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संस्कृति के दो प्रवाह ४. संस्थान-विचय-विविध पदार्थों के आकृति-निर्णय में संलग्न
चित्त । धर्मध्यान के चार लक्षण हैं
१. आज्ञा-रुचि-प्रवचन में श्रद्धा होना। २. निसर्ग-रुचि-सहज ही सत्य में श्रद्धा होना। ३. सूत्र-रुचि-सूत्र पढ़ने के द्वारा श्रद्धा उत्पन्न होना।
४. अवगाढ़-रुचि-विस्तार से सत्य की उपलब्धि होना। धर्मध्यान के चार आलम्बन हैं
१. वाचना-पढ़ाना। २. प्रतिप्रच्छना--शंका-निवारण के लिए प्रश्न करना। ३. परिवर्तना-पुनरावर्तन करना।
४. अनुप्रेक्षा--अर्थ का चिंतन करना। धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं हैं
१. एकत्व-अनुप्रेक्षा-अकेलेपन का चिंतन करना। २. अनित्य-अनुप्रेक्षा--पदार्थों की अनित्यता का चिंतन करना ३. अशरण अनुप्रेक्षा-अशरण दशा का चिन्तन करना। ४. संसार-अनुप्रेक्षा-संसार-परिभ्रमण का चिन्तन करना।
(४) शुक्लध्यान-चेतना की सहज (उपाधि रहित) परिणति को 'शुक्लध्यान' कहा जाता है। उसके चार प्रकार हैं
१. पृथक्त्व-वितर्क-सविचारी। २. एकत्व-वितर्क-अविचारी।। ३. सूक्ष्म-क्रिय-अप्रतिपाति । ४. समुच्छिन्न-क्रिय-अनिवृत्ति । ___ ध्यान के विषय द्रव्य और उसके पर्याय हैं । ध्यान दो प्रकार का होता है--सालम्बन और निरालम्बन । ध्यान में सामग्री का परिवर्तन भी होता है और नहीं भी होता। वह दो दृष्टियों से होता है-भेददृष्टि से और अभेददृष्टि से। जब एक द्रव्य के अनेक पर्यायों का अनेक दृष्टियोंनयों से चिन्तन किया जाता है और पर्व-श्रत का आलम्बन लिया जाता है तथा शब्द से अर्थ में और अर्थ से शब्द में एवं मन, वचन और काया में से एक दूसरे में संक्रमण किया जाता है, शुक्लध्यान की इस स्थिति को 'पृथक्त्व-वितर्क-सविचारी' कहा जाता है।
जब एक द्रव्य के किसी एक पर्याय का अभेददृष्टि से चिन्तन किया
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