान नहीं हो सकता।'समाधि के लिए श्वास को मंद करना आवश्यक है। श्वास और मन का गहरा सम्बन्ध है। जहां मन है, वहां श्वास है और जहां श्वास है, वहां मन है। ये दोनों क्षीर-नीर की भांति परस्पर घुले-मिले हैं। मन की गति मंद होने से श्वास की और श्वास की गति मंद होने से मन की गति अपने आप मंद हो जाती है। ध्यान और समत्व ___ समता और विषमता का हमारे जीवन पर गहरा प्रभाव है । शरीर सम अवस्थित होता है, तब सारा स्नायु-संस्थान ठीक काम करता है और वह विषम रूप में स्थित होता है, तब स्नायु-संस्थान की क्रिया अव्यवस्थित हो जाती है। १. ध्यानशतक, ६६ २. तत्त्वानुशासन, १९८ । ३. महापुराण, २११६५,६६ । ४. योगशास्त्र, ५२: मनो यत्र मरुत्तत्र, मरुद् यत्र मनस्ततः । अतस्तुल्यक्रियावेती, संवीतो क्षीरनीरवत् ॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग २३७ . शरीर की समता का मन पर असर होता है और मन की समता का चेतना पर असर होता है। चेतना की अस्थिरता मानसिक विषमता की स्थिति में ही होती है । लाभ-अलाभ, सुख-दुःख आदि स्थितियों से मन जितना विषम होता है, उतनी ही चंचलता होती है। उन स्थितियों के प्रति मन का कोई लगाव नहीं होता, तब वह सम होता है। उस स्थिति में चेतना सहज ही स्थिर होती है। यही अवस्था ध्यान है। इसीलिए आचाय शुभचन्द्र ने समभाव को ध्यान माना है।' आचार्य हेमचन्द्र का अभिमत है कि जो व्यक्ति समता की साधना किए बिना ध्यान करता है, वह कोरी विडम्बना करता है। ध्यान और शारीरिक संहनन जैन परम्परा में कुछ लोग यह मानने लगे थे कि वर्तमान समय में ध्यान नहीं हो सकता, क्योंकि आज शरीर का संहनन उतना दृढ़ नहीं है जितना पहले था। ध्यान के अधिकारी वे ही हो सकते हैं, जिनका शारीरिक संहनन उत्तम हो। तत्त्वार्थ सूत्र में भी यही बताया गया है कि ध्यान उसी के होता है, जिसका शारीरिक संहनन उत्तम होता है।' यह चर्चा विक्रम की प्रथम शताब्दी के आसपास ही प्रारम्भ हो चुकी थी। उसी के प्रति आचार्य कुन्दकुन्द ने अपना अभिमत प्रकट किया था'इस दुस्सम-काल में भी आत्म-स्वभाव में स्थित ज्ञानी के धर्मध्यान हो सकता है। जो इसे नहीं मानता, वह अज्ञानी हैं।" आचार्य देवसेन ने भी इस अभिमत से सहमति प्रकट की थी। यह चर्चा विक्रम की १०वीं शताब्दी में भी चल रही थी। रामसेन ने भी इस प्रसंग पर लिखा है'जो लोग वर्तमान में ध्यान होना नहीं मानते वे अर्हत् मत से अनभिज्ञ हैं। उनके अनुसार शुक्लध्यान के योग्य शारीरिक संहनन अभी प्राप्त नहीं है, किन्तु धर्मध्यान के योग्य संहनन आज भी प्राप्त है।" १. ज्ञानार्णव, २७।४। २. योगशास्त्र, ४।११२ : समत्वमवलम्ब्याथ, ध्यानं योगी समाश्रयेत् । बिना समत्वमारब्धे, ध्याने स्वात्मा विडम्ब्यते॥ ३. तत्त्वार्थ सूत्र, ६।२७ । ४. मोक्खपाहुड, ७३-७६ । ५. तत्त्वसार, १४ । ६. तत्त्वानुशासन, ८२-८४ । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह जैन परम्परा में ध्यान करने की प्रवृत्ति का ह्रास हुआ, उसका एक कारण यह मनोवृत्ति भी रही होगी कि वर्तमान समय में हम ध्यान के अधिकारी नही हैं । कुछ आचार्यों ने इस मनोवृत्ति का विरोध भी किया, किन्तु फिर भी समय ने उन्हीं का साथ दिया, जो ध्यान नहीं होने के पक्ष में थे । .२३८ इसमें कोई संदेह नहीं कि ध्यान के लिए शारीरिक संहनन की दृढ़ता बहुत अपेक्षित है और वह इसलिए अपेक्षित है कि मन की स्थिरता शरीर की स्थिरता पर निर्भर है । ध्यान का कालमान चेतना की परिणति तीन प्रकार की होती है (१) हीयमान । (२) वर्धमान । ( ३ ) अवस्थित । हीयमान और वर्धमान - ये दोनों परिणतियां अनवस्थित हैं । जो अनवस्थित हैं, वे ध्यान नहीं हैं । अवस्थित परिणति ध्यान है । गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा - " भन्ते ! अवस्थित परिणति कितने समय तक हो सकती है ?" भगवान् ने कहा - " गौतम ! जघन्यतः एक समय तक और उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त्त तक ।"" इसी संवाद के आधार पर ध्यान का कालमान निश्चित किया गया । एक वस्तु के प्रति चित्त का अवस्थित परिणाम अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त ( ४८ मिनट) तक हो सकता है ।' उसके बाद चिन्ता, भावना या अनुप्रेक्षा होने लग जाती है । उक्त कालमर्यादा एक वस्तु में होने वाली चित्त की एकाग्रता की है । वस्तु का परिवर्तन होता रहे, तो ध्यान का प्रवाह लम्बे समय तक भी हो सकता है । उसके लिए अन्तर्मुहर्त का नियम नहीं है। ध्यान -सिद्धि के हेतु ध्यान-सिद्धि के लिए चार बातें अपेक्षित हैं- ( १ ) गुरु का उपदेश, (२) श्रद्धा, (३) निरन्तर अभ्यास और ( ४ ) स्थिर मन । पतंजलि ने अभ्यास की दृढ़ता के तीन हेतु बतलाएं हैं- ( १ ) दीर्घकाल, (२) निरन्तर और ( ३ ) सत्कार ।" अनेक ग्रन्थों में योग या १. भगवती, २५।३८७ । २. तत्त्वार्थ सूत्र, ६।२७ । ३. ध्यानशतक, ४ । ४. तत्त्वानुशासन, २१८ । ५. पातंजलयोगसूत्र, १ । १४ । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग - २३६ ध्यान की सिद्धि के हेतुओं की विचारणा की गई है। सोमदेव सूरी ने वैराग्य, ज्ञानसम्पदा, असंगता, चित्त की स्थिरता, भूख-प्यास आदि की ऊर्मियों को सहना-ये पांच योग के हेतु बतलाए हैं।' ऐसे और भी अनेक हेतु हो सकते हैं पर इसी शीर्षक की प्रथम पंक्ति में निर्दिष्ट चार बातें अनिवार्य रूप से अपेक्षित हैं। ध्यान का महत्त्व __ मोक्ष का पथ है-संवर और निर्जरा । उनका पथ है-तप । ध्यान तप का प्रधान अंग है । इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि ध्यान मोक्ष का प्रधान मार्ग है। वस्त्र, लोह और गीलीभूमि के मल, कलंक और पंक की शुद्धि के लिए जो स्थान जल, अग्नि और सूर्य का है, वही स्थान कर्म-मल की शुद्धि के लिए ध्यान का है।' जैसे ईन्धन की राशि को अग्नि जला डालती है और प्रतिकूल पवन से आहत होकर बादल विलीन हो जाते हैं, वैसे ही ध्यान से कर्मों का दहन और विलयन होता है।' ऋषिभाषित में बतलाया गया है कि ध्यान-हीन धर्म सिर-हीन शरीर के समान है। जैन परम्परा में प्राचीन काल से ही ध्यान का इतना महत्त्व रहा, फिर भी पता नहीं ध्यान की परम्परा क्यों विच्छिन्न हुई ? बाह्य तप के सामने ध्यान क्यों निस्तेज हुआ? ध्यान की परम्परा विच्छिन्न होने के कारण ही दूसरे लोगों में यह भ्रम बढ़ा कि जैन धर्म का साधना-मार्ग बहुत कठोर है। यदि ध्यान की परम्परा अविच्छिन्न रही होती तो यह भ्रम नहीं होता। (६) व्युत्सर्ग विसर्जन साधना का एक बहुत महत्त्वपूर्ण अंग है। आत्मा अपने आप में परिपूर्ण है। उसे अपने लिए बाहर से कुछ भी अपेक्षित नहीं है। उसकी अपूर्णता का कारण है-बाह्य का उपादान। उसे रोक दिया जाए और विजित कर दिया जाए तो वह अपने सहज रूप में उदित हो जाती है। वही उसकी पूर्णता है। विसर्जनीय वस्तुएं दो प्रकार की हैं-(१) बाह्य आलम्बन और (२) आन्तरिक वृत्तियां। जैन परिभाषा में बाह्य आलम्बन के विसर्जन को 'द्रव्य-व्युत्सर्ग' और आन्तरिक वृत्तियों के विसर्जन को 'भाव-व्युत्सर्ग' कहा गया है। १. यशस्तिलक, ८१४०। ४. इसिभासियाई, २२।