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तत्त्वविद्या
स्थलचर सृष्टि की मुख्य जातियां दो हैं--(१) चतुष्पद और (२) परिसर्प ।' चतुष्पद के चार प्रकार हैं(१) एक खुर वाले
अश्व आदि, (२) दो खुर वाले
बैल आदि, (३) गोल पैर वाले
हाथी आदि, (४) नख-सहित पैर वाले --- सिंह आदि । परिसर्प की मुख्य जातियां दो हैं(१) भुजपरिसर्प-भुजाओं के बल रेंगने वाले-गोह आदि । (२) उरःपरिसर्प--छाती के बल रेंगने वाले–सर्प आदि ।' खेचर सृष्टि की मुख्य जातियां चार हैं(१) चर्मपक्षी, (२) रोमपक्षी, (३) समुद्गपक्षी और (४) वितत पक्षी।"
यह जीव-सृष्टि की संक्षिप्त रूपरेखा है । दृश्य जगत् और परिवर्तनशील सृष्टि
जीव दो प्रकार के होते हैं-(१) संसारी और (२) सिद्ध । सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप के द्वारा पौद्गलिक बन्धनों से मुक्त जीव 'सिद्ध' कहलाते हैं । दृश्य जगत और परिवर्तनशील सृष्टि में उनका कोई योगदान नहीं होता। वे केवल आत्मस्थ होते हैं। सृष्टि के विविध रूपों में संसारी जीवों का योगदान होता है । वे शरीरस्थ होते हैं, इसलिए पोद्गलिक संयोग-वियोग में रहते हुए नाना रूप धारण करते हैं। सृष्टि की विविधता उन्हीं रूपों में से निखार पाती है।
यह मिट्टी क्या है ? पृथ्वी के जीवों का शरीर ही तो है। यह जल और क्या है ? अग्नि, वायु, वनस्पति और जंगम-ये सभी शरीर हैं, जीवित या मृत । हमारे सामने ऐसी कोई भी वस्तु दृश्य नहीं है, जो एक दिन किसी जीव का शरीर न रही हो। शरीर और क्या है ? सूक्ष्म को स्थल बनाने और अदृश्य को दृश्य बनाने का एक माध्यम है। शरीर और जीव का संयोग सृष्टि के परिवर्तन और संचलन का मुख्य हेतु है । १. उत्तराध्ययन, ३६।१७६ ।
४. वही, ३६।१८८ । २. वही, ३६।१७६,१८० ।
५. वही, ३६।४८ । ३. वही, ३६।१८१ ।।
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