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________________ धर्म की धारणा के हेतु बात हो सकती है। एक समाजशास्त्री के लिए मोक्ष की चर्चा प्रासंगिक हो सकती है, अधिकृत नहीं । इसी प्रकार एक मोक्षशास्त्री के लिए सामाजिक तत्त्व-अर्थ और काम की चर्चा प्रासंगिक हो सकती है, अधिकृत नहीं। अर्थ और काम-ये दोनों समाज-धारणा के मूल अंग हैं। अतः उनको आध्यात्मिक शृंखला की कड़ी के रूप में मान्यता नहीं दी गई। वे समाज के लिए उपयोगी नहीं हैं, ऐसा नहीं माना गया। उन्हीं व्यक्तियों ने उन्हें हेय बतलाया, जो अध्यात्म की भूमिका पर आरूढ़ हुए। समग्र उत्तराध्ययन या समग्र अध्यात्म-शास्त्र में काम और अर्थ की भर्त्सना इसी दृष्टि से की गई । भगवान् ने कहा ___'जो काम से निवृत्त नहीं होता, उसका आत्मार्थ नष्ट हो जाता है। जो काम से निवृत्त होता है, उसका आत्मार्थ सध जाता है " 'जैसे किम्पाक फल खाने पर उसका परिणाम सुन्दर नहीं होता, उसी प्रकार मुक्त-भोगों का परिणाम सुन्दर नहीं होता। भृगुपुत्रों ने अपने माता-पिता से कहा-'यह सही है कि काम-भोग क्षणिक और अल्प सुख देते हैं, किन्तु परिणाम काल में वे चिरकाल तक बहुत दुःख देते हैं और संसार-मुक्ति के विरोधी हैं। इसीलिए हम उन्हें अनर्थों की खान मान कर छोड़ रहे हैं।" काम और धर्म का यह विरोध आध्यात्मिक जगत् में ही मान्य हो सकता है। इन्द्र ने नमि राजर्षि से कहा हे पार्थिव ! आश्चर्य है कि तुम इस अभ्युदय-काल में सहज प्राप्त भोगों को त्याग रहे हो और अप्राप्त काम-भोगों की इच्छा कर रहे होइस प्रकार तुम अपने संकल्प से ही प्रताड़ित हो रहे हो।" यह अर्थ सुन कर हेतु और कारण से प्रेरित हुए नमि राजर्षि ने देवेन्द्र से इस प्रकार कहा ___ 'काम-भोग शल्य हैं, विष हैं और आशीविष सर्प के तुल्य हैं। कामभोग की इच्छा करने वाले उनका सेवन न करते हुए भी दुर्गति को प्राप्त होते हैं। इस संवाद से यह स्पष्ट है कि धर्म काम की उपलब्धि के लिए नहीं, किन्तु उसका अर्थ है-काम-वासनाओं का त्याग । १. उत्तराध्ययन, ७।२५,२६ । २. वही, १६।१७। ३. वही, १४।१३। ४. वही, ६५१ । ५. वही, ६।५३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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