१४ । २. ध्यानशतक, ६७,६८।। ५. (क) भगवती, २५॥६१३-६१५ । ३. वही, १०१,१०२। (ख) औपपातिक, २० । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह बाह्य आलम्बन की दृष्टि से चार वस्तुएं विसर्जनीय मानी गई हैं(१) शरीर, (२) गण, (३) उपधि और ( ४ ) भक्त-पान | (१) शरीर - व्युत्सगं - शारीरिक चंचलता का विसर्जन । (२) गण - व्युत्सर्ग - विशिष्ट साधना के लिए गण का विसर्जन । (३) उपधि- व्युत्सर्ग-वस्त्र आदि उपरणों का विसर्जन । (४) भक्त - पान- व्युत्सर्ग-भोजन और जल का विसर्जन । आन्तरिक वृत्तियों की दृष्टि से विसर्जनीय वस्तुएं तीन हैं(१) कषाय, ( २ ) संसार और ( ३ ) कर्म । (१) कषाय- व्युत्सर्ग - क्रोध आदि का विसर्जन । २४० (२) संसार - व्युत्सर्ग-संसार के मूल हेतु राग-द्वेष का विसर्जन । (३) कर्म - व्युत्सर्ग - कर्म पुद्गलों का विसर्जन । उत्तराध्ययन में केवल शरीर व्युत्सर्ग की परिभाषा दी गई है ।" इसका दूसरा नाम 'कायोत्सर्ग' है । कायोत्सर्ग से कायोत्सर्ग का अर्थ है 'काया का उत्सर्ग' । होने से पहले काया का उत्सर्ग कैसे हो सकता है ? आयु शेष रहती है, तब तक काया का उत्सर्ग-त्याग किन्तु यह काया अशुचि है, अनित्य है, दोषपूर्ण है, इसमें ममत्व रखना दुःख का मूल है - इस बोध है । जिसे भेद - ज्ञान प्राप्त होता है, वह सोचता है कि है, मैं इसका नहीं हूं । मैं भिन्न हूं, शरीर भिन्न है । इस प्रकार का संकल्प करने से शरीर के प्रति आदर घट जाता है । इस स्थिति का नाम कायोत्सर्ग है । एक घर में रहने पर भी पति द्वारा अनादृत पत्नी परित्यक्ता कहलाती है । जिस वस्तु के प्रति जिस व्यक्ति के हृदय में अनादर भावना होती है, वह उसके लिए परित्यक्त होती है । जब काया में ममत्व नहीं रहता, आदरभाव नहीं रहता, तब काया परित्यक्त हो जाती है ।' कायोत्सर्ग की यह परिभाषा पूर्ण नहीं है । यदि काया के प्रति होने वाले ममत्व का विसर्जन ही कायोत्सर्ग हो तो चलते-फिरते व्यक्ति के भी कायोत्सर्ग हो सकता है, पर निश्चलता के बिना वह नहीं होता । हरिभद्र १. उत्तराध्ययन, ३०।३६ । २. मूलाराधना, ११८८, विजयोदया वृत्ति । प्रश्न होता है, आयु पूर्ण यह सही है, जब तक नहीं किया जा सकता, असार है, दुःख - हेतु है, भेद-ज्ञान प्राप्त होता यह शरीर मेरा नहीं Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग २४१ सूरि ने प्रवृत्ति में संलग्न काया के परित्याग को कायोत्सर्ग कहा है।' यह भी पूर्ण परिभाषा नहीं है । दोनों के योग से पूर्ण परिभाषा बनती है । कायोत्सर्ग अर्थात् कायिक ममत्व और चंचलता का विसर्जन। .. कायोत्सर्ग का उद्देश्य कायोत्सर्ग का मुख्य उद्देश्य है-आत्मा का काया से वियोजन । काया के साथ आत्मा का जो संयोग है, उसका मूल है प्रवृत्ति । जो इनका विसंयोग चाहता है अर्थात् आत्मा के सान्निध्य में रहना चाहता है, वह स्थान, मौन और ध्यान के द्वारा 'स्व' का व्युत्सर्ग करता है। स्थान-काया की प्रवृत्ति का स्थिरीकरण-काय-गुप्ति । मौन-वाणी की प्रवृत्ति का स्थिरीकरण-वाग्-गुप्ति । ध्यान-मन की प्रवृत्ति का स्थिरीकरण-मनो-गुप्ति। कायोत्सर्ग में श्वासोच्छ्वास जैसी सूक्ष्म प्रवृत्ति होती है। शेष प्रवृत्ति का निरोध किया जाता है।' कायोत्सर्ग की विधि और प्रकार शारीरिक अवस्थिति और मानसिक चिन्तनधारा के आधार पर कायोत्सर्ग के नौ प्रकार किए गए हैंशारीरिक अवस्थिति मानसिक चिन्तनधारा (१) उत्सृत-उत्सृत खड़ा । धर्म-शुक्ल ध्यान (२) उत्सृत खड़ा । न धर्म-शुक्ल और न आत-रौद्र किन्तु चिन्तन-शून्य दशा (३) उत्सृत-निषण्ण खड़ा आत-रौद्र ध्यान (४) निषण्ण-उत्सृत बैठा धर्म-शुक्ल ध्यान (५) निषण्ण बैठा न धर्म-शुक्ल और न आत-रौद्र किन्तु चिन्तन-शून्य दशा (६) निषण्ण-निषण्ण बैठा आर्त्त-रौद्र ध्यान (७) निषण्ण-उत्सृत सोया हुआ धर्म-शुक्ल ध्यान १. आवश्यक, गाथा ७७६, हारिभद्रीय वृत्ति : करोमि कायोत्सर्गम्-व्यापारवतः कायस्य परित्याग मिति भावना । २. योगशास्त्र, ३, पत्र २५० : कायस्य शरीरस्य स्थानमौनध्यानक्रियाव्यतिरेकेण अन्यत्र उच्छ्वसितादिभ्यः क्रियान्तराध्यासमधिकृत्य उत्सर्गस्त्यागो 'नमो अरहताणं' इति वचनात् प्राक् स कायोत्सर्गः । ional Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ सोया संस्कृति के दो प्रवाह हुआ न धर्म - शुक्ल और न आर्त्त - रौद्र किन्तु चिन्तन- शून्य दशा (८) निपन्न ( 2 ) निपन्न - निपन्न सोया हुआ आर्त्त रौद्र ध्यान ।' अमितगति ने कायोत्सर्ग के चार ही प्रकार माने हैं - ( १ ) उत्थितउत्थित, (२) उत्थित - उपविष्ट, (३) उपविष्ट - उत्थित और ( ४ ) उपविष्टउपविष्ट । (१) जो शरीर से खड़ा है और धर्म - शुक्ल ध्यान में लीन है, वह शरीर से भी उन्नत है और ध्यान से भी उन्नत है, इसलिए उसका कायोत्सर्गं 'उत्थित- उत्थित' कहलाता है । (२) जो शरीर से खड़ा है और आर्त-रौद्र ध्यान में लीन है, वह शरीर से उन्नत किन्तु ध्यान से अवनत है, इसलिए उसका कायोत्सर्ग 'उत्थित - उपविष्ट' कहलाता है । (३) जो शरीर से बैठा है और धर्म-शुक्ल ध्यान में लीन है, वह शरीर से अवनत है किन्तु ध्यान से उन्नत है, इसलिए उसका कायोत्सर्ग 'उपविष्ट - उत्थित' कहलाता है । (४) जो शरीर से बैठा है और आर्त्त - रौद्र ध्यान में लीन है, वह शरीर और ध्यान - दोनों से अवनत है; इसलिए उसका कायोत्सर्ग 'उपविष्ट - उपविष्ट कहलाता है । कायोत्सर्ग खड़े, बैठे और सोते- तीनों अवस्थाओं में किया जा सकता है। फिर भी खड़ी मुद्रा में उसका प्रयोग अधिक हुआ है। अपराजित सूरि ने लिखा है कि कायोत्सर्ग करने वाला व्यक्ति शरीर से निस्पृह होकर खम्भे की भांति सीधा खड़ा हो जाए। दोनों बाहों को घुटनों की ओर फैला दे । प्रशस्त ध्यान में निमग्न हो जाए। शरीर को न अकड़ा कर खड़ा हो और न झुका कर ही । समागत कष्टों और परीषहों को सहन करे । कायोत्सर्ग का स्थान भी एकान्त और जीव-जन्तु रहित होना चाहिए। * कायोत्सर्ग के उक्त प्रकार शरीर - मुद्रा और चिन्तन-प्रवाह के आधार १. आवश्यक निर्युक्ति गाथा, १४५६, १४६० । २. अमितगति, श्रावकाचार, ८।५७-६१ । ३. योगशास्त्र, ३ पत्र २५० । ४. मूलाराधना, २।११६, विजयोदया, वृत्ति पृ० २७८,२७६ : तत्र शरीरनिस्पृहः स्थाणुरिवोर्ध्व कायः, प्रलम्बितभुजः, प्रशस्तध्यानपरिणतोऽनुन्नमितानतकायः, परीषहानुपसर्गाश्च सहमानः, तिष्ठन्निर्जन्तुके कर्मापायाभिलाषी विविक्ते देशे । