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________________ १०० संस्कृति के दो प्रवाह काम की भांति अर्थ भी धर्म से सम्बन्धित नहीं है। भगवान् ने कहा-'धन से कोई व्यक्ति इहलोक या परलोक में त्राण नहीं पा सकता।' भृगु पुरोहित ने अपने पुत्रों से कहा-'जिसके लिए लोग तप किया करते हैं वह सब कुछ–प्रचुर धन, स्त्रियां, स्वजन और इन्द्रियों के विषय-तुम्हें यहीं प्राप्त हैं, फिर किसलिए तुम श्रमण होना चाहते हो?' पुत्र बोले--'पिता! जहां धर्म की धरा को वहन करने का अधिकार है, वहां धन, स्वजन और इन्द्रिय-विषय का क्या प्रयोजन है ? कुछ भी नहीं। हम गुण-समूह सम्पन्न श्रमण होंगे, प्रतिबन्ध-मुक्त होकर गांवों और नगरों में विहार करने वाले और भिक्षा लेकर जीवन चलाने वाले होंगे। _ इस संदर्भ से यह फलित होता है कि अर्थ के लिए धर्म नहीं करना चाहिए। वस्तुतः वह काम और अर्थ की प्राप्ति के लिए नहीं है और उनसे संश्लिष्ट भी नहीं है। जहां काम और अर्थ से धर्म का संश्लेष किया जाता है, वहां वह घातक बन जाता है। अनाथी मुनि ने सम्राट श्रेणिक से यही कहा था-'पिया हुआ काल-कूट विष, अविधि से पकड़ा हुआ शस्त्र और नियंत्रण में नहीं लाया हुआ वेताल जैसे विनाशकारी होता है, वैसे ही यह विषयों से युक्त धर्म भी विनाशकारी होता है।' यदि धर्म (मोक्ष-धर्म) समाज-धारणा के लिए होता तो उसका दृष्टिकोण सामाजिक जीवन के महत्त्वपूर्ण अंग--काम और अर्थ के प्रति इतना विरोधी नहीं होता। और वह है, इससे यह स्वयं प्रमाणित होता है कि मोक्ष-धर्म समाज-धारणा के लिए नहीं है । परिणामवादी दृष्टिकोण धर्म की धारणा का तीसरा हेतु रहा है—परिणामवादी दृष्टिकोण। प्रत्येक प्रवृत्ति का निश्चित परिणाम होता है और प्रत्येक क्रिया की निश्चित प्रतिक्रिया होती है । कृत का परिणाम वर्तमान जीवन में भी भुगतान होता है और अगले जीवन में भी। क्योंकि प्राणी कर्म-सत्य होते हैं—कृत का परिणाम अवश्य भुगतते हैं। उससे बचने का एकमात्र उपाय धर्म है।' १. उत्तराध्ययन, ४।५। २. वही, १४।१६,१७ । ३. वही, २०४४। ४. (क) उत्तराध्ययन, ७।२० : कम्मसच्चा हु पाणिणो । (ख) वही, ४१३, १३।१० । ५. दशवकालिक, चूलिका १, सूत्र १८ : कडाणं कम्माणं.. वेयइत्ता मोक्खो, नति अवेयइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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