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________________ धर्म की धारणा के हेतु १०१ व्यक्तिवादी दृष्टिकोण . धर्म की धारणा का चौथा हेतु रहा है-व्यक्तिवादी दृष्टिकोण । प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक जीवन जीता है। फिर भी उसकी आत्मा कभी सामाजिक नहीं बनती। इसी आशय से चित्त ने ब्रह्मदत्त से कहा था ___ 'उसी के कारण तू महान् अनुभाग (अचिन्त्य-शक्ति) सम्पन्न, महान् ऋद्धिमान् और पुण्यफलयुक्त राजा बना है। इसीलिए तू अशाश्वत भागों को छोड़ कर चारित्र की आराधना के लिए अभिनिष्क्रमण कर।' _ 'राजन् ! जो इस अशाश्वत जीवन में प्रचुर शुभ अनुष्ठान नहीं करता, वह मत्यु के मुंह में जाने पर पश्चात्ताप करता है और धर्म की आराधना न होने के कारण परलोक में भी पश्चात्ताप करता है। __जिस प्रकार सिंह हरिण को पकड़ कर ले जाता है, उसी प्रकार अन्तकाल में मृत्यु मनुष्य को ले जाती है। काल आने पर उसके मातापिता या भाई अंशधर नहीं होते-अपने जीवन का भाग देकर बचा नहीं पाते ।' 'जाति, मित्र-वर्ग, पुत्र और बान्धव उसका दुःख नहीं बंटा सकते, वह स्वयं अकेला दुःख का अनुभव करता है। क्योंकि कर्म कर्ता के पीछे चलता है।' 'यह पराधीन आत्मा द्विपद, चतुष्पद, खेत, घर, धन, धान्य, वस्त्र आदि सब कुछ छोड़ कर केवल अपने किए कर्मों को साथ लेकर परभव में जाता है।' 'उस अकेले और असार शरीर को अग्नि से चिता में जला कर स्त्री, पुत्र और ज्ञाति किसी दूसरे दाता (जीविका देने वाले) के पीछे चले जाते कृत-कर्मों का परिणाम भी व्यक्ति अकेला भुगतता है। इसी की पुष्टि में कहा गया ___'संसारी प्राणी अपने बन्ध-जनों के लिए जो साधारण कर्म (इसका फल मुझे भी मिले और उनको भी ऐसा कर्म) करता है, उस कर्म के फल-भोग के समय वे बन्धुजन बन्धुता नहीं दिखाते-उसका भाग नही बंटाते। - जो सत्य की एषणा करता है, उसे यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है - १. उत्तराध्ययन, १३०२०-२५ । २. वही, ४।४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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