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग २४३ पर किए गए हैं, किन्तु प्रयोजन की दृष्टि से उसके दो ही प्रकार होते हैंचेष्टा कायोत्सर्ग और अभिभव कायोत्सर्ग ।' कायोत्सर्ग का कालमान चेष्टा कायोत्सर्ग का काल उच्छ्वास पर आधृत है। विभिन्न प्रयोजनों से वह आठ, पच्चीस, सत्ताईस, तीन सौ, पांच सौ और एक हजार आठ उच्छ्वास तक किया जाता है। अभिभव कायोत्सर्ग का काल जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः एक वर्ष का है। बाहबलि ने एक वर्ष का कायोत्सर्ग किया था। दोष-शुद्धि के लिए किए जाने वाले कायोत्सर्ग के पांच विकल्प होते हैं-(१) देवसिक कायोत्सर्ग, (२) रात्रिक कायोत्सर्ग, (३) पाक्षिक कायोत्सर्ग, . (४) चातुर्मासिक कायोत्सर्ग और (५) सांवत्सरिक कायोत्सर्ग। छह आवश्यक हैं, उनमें कायोत्सर्ग पांचवां है। कायोत्सर्ग-काल में चतुर्विंशस्तव (चौबीस तीर्थङ्करों की स्तुति) का ध्यान किया जाता है । उसके सात श्लोक और अट्ठाईस चरण हैं। एक उच्छवास में एक चरण का ध्यान किया जाता है। इस प्रकार एक चतविशस्तव का ध्यान पच्चीस उच्छ्वासों में सम्पन्न होता है। प्रवचनसारोद्धार और विजयोदया के अनुसार इनका ध्येय-परिमाण और कालमान इस प्रकार है प्रवचनसारोवार' चतविशस्तव श्लोक चरण उच्छ्वास (१) देवसिक २ २५ १०० १. आवश्यकनियुक्ति, गाथा १४५२ : सो उसग्गो दुविहो चिट्ठए अभिभवे य नायवो। भिक्खायरियाइ पढमो उवसग्गभिजुंजणे बिइओ।। २. (क) योगशास्त्र, ३ पत्र २५० : तत्र चेष्टाकायोत्सर्गोऽष्ट-पंचविंशति-सप्तविंशति त्रिंशति-पंचशती-अष्टोत्तर सहस्रोच्छ्वासान् यावद् भवति । अभिभव कायोत्सर्गस्तु मूहूर्तादारभ्य संवत्सरं यावद् बाहुबलिरिव भवति । (ख) मूलाराधना, २।११६, विजयोदया वृत्ति : अन्तर्महतः कायोत्सर्गस्य जघन्यः कालः वर्षमुत्कृष्टः । ३. योगशास्त्र, ३। ४. प्रवचनसारोद्धार, ३३१८३-१८५ : चत्तारि दो दुवालस, वीस चत्ता य हुंति उज्जोया। देसिय राय पक्खिय, चाउम्मासे य वरिसे य ।। १०० Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ संस्कृति के दो प्रवाह १२ ७५ चतुर्विंशस्तव श्लोक चरण उच्छ्वास (२) रात्रिक ४ १२३ ५० (३) पाक्षिक १२ ३०० (४) चातुर्मासिक २० १२५ ५०० ५०० (५) सांवत्सरिक ४० २५२ १००८ १००८ विजयोदया' चतुर्विशस्तव श्लोक वरण उच्छ्वास (१) देवसिक २५ १०० १०० (२) रात्रिक २ (३) पाक्षिक ३०० (४) चातुर्मासिक १६ १०० ४०० (५) सांवत्सरिक २० १२५ ५०० ५०० __ इस प्रकार नेमिचन्द्र और अपराजित-दोनों आचार्यों की उच्छ्वास संख्या भिन्न रही है । अमितगति श्रावकाचार के अनुसार देवसिक कायोत्सर्ग में १०८ तथा रात्रिक कायोत्सर्ग में ५४ उच्छ्वासों का ध्यान किया जाता है और अन्य कायोत्सर्गों में २७ उच्छवासों का। २७ उच्छ्वासों में नमस्कार मंत्र की नौ आवत्तियां की जाती हैं अर्थात तीन उच्छवासों में एक नमस्कार मंत्र पर ध्यान किया जाता है। संभव है प्रथम दो-दो वाक्य एक-एक उच्छ्वास में और पांचवां वाक्य एक उच्छ्वास में।। ___अमितगति ने एक दिन-रात के कायोत्सर्गों की कुल संख्या अट्ठाईस ३०० पणवीस अद्धतेरस, सलोग पन्नत्तरी य बोद्धव्वा । सयमेगं पणवीस, बे बावण्णा य बरिसंमि ॥ सायं सायं गोसद्धं, तिन्नेव सया हवंति पक्खम्मि । पंच य चाउम्मासे, वरिसे अट्ठोत्तरसहस्सा ।। १. मूलाराधना, ११११६ विजयोदया वृत्ति : सायाह्न उच्छ्वासशतकं, प्रत्यूषसि पंचशत, पक्षे त्रिंशतानि, चतुर्ष मासेसु चतुःशतानि, पंचशतानि संवत्सरे उच्छ्वासानाम् ॥ २. अमितगति श्रावकाचार, ८६८-६६ : अष्टोत्तरशतोच्छ्वास:, कायोत्सर्गः प्रतिक्रमे । सान्ध्ये प्रभातिके वार्धमन्यस्तत् सप्तविंशतिः। सप्तविंशतिरुच्छ्वासाः, संसारोन्मूलनक्षमे । सन्ति पंचनमस्कारे, नवधा चिन्तिते सति ॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग ... २४५ मानी है।' वह इस प्रकार है (१) स्वाध्याय-काल में (२) वंदना-काल में (३) प्रतिक्रमण-काल में (४) योग-भक्ति-काल में १२ ६ ८ २ पांच महाव्रतों सम्बन्धी अतिक्रमणों के लिए १०८ उच्छ्वासों का कायोत्सर्ग करने की विधि रही है। कायोत्सर्ग करते समय यदि उच्छवासों की संख्या में संदेह हो जाए अथवा मन विचलित हो जाए तो आठ उच्छवासों का अतिरिक्त कायोत्सर्ग करने की विधि रही है।' ऊपर के विवरण से सहज ही निष्पन्न होता है कि प्राचीन काल में कायोत्सर्ग मुनि की दिनचर्या का प्रमुख अंग था। उत्तराध्ययन के सामाचारी प्रकरण में भी अनेक बार कायोत्सर्ग करने का उल्लेख है ।' दशवकालिक चूलिका में मुनि को बार-बार कायोत्सर्ग करने वाला कहा गया है। कायोत्सर्ग का फल __ कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त के रूप में भी किया जाता है, अत: उसका एक फल है-दोष-विशुद्धि । अपने द्वारा किए हुए दोष का हृदय पर भार होता है। कायोत्सर्ग करने से वह हल्का हो जाता है, हृदय प्रफुल्ल हो जाता है। अतः उसका दूसरा फल है-हृदय का हल्कापन । हृदय हल्का होने से ध्यान प्रशस्त हो जाता है, यह उस का तीसरा १. अमितगति श्रावकाचार, ८।६६-६७ : अष्टविंशतिसंख्यानाः, कायोत्सर्गा मता जिनः । अहोरात्रगताः सर्वे, षडावश्यककारिणाम् ॥ स्वाध्याये द्वादश प्राज्ञः, वंदनायां षडीरिताः । अष्टौ प्रतिक्रमे योगभक्तौ तौ द्वावुदाहृतौ ॥ २. मूलाराधना, २।११६ विजयोदया वृत्ति : प्रत्यूषसि प्राणिवधादिषु पंचस्वतीचारेषु अष्टशतोच्छ्वासमात्रकालः कायोत्सर्गः । कायोत्सर्गे कृते यदि शंक्यते उच्छ्वासस्य स्खलनं वा परिणामस्य उच्छ्वासाष्टकमधिकं स्थातव्यम् । ३. उत्तराध्ययन, २६॥३८-५१ । ४. दशवैकालिक, चूलिका २१७ : अभिक्खणं काउस्सग्गकारी। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के दो प्रवाह फल है।' कायोत्सर्ग से शारीरिक और मानसिक तनाव तथा भार भी नष्ट होते हैं । इन सारी दृष्टियों को ध्यान में रख कर उसे सब दुःखों से मुक्ति दिलाने वाला कहा गया है। भद्रबाहु स्वामी ने कायोत्सर्ग के पांच फल बतलाए हैं (१) देहजाड्यशुद्धि-लेष्म आदि के द्वारा देह में जड़ता आती है । कायोत्सर्ग से श्लेष्म आदि नष्ट होते हैं, अतः उनसे उत्पन्न होने वाली जड़ता भी नष्ट हो जाती है। (२) मतिजाड्यशुद्धि-कायोत्सर्ग में मन की प्रवृत्ति केन्द्रित हो जाती है। उससे बौद्धिक जड़ता क्षीण होती है। (३) सुख-दुःख-तितिक्षा-कायोत्सर्ग से सुख और दुःख को सहन करने की क्षमता उत्पन्न होती है। (४) अनुप्रेक्षा-कायोत्सर्ग में स्थित व्यक्ति अनुप्रेक्षाओं या भावनाओं का स्थिरता पूर्वक अभ्यास कर सकता है। (५) ध्यान-कायोत्सर्ग में शुभ-ध्यान का अभ्यास सहज हो जाता कायोत्सर्ग के दोष कायोत्सर्ग से तभी लाभ प्राप्त किया जा सकता है, जब उसकी साधना निर्दोष पद्धति से की जाए। प्रवचनसारोद्धार में उसके १९', योगशास्त्र में २१५ और विजयोदया में १६ दोष बतलाए गए हैं। आम्यन्तर तप के परिणाम भाव-शुद्धि, चंचलता का अभाव, शल्य-मुक्ति, धार्मिक दृढ़ता आदि प्रायश्चित्त के परिणाम हैं। १. उत्तराध्ययन, २६।१२ । २. वही, २६।३८,४१,४६,४६ । ३. आवश्यकनियुक्ति, गाथा १४६२ : देहमइजड्डसुद्धी, सुहदुक्खतितिक्ख य अणुप्पेहा । झायइ य सुहं झाणं, एयग्गो काउसग्गम्मि ॥ ४. प्रवचनसारोद्वार, गाथा २४७-२६२ । ५. योगशास्त्र, ३ । ६. मूलाराधना, २।११६, विजयोदया वृत्ति । ७. तत्त्वार्थ, ६।