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प्रस्तुति
आज से तीन हजार वर्ष पहले भारतीय संस्कृति और धर्म का क्या स्वरूप था. यह जानना कठिन है। पांच हजार वर्ष पूर्व का इतिहास जानना और अधिक कठिन है । दस हजार वर्ष पूर्व के इतिहास के स्रोत नगण्य हैं । अतीत की यात्रा के लिए जो स्रोत चाहिए वे बहुत कम शेष हैं । कुछ हैं, उनकी व्याख्या करना भी सरल नहीं है । शब्दों के अर्थ बदल गए । उनका मूल अर्थ पकड़ पाना वर्तमान अवधारणा पर निर्भर है । अवशेषों, प्रतीकों और पुरातत्व सामग्री के आधार पर भी शत-प्रतिशत सही निर्णय हो सकता है, यह नहीं कहा जा सकता । अनुमान और कल्पना ने कुछ धागों को जोड़कर इतिहास का वस्त्र बुना है । उसकी प्राणशक्ति पर भरोसा किया भी जा सकता है और नहीं भी किया जा सकता ।
भारत में द्रविड़ और आर्य- इन दो संस्कृतियों का संगम हुआ है । द्रविड़ संस्कृति का उत्तरकालीन स्वरूप है श्रमण संस्कृति और आर्य संस्कृति का उत्तरकालीन स्वरूप है वैदिक संस्कृति । कभी दोनों में संघर्ष रहा । फिर दोनों घुल मिल गईं, विनियम का क्रम शुरु हो गया । अब दोनों के बीच भेदरेखा खींचना सरल नहीं है । चौबीस तीर्थंकरों में ऋषभ पहले तीर्थंकर हैं, जैन धर्म के आदि प्रवर्तक हैं । चौबीस अवतारों में ऋषभ एक अवतार हैं । श्रीमद् भागवत में उनका जीवन-वृत्त विस्तार के साथ उल्लिखित है । आधुनिक विद्वान् ऋषभ और शिव के व्यक्तित्व में एकता स्थापित कर रहे हैं ।
अध्यात्म विद्या सब विद्याओं में श्रेष्ठ है, उपनिषद् और गीता का यह स्वर कैसे मुखर हुआ, और किस प्रकार आत्मविद्या क्षत्रियों से ब्राह्मणों में संक्रात हुई, यह दार्शनिक इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है । इस पहलू पर उपनिषद् सबसे अच्छा प्रकाश डालते हैं । धर्म की व्यापक धारणा के लिए इन सब पहलुओं को जानना अत्यन्त अपेक्षित है । प्रस्तुत पुस्तक में इनकी पल्लवस्पर्शी चर्चा की गई है। जैन योग और धर्म के स्वरूप को समझने का अवसर भी इसके अध्ययन से मिल सकता है । एक संदर्भ में अनेक विषयों को देखने का यह प्रयत्न दृष्टिकोण के विकास में सहायक बन सकेगा ।
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