२२ श्रुतसागरीय वृत्ति । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग २४७ ज्ञान-लाभ, आचार-विशुद्धि, सम्यक् आराधना आदि विनय के परिणाम हैं । " चित्त-समाधि का लाभ, ग्लानि का अभाव, प्रवचन- वात्सल्य आदि वैयावृत्त्य के परिणाम हैं। " प्रज्ञा का अतिशय अध्यवसाय की प्रशस्तता, उत्कृष्ट संवेग का उदय, प्रवचन की अविच्छिन्नता, अतिचार-विशुद्धि, संदेह - नाश, मिथ्यावादियों के भय का अभाव आदि स्वाध्याय के परिणाम हैं ।" कषाय से उत्पन्न ईर्ष्या, विषाद, शोक आदि मानसिक दुःखों से बाधित न होना, सर्दी, गर्मी, भूख प्यास आदि शरीर को प्रभावित करने वाले कष्टों से बाधित न होना ध्यान के परिणाम हैं ।" 2 निर्ममत्व, निर्भयता, जीवन के प्रति अनासक्ति, दोषों का उच्छेद, मोक्ष - मार्ग में तत्परता आदि व्युत्सर्ग के परिणाम हैं ।" १. तत्त्वार्य. ६।२३ श्रुतसागरीय वृत्ति । २. वही, ६।२४ श्रुतसागरीय वृत्ति । ३. वही, ६।२४ श्रुतसागरीय वृत्ति । ४. ध्यानशतक, १०५-१०६ । ५. तत्त्वार्थ, ६।२६ श्रुतसागरीय वृत्ति । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. बाह्य जगत् और हम . प्रवृत्ति के तीन स्रोत हैं-(१) शरीर, (२)वाणी और (३) मन । इन्हीं द्वारा हम बाह्य जगत् के साथ सम्पर्क स्थापित किए हुए हैं। इन्द्रियों के द्वारा भी हम बाह्य जगत से सम्पक्त हैं। बाह्य जगत का वास्तविक अस्तित्व है और हमारा अस्तित्व भी वास्तविक है। साधना की प्रक्रिया में किसी के अस्तित्व को चनौती नहीं दी जाती, किन्तु अपने अस्तित्व के प्रति जागरूकता उत्पन्न की जाती है । उसकी प्रक्रिया को 'गुप्ति' कहा जाता है । उसके द्वारा बाह्य जगत् के साथ हमारा रागात्मक सम्बन्ध विच्छिन्न हो जाता है, ज्ञानात्मक सम्बन्ध विच्छिन्न होता ही नहीं और उसे करने की आवश्यकता भी नहीं है। गुप्तियां तीन हैं—(१) मन-गुप्ति, (२) वचन-गुप्ति और (३) काय-गुप्ति । (१) मन-गुप्ति-राग-द्वेष की निवृत्ति या मन का संवरण। (२) वचन-गुप्ति-असत्य वचन आदि की निवृत्ति या मौन । (३) काय-गुप्ति-हिंसा आदि की निवृत्ति या कायिक-क्रिया का संवरण। गुप्ति के द्वारा बाह्य जगत् के साथ हमारा जो रागात्मक सम्बन्ध है, उसका निवर्तन होता है और बाह्य जगत् के साथ हमारा जो प्रवृत्यात्मक सम्बन्ध है, उसका भी निवर्तन होता है । एक व्यक्ति रागात्मक चितन नहीं करता, यह भी मन-गुप्ति है और शुभ चिन्तन करता है, वहां भी मन-गुप्ति है। व्यक्ति रागात्मक वचन नहीं बोलता, यह भी वचनगुप्ति है और शुभ वचन बोलता है, वहां भी वचन-गुप्ति है। एक व्यक्ति रागात्मक गमनागमन नहीं करता, यह भी काय-गुप्ति है. और शुभ गमनागमन करता है, वहां भी काय-गृप्ति है। आत्मा और बाह्य जगत का सम्बन्ध विजातीय तत्त्व (पौद्गलिक द्रव्य) के माध्यम से बना हुआ है । उसके दो अंग हैं-(१) पुण्य और (२) पाप । इनका सम्बन्ध-निरोध गुप्तियों से होता है। मन-गुप्ति से चित्त की एकाग्रता प्राप्त होती है।' १. मूलाराधना, ११८७,८८, विजयोदया वृत्ति। २. उत्तराध्ययन, २६१५३ । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाह्य जगत् और हम २४६ एकाग्रता से चित्त का निरोध होता है।' वचन-गुप्ति से निर्विचार दशा प्राप्त होती है। वाक दो प्रकार का होता है-(१) अन्तर्जल्पाकार और (२) बहिर्जल्पाकार । मानसिक विचारों की अभिव्यक्ति बहिर्जल्पाकार वाक् से होती है और मानसिक चिन्तन अन्तर्जल्पाकार वाक् के आलम्बन से होता है । अतएव जब तक वचन-गुप्ति नहीं होती अर्थात अन्तर्जल्पाकार वाक का निरोध नहीं होता, तब तक निर्विचार दशा-मानसिक चिन्तन से मुक्त दशा या ध्यान की स्थिति प्राप्त नहीं होती । काय-गुप्ति से संवर या पापाश्रवों का निरोध होता है।' वैदिक और बौद्ध दर्शन में मन को बन्ध और मोक्ष का हेतु माना गया । जैन दर्शन उस सिद्धान्त से सर्वथा असहमति प्रकट नहीं करता तो सर्वथा सहमति भी नहीं देता। मन की चंचलता और स्थिरता का शरीर की प्रवृत्ति और अप्रवृत्ति से निकट का सम्बन्ध है। शरीर को स्थिर किए बिना श्वास को स्थिर नहीं किया जा सकता और श्वास को स्थिर किए बिना मन को स्थिर नहीं किया जा सकता। विजातीय तत्त्व का ग्रहण भी शरीर के ही द्वारा होता है, इसलिए बन्ध और मोक्ष की प्रक्रिया में मन की शरीर की स्थिरता का बहुत महत्त्वपूर्ण योग शब्द पुद्गल द्रव्य का कार्य है। स्पर्श, रस, गंध और रूप पुद्गल द्रव्य के गुण हैं । दृश्य-जगत् समूचा पौदगलिक है। वह मनोज्ञ भी है और अमनोज्ञ भी है। मनोज्ञ के प्रति राग और अमनोज्ञ के प्रति द्वेष उत्पन्न होता है, तब आत्मा पुद्गलाभिमुख बन जाती है और पुद्गलाभिमुख आत्मा ही पुद्गलों से बद्ध होती है। श्रोत्रेन्द्रिय का निग्रह करने से मनोज्ञ शब्दों के प्रति राग-द्वेष उत्पन्न नहीं होता। चक्षु, घ्राण, रसन और स्पर्शन इन्द्रिय का निग्रह करने से मनोज्ञ रूप, गंध, रस और स्पर्श के प्रति राग तथा अमनोज्ञ रूप, गंध, रस और स्पर्श के प्रति द्वेष उत्पन्न नहीं होता। आत्मा पुद्गल-विमुख बन जाती है और पुद्गल-विमुख आत्मा ही पुद्गलों से विमुक्त होती है। बाह्य जगत् से हमारा जो पौद्गलिक सम्बन्ध है, वही हमारा बन्धन है और पौद्गलिक सम्बन्ध का जो विच्छेद है, वही हमारी मुक्ति है।' १. उत्तराध्ययन, २६।२५ । २. वही, २६॥५४॥ ३. वही, २९५५ । ४. वही, २६६२-६६ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. सामाचारी जैन तीर्थङ्कर धर्म को व्यक्तिगत मानते थे, फिर भी उन्होंने उसक आराधना को सामूहिक बनाया। वीतराग हर कोई व्यक्ति हो सकता था जो कषाय-मुक्ति की साधना करता; किन्तु तीर्थङ्कर हर कोई नहीं हं सकता था । वह वही हो सकता, जो तीर्थ की स्थापना करता यानी जनता के लिए साधना का समान धरातल प्रस्तुत करता और साधना के लिए उसे संगठित करता । भगवान् महावीर केवल अर्हत् या वीतराग ही नहीं थे, किन्तु तीर्थंकर भी थे । उनका तीर्थ बहुत शक्तिशाली और सुसंगठित था । वे अनुशासन, व्यवस्था और विनय को बहुत महत्त्व देते थे । उनके तीर्थ में हजारों साधु-साध्वियां थीं। उनकी व्यवस्था के लिए उनका शासन ग्यारह ( या नौ) गणों में विभक्त था । प्रत्येक गण एक गणधर के अधीन होता था । महावीर के ग्यारह गणधर थे । 1 वर्तमान में हमें जो साहित्य, साधनाक्रम और सामाचारी प्राप्त है, उसका अधिकांश भाग पांचवें गणधर सुधर्मा के गण का है । उत्तराध्ययन आदि सूत्रों से जाना जाता है कि महावीर ने गण की व्यवस्था के लिए दस प्रकार की सामाचारी का विधान किया * ( १ ) आवश्यकी - गमन के प्रारम्भ में मुनि को आवश्यकी का उच्चारण करना चाहिए । यह इस बात का सूचक है कि उसका गमनागमन प्रयोजन - शून्य नहीं होना चाहिए । (२ निषेधकी - ठहरने के समय मुनि को निषेधिकी का उच्चारण करना चाहिए । यह इस बात का सूचक है कि प्रयोजन पूरा होने पर मुनि को स्थित हो जाना चाहिए । (३) आप्रच्छना - मुनि अपने लिए कोई प्रवृत्ति करे उससे पूर्व आचार्य की स्वीकृति प्राप्त करनी चाहिए । (४) प्रतिप्रच्छना - मुनि दूसरे मुनियों के लिए कोई प्रवृत्ति करे उससे पूर्वं उसे आचार्य की स्वीकृति प्राप्त करनी चाहिए । एक बार एक प्रवृत्ति के लिए स्वीकृति प्राप्त की, फिर वही काम करना हो तो उसके लिए दुबारा स्वीकृति प्राप्त करनी चाहिए । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाचारी २५१ (५) छन्दना- मुनि को जो भिक्षा प्राप्त हो, उसके लिए उसे दूसरे साधुओं को निमंत्रित करना चाहिए। (६) इच्छाकार-एक मुनि को दूसरे मुनि से कोई काम कराना आवश्यक हो तो उसे इच्छाकार का प्रयोग करना चाहिएकृपया इच्छानुसार मेरा यह कार्य करें-इस प्रकार विनम्र अनुरोध करना चाहिए। सामान्यतः मुनि के लिए आदेश की भाषा विहित नहीं है । पूर्व दीक्षित साधु को बाद में दीक्षित साधु से कोई काम कराना हो तो उसके लिए भी इच्छाकार का प्रयोग आवश्यक (७) मिथ्याकार-किसी प्रकार का प्रमाद हो जाने पर उसकी विशुद्धि के लिए 'मिथ्याकार' का प्रयोग करना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि प्रमाद को ढांकने के लिए मुनि के मन में कोई आग्रह नहीं होना चाहिए, किन्तु सहज-सरल भाव से अपने प्रमाद का प्रायश्चित्त करना चाहिए। (८) तथाकार- आचार्य या कोई गुरुजन जो निर्देश दे, उसे 'तथाकार' का उच्चारण कर स्वीकार करना चाहिए। ऐसा करने वाला अपने गुरुजनों के प्रति सम्मान प्रदर्शित करता (९) अभ्युत्थान-मुनि को आचार्य आदि के आने पर खड़ा होना आदि औपचारिक विनय का पालन करना चाहिए। (१०) उपसंपदा-अपने गण में ज्ञान, दर्शन और चारित्र का विशेष प्रशिक्षण देने वाला कोई न हो, उस स्थिति में अपने आचार्य की अनुमति प्राप्त कर मुनि किसी दूसरे गण के बहश्रत आचार्य की सन्निधि प्राप्त कर सकता है। अकारण ही गण-परिवर्तन नहीं किया जा सकता।' - १. उत्तराध्ययन, १७.१० । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. चर्या चर्या देश-काल के परिवर्तन के साथ परिवर्तित होती रहती है। प्राचीन काल में साधुओं की चर्या के मुख्य अंग आठ थे(१) स्वाध्याय, (५) आहार, (२) ध्यान, (६) उत्सर्ग, (३) प्रतिलेखन, (७) निद्रा और (४) सेवा, (८) विहार । - जैन श्रमण समय की प्रामाणिकता का बहत ध्यान रखते हैं। काले कालं समायरे''...-सब काम ठीक समय पर करो, यह उनका मुख्य सूत्र था। कालक्रम के अनुसार उनकी दिनचर्या की रूपरेखा इस प्रकार थी—दिन के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे प्रहर में ध्यान, तीसरे प्रहर में आहार और चौथे प्रहर में फिर स्वाध्याय । रात के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे प्रहर में ध्यान, तीसरे प्रहर में नींद और चौथे प्रहर में फिर स्वाध्याय।' प्रतिलेखन प्रथम और चतुर्थ प्रहर के प्रारम्भ में किया जाता था। विहार और उत्सर्ग भी सामान्यतः तीसरे प्रहर में किए जाते थे । आवश्यकता के कार्य अन्य समय में भी किए जाते थे। सेवा के लिए कोई निश्चित समय नहीं था। जब आवश्यकता होती, तभी वह की जाती। यह निश्चित है कि सेवा को प्राथमिकता दी जाती थी। शिष्य दिन के प्रारम्भ में ही आचार्य से प्रश्न करता-"भन्ते ! आप मुझे सेवा में नियुक्त करना चाहते हैं या स्वाध्याय में ?" आचार्य के सामने सेवाकार्य की आवश्यकता होती तो वे उसे सेवा में नियुक्त कर देते।" यह आश्चर्य की बात है कि चर्या में धर्मोपदेश का स्पष्ट उल्लेख नहीं है। इसके दो कारण हो सकते हैं-(१) धर्मोपदेश करना हर मुनि का काम नहीं था, इसलिए मुनि की सामान्य चर्या में उसका उल्लेख नहीं १. उत्तराध्ययन, १।३१ । २. वही, २६।१२। ३. वही, २६।१८। ४. वही, २६१५१ । ५. वही, २६।९-१० । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्या २५३ किया गया और (२) धर्मोपदेश स्वाध्याय का ही एक अंग है, इसलिए उसका पृथक् उल्लेख नहीं किया गया। सेवा की अपेक्षा कदाचित् होती है। आहार, नींद और उत्सर्ग-ये शरीर की अपेक्षाएं हैं। विहार भी निरन्तर चर्या नहीं है । ध्यान साधना की दृष्टि से अधिक महत्त्वपूर्ण काम है, अतः उसके लिए दो प्रहर का समय निश्चित किया गया। स्वाध्याय के लिए चार प्रहर का समय निश्चित किया, उसका अर्थ यह नहीं है कि जैन श्रमण ध्यान की अपेक्षा स्वाध्याय को अधिक महत्त्व देते थे, किन्तु उसके पीछे एक विशेष दृष्टि थी। उस समय सारा श्रुत कण्ठस्थ था। लिखने की परम्परा नहीं थी। श्रुत-ज्ञान की परम्परा को अविच्छिन्न रखने के लिए स्वाध्याय में समय लगाना अपेक्षित था। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. आवश्यक कर्म मुनि के लिए प्रतिदिन अवश्य करणीय कर्म हैं-- (१) सामायिक (४) प्रतिक्रमण (२) चतुर्विशस्तव (५) कायोत्सर्ग (३) वंदना (६) प्रत्याख्यान (१) समता का विकास जीवन की पहली आवश्यकता है । आत्मा की परिणति विषम होती है, तब असत् प्रवृत्तियां होती हैं। जब आत्मा की प्रवृत्ति सम होती हैं, प्रवृत्तियां अपने आप निरुद्ध हो जाती हैं। इस सम परिणति का नाम ही सामायिक है। (२) प्रमोद भावना का विकास भी बहुत आवश्यक है। जैन परम्परा में भक्ति का महत्त्व रहा है, किन्तु उसका सम्बन्ध सर्व शक्तिसम्पन्न सत्ता से नहीं है । वह किसी शक्ति को प्रसन्न करने व उससे कुछ पाने के लिए नहीं की जाती, किन्तु उसका प्रयोजन वीतराग के प्रति होता है। कालचक्र के वर्तमान खण्ड में चौबीस तीर्थकर हए हैं। वे सब स्वयं वीतराग और वीतराग-धर्म के प्रवर्तक थे। इसलिए उनकी स्तुति आवश्यक में सम्मिलित की गई । सामायिक होने पर ही भक्ति आदि आवश्यक कर्म सफल होते हैं, इसीलिए इनका सामायिक के बाद महत्त्व दिया गया। (३) उद्धत वृत्ति का निवारण भी आवश्यक कर्म है । वंदना करने से उद्धत-भाव नष्ट होता है और अनुकूलता का भाव विकसित होता (४) व्रतों में छेद हो जाएं, उन्हें भरना आवश्यक कर्म है । मन चंचल है। वह त्यक्त कार्य के प्रति भी आसक्त हो जाता है। उससे व्रत टट जाते हैं और आश्रव का द्वार खुल जाता है। मन को पूनः स्थिर बना व्रतों का सन्धान करने से आश्रव के द्वार बन्द हो जाते हैं। यह प्रतिक्रमण का कार्य है। (५) काया का बार-बार उत्सर्ग करना शारीरिक, मानसिक और १. उत्तराध्ययन, २६८। - - Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ संस्कृति के दो प्रवाह आत्मिक-तीनों दृष्टियों से आवश्यक है। (६) आत्मा अपने आपमें परिपूर्ण है। हेय-हेतुओं का प्रत्याख्यान नहीं होता, तभी वह अपूर्ण होती है। उनका प्रत्याख्यान होते-होते क्रमशः उसकी पूर्णता का उदय हो जाता है। इसलिए प्रत्याख्यान भी आवश्यक कर्म है। उत्तराध्ययन में प्रत्याख्यान के कुछ विशेष उदाहरण भी प्राप्त होते हैं। उनके नाम और परिणाम इस प्रकार हैंनाम परिणाम (१) संभोग प्रत्याख्यान रस विजय (२) उपधि प्रत्याख्यान वस्त्र विजय (३) आहार प्रत्याख्यान क्षुधा विजय (४) कषाय प्रत्याख्यान सुख-दुःख में सम रहने की शक्ति का विकास (५) योग प्रत्याख्यान आत्म-साक्षात्कार (६) शरीर प्रत्याख्यान पूर्णता की उपलब्धि (७) सहाय प्रत्याख्यान स्वतंत्रता का विकास (८) भक्त प्रत्याख्यान संसार का अल्पीकरण (8) सद्भाव प्रत्याख्यान वीतरागता' ये प्रत्याख्यान दैनिक आवश्यक कर्म नहीं हैं, किन्तु विशेष साधना के अंग हैं। - १. उत्तराध्ययन, २९३३-४१ । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रन्थ सूची अथर्ववेद (मोतीलाल बनारसीदास, देहली, Willam Dwight Whitney सन् १९६२) (गायत्री प्रकाशन, गायत्री तपोभूमि, मथुरा, १६६०) सं० श्रीराम शर्मा, आचार्य अथर्ववेद संहिता सं० भट्टाचार्येण श्रीपादशर्मणा (स्वाध्याय-मंडल, भारत मुद्रणालय, पारडी दामोदरभट्टसूनुना सातवलेकर सूरत, सन् १९५७) कुल जैन अथर्ववेदीय व्रात्यकाण्ड (देखें अथर्ववेद) अन्तकृद्दशा (जैन विश्व भारती लाडनूं) अनुत्तरोपपातिकदशा (जैन विश्व भारती लाडनूं) अभिधान चिन्तामणि कोष (जैन प्रकाशन मन्दिर, हेमचन्द्राचार्य, वि० आचार्य अहमदाबाद, सं० २०१३) विजयकस्तूर सूरि अमितगति श्रावकाचार (मुनिश्री अनन्तकीर्ति दिगम्बर आचार्य अमितगति जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, सं० १९७६) अन्ययोगव्यवछेदद्वात्रिंशिका (बम्बई संस्कृत एण्ड प्राकृत . हेमचन्द्राचार्य सिरीज, सन् १९३३) सं० ए० बी० ध्रुव अरिष्टनेमि और वासुदेव कृष्ण श्रीचन्द रामपुरिया (जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कलकत्ता, सं० २०१७) अष्टाङ्ग हृदय (चौखम्बा संस्कृत सिरीज, बनारस) वाग्भट आचाराङ्ग वृत्ति (श्री सिद्धिचक्र साहित्य प्रचारक शीलाङ्काचार्य समिति, बम्बई, सं० १९६१) आचाराङ्ग सूत्र (श्री सिद्धचक्र साहित्य समिति, प्रचारक बम्बई, सं० १९६१) आदि पुराण श्री जिनसेनाचार्य, सं० पन्नालाल जैन, (भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, वि० सं० २०००) आदि तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभदेव आयारो (अंगसुत्ताणि, भाग १) जैन विश्व भारती, लाडनूं आवश्यक नियुक्ति (आगमोदय समिति, बम्बई, सन् १९२८) भद्रबाहु आवश्यक भाष्य Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रंथ-सूची २५७ आवश्यक वत्ति (आगमोदय समिति) वृ० मलयगिरि आवश्यक वृत्ति (आगमोदय समिति) हरिभद्र उत्तरज्झयणाणि (भाग: १ सानुवाद) वाचना प्रमुख आचार्यश्री तुलसी (जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कलकत्ता, सन् १९६७) उत्तरज्झयणाणि (भाग : २ टिप्पण) वाचना प्रमुख आचार्य श्री तुलसी (जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा कलकत्ता, सन् १६६७) उत्तराध्ययन चणि (ऋषभदेव केशरीमल श्री श्वेताम्बर जिनदास महत्तर संस्था, इन्दौर, सं० १९८६) उत्तराध्ययन नियुक्ति (देवचन्द्र लालाभाई जैन भद्रबाहु स्वामी (द्वितीय) पुस्तकोद्धार भांडागार संस्था, सं० १९७२) उत्तराध्ययन बृहद् वृत्ति (देवचन्द्र लालभाई जैन वादीबेताल शान्तिसूरि पुस्तकोद्धार भांडागार संस्था, सं० १६७२) उत्तराध्ययन सूत्र (देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार भांडागार सं० १९७२) उत्तराध्ययन सूत्र (सन् १९२२) सं० डा० सरपेन्टियर उदान टीका धम्मपाले उपदेशमाला (मास्टर उमेदचन्द रामचन्द, अहमदाबाद, धर्मदासगणि सन् १९३३) उपासकदशा (जैन विश्व भारती, लाडन) उपासकाध्ययन (भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, सन् १९६४) सोमदेव सूरि, सं० अनु० कैलाशचन्द्र शास्त्री ऋग्वेद (स्वाध्याय मण्डल, पारडी, सन् १९५७) सं० सातवलेकर ऋग्वेद संहिता (श्री परोपकारिणी सभा, अजमेर, सं० २०१० पञ्चमावृत्ति) ऋषिभासित (इसिभासियाई) अनु० सं० मुनि मनोहर (सुधर्मा ज्ञान मन्दिर, बम्बई, सन् १९५६) ऐतरेय आरण्यक (आनन्दाश्रम, पूना, सन् १९५६) भा० सायण ऐतरेय उपनिषद् (गीता प्रेस, गोरखपुर, सं० २०१३) भा० शङ्कराचार्य ऐतरेय ब्राह्मण (अनन्तशयन सुन्दर विलास मुद्रणालय, सन् १९५२) ओघनियुक्ति (आगमोदय समिति, मेसाणा, सन् १९१९) भद्रबाहु औपपातिक सूत्र (वृत्ति सहित) (पं० भूरालाल कालीदास, सं० १९६४) वृ० अभयदेव सूरि Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ संस्कृति के दो प्रवाह अंगुत्तरनिकाय की अट्ठकथा करकण्डु चरिअ (भारतीय ज्ञानपीठ, काशी) मुनि कनकामर, सं० डा० हीरालाल जैन कल्पसूत्र (जैन पुस्तकोद्धार फण्ड, सूरत, सं० १९६७) कौटिल्य अर्थशास्त्र (बम्बई विश्वविद्यालय, कौटिल्याचार्य बम्बई, सन १६६०) खण्डहरों का वैभव (भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, सन् १६५२) मुनि कान्तिसागर गरुड पुराण (बंगवासी प्रेस) कृष्णद्वैपायन वेदव्यास गीता (गीता प्रेस, गोरखपुर) महर्षि वेदव्यास चारित्रभक्ति पूज्यपाद छान्दोग्य उपनिषद् (गीता प्रेस, गोरखपुर, सं० २०१३) भा० आचार्य शङ्कर जाबालोपनिषद् जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति (देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड, बम्बई, सं० १९७६) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति टीका (देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार वृ० शान्तिचन्द्र फण्ड, बम्बई, सं० १९७६) जेन इतिहास की पूर्व पीठिका और हमारा अभ्युत्थान डा० हीरालाल जैन जैन भारती (जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कलकत्ता) तत्त्वसार देवसेन तत्त्वार्थ भाष्यानुसारी टीका (देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार सिद्धसेन गणी फण्ड, बम्बई, सन् १९२६) तत्त्वार्थ (राजवातिक) (भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, अकलङ्कदेव सं० २०००) तत्त्वार्थ (श्रुतसागरीय वृत्ति), , , श्रुतसागर सूरि सं० २०००) तत्त्वार्थ सूत्र (सभाष्य तत्त्वार्थाधिगम सूत्र) उमास्वाति (सेठ मणीलाल रेवाशंकर जगजीवन जौहरी, बम्बई-२, सं० १९८६) तत्त्वानुशासन (माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति, रामसेन बम्बई, प्रथम सं०) ताण्ड्य महाब्राह्मण तिलोयपण्णत्ती (जैन संरक्षक संघ, शोलापुर, सं० हीरालाल जैन, सन् १६४३, १९५१) ए० एन० उपाध्ये हि० अ० बालचन्द सिद्धान्त शायक Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रंथ-सूची २५६ तिलोय सार (मणिकचन्द दिगम्बर जैन नेमिचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ती ग्रन्थमाला, बम्बई, सन् १९१९) तीर्थंकर महावीर, भाग : १,२ (काशीनाथ सराफ, विजयेन्द्र सूरि बम्बई, सं० २०१७) तैत्तिरीय संहिता (आनन्दाश्रम, पूना) तैत्तिरीयारण्यक (आनन्दाश्रम, पूना, सन् १९२६). भा० सायण थेरगाथा (बम्बई विश्वविद्यालय, बम्बई, सन् १९३६) सं० एन० के० भागवत थेरीगाथा (बम्बई विश्वविद्यालय, बम्बई, सन् १९३७) सं० एन० के० भागवत दर्शनसार (माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति) देवसेन आचार्य दशवकालिक चूलिका (दसवेआलियं) वाचना प्रमुख आचार्य श्री तुलसी (जैन श्वे० तेरापंथी महासभा, कलकत्ता, सन् १६६४) दशवकालिक नियुक्ति (देवचन्द लालभाई जैन नि० भद्रबाहु पुस्तकोद्धार भण्डागार संस्था, बम्बई, सन् १९१८) दशवैकालिक वत्ति (देवचन्द लालचन्द जैन वृ० हरिभद्व पुस्तकोद्धार भण्डागार संस्था, सं० १९७४) दशवकालिक सूत्र (जैन श्वेताम्बर तेरापंथी वाचना प्रमुख आचार्य श्री तुलसी महासभा, कलकत्ता, सन् १९६४) दशाश्रुतस्कन्ध (पन्यास श्री मणिविजयजी गणि ग्रन्थमाला, भावनगर, सं० २०११) दसवेआलियं तह उत्तरज्झयणाणि वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी (जैन श्वेताम्बर तेरापंथ महासभा, कलकत्ता, सं० २०२०) सं० मुनि नथमल दिव्यावदान (मिथिला विद्यापीठ, दरभंगा, सन् १९५६) दीघनिकाय (महाबोधि सभा, सारनाथ, वाराणसी, अनु० राहुल सांकृत्यायन सन् १९३६) देवी भागवत (मनसुखराय मोर, कलकत्ता, सन् १९६०) महर्षि वेदव्यास देशीनाममाला (बम्बई संस्कृत सीरिज, द्वि० सं०, सन् १९३८) आचार्य हेमचन्द्र धम्मपद (कुशीनगर प्रकाशन, देवरिया, सन् १९५४) सं० धर्मानन्द कोसम्बी ध्यानशतक धर्मपरीक्षा (श्री जैन ग्रन्थ प्रकाशक सभा, सं० १९६८) यशोविजयगणि नवचक्रेश्वर तंत्र नाभिनन्दनोद्धार निरयावलिका (श्री जैन धर्म प्रसारक सभा, टी० घासीलालजी महाराज भावनगर, सं० १९६०) Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० संस्कृति के दो प्रवाह निशीथ चूणि, (सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, सन् १९५७) जिनदास महत्तर निशीथ सूत्र, सभाष्य सचूणि सं० उपाध्याय अमर मुनि (सन्मति ज्ञानपीठ आगरा, सन् १९५७) मुनि श्री कन्हैयालाल "कमल" नंदी चूणि (रूपचन्द्र नवलमल पाडी, सिरोही, जिनदास महत्तर सन् १९३१) नंदी वृत्ति (आगमोदय समिति, बम्बई सन् १९८०) वृ० मलयगिरि नंदी सूत्र (सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, सन् १९५८) सं० सुबोध मुनि पट्टावली समुच्चय (चारित्र-स्मारक ग्रन्थमाला, सं० मुनि दर्शनविजय अहमदाबाद) पद्म पुराण (मनसुखराय मोर, ५ क्लाईव रो, कलकत्ता, महर्षि व्यास सन् १६५७) पद्म पुराण (भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, सन् १९५८) रविसेणाचार्य पाटलीपुत्र की कथा पाणिनि व्याकरण (निर्णय सागर प्रेस, बम्बई) पाणिनी पातञ्जल योगदर्शन (गीता प्रेस, गोरखपुर, सं० २०१७) महर्षि पतञ्जलि पातञ्जल योगसूत्र भाष्य विवरण ___ अनु० रामाप्रसाद, एम० ए० (पाणिनि आफिस, भुवनेश्वरी आश्रम, बहादुरगंज, सन् १९१०) पाली साहित्य का इतिहास डॉ० भरतसिंह उपाध्याय पार्श्वनाथ सकलकीर्ति पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म धर्मानन्द कोसाम्बी पासनाहचरिअं पुरातत्त्व (गुजरात पुरातत्त्व मन्दिर, अहमदाबाद, सं रसिकलाल छोटालाल परीख सं० १९८२) पुरुषार्थसिद्ध्युपाय (सेन्ट्रल जैन पब्लिसिंग अमृतचन्द्र सूरि, सं० अजितप्रसाद हाउस, लखनऊ, सन् १९३३) प्रभात पुराण प्रवचनसारोद्धार (देवचन्द लालभाई जैन नेमिचन्द्र सूरि पुस्तकोद्धार संस्था, सं० १६७८) प्रज्ञापना सूत्र (वृत्ति सहित) श्यामाचार्य, ३० मलयगिरि (आगमोदय समिति, मेसाणा, सन् १९१८) प्राचीन भारतवर्ष त्रिभुवनदास लहरचन्द शाह Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ प्रयुक्त ग्रंथ-सूची प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन गौरीशंकर हीराचन्द ओझा प्राचीन भारतीय साहित्य एम० विन्टरनिट्ज, (मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, सन् १९६१) अनु० लाजपतराय बुद्धचर्या (महाबोधि सोसायटी, सारनाथ द्वि० सं०, सन् १९५२) राहुल सांकृत्यायन बुद्ध चरित अश्वघोष बुद्धकालीन भारतीय भूगोल भरतसिंह उपाध्याय (हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, सं० २०१८) बुद्धवचन (महाबोधि सभा, सारनाथ, वाराणसी, च० सं०) अनु० आनंद कौसल्यायन बहत्कल्प भाष्य (जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, भद्रबाहु सन् १९३३-३७) बृहत्कल्प भाष्य वृत्ति (जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, सन् १९३३-३७) बृहत्कल्प सूत्र (जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, सन् १९३३-३७) बृहदारण्यक उपनिषद् (गीता प्रेस, गोरखपुर, सं० २०१४) भा० शंकराचार्य बाम्बे गजेटियर बौधायन धर्म शास्त्र (सूत्र) बौधायन सं० E. Hultzsch, Leipzig, सन् १८८४ Ph. D. बौद्ध धर्म-दर्शन आचार्य नरेन्द्र देव बौद्ध संस्कृति राहुल सांकृत्यायन बंगला भाषार इतिहास ब्रह्म पुराण (मनसुखराय मोर, कलकत्ता, सं० १६५४) महर्षि वेदव्यास ब्रह्माण्ड पुराण (मनसुखराय मोर, ५ क्लाइव रो, महर्षि वेदव्यास कलकत्ता, सन् १६५४) भगवती (अंगसुत्ताणि, भाग २) जैन विश्व भारती, लाडनूं भगवती वृत्ति (आगमोदय समिति) अभयदेव सूरि भद्रबाहु चरित्र भागवत (गीता प्रेस, गोरखपुर, सं० २०१८) महर्षि वेदव्यास भागवत महापुराण ( , ,) भारतवर्ष का इतिहास भगवद्दत्त भारतवर्ष में जातिभेद T• क्षितिमोहन सेन भारतीय इतिहास Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ संस्कृति के दो प्रवाह भारतीय इतिहास की रूपरेखा डॉ० बलराम श्रीवास्तव, (हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, सन् १९४८] रतिभानुसिंह नाहर भारतीय संस्कृति और अहिंसा धर्मानन्द कोसम्बी, अनु० विश्वनाथ दामोदर भिक्षुजसरसायन (तेरापंथ आचार्य चरित्रावली श्रीमज्जयाचार्य ख० १, जैन श्वे० तेरापंथी महासभा, कलकत्ता) मज्झिम निकाय (हिन्दी अनुवाद) राहुल सांकृत्यायन (महाबोधि सभा, सारनाथ, सन् १९३३) मत्स्य पुराण (नन्दलाल मोर, ६ क्लाइव रो, कलकत्ता-१, महर्षि वेदव्यास सन् १९५४) मनुस्मृति (निर्णय सागर प्रेस, बम्बई, सन् १९४६) सं० नारायणराम आचार्य मरणसमाधि प्रकीर्णक (आगमोदय समिति, बम्बई, सं० १९८३) महापुराण (भारतीय ज्ञानपीठ, काशी सन् १९४४) आचार्य जिनसेन अनु० पं० पन्नालाल जैन महाभारत (गीता प्रेस, गोरखपुर, प्र० सं०) महर्षि वेदव्यास महाभारत मीमांसा चिन्तामणि विनायक वैद्य महावग्ग (विहार राजकीय पालि प्रकाशन मण्डल, सं० भिक्खु जगदीश कश्यप सन् १९५६) महावंश (बम्बई विश्वविद्यालय) महावीर जयन्ती स्मारिका (सन् १९६२, १९६३ सं० पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ राजस्थान जैन सभा, जयपुर) मार्कण्डेय पुराण (मनसुखराय मोर, कलकत्ता) महर्षि वेदव्यास मुण्डकोपनिषद् (गीता प्रेस, गोरखपुर, सं० २०१६) भा० शङ्कराचार्य मूलाचार (जैन ग्रन्थमाला समिति, १९७७) बट्टकेर आचार्य मूलाराधना (विजयोदया टीका सहित) शिवार्य, टी० अपराजित सूरि (शोलापुर, सन् १९३५ मूलाराधना वृ० अमितगति मूलाराधना दर्पण (शोलापुर, सन् १९६५) पं० आशाधर मूलाराधना, विजयोदया वृत्ति अपराजित सूरि मोक्खपाहुड कुन्दकुन्दाचार्य मोहनजोदड़ो सर जॉन मार्शल Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्त ग्रंथ-सूची शस्त्तिलक (जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर सन् १९४६) . ___ सं० के० के० हेन्दीक्की पाज्ञवल्क्य स्मृति (निर्णय सागर प्रेस, बम्बई सं० नारायणराम आचार्य पंचम संस्करण, १९४६) योगशास्त्र (जैन धर्म प्रसारक सभा, भावनगर, सन् १९२६) आचार्य हेमचन्द्र योगशास्त्र वृत्ति राजप्रश्नीय सूत्र सं० बेचरदास दोसी रामायण (गीता प्रेस गोरखपुर, सं० २०१७) महर्षि वाल्मीकि वसुनन्दी श्रावकाचार (भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, आचार्य वसुनन्दि सन् १९५२) वायु पुराण (मनसुखराय मोर, कलकत्ता, सन् १९५६) महर्षि वेद व्यास वाशिष्ट धर्मशास्त्र विष्ण पुराण (गीता प्रेस, गोरखपुर, सं० १९६३) अनु० मुनिलाल गुप्त विनय पिटक (महाबोधि सभा, सारनाथ, वाराणसी, अनु० राहुल सांकृत्यायन सन् १९३५) विपाक सूत्र (अंगसुत्ताणि भाग ३, जैन विश्व भारती, लाडनूं)। विशुद्धि मार्ग (महाबोधि सभा, सारनाथ, वाराणसी, अनु० भिक्षु धर्मरक्षित बुद्धघोष, सन् १९५६) विशेषावश्यक भाष्य जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण (दिव्य दर्शन कार्यालय, अहमदाबाद, वी० सं० २४८६) वैदिक कोष वैदिक साहित्य का विकास वैदिक संस्कृति का विकास वैशेषिक दर्शन (पुस्तक भंडार, बरेली, द्वि० १९५४) दर्शनानन्द सरस्वती व्यवहार चूलिका सं० मुनि माणक (वकील केशवलाल प्रेमचन्द, भावनगर सं० १६६४) व्यवहार भाष्य संशोधक मुनि माणक (वकील केशवलाल प्रेमचन्द, भावनगर, सं० १९९४) शतपथ ब्राह्मण (चोखम्बा संस्कृत सीरिज, वाराणसी) __ भा० सायण श्वेताश्वतर उपनिषद् भा० शङ्कराचार्य (गीता प्रेश, गोरखपुर २००६) शान्तसुधारस (आदर्श साहित्य संघ, चूरू, सन् १९८४, विनयविजयजी मुनि राजेन्द्रकुमार) Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ संस्कृति के दो प्रवाह शिवस्वरोदय श्रमण भगवान महावीर कल्याण विजय गणि (क० वि० शास्त्र संग्रह समिति, जालोर, सं० १९६८) षट् खण्डागम (सेठ सितावराय लक्ष्मीचन्द, मेलसर) सप्ततिशतस्थान समवायांग (अंगसुत्ताणि भाग १, जैन विश्व भारती लाडनूं) समवायांग वृत्ति (आगमोदय समिति, मेसाणा, वृ० अभयदेव सूरि सन् १६१८) सागरधर्मामृत (मूलचन्द किसनदास कापड़िया, पं० आशाधर, टी० देवकीनन्दन सूरत, वी० सं० २४६६) सि० शास्त्री पुखबोधा (पुष्पचन्द्र खेमचन्द्र, वलाद, बापा नेमिचन्द्राचार्य अहमदाबाद, वी० सं० २४६६) पुत्तनिपात (महाबोधि सभा, सारनाथ, वाराणसी, भिक्षु धर्म रत्न, एम० ए० सन् १६५७) सुवर्णभूमि में कालकाचार्य सूत्रकृतांग (अंगसुत्ताणि भाग १, जैन विश्व भारती, लाडन्) सत्रकतांग चणि (श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी जिनदास गणि श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, सन् १६४१) । सूत्रकृतांग नियुक्ति (श्री गोडाजी पार्श्वनाथ जैनदेरासर, पेढी, सन् १९५०) सूत्रकृतांग वृत्ति (आगमोदय समिति, जैन देरासर, शीलाङ्काचार्य पेढी, सं० १९७३) संक्षिप्त जैन इतिहास संस्कृति के चार अध्याय (राजपाल एण्ड सन्स, डॉ० रामधारीसिंह दिनकर कश्मीरी गेट दिल्ली, द्वि० सं०) संयुक्तनिकाय (महाबोधि सभा, सारनाथ, अनु० भिक्षु जगदीश काश्यप वाराणसी, सन् १६६४) सांख्य कौमुदी सांख्य दर्शन भारतीय विद्या प्रकाशन, वाराणसी, सं० डॉ० रमाशंकर भट्टाचार्य सं० २०२२, संस्कृत कालेज, कलकत्ता, सं० १९६३) श्री भूपेन्द्रनाथ भट्टाचार्य स्थानांग (अंगसुत्ताणि भाग १) जैन विश्व भारती, लाडनूं स्थानांग वृत्ति (सेठ माणकलाल चुनीलाल, अहमदाबाद, अभयदेव सरि सं० १६६४) भद्रबाहु Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रंथ-सूची २६५ हठयोग प्रदीपिका हरिजन सेवक (३० मई १९४८) नवजीवन ट्रस्ट, अहमदाबाद हरिवंश पुराण (माणिकचन्द दिगम्बर जैन ग्रंथमाला) जिनसेन हिन्दू सभ्यता डॉ० राधाकुमुद मुखर्जी अनु० डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल हिन्दी विश्वकोष सं० नगेन्द्रनाथ बसु हुकुमचन्द अभिनन्दन ग्रन्थ (प्र० अ० भा० दिगम्बर जैन महासभा, नई सड़क दिल्ली, सन् १९५१) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र सं० डॉ० एच० एम० जानसन (ओरिएन्टल इन्स्टीच्यूट, पूना, सन् १९३१) विद्यगोष्ठी ज्ञाताधर्मकथा (अंगसुत्ताणि भाग ३) जैन विश्व भारती लाडनूं ज्ञानसार ज्ञानार्णव (रायचन्द्र-शास्त्रमाला, बम्बई) शुभचन्द्राचार्य Ancient Indian Historical Tradition F. E. Pargiter (Motilal Banarsidas, Delhi, 1962) Ancient India as described in Classical J. W. Mackmidle Literature (Westmaster, 1901) Burmingham, Ancient Geography of India Ed. Surendra (Calcutta 1924) Majumdar, Shastri Annals of the Bhandarkar Oriental Research Institute (Poona) Asiatic Researches Ashoka (Motilal Banarsidas, Delhi Dr. Radha Kumud 3rd, 1962) Mukherjee Bulletin of the Deccan College Research Institute (Poona) Buddist India (Ernest Bern Ltd. 1903) Rhy Davids Buddhist studies Cambridge History of India (Cambridge 1921) E. J. Rapson Dictionary of Pali: Proper Names Dr. G. P. Malal shekhar, (Luzac & Co. Ltd., London, 1937) Early Faith of Ashoka Thomas gion and Ethics Epigraphica Indica Delhi, Calcutta Gautam the Man Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ सस्कृति के दो प्रवाह Geographical and Economic Studies in the Mahabharat Hindu Civilisation Dr. Radha Kumud Mukherjee History of Indian Literature (The University M. Winterpitz of Calcutta, 1933) History of Sanskrit Literature A. A. Macdonell (Motilal Banarsidass) History and Doctrines of the Ājivikas Dr. A. L. Basham (Luzac & Co., Ltd., London, 1951) History of the World Indian Philosophy Dr. S. Radhakrishnan (London, Luzac, 1893) Indian Historical Quarterly (Calcutta) Indische studien Journal of the Bihar & Orissa Research Society Jainism in the History of Indian Literature M. Winternitz (Jain Sahitya Sansodhak Pratishthan, Ahmedabad, 1946) Journol of Royal Asiatic Society (Calcutta) Kshatriya Claus Pali English Dictionary (Pali Text Ed. T. W. Rhys Davids Society, 1959) Political History of Ancient India H. C. Raychaudhuri (2nd ed. Calcutta) Principal Upanishadas Dr. S. Radhakrisbnam Religion and Philosophy of the Vedas A. B. Keith and Upanishadas Religions of India F. Max Muller Sacred Books of the East The Jain Canonical Literature Dr. Bimal Charan Law (Royal Asiatic Society, Bombay, 1949) Studies in Indian Antiquities H¢ Raychaudhari (The University of Calcutta, 1985, 2nd edn.) Uttaradhyayan Sutra (UPPSALA, 1922) jarl Charpentier, Ph. D: Vedas F. Max Muller Vedic Mythology A. A. Macdone